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Magazine - Year 1989 - Version 2

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Language: HINDI
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व्यक्तित्व विकास हेतु संस्कार आयोजन

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प्रत्यक्ष शिक्षण के दृश्य-प्रयोजनों के अतिरिक्त भारतीय संस्कृति के पुरोधाओं ने ऐसे उपाय भी खोज निकाले थे, जिनके आधार पर अंतराल की गहराई तक प्रवेश करने और कारणशरीर को प्रभावित करके आस्था-क्षेत्र को परिपक्व किया जा सकता था। उस प्रभाव से विचारणा में उत्कृष्टता का आरोपण होता था, तदुपरांत क्रियापद्धति में आदर्शवादिता का प्रवाह चल पड़ता था। यह प्रयास संस्कार नाम से जाने जाते हैं। जीवन में सोलह मोड़ आते हैं। इस दृष्टि से संस्कार आयोजनों की संख्या भी सोलह रखी गई थी। हर मोड़ पर एक संस्कार।

आज की रीति-नीति में न तो उतने मोड़ रहें हैं और न महंगाई, व्यस्तता, अश्रद्धा आदि के कारण सर्वसाधारण की स्थिति ऐसी रह गई है कि उन सबको यथाविधि उत्साहपूर्वक संपन्न कराएँ; इसलिए अब घटा-बढ़ाकर उतने कर लिए गए हैं, जो अधिक महत्त्वपूर्ण और अधिक समीचीन हैं।

व्यक्ति मानवी गरिमा के अनुरूप श्रेष्ठता के साथ जुड़ा रहे, इसी निर्मित संस्कारपरंपरा का प्रचलन था। किसी समय इनकी संख्या सोलह थी, हर किसी को जीवन में सोलह बार इस प्रकार के आयोजना करने पड़ते थे, जिनमें असंबद्ध व्यक्ति को उसके परिजनों, संबंधियों की उपस्थिति में ऐसा बहुत कुछ बताया समझाया जाता था, जो उत्कृष्ट आदर्शवादिता को अपनाए रहने के लिए उल्लास भरी चेतना उभारने के लिए आवश्यक था।

माता के गर्भ में जीव के स्थिर होने पर पुंसवन नामक संस्कार कराया जाता था, जिसका उद्देश्य था— गर्भिणी को उसके शारीरिक-मानसिक दायित्वों को समझाना, उनका पालन करने पर वह अपना स्वास्थ्य और गर्भस्थ शिशु का उज्ज्वल भविष्य बनाने में समुचित भूमिका निभा सकती थी। यह सभी संबंधीजनों की उपस्थिति में होता था, ताकि वे सब भी उस मर्यादा के पालन करने में गर्भिणी को समुचित सहयोग-संरक्षण प्रदान करते रहें।

इसी प्रकार शिशु के अबोध रहने तक कई संस्कार संपन्न हो जाते थे। इनमें से नामकरण, अन्नप्राशन, मुंडन, विद्यारंभ आदि का प्रचलन अभी भी है। अबोध शिशु तो समारोहों के समय उपलब्ध कराए गए मार्गदर्शन को समझ नहीं पाता था, पर परिवार के सभी सदस्य और संबंधीगण उस मार्गदर्शन को भली-भाँति समझ लेते थे और अभिभावक तथा संबंधीजन मिल-जुलकर ऐसी रीति−नीति अपनाते थे, जिससे बालक की समग्र प्रगति में इन सभी का समुचित योगदान जुड़ता रहे।

यज्ञोपवीत के समय तक बालक इतनी समझदारी प्राप्त कर लेता था कि अपने विकास की दिशा-धाराओं के संबंध में कुछ करने की स्थिति में पहुँच सके। उपनयन को दूसरा जन्म भी कहते हैं, द्विजत्व भी। जन्मजात रूप में से सभी अनगढ़ होते हैं। सुसंस्कारिता तो निजी पारिवारिक प्रयत्न से अर्जित करनी पड़ती है। उसमें सामाजिक वातावरण भी सहभागी होता हैं, उपनयन के अवसर पर इसी का ऊहा-पोह होता हैं। शिक्षा का उद्देश्य समझाया जाता है और मानवोचित मर्यादाओं का पालन तथा वर्जनाओं का उल्लंघन न करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध किया जाता है, यही व्रतबंध है। दूसरा जन्म भी।

यह सब सामूहिक रूप से इसलिए किया जाता था कि अन्य लोग भी इसमें सहयोगी बनें और अपने अपने कार्यक्षेत्र में भी इन परंपराओं के निर्वाह में प्रयत्नशील रहें।

इसके उपरान्त विवाह संस्कार आता है। इन दिनों उसे क्रीड़ा, विनोद एवं गृह-व्यवस्था पर आधारित माना जाता है। रूप-लावण्य, दहेज आदि को आधार मानकर जोड़ों का चुनाव होता है। हाथ पीले करने और घर बसाने जैसे क्षुद्र-क्षुद्र प्रयोजनों तक ही उसे मान्यता मिल रही है, पर वास्तविकता इससे कही अधिक आगे है। दो परिवारों का एकजुट होने, दो व्यक्तियों के परस्पर समर्पित होने और मिल-जुलकर ऐसे उद्देश्य पूरे करने की वह विद्या है, जिसका प्रभाव परिणाम दूरवर्त्ती हो। समूचे समाज को उनके संयुक्त प्रयास से अनुकरणीय प्रेरणा मिले। परिवार निर्माण की ऐसी उच्चस्तरीय व्यवस्था बने, जिससे सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खुले। वधू अपनी ससुराल को और वर अपनी ससुराल को अधिक प्रगतिशील बनाने के लिए प्रभावशाली भूमिका संपन्न करे। समय के अनुरूप प्रजनन पर अंकुश लगाने की प्रतिज्ञा भी अब इसी संस्कार में सम्मिलित कर दी गई है। गृहस्थ जीवन से संबंधित अनेक कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों की शिक्षा भी इसी अवसर पर दी जाती है और उनके परिपालन का वातावरण बनाने के लिए अभीष्ट सहयोग देने की उपस्थितजनों से भी प्रतिज्ञा कराई जाती है। इस माध्यम से प्रशिक्षित हुए सभी उपस्थित जन अपने परिकर में भी वैसा ही निर्धारण करने के लिए प्रोत्साहन प्राप्त करते हैं।

वानप्रस्थ भी गृहस्थ प्रवेश की तरह ही महत्त्वपूर्ण आश्रम माना गया है। आधा जीवन निजी विकास और परिवार निर्वाह के लिए लगाया जाए। शेष आधे को लोक निर्माण के लिए उत्सर्ग करने की योजना ध्यान में रहे। यह भारत की देव संस्कृति की अनादि परंपरा है। इसी आधार पर समाज को बड़ी संख्या में सुयोग्य लोकसेवी मिलते थे और उनके निरंतर लगन भरे प्रयत्नों से व्यक्ति की, समाज की सर्वजनीन प्रगति का पथ-प्रशस्त होता था। शासकीय कर्मचारियों के बिन ही अनेकों सृजनात्मक प्रयोजनों पूरे होते रहते थे। उस प्रचलन के बंद हो जाने से समाज को असाधारण क्षति उठानी पड़ रही है। शान्तिकुञ्ज के प्रयत्नों से उस महान परंपरा का अब पुनर्जीवन संभव हुआ है।

इन वानप्रस्थों के लिए वैराग्य लेने या घर छोड़ देने जैसे प्रतिबंध नहीं हैं। परिवार की देखभाल रखने, वही से अपना निर्वाह लेने और आधा समय सामाजिक प्रयोजन के लिए देते रहने से यह परंपरा निभ जाती है। नये बच्चे उत्पन्न न करना ही ब्रह्मचर्य पालन की आधुनिक परंपरा मानी जा सकती है। इस प्रकार वानप्रस्थ व्रतधारी कार्यकर्त्ताओं की एक नई बिरादरी का उदय होने से लोक-हित के नवसृजन के अनेक प्रयोजनों के प्रगतिशील होने की संभावना बन पड़ना सुनिश्चित है।

जन्मदिन और विवाह दिन मनाने के दो वार्षिक संस्कारों को अब संस्कार-प्रयोजनों में नया समावेश किया गया है। जन्मदिन पर मनुष्य जीवन की महत्ता का बोध और उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग का नये सिरे से चिंतन किया जाता है और शेष जीवन को अधिक उत्कृष्ट बनाने के लिए नया संकल्प लिया जाता है। विवाह दिन पर पति-पत्नी दोनों एक प्रकार से विवाह कर्त्तव्यों को पुनः दुहराते हैं और पिछले दिनों यदि कुछ व्यतिरेक होता रहा हो तो उसे आगे न होने देने का प्रायश्चितपूर्वक प्रण करते हैं। इस प्रकार वैवाहिक पारिवारिक जीवन को नए सिरे से प्रगतिशील बनाने का इस संस्कार के माध्यम से नया शुभारंभ होता है।

अंत्येष्टि संस्कार तो सब लोग अपने-अपने ढंग से कर लेते हैं। प्रथा के अनुसार शुद्धि संस्कार भी होते रहते हैं। परिवार वालों का कर्त्तव्य बनता हैं कि पूर्वजों के प्रति, देव मानवों के प्रति वार्षिक श्रद्धांजलि अर्पण करें। कर्मकांड तो तर्पण जैसी सरल प्रक्रिया से पूरा हो जाता है, पर श्राद्ध तब बन पड़ता है, जब उनकी आत्मा को शांति देने के लिए वृक्षारोपण, प्रौढ़शिक्षा, प्रसार जैसे उपयोगी कार्यों को स्मृति के रूप में हर वर्ष किया जाता रहे। यही पूर्वजों का सच्चा श्राद्ध तर्पण हो सकता है

प्राचीनकाल में तीर्थों के दिव्य वातावरण में ऋषिकल्प महाप्राणों के सानिध्य में इन संस्कारों को कराने के लिए लोग जाया करते थे, पर अब वैसी परिस्थितियाँ बहुत ढूँढने पर भी कही नहीं दीख पड़तीं। कहीं भी चिह्नपूजा करने की अपेक्षा यही अच्छा है कि संभ्रांत समुदाय की उपस्थिति में उन संस्कारों को मिल-जुलकर सामूहिक रूप से कर लिया जाए। श्रेष्ठजनों के समुदाय को भी पुरोहित की मान्यता दी जा सकती हैं।

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