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Magazine - Year 1989 - Version 2

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वनौषधियों की सूक्ष्मीकृत उपचार-प्रक्रिया

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यह एक व्यावहारिक तथ्य है कि आयुर्वेद पद्धति में वनौषधियों के पंचांग को कूटकर खाने में, उसे बड़ी मात्रा में निगलना कठिन पड़ता है। यही स्थिति ताजी स्थिति में कल्क बनाकर पीने में उत्पन्न होती है। इससे तो गोली या वटिका बनाकर सेवन करने में मनुष्य को कम कठिनाई अनुभव होती है। सूखी स्थिति से भी क्वाथ, अर्क, आसव, अरिष्ट अधिक सुविधाजनक रहते है और प्रभावी भी होते है। ठोस और द्रव की उपरोक्त दोनों विधाओं से बढ़कर वाष्पीकृत औषधि की प्रभाव क्षमता अधिक व्यापक एवं गहरी होती है। नशा करने वाले मुँह से भी गोली या मादक-द्रव लेते है व अपनी नशों में भी इंजेक्शन लगाते है, पर इससे भी अधिक तीव्र नशा उन्हें नाक से सूँघी हुई औषधि या धूम्रपान द्वारा आता है। यह इसलिए कि वाष्पीभूत मादक-द्रव्य नासिका एवं फेफड़ों के माध्यम से अंदर पहुँचकर प्रभावी हो जाते है। इस प्रकार स्पष्ट है कि ठोस, द्रव और गैस के तीन रूपों में पाया जाने वाला पदार्थ एक के बाद दूसरे, दूसरे की अपेक्षा तीसरे स्तर पर अधिक क्षमतावान होता चला जाता है।

अग्निहोत्र विद्या के साथ भी ऐसे ही अनेक कारण जुड़े हुए है, जिनके कारण उसे प्राचीनकाल में उच्चकोटि की प्रतिष्ठा मिली थी। आज भी उस मान्यता को पुनः प्राण मिलने की स्थिति है। वनौषधियाँ वाष्पीकृत स्थिति में फेफड़ों से होती हुई मस्तिष्क आदि अवयवों में होकर शरीर के जीवकोषों तक पहुँचती व अपनी इस सीधी पहुँच के कारण ही प्रभाव दिखा पाने में सक्षम हो पाती है। ऐसा अनुमान है कि फेफड़ों में विद्यमान वायुकोष्ठकों का औसत क्षेत्रफल लगभग सौ वर्ग मीटर का तथा दस माइक्रो मीटर पतला होता है। एक बार में साधारण श्वास द्वारा वायु का 500 मिली लीटर एवं गहरी श्वास द्वारा 900 से 950 मिली लीटर आयतन अंदर प्रवेशकर इसके बदले में कार्बन डाइ ऑक्साइड को बाहर भेज देता है। ऐसी श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया एक मिनट में 15 से 18 बार होती है। इस प्रकार एक मिनट में, जब तक हृदय लगभग 70 से 80 बार धड़क चुका होता है, श्वास मार्ग द्वारा 7550 मिलीलीटर वायु का एक्सचेंज हो चुका होता है। इन आँँकड़ों से एक अनुमान इस सशक्त माध्यम का लगाया जा सकता है, जिससे वनौषधि यजन-प्रक्रिया द्वारा वाष्पीभूत धूम्र शरीर में प्रविष्ट कराए जाते है। यजन-प्रक्रिया के अनेकानेक आध्यात्मिक लाभों के अतिरिक्त उसका प्रभाव शरीर और मन के सभी महत्त्वपूर्ण अवयवों तक पहुँचाने की मान्यता का वस्तुतः तर्कपूर्ण आधार है।

मस्तिष्कीय उपचार अपने आप में एक ऐसी विधा है, जिसकी आवश्यकता शरीरोपचार से भी अधिक समझी जानी चाहिए। इन दिनों मनोविकारों— मानसिक रोगों की भरमार शारीरिक बीमारियों से कहीं अधिक है, किंतु इसे विडंबना ही कहना चाहिए कि समस्त चिकित्सा-पद्धतियाँ मात्र शारीरिक व्यथाओं के इर्द-गिर्द ही अपने प्रयासों को सीमित रख रही है। संसार में अनेकानेक चिकित्सा-पद्धतियों का प्रचलन है, किंतु उनमें से एक भी ऐसी नहीं है, जो मनोविकारों पर ध्यान देती है और उनके समाधान खोजती हो। गेस्टाल्ट साइकोथेरेपी से लेकर विहेवियोरल साइकोथेरेपी तक अनेकानेक पद्धतियाँ प्रचलन में हैं, पर वे मानस की स्थूल परत तक ही अपनी पैठ बिठा पाती है। भारतीय मनोविज्ञान में जिसे अंतःकरण चतुष्ट्य कहकर संबोधित किया गया है, उसके उपचार का विधान मात्र अग्निहोत्र उपचारपद्धति में देखने को मिलता है। आत्महत्या की प्रवृत्ति से लेकर विभिन्न भ्रांतियों सनक वाले रोगी जेल स्तर पर पागलखानों में कैद कर दिए जाते है, बहुसंख्यकों को बिजली के झटके भी लगा दिए जाते है, किंतु इस उपचार से कितने रोगी अच्छे हो पाते है, यह नहीं कहा जा सकता। शामक एवं मस्तिष्क को संज्ञाशून्य करने वाली औषधियाँ ही प्रचलन में दिखाई पड़ती है। हो सकता है, इससे उन्माद में कुछ घट-बढ़ होती हो, पर जनसमुदाय में से अधिकांश को जिन हलके मनोरोगों का शिकार बनकर रहना पड़ रहा है, उनके निराकरण का कोई विकल्प नजर नहीं आता।

इन दिनों अन्यान्य प्रदूषणों के साथ एक प्रदूषण और आ जुड़ा है—  वह चिंतन का, आस्थाओं का प्रदूषण। आशंका, अविश्वास, अकारण चिंता, भय, उत्तेजना, असंतुलन आदि से कितने ही लोग घिरे देखे जाते है। सोचने की सही पद्धति हाथ न लगने के कारण कितने ही लोग बौखलाए फिरते रहते हैं। कईयों को निराशा, उदासी घेरे रहती है। मनोबल, संकल्पशक्ति का नितांत अभाव दिखाई पड़ता है, कई कल्पनाएँ गढ़ते और उनमें उलझकर इस प्रकार रहते हैं मानों उन पर कोई विपत्ति का पहाड़ टूटने वाला हो। कुकल्पनाएँ चित्र-विचित्र मोड़ लेकर बहकाती रहती है। इन विकारों से व्यक्तित्व टूट जाते है। कईयों के परस्पर विरोधी कई व्यक्तित्व उभर आते है। सोचते कुछ, कहते कुछ और करते कुछ है। अवास्तविक को वास्तविक मानते है। इनकी विक्षिप्तता स्वयं अपने को बेतुके असमंजसों में डाले और हैरानियों में उलझाए रहती है। ऐसी सनक न्यूनाधिक मात्रा में असंख्यों पर छाई रहती है; प्रत्यक्षतः दिखाई भले न पड़ती हो, पर थोड़े से संपर्क से ही उभरकर सामने आ जाती है। जिन्हें विवेकशील और संतुलित व्यक्तित्व वाला कहा जा सके, ऐसे कोई बिरले ही व्यक्तित्व दिखाई देते है।

ब्रह्मवर्चस् के वैज्ञानिक गहन मनोवैज्ञानिक जाँच-पड़ताल के बाद व्यक्तित्व संबंधी इन विकृतियों का निदान करते हैं। आत्मप्रत्यय, व्यक्तित्व विश्लेषण एवं विभिन्न मनो-आध्यात्मिक प्रश्नावलियों के माध्यम से उन प्रसुप्त मनोविकारों की जाँच-पड़ताल की जाती है, जो बहिरंग में नजर आ रहे लक्षणों-शारीरिक रोगों के मूल में निहित होते है। प्रायश्चित्त परंपरा के माध्यम से साधकों, परीक्षार्थियों से उनके विगत के चिंतन क्रियाकलाप वर्त्तमान मनःस्थिति तथा भविष्य के प्रति दृष्टिकोण को जानने का प्रयास किया जाता है। चिकित्सा तंत्र के प्रति आस्था एवं वातावरण में विद्यमान विशिष्टता उनकी गहरी-से-गहरी ग्रंथि खोलने में सहायक होती है। पाॅलिग्राफ, लाई डिटेक्टर नामक यंत्र इस प्रक्रिया में सहायता करता है। इसमें त्वचा का विद्युतीय प्रतिरोध, माँसपेशियों की विद्युत तथा मस्तिष्क की अल्फा वेव्स को भी मापे जाने एवं 'बायो फीडबैक' यंत्र द्वारा परीक्षार्थियों को क्रमशः ग्रंथिमुक्त होने का शिक्षण दिए जाने की भी व्यवस्था है। साधारण स्थिति में यही उपकरण व्यक्ति की ध्यान-एकाग्रता में वृद्धि तथा मनःशक्ति संवर्द्धन द्वारा विद्युतीय त्वचा-प्रतिरोध में अंतर के रूप में परीक्षण के काम आते है।

इन दिनों उद्धत स्वभाव की तरह अपराधी कृत्यों की, आत्महत्याओं, बलात्कारों की बाढ़ आ रही है। अभक्ष्य भक्षण, नशेबाजी का दौर बेहिसाब चल रहा है। इन सबका भी जनमानस पर कम कुप्रभाव नहीं पड़ रहा है। चिंतन और चरित्र की गिरावट का भी मनोविकारों की अभिवृद्धि में योग होना ही चाहिए। यही कारण है कि शारीरिक और मानसिक रोगों की व्यापकता और गहराई दोनों बढ़ती जा रहीं है। रोगों में रक्तचाप वृद्धि, पाचनतंत्र की विकृतियाँ, रक्तविकार, दमा, जननेंद्रियों की बीमारियाँ तथा मानसिक तनाव आदि का बाहुल्य है। नई दवाएँ नित्य निकलती हैं, किंतु कुछ ही दिनों में गुणहीन होने लगती है।

ऐसी दशा में वनौषधियों की सूक्ष्मशक्ति का उपयोग आवश्यक हो गया है। वे वायुभूत बना लेने पर साँस के द्वारा मस्तिष्क के अनेक क्षमता क्षेत्रों और शरीर के अंतरंग अवयवों तक आसानी से पहुँचाई जा सकती है। उनकी प्रभाव क्षमता अधिक एवं स्थाई है। इन औषधियों के कार्यकारी घटकों, अंतरंग इसका परीक्षण— अवयवों तक तुरंत पहुँच जाने की सामर्थ्य एवं प्रभाव के रूप में किया जा सकता है। 'रेडियो इम्यूनो एसे' तथा 'स्पेक्ट्रो फोटोमेट्री' द्वारा यह देखा जा सकता है कि किस शीघ्रता से विभिन्न औषधि संघटक जीवकोषों तक पहुँचते व अंतःस्रावों को सक्रिय करते हैं। यह प्रक्रिया ठोस— चूर्णरूप एवं क्वाथ— द्रवरूप में प्रयोग किए जाने की अपेक्षा अधिक लाभदायक सिद्ध होती है।

जिस अवयव में जिन रसायनों की, जिन ऊर्जातत्त्वों की कमी पड़ती है, वह उपयुक्त सामग्री सामने प्रस्तुत होने पर अग्निहोत्र वाष्प में से खींच ली जाती है और आवश्यकता पूर्ति हो जाती है। जो कुछ भी कमी रहती है, वह यज्ञावशिष्ट भस्म एवं चरुसेवन के माध्यम से पूरी हो जाती है। यही अग्निहोत्र-प्रक्रिया अपनी उष्मा से वायुभूत तैलीय औषधि-तत्त्वों का फेफड़ों से अवशोषण बढ़ा देती है। साथ-साथ अल्पमात्रा में त्वचा से होने वाली श्वसन-प्रक्रिया की गति बढ़ा देती है। इसे वायटेलोग्राफ (स्पायरोमेट्री) द्वारा लंगफंक्शन्स तथा 'प्लेथिज्मोग्राफी' द्वारा हृदयंदर एवं रक्त का आयतन ज्ञातकर मापा जाता है। यह कार्य ब्रह्मवर्चस् की प्रयोगशाला में चल रहा है। अग्निहोत्र उपचार की यही विशेषता है कि शारीरिक एवं मानसिक रोगों में जिन तत्त्वों की कमी पड़ जाती है, उन्हें धूम्र में से आसानी से खींच लिया जाता है। साथ ही प्रश्वास द्वारा भीतर घुसी अवांछनीयता को बाहर धकेलकर सफाई का आवश्यक प्रयोजन पूरा कर लिया जाता है। बहुमुखी संतुलन बिठाने का माध्यम हर प्रकार की विकृतियों का निराकरण करने में असंदिग्ध रूप से सफल होता है।

अग्निहोत्र उपचार एक प्रकार की समूह चिकित्सा है, जिससे एक ही प्रकृति की विकृति वाले विभिन्न रोगी लाभान्वित हो सकते है। यह सुनिश्चित रूप से त्वरित लाभ पहुँचाने वाली, सबसे सुगम एवं सस्ती उपचार-पद्धति है। जब वाष्पीभूत होने वाले औषधि तत्त्वों को साँस के साथ घोल दिया जाता है, तो रक्तवाही संस्थान के रास्ते ही नहीं, कण-कण तक पहुँचाने वाले वायु-संचार के रूप में भी वहाँ जा सकता है, जहाँ उसकी आवश्यकता है।

यह बहुविदित तथ्य है कि उसकी हाइपॉक्सिया (कोमा) के रोगी की अथवा वेंटीलेशन में व्यतिक्रम आने पर, साँस लेने में कठिनाई उत्पन्न होने पर नलिका द्वारा नाक से ऑक्सीजन पहुँचाई जाती है, किंतु इस ऑक्सीजन को शुद्ध रूप में नहीं दिया जाता, इसमें कार्बन डाइ ऑक्साइड की लगभग पाँच प्रतिशत मात्रा का भी एक संतुलित अंश होता है, ताकि मस्तिष्क के केंद्रों को उत्तेजितकर श्वसन-प्रक्रिया नियमित बनाई जा सके। अग्निहोत्र में उत्पन्न वायु-ऊर्जा में भी यही अनुपात गैसों के सम्मिश्रण का रहता है। विशिष्ट समिधाओं के प्रयुक्त होने से उत्पन्न ऊर्जा इस सम्मिश्रण को उपयुक्त स्तर का बना देती है। किन समिधाओं व किन वनौषधियों की कितनी मात्रा ऊर्जा उत्पन्न करने हेतु प्रयुक्त की जाए, यह इस विद्या के विशेषज्ञ जानते हैं एवं तदनुसार परिवर्तन करते रहते है।

शारीरिक रोगों एवं मनोविकारों से उत्पन्न विपन्नता से छुटकारा पाने के लिए अग्निहोत्र चिकित्सा एक श्रेष्ठ एवं सांस्कृतिक आधारों पर टिकी उपचार-पद्धति है, पूर्णतः विज्ञानसम्मत है, यह सब सुनिश्चित होता जा रहा है। अन्य शोध कार्यों से समन्वितकर इसे लोकप्रिय बनाया जा सके तो यह युग की सबसे बड़ी सेवा होगी।

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