• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • विषय सूची
    • नियंता का दिव्य उपहार— आत्मविश्वास
    • सफलताएँ टिकी हैं प्रचंड मनोबल पर
    • सद्वाक्य
    • हृदयगुहा में होते हैं— परमात्मा के दर्शन
    • जवाब तलब न करना पड़े (कहानी)
    • आभामंडल की प्रभाव-क्षमता अब संदेह से परे!
    • क्या ईश्वरीय सत्ता सर्वव्यापी नहीं है?
    • यह जीवन प्रभुमय बन जाए!
    • संकल्पशक्ति कुंजी है— प्रगति-पुरुषार्थ की
    • कैसे आएगा सतयुग?
    • वेदों से आख्यायिका
    • विचित्र— विलक्षण यह सृष्टि
    • सदुक्ति
    • जिन खोजा तिन पाइयाँ
    • इच्छाशक्ति के सुनियोजन से असंभव भी संभव
    • परस्पर जुड़े हुए हैं अंतःकरण एवं पर्यावरण
    • कौन है इस अनुशासित सृष्टि का नियंता?
    • प्रकृति नारायण जैसी (कहानी)
    • जीवन-साधना के कुछ निश्चित सूत्र
    • सद्वाक्य
    • सहयोग-सहकार पर निर्भर जीवन-व्यापार
    • वनौषधियों की सूक्ष्मीकृत उपचार-प्रक्रिया
    • हैसियत का अधिकतम अंशदान है— महायज्ञ (कहानी)
    • विभूति का दुरुपयोग न हो
    • प्रतिभा का निखार— व्यवस्था-बुद्धि का विकास
    • गीता का दिव्य संदेश
    • सद्वाक्य
    • सूक्ष्मजगत— प्रकृति और पुरुष के रूप में
    • इक्कीसवीं सदी की समझदारी को चुनौती
    • रंगों में छिपे हैं बड़े-बड़े गुण
    • सरल आसनों द्वारा अंगों को सक्रिय कैसे बनाएँ?
    • भिखारी का दृष्टिकोण बदला (कहानी)
    • प्राणशक्ति के संवर्द्धन हेतु प्रयोग-उपचार!
    • ध्यान-साधना का वैज्ञानिक आधार
    • अभक्ष्य भोजन के दुष्परिणाम
    • सद्वाक्य
    • जड़ें गहरी और मजबूत हों
    • एक ही सत्य एक ही लक्ष्य!
    • व्यक्तित्व विकास हेतु संस्कार आयोजन
    • बदलेगा निश्चित समाज— यह संकल्प पुनः दुहराते हैं
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • विषय सूची
    • नियंता का दिव्य उपहार— आत्मविश्वास
    • सफलताएँ टिकी हैं प्रचंड मनोबल पर
    • सद्वाक्य
    • हृदयगुहा में होते हैं— परमात्मा के दर्शन
    • जवाब तलब न करना पड़े (कहानी)
    • आभामंडल की प्रभाव-क्षमता अब संदेह से परे!
    • क्या ईश्वरीय सत्ता सर्वव्यापी नहीं है?
    • यह जीवन प्रभुमय बन जाए!
    • संकल्पशक्ति कुंजी है— प्रगति-पुरुषार्थ की
    • कैसे आएगा सतयुग?
    • वेदों से आख्यायिका
    • विचित्र— विलक्षण यह सृष्टि
    • सदुक्ति
    • जिन खोजा तिन पाइयाँ
    • इच्छाशक्ति के सुनियोजन से असंभव भी संभव
    • परस्पर जुड़े हुए हैं अंतःकरण एवं पर्यावरण
    • कौन है इस अनुशासित सृष्टि का नियंता?
    • प्रकृति नारायण जैसी (कहानी)
    • जीवन-साधना के कुछ निश्चित सूत्र
    • सद्वाक्य
    • सहयोग-सहकार पर निर्भर जीवन-व्यापार
    • वनौषधियों की सूक्ष्मीकृत उपचार-प्रक्रिया
    • हैसियत का अधिकतम अंशदान है— महायज्ञ (कहानी)
    • विभूति का दुरुपयोग न हो
    • प्रतिभा का निखार— व्यवस्था-बुद्धि का विकास
    • गीता का दिव्य संदेश
    • सद्वाक्य
    • सूक्ष्मजगत— प्रकृति और पुरुष के रूप में
    • इक्कीसवीं सदी की समझदारी को चुनौती
    • रंगों में छिपे हैं बड़े-बड़े गुण
    • सरल आसनों द्वारा अंगों को सक्रिय कैसे बनाएँ?
    • भिखारी का दृष्टिकोण बदला (कहानी)
    • प्राणशक्ति के संवर्द्धन हेतु प्रयोग-उपचार!
    • ध्यान-साधना का वैज्ञानिक आधार
    • अभक्ष्य भोजन के दुष्परिणाम
    • सद्वाक्य
    • जड़ें गहरी और मजबूत हों
    • एक ही सत्य एक ही लक्ष्य!
    • व्यक्तित्व विकास हेतु संस्कार आयोजन
    • बदलेगा निश्चित समाज— यह संकल्प पुनः दुहराते हैं
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1989 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


क्या ईश्वरीय सत्ता सर्वव्यापी नहीं है?

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 7 9 Last
ईश्वर सर्वव्यापी है— कई लोग ऐसा नहीं मानते और आक्षेप लगाते हैं कि उसकी व्यापकता की मान्यता मानी ही नहीं जा सकती। इन सब में जान स्टुअर्ट मिल अग्रणी हैं। उनका तर्क है कि मानवीकृत वस्तुओं में उन्हें बनाने वाला व्यक्ति व्यापक कहाँ होता है? इतने पर भी क्या वह वस्तु काम करना बंद कर देती है अथवा अस्तित्व में ही नहीं रह पाती? महल बनाने वाले इंजीनियर प्रायः निर्माण के बाद फिर कहीं अन्यत्र इमारत बनाने के लिए चले जाते हैं, तो क्या वह मकान उनके जाते ही ढह जाता है? इंजन अपने निर्माण के बाद भी अपना अस्तित्व बनाए रखता है; जबकि वह निर्माता से कोसों दूर रहता है। पुस्तक अपने सृजेता से पृथक रहकर भी क्या अपने प्रयोजन पूरे करती नहीं रहती है? उनका कहना है कि जब मानवनिर्मित यंत्र-उपकरण निर्माण के उपरांत कर्त्ता के बिना भी अपने उद्देश्य पूरे करते रह सकते हैं, तो यह सर्वव्यापकता संबंधी नियम ईश्वर पर ही क्यों थोपा जाए, जबकि उसे मनुष्य से असंख्य गुना ज्ञानवान— बलवान बताया जाता है। उनका मत है कि यदि ईश्वर है, तो उसे सर्वव्यापी होने की आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार के अभिमत अन्य मतावलंबियों के हैं। कुछ ईश्वर को ऊपर कहीं आसमान में बताते हैं, तो कुछ इसकी तुलना सूर्य से करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार सूर्य एक स्थान पर रहते हुए भी समस्त संसार को प्रकाशित कर रहा है, उसी प्रकार यह ईश्वर है। वह एक स्थान पर रहकर पूरी सृष्टि का संचालन करता है।

स्थूलदृष्टि से देखा जाए तो मिल और अन्यों के कथन सत्य जान पड़ते हैं कि संसार में मनुष्य द्वारा रचित सारी वस्तुएँ जब उसकी व्यापकता के बिना ही क्रिया करती रहती हैं, तो परम सत्ता की व्यापकता सृष्टि के कण-कण में क्यों आवश्यक है? ऐसा विचार करते समय हम तथ्य की गहराई में नहीं उतरते, अन्यथा इसका उत्तर स्वतः मिल जाता कि क्रिया में परमेश्वर की उपस्थिति के बिना कोई कार्य संभव ही नहीं हो सकता। जब हम किसी मानवी क्रिया का उद्धरण प्रस्तुत करते हैं तो शायद यह भूल जाते हैं कि हमने क्रिया के सिर्फ एक अंश पर विचार किया है और दूसरे की उपेक्षा कर दी अथवा हमारी बुद्धि की पहुँच उस गहराई तक हुई ही नहीं।

वस्तुतः ऐसी क्रिया में मनुष्य और ईश्वर दोनों की व्यापकता होती है। यदि कोई यंत्र का निर्माण किसी व्यक्ति के जिम्मे है और वह उसके निर्माण में जुटे ही नहीं, तो वह अस्तित्व में ही कैसे आ पाएगा? उसका अस्तित्व में आना ही यह सिद्ध करता है कि उस दौरान कोई मानवी सत्ता निश्चय ही उसमें व्यापक रही होगी। बाद का कार्य चूँकि उसके वश का नहीं होता, अतः उसका संचालन ईश्वरीय सत्ता करती है।

इसे भली-भाँति समझने के लिए हमें सर्वप्रथम कार्य-कारण सिद्धांत समझना होगा। सर्वविदित है कि किसी भी क्रिया का संपादन निमित्त कारण की उपस्थिति में ही संभव हो पाता है। हलवाई की दुकान में बेसन, चीनी, मैदा, घी सब वस्तुएँ अलग-अलग रखी रहती हैं, पर हलवाई की इच्छा व क्रिया के बिना मिठाइयाँ नहीं बन पातीं। इसके लिए हलवाई को प्रयासपूर्वक उन्हें आपस में मिलाना पड़ता है, तब कहीं जाकर वे बन पाती हैं। यहाँ तक कि क्रिया हलवाई की थी और इस क्रिया का निमित्त कारण वह स्वयं था। इसमें बनाने वाले ने मिठाई को जो आकार दिया, उसके परमाणु उस आकार में चिपके क्यों रह गए? किस शक्ति ने उन्हें परस्पर बाँधे रखकर वह आकार बनाए रखने में सहयोग किया अथवा कोई मिठाई जल्दी एवं कोई विलंब से क्यों खराब हुई? इसका उत्तर हलवाई नहीं दे सकेगा, क्योंकि यह क्रियाएँ उसके अधीन नहीं होतीं। ये अभौतिक क्रियाएँ हैं और किसी भौतिक शक्ति के नियंत्रण में नहीं रहतीं। इसका नियंता कोई अदृश्य व्यापक सत्ता ही हो सकती है, जो हर वक्त, हर जगह व्याप्य में व्याप्त होती है और समय, परिस्थिति व आवश्यकता के अनुरूप कार्य करती है।

इसी प्रकार मूर्तिकार यदि मूर्ति बनाता है तो यह उस पर निर्भर करता है कि वह उसे पत्थर की बनाए या मिट्टी, संगमरमर की, पर प्रश्न यह है कि मिट्टी के परमाणु पत्थर एवं संगमरमर की तुलना में जल्दी टूटकर बिखर क्यों जाते हैं? मूर्तिकार इसे भली प्रकार जानता है, अस्तु वह पत्थर अथवा संगमरमर की ही मूर्ति बनाना पसंद करता है, क्योंकि वह टिकाऊ होती है। यह मजबूती या कमजोरी विग्रह को संगतरास द्वारा नहीं मिलती। वह तो मात्र वस्तु को एक आकार प्रदान करता है। परमाणुओं के कमजोर अथवा मजबूत बंधन के लिए वह कदापि जिम्मेदार नहीं है, कारण कि न तो वह परमाणुओं को मिलाता है, न उनके संयोग को स्थिर रखता है। मात्र वह उस स्थिति का लाभ उठता है। अतः यह कहना कि व्याप्य में अगोचर व्यापक सत्ता का सर्वथा अभाव है, उचित न होगा।

इसी प्रकार घड़ीसाज विभिन्न पुरजों को इकट्ठा करके घड़ी बना देता है, पर उनका चलना उसकी मरजी पर निर्भर नहीं करता। घड़ी के रूप में उनके चलने के लिए घड़ीसाज उत्तरदायी नहीं है, न इसमें जो नियम काम करता है, उसे ही उसने बनाया है। वह नियम पहले से ही विद्यमान था और उसका संचालन भी एक अदृश्य शक्ति के अधीन था। यहाँ भी घड़ीसाज की व्यापकता कार्य में बनी रहती है। हाँ! इतना अवश्य है कि उसकी यह व्यापकता पुरजों के अस्तित्वकाल तक न रहकर सिर्फ निर्माणकाल तक रहती है, पर रहती अवश्य है।

यदि सचमुच ही ईश्वर सर्वत्र व्यापक नहीं है, तो यह सृष्टि हमें इस रूप में नहीं दिखाई पड़ती। फिर उसे इसके संचालन के लिए राजा की भाँति अनेकानेक मातहत सत्ताओं, सामंतों का आश्रय लेना पड़ता और इसके अलग-अलग विभाग पृथक-पृथक सत्ताओं की देख-रेख में चलते। चूँकि राजा का अपनी प्रजा और नौकरों के मस्तिष्क पर नियंत्रण नहीं होता है, फलतः यदा-कदा वे स्वेच्छाचार बरतते और मनमानी करते भी देखे जाते हैं, जिसका समय-समय पर उन्हें उचित दंड मिलता है। चूँकि राजा अपने राज्य में सर्वत्र व्यापक नहीं होता, ऐसी अगणित बातें हो सकती हैं, जो राज्य-प्रशासन के विरुद्ध हों और राजा की नियमावली का उल्लंघन करती हों। यदि ईश्वरीय सत्ता भी चलाती तो निश्चय ही ऐसी अव्यवस्था एवं अराजकता कभी-कभी उत्पन्न हो जाती, पर विश्व-ब्रह्मांड की घटनाओं को देखने से उसमें किसी भी प्रकार की नियमविरुद्धता, असंबद्धता अथवा अव्यवस्था कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती।

ईश्वर की निराकार सत्ता भी उसकी सर्वव्यापकता को सिद्ध करती है। ईश्वर को किसी ने देखा नहीं। जो निराकार है, वही सर्वव्यापी हो सकता है। हवा हमें दिखाई नहीं पड़ती, उसका अनुभव कर सकते हैं। इतने पर भी यह कहना कि कमरे के भीतर हमें वायु की अनुभूति नहीं हो रही है, अतः कमरे में हवा नहीं है और बाहर पेड़-पौधे हिलते-दीख रहे हैं, अतः यहीं केवल उसकी मौजूदगी है, किसी भी प्रकार सही न होगा। हमारा जीवित बना रहना, समस्त शारीरिक क्रियाओं का यथावत् चलते रहना ही उसके अस्तित्व प्रमाण के लिए काफी होगा।

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवद्सत्ता सर्वव्यापी है, जिसे मनुष्य यह कहकर गर्व करता है कि यह मेरी रचना है, प्रकारांतर से उसमें भी उसकी उपस्थिति होती है। सच पूछा जाए तो उसकी विद्यमानता के बिना कोई कार्य संपादित हो ही नहीं सकता। जो मानवी कार्यों के साथ ईश्वर की तुलनाकर उसका वास एक स्थान पर बताते हैं, वे व्यापकता संबंधी नियम पर विचार करने में भूल करते हैं। इसी कारण यह भ्रम पैदा हो जाता है। वस्तुतः मनुष्य भी अपने कार्य की पूर्ति हेतु कुछ समय के लिए अस्तित्व में आता है और शेष कार्य ईश्वर अपनी सर्वव्यापकता द्वारा सिद्ध करता है। ऋषियों ने भी इसी का समर्थन करते हुए 'ईशावास्यमिदं सर्वं' का उद्घोष किया है।

First 7 9 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • विषय सूची
  • नियंता का दिव्य उपहार— आत्मविश्वास
  • सफलताएँ टिकी हैं प्रचंड मनोबल पर
  • सद्वाक्य
  • हृदयगुहा में होते हैं— परमात्मा के दर्शन
  • जवाब तलब न करना पड़े (कहानी)
  • आभामंडल की प्रभाव-क्षमता अब संदेह से परे!
  • क्या ईश्वरीय सत्ता सर्वव्यापी नहीं है?
  • यह जीवन प्रभुमय बन जाए!
  • संकल्पशक्ति कुंजी है— प्रगति-पुरुषार्थ की
  • कैसे आएगा सतयुग?
  • वेदों से आख्यायिका
  • विचित्र— विलक्षण यह सृष्टि
  • सदुक्ति
  • जिन खोजा तिन पाइयाँ
  • इच्छाशक्ति के सुनियोजन से असंभव भी संभव
  • परस्पर जुड़े हुए हैं अंतःकरण एवं पर्यावरण
  • कौन है इस अनुशासित सृष्टि का नियंता?
  • प्रकृति नारायण जैसी (कहानी)
  • जीवन-साधना के कुछ निश्चित सूत्र
  • सद्वाक्य
  • सहयोग-सहकार पर निर्भर जीवन-व्यापार
  • वनौषधियों की सूक्ष्मीकृत उपचार-प्रक्रिया
  • हैसियत का अधिकतम अंशदान है— महायज्ञ (कहानी)
  • विभूति का दुरुपयोग न हो
  • प्रतिभा का निखार— व्यवस्था-बुद्धि का विकास
  • गीता का दिव्य संदेश
  • सद्वाक्य
  • सूक्ष्मजगत— प्रकृति और पुरुष के रूप में
  • इक्कीसवीं सदी की समझदारी को चुनौती
  • रंगों में छिपे हैं बड़े-बड़े गुण
  • सरल आसनों द्वारा अंगों को सक्रिय कैसे बनाएँ?
  • भिखारी का दृष्टिकोण बदला (कहानी)
  • प्राणशक्ति के संवर्द्धन हेतु प्रयोग-उपचार!
  • ध्यान-साधना का वैज्ञानिक आधार
  • अभक्ष्य भोजन के दुष्परिणाम
  • सद्वाक्य
  • जड़ें गहरी और मजबूत हों
  • एक ही सत्य एक ही लक्ष्य!
  • व्यक्तित्व विकास हेतु संस्कार आयोजन
  • बदलेगा निश्चित समाज— यह संकल्प पुनः दुहराते हैं
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj