
त्रिविध आधारों को अपनायें, प्रतिभाशाली बनें!
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अँग्रेजी के विख्यात लेखक अलेक्जेन्डर हैमिल्टन छोटी आयु में ही लेख कहानियाँ और कविताएँ लिखने लगे थे। उनके सम्बन्ध में यह माना जाता था कि ईश्वर की उन पर विशेष कृपा है। इसीलिए तो वह बचपन से ही मेधावी और अद्वितीय प्रतिभाशाली है। परन्तु अलेक्जेन्डर हैमिल्टन की स्वयं अपने बारे में धारणा लोगों की धारणा से भिन्न थी। उनका विश्वास था कि उनकी प्रतिभा के विकसित होने का कारण उनके द्वारा किया गया श्रम है। अपने प्रतिभाशाली होने का राज बताते हुए हैमिल्टन अपने शिष्यों से कहा करते थे “लोग समझते है कि मेरी सफलता का रहस्य कोई अनूठा चमत्कार है। पर मैं जानता हूँ कि यह सब मेरी श्रमशीलता और मनोयोग का परिणाम है।”
लेखन हो या कोई क्षेत्र प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए अभ्यास और अभ्यास की निरन्तर आवश्यकता है। अन्तःशक्तियाँ तो प्रत्येक के अन्तराल में छुपी है। बीज बोने, अंकुरित होने और फसल बोने की प्रतीक्षा न की जाय न ही इसके लिए कोई परिश्रम किया जाय तो बीज यों ही सड़ गल जाएगा। उसी प्रकार अन्तर्निहित प्रतिभा को पहचानते हुए उसे अंकुरित करने के लिए प्रयास न किए जायँ और पल्लवित पुष्पित होने तक धैर्य न रखा जाय तो सड़ने गलने वाले बीज की तरह प्रतिभा भी सड़ गल जाती है।
संसार में जितने भी महान विचारक और सफल व्यक्ति हुए है। उनकी सफलता का रहस्य उनके अध्यवसाय में ही निहित रहा है। जिन लेखकों विचारकों की रचनाओं को सर आँखों पर लिया जाता है और समझा जाता है कि मानवता उनसे उपकृत हुई है, उन्होंने अपनी रचनाओं को निखारने के लिए बार-बार अभ्यास किया है। बार-बार लिखा, बार-बार काटा और फिर लिखा। प्लेटों ने अपनी ख्याति प्राप्त पुस्तक “रिपब्लिक” के पहले वाक्य को नौ तरीके से लिखा था तब कहीं जाकर वे उस वाक्य को अन्तिम रूप दे सके। अँग्रेजी कवि पोप एक छंद को पूरा करने के लिए उसे कई बार लिखते थे। चाकलोट ब्रोटे कई बार एक वाक्य को अलग-अलग ढंग से लिखते थे और तब उसे अंतिम रूप देते थे “डिक्लाइन एण्ड फाल” नामक पुस्तक के प्रसिद्ध लेखक और विचारक गिवन ने इस पुस्तक का पहला अभ्यास तीन बार लिख था और पूरी पुस्तक 25 वर्ष तक मेहनत करने के बाद पूरी कर सके थे। कार्लमार्क्स ने अपना सारा जीवन लगा कर “दास कैपिटल” पुस्तक लिखी जिसमें प्रतिपादित समाज व्यवस्था को संसार के 14 बड़े राष्ट्रों ने अपना रखा था।
इन सब व्यक्तियों के कार्यों की गरिमा सिर्फ इसी कारण सिद्ध नहीं हुई कि वे श्रमशील थे। श्रम-शीलता तथ्य एक महान पहलू है। इसके अन्य पहलू भी हैं-धैर्य एवं मनोयोग। इन तीनों को मिश्रित किए बगैर सफलता महानता का होना क्षमतावान् बनना असंभवप्राय है। यों श्रम तो अनेकों लोग करते हैं। इसमें किसान मजदूर सभी शामिल हैं। परन्तु सभी श्रमशील होते हुए प्रतिभावान क्यों नहीं हो जाते? इसका एक ही कारण है कि उनके श्रम के साथ धैर्य व मनोयोग नहीं जुड़ा है। श्री रामकृष्ण इस संदर्भ में अपने गाँव के किसान की कहानी सुनाया करते थे। उस किसान ने कुआँ खोदने का प्रयास किया। 7-8 फीट खोदता और पानी न मिलने पर जगह बदल देता। इस तरह उसने लगभग 10 जगह प्रयास किया, कुल मिलाकर 70-80 फीट गहरा खोद डाला। पर धैर्य और मनोयोग के अभाव में श्रम निष्फल ही हुआ। श्रमशीलता की परिणति हताशा में हुई।
इस तरह अनेकों हताशा संसार में मिल जायेंगे। तो श्रम तो करते हैं, पर धैर्य मनोयोग से रिश्ता नहीं रखते। सही कहा जाय तो ऐसे लोगों में श्रम के प्रति निष्ठा नहीं है। मनोयोग के अभाव में कार्य को भारभूत समझते हैं। मन में हमेशा यही भाव रहता है कब इससे छुट्टी मिले। कार्य को जब इन लादे गए भार की तरह उतार फेंकना चाहते हैं। यही कारण है कि एक बार भी असफल होने पर उनका मनोबल लड़खड़ा जाता है।
इस तरह की मनोवृत्ति आज-कल के छात्रों में खूब घर कर रही है। पढ़ाई का सीधा सम्बन्ध नौकरी से मान लिए जाने के कारण मन का अधिकाँश भाग उसी में लगा रहता है। तरह तरह की कल्पनाएँ गढ़ा करता है। इस मनोवृत्ति को पहचानने के कारण रस्किन ने एक नया शब्द गढ़ा है “समग्र श्रम”। उसके अनुसार इस तरह के श्रम में धैर्य और मनोयोग भी शामिल है। इसी से जीवन निखरता है। प्रसिद्ध विचारक स्माइल्स ने लिखा है-”मनुष्य ने जो भी कुछ विशेष उपलब्धियाँ अर्जित की हैं उसका मूल आधार यही है। मनुष्य में जो कुछ भी महान है-इसी का परिणाम है। मनुष्य की सभ्यता इसी की देन है।”
रस्किन ने श्रम की समग्रता को जो सिद्धाँत दिया, उसमें चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करने की क्षमता है। कोई भी व्यक्ति किसी भी स्थिति में क्यों ने काम कर रहा हो, वह किसान हो या कारीगर अथवा मजदूर, विद्यार्थी, व्यापारी, कोई भी क्यों नप हो, जैसे ही श्रम ‘धैर्य’ मनोयोग के मिश्रित स्वरूप को अपनाता है। उसमें कार्य के प्रति एक नया उत्साह जागता है। अन्दर से कर्त्तव्य के प्रति समर्पण की भावना जागती है। फिर पहले की बेचैनी भाग जाती है। क्योंकि इसका कारण ही मनोयोग का अभाव था। इतना ही नहीं कार्य की बारीकियाँ समझ में आने लगती है। गुत्थियाँ सुलझने लगती है। मौलिक सूझ बूझ जाग जाती है।
इसी के सहारे मजदूर कारीगर बनते देखे जाते है और कारीगर विशेषज्ञ। माइकेल फैराडे प्रसिद्ध वैज्ञानिक हैम्फ्री डेवी के यहाँ मजदूर के रूप में भर्ती हुआ था। उसका काम था प्रयोगशाला की सफाई करना। सफाई तो दूसरे भी करते थे पर उनका श्रम रोजी रोटी का साधना भर था। उनका मन इसे भारभूत समझता। जैसे ही छुट्टी मिलती गदगद हो जाते। किंतु माइकेल तो काम के समय में भी प्रसन्न रहता। उत्साह के साथ सूझ बूझ जगी। श्रम की समग्रता के बल पर मजदूर माइकेल डायनुमों और इलेक्ट्रोलिसिस के सिद्धांत के आविष्कर्ता मूर्धन्य वैज्ञानिक माइकेल फैराडे बन गया। यही बात मत्स्य नारमन ने उसे अपनी प्रयोगशाला में स्पेसीमेन की बोतलों की सफाई के लिए खड़ा रखा था। सफाई तो करता साथ जन्तुओं की रचना व क्रिया की बारीकियों को देखता। एक दिन उसने अपनी इस रुचि से नारमन साहब को चकित कर दिया। समग्र श्रम का चमत्कारी परिणाम मजदूर गुन्थर को एक ख्याति लब्ध मत्स्य विज्ञानी बनाने वाला हुआ।
समग्रता के अभाव में श्रम के अन्याय पक्ष भी अधूरे रह जाते है। धैर्य तो आलसियों के भी होता है। अपनी दीर्घ सूत्रता को वे धैर्य के विकास होने से रहा, उलटे जड़ता ही आती है।
किसी भी तरक का एकाँगी क्रम जीवन की क्षमताओं को भली प्रकार नहीं उभार पाता आधा अधूरा पन बना रहता है। यह अधकचरी और भौंड़ी स्थिति न रहे, इसके लिए शारीरिक श्रम मानसिक एकाग्रता और इन दोनों की अंतःक्रिया के परिणाम धैर्य बना रहे। इन तीन का सम्मिश्रण आयुर्वेदिक औषधि त्रिफला की तरह बल्कि उससे भी कहीं बढ़कर है।
इसे अनपायें और स्वीकारें। इसके परिणाम स्वरूप जीवन एक नए रूप में ढलेगा। इस कायाकल्प की प्रक्रिया से पुराने मल, विक्षेप आवरण आलस्य, प्रमाद जड़ता सबसे उसी तरह विमुक्त होते बन सकेगा जैसे कि सांप अपनी केंचुली छोड़ देते है। निखरी हुई प्रतिभा अपनूतन सौंदर्य को पा सकेगी। स्वयं भी कृतकृत्य होंगे, औरों को प्रोत्साहन मिलेगा।