Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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उच्चस्तरीय रहस्यमय प्राणतत्व
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प्राणवायु और प्राणतत्व का अन्तर हमें भली-भाँति समझ लेना चाहिए। प्राणवायु हवा में मिली हुई आक्सीजन गैस कहलाती है। यह ज्वलनशील है। शरीर का तापमान इसी के आधार पर स्थिर रहता है। हर मशीन को चलाने के लिए ऊर्जा ही काम देती हे। यह मुँह और नाक के माध्यम से छोड़ी या ग्रहण की जा सकती है।
प्राणतत्व सूक्ष्म चेतना है। उसमें क्रिया, व्यवस्था, विचारणा एवं भावना का समावेश हैं .... इसी के रहने से जीवित रहते है। प्राण निकल जाएँ तो मृत्यु निश्चित है, फिर आक्सीजन ....श्रित वायु फेफड़ों में पम्प की जाती रहे तो भी .... लौटना संभव नहीं। आक्सीजन पदार्थ जबकि प्राण पदार्थ के साथ जुड़ी हुई ....
सर्वविदित है कि चुम्बकत्व अदृश्य क्षेत्र में हित होने वाली क्षमता है जो सजातीय तत्वों अपनी ओर खींचती है। शरीरगत शक्ति चुम्बकत्व के रूप में दूसरे शरीरधारियों आकर्षित करती है। नर, नारी के बीच ऐसा आकर्षण है। सौंदर्य में भी इसी विशेषता बढ़ी-चढ़ी मात्रा होती हे। सत्संग और कुसंग ....ही प्रतिभा दूसरों का अपनी ओर आकर्षित .... है प्रभावित और अनुकरण के लिए बाधित ....।
कई चिकित्सक प्राणबल से आधि-व्याधियों का ++++ कर सकते हे। मैस्मोरिजम, हिप्नोटिज्म उपचारों में इसी का प्रभाव काम करता है। आकर्षण एक दूसरे के बीच घनिष्टता एवं करता है। तेजोवलय के रूप में इसे देखा और शरीरगत विद्युतशक्ति मापक यंत्रों से इसकी क्षमता को तौला भी जा सकता है। इसका प्रयोग शारीरिक बलिष्ठता, सुन्दरता, निरोगता एवं दीर्घजीवन के रूप में किया जाता है।
प्राणः की दूसरी परत वह है जिससे सूक्ष्म शरीर प्रभावित होता है। सूक्ष्म शरीर अर्थात् चिन्तन, विवेचन एवं सूझ-बूझ का संस्थान। इस क्षेत्र में प्राण प्रक्रिया की विशिष्टता में मनुष्य बुद्धिमान, विवेकशील एवं सूझ-बूझ, प्रभाव-प्रतिभा का धनी बनता है। मनीषियों की गणना ऐसे ही प्रावधानों में की जाती है। वे विचारणा का वातावरण बनाते एवं सुधारते है। अनन्त आकाश में फैली हुई ज्ञान सम्पदा को इच्छानुसार बटोर बुलाते है।
प्राणी की तीसरी परत भावना स्तर की है। इसे कारण शरीर में सन्निहित कहते है। इसका केन्द्र हृदय से कुछ हट कर है। इसी का हृदय गुफा कहते हे। जिसमें परब्रह्म का दर्शन दिव्य ज्योति के रूप में होता है।
इस निखिल अन्तरिक्ष में ग्रह, नक्षत्रों की तरह दिवंगत आत्माएँ भी सूक्ष्म शरीर से प्रेत-पितर के रूप में भ्रमण करतीं तथा समाधि स्थिति में सोई रहती है। समुद्र में उठने वाली लहरों की तरह इसी में देवदानव भी रहते हैं। ज्वार अर्थात् देव और भाटा अर्थात्-दैत्य। यह मनुष्यों की ओर संबंध साधने के लिए आकर्षित होते हैं और इन्हें हृदयगत प्राणचेतना के चुम्बकत्व से खींच कर बुलाया जा सकता है। इसी तृतीय शरीर अन्तराल का चुम्बकत्व तप, योग की साधना द्वारा अधिक शक्ति सम्पन्न किया जाता है।
कारण शरीर भावनाओं का केन्द्र है। वासना, तृष्णा और अहंता का खेल तो शरीर और मन ही मिलजुल कर खेलते रहते है। पर दिव्य भावना, जिन्हें श्रद्धा, निष्ठा, प्रज्ञा, दया, करुणा, उदारता, आत्मीयता, आस्था आदि के रूप में जाना जाता है, हृदय क्षेत्र की, कारण शरीर की देने है। इनका गंगावतरण उच्च लोक के दिव्य अन्तःकरण में होता है। संत, सुधारक, शहीद, लोकसेवी, पुण्यात्मा, परमार्थी इसी क्षेत्र में दिव्य सम्पदाएँ भर जाने पर कोई भी बन सकता है अन्यथा व्यवसायिक बुद्धि तो सदा संकीर्ण और स्वार्थपरता से ही प्रभावित होती है और लोभ, मोह और दर्प की अधिकाधिक उपलब्धि के प्रयासों में लगी रहती है।
स्थूल शरीर का काया को प्रभावित करने वाला और सूक्ष्म शरीर का मन को प्रभावित करने वाला प्राण दिनचर्या में अभ्यास का उपयोग करने से करतलगत होता जाता हे। इसके लिए प्राणाकर्षण जैसी सामान्य ध्यान-धारणाएँ काम दे जाती है और व्यक्ति आधि-व्याधि से छुटकारा पाने जैसा लाभ उठा सकता है। प्राणायाम की मोटी परिधि यही है। गहरी साँस लेने के साथ संकल्प शक्ति का चुम्बकत्व काम दे जाता है।
किन्तु उच्चस्तरीय स्वःलोक की विभूतियों को आकर्षित करने के लिए कुछ बड़े पराक्रम करने पड़ते है क्योंकि उसकी उपलब्धियाँ भी मूल्यवान हैं। उत्कृष्ट, आदर्शवादी त्याग-बलिदान, परोपकार सेवा साधना की भावनाएँ जगाने के लिए दिव्य लोक से खींच बुलाने के लिए शारीरिक और मानसिक संयम साधने पड़ते हे। संयमों को ही तप-तितिक्षा कहते है। ऊपर गिरते झरने की धार जहाँ गिरती है वहाँ गड्ढा बन जाता है। बिजली उत्पादन क्षेत्र जैसे संयत्र भी उसी वेग के साथ जुड़ते है। संयमी जिन्हें तपस्वी भी कहते है अपनी संकल्प शक्ति इतनी प्रचण्ड बना सकते है कि देवताओं की सम्पत्ति दिव्य श्रद्धा को हस्तगत करके वे महामानव, ऋषि, देवात्मा एवं अवतार बन सकें।
इसी क्षेत्र में निवास करने वाली दैत्यसत्ता भी पराक्रमी असुर प्राप्त कर लेते है। रावण, कुम्भकरण, हिरण्यकश्यप, वृत्रासुर, महिषासुर, भस्मासुर आदि ने प्रचण्ड भौतिक पराक्रम इसी क्षेत्र की दैत्यधारा से जुड़कर कमाया था।
मनुष्य के काय कलेवर में जो क्षमताएँ होती है वह सर्वविदित है। बलिष्ठ, बुद्धिमान, प्रतिभावान, समृद्धिवान, यशस्वी इन्हीं शक्तियों के आधार पर बना जाता है जो शरीर और मन में रहती है। उन्हें हस्तगत करने के लिए संकल्पशक्ति से काम चल जाता है। उसे प्राणायाम की साधारण या मध्यवर्ती आकर्षणशक्ति के सहारे उपलब्ध कर सकने भर से बात बन जाती है। मनस्वी अपने बल-बूते साँसारिक समृद्धियाँ एवं सफलताएँ प्राप्त कर सकते हैं। संकल्पवान मनस्वी बनने के लिए व्यवहार कौशल के अतिरिक्त प्राणायाम स्तर की विशिष्ट साधनाओं के सहारे भी प्रयास करना पड़ता है।
अतीन्द्रिय क्षमताओं का बोध तो आज्ञाचक्र भ्रूमध्य भाग में होता है पर इसकी जड़ कारण शरीर की हृदय गुफा में रहती है। इसके लिए प्राणायाम भी उच्चस्तरीय करने पड़ते है। इसमें सर्वसुलभ सोहम् साधना है। उससे आत्मिक स्तर की विशिष्टताएं उत्पन्नं होती हैं। व्यक्ति भावनाशील एवं उदात्त बनता है।
यदि अतीन्द्रिय स्तर की प्रचण्ड क्षमताएँ चाहिए तो मूलाधार अवस्थित कुण्डलिनी प्राणाग्नि को प्रज्ज्वलित करना होता है और उसकी ज्वाला-माल मेरुदण्ड से सुषुम्ना मार्ग में मस्तिष्क के मध्यवर्ती ब्रह्मरंध्र तक पहुँचाना होता हे। अतीन्द्रिय क्षमताओं में दूरदर्शन, दूरश्रवण, विचार-संचालन, प्राण-प्रहार, परकाया प्रवेश जैसी सिद्धियों की गणना होती है। इन बड़े कार्यों के लिए डाइनामाइट स्तर की प्रचण्ड ऊर्जा चाहिए।
उसे कुण्डलिनी जागरण पंचकोश अनावरण- षट्चक्र वेधन स्तर की साधनाओं द्वारा करना होता है। किन्तु इस सभी साधनों के लिए मूलभूत उपकरण की आवश्यकता होती है वह प्राणशक्ति की प्रचण्डता ही है। कठोर चट्टानें काटने के लिए हीरे की आरी अथवा वर्मा चाहिए। यह कार्य प्राणशक्ति की विशिष्ट क्षमता द्वारा ही सम्पन्न किये जा सकते हैं। ऐसे प्राणायामों को गुप्त रखा जाने वाले सुपात्र को बताये जाने की ही परम्परा है। इसी स्तर के लोग ही उन अभ्यासों में सफल भी हो सकते है।