
जब जाग उठी अंतः की संवेदना
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सड़क पर एक अन्धा बड़े कारुणिक स्वर गीत गा रहा था। बीच-बीच में “अन्धे को रोटी दे” की टेर भी लगा देता। मधुर कण्ठ से निकली आवाज लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लेती पर अधिकाँश लोग उपेक्षाभाव से इन पंक्तियों को अनसुनी करते चले जाते।
जिस स्थान पर वह अंधा भिखारी बैठा भीख माँग रहा था, उसी स्थान पर एक कार आकर रुकी। कार में बैठे थे विश्व प्रसिद्ध संगीतकार ‘सिग्रफिड जोनसन’ जो स्वयं भी अंधे थे। जब ड्राइवर जब कुछ देर में लौटकर आया तो जोनसन ने पूछा-”क्या इस देश में सभी अन्धे व्यक्ति भीख माँग कर आजीविका चलाते हैं?”
“जी हाँ, लगभग ऐसा ही है”-ड्राइवर का संक्षिप्त सा उत्तर था और उसने गाड़ी स्टार्ट कर दी। परन्तु इस संक्षिप्त से उत्तर ने उनकी विचार श्रृंखला को गाड़ी से भी तेज गति दी। वे सोचने लगे-”क्या यह मानवता की गरिमा के अनुरूप है कि कोई अपंग या नेत्रहीन आदमी और उसके लिए भी अपने माननीय गौरव की हत्या करनी पड़े। अर्हित है वह समाज जो अपने अपंग असमर्थ सदस्यों के लिए कोई सम्मानित जीविका की व्यवस्था न कर सके।”
समाज में अंधे अपंगों के प्रति दया नहीं, सहानुभूति के भाव जगें और उन लोगों में आत्मविश्वास पैदा हो। इसके लिए सिग्रफिड जोनसन ने कुछ करने का निश्चय किया। वे स्वयं भी जन्म से अन्धे थे, पर जिस परिवेश में रहकर उनका आत्मदीप पूर्ण तेज से प्रज्वलित ही रहा।
हर व्यक्ति में हर तरह की क्षमताएँ नहीं होती। किन्तु प्रत्येक में अपनी ऐसी कुछ मौलिक विशेषताएँ होती हैं कि यदि उसे उभार जा सके, जगाया जा सके, तो विशिष्टता का सम्पादन सहज हो जाता है। जोनसन की विशेषता थी सुरीला कण्ठ। किसी ने उन्हें संगीत साधना की प्रेरणा दी। साधना ने उनके कण्ठ का सुरीलापन और भी निखारा। उन्होंने वाद्ययन्त्र बजाने से लेकर संगीत के उतार चढ़ाव सीखने के लिए दिन राज परिश्रम किया। परिश्रम से प्रतिभा परिष्कृत हुई और परिष्कृति ने उन्हें सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ाई। सिग्रफिड की गणना अमेरिका के चोटी के संगीतकारों में होने लगी। उनकी ख्याति देश-काल की सीमाओं को लाँघकर फैल गई। देश-विदेश में उन्हें कार्यक्रम मिलने लगे और वह अपना कला का प्रदर्शन करने के लिए विभिन्न देशों की यात्राएँ सम्पन्न करने लगे।
इन्हीं यात्राओं के अंतर्गत वे एक बार भारत आए। यहाँ पर जब उन्होंने देखा कि यहाँ अन्धों को तथा दूसरे अपंगों को बुरी स्थिति में रहना पड़ता है, तो उनकी करुणा उमड़ पड़ी। उन्होंने निश्चय किया कि वे भारत में एक ऐसा आश्रम स्थापित करेंगे कि अन्धे व्यक्ति उसमें रहकर सम्मानपूर्वक आजीविका कमा सके।
इसके लिए उन्होंने देश व्यापी संगीत कार्यक्रमों की एक श्रृंखला बनाई और भारत के कौने-कौने में जाकर अपनी स्वर माधुरी से जनमत को विभोर किया। इन कार्यक्रमों में श्रोता टूट पड़ते। कार्यक्रम सुनने के लिए जो टिकट बेचे जाते, उससे होने वाली आय को विशुद्ध रूप से उन्होंने अंधाश्रमों की व्यवस्था के लिए सुरक्षित रखा। इस प्रकार छः वर्ष तक जगह-जगह कार्यक्रम दिए और इसी बीच दक्षिण भारत के ऐलम जिले के तिरुपट्टर गाँव में एक विशाल आश्रम की योजना को मूर्तरूप देने की कोशिश करते रहे। जिस समय अपने देश रवाना हुए तब उन्होंने लगभग दो लाख रुपया आश्रम को और दिया। उनका यह प्रयास आज भी सैकड़ों अंधों के ससम्मानित जीविका उपार्जन के रूप में देखा जा सकता है।