
क्या है आपकी उम्र?
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जन्मतिथि को आधार मानकर व्यक्ति की शारीरिक आयु की गणना की जा सकती है। लेकिन मनुष्य की मानसिक आयु क्या है इस संबंध में इन गणितीय मापदण्डों को नहीं अपनाया जा सकता है। वृद्ध होने का अनुमान भी इसी आधार पर लगाया जाता है जब कि मन में निराशा निष्क्रियता और बूढ़ा होने की मान्यता घर करने लगे तो समय से पूर्व ही बुढ़ापा आ धमक सकता है। आशा उत्साह के साथ जीवन बिताने और स्वउपार्जित ऊर्जा को लोकोपयोगी बनाने वाले व्यक्ति भले ही शारीरिक उम्र से छोटे पड़ते हों पर अपनी मानसिक आयु को अधिक बढ़ा चढ़ा कर सिद्ध कर दिखाते हैं।
प्रायः देखा गया है कि मनुष्य अपनी आयु के संबंध में सदैव अनभिज्ञ और उद्विग्न सा ही बन रहता है। बचपन में युवावस्था का स्वप्न देखता है तो वृद्धावस्था आने पर अपने युवाकाल की कल्पनाओं में ही खोया रहता है। कहने का तात्पर्य व्यक्ति को अपनी सही-सार्थक आयु का भाव तक नहीं होता। दिसम्बर 1984 की स्पूतनिक पत्रिका में मनोविज्ञानी अलेक्जेन्डर क्रोनिक का एक निबंध “हाऊ ओल्ड आर यू” नाम से प्रकाशित हुआ है। इस लेख में उनका मत है कि मानसिक शक्तियों के बलबूते कितनी उपलब्धियाँ हस्तगत की जा चुकी हैं और आगे भी कितनी करने की संभावना है, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए ही आयु का सही समुचित मूल्याँकन संभव है। निकट भविष्य में भी यही रीति-नीति कार्यान्वित करनी पड़ती है। इस अवस्था में मनुष्य की शारीरिक आयु भले ही कम क्यों ने दिखती रहे, पर उसकी मानसिक आयु अधिक बढ़ी चढ़ी मानी जायेगी। क्रोनिक का कहना है कि लोगों को अपनी मानसिक उम्र का उचित ज्ञान प्राप्त हो सके तो उसकी प्रतिभा को सुविकसित होने में बल मिलेगा जिसे “साइकोलॉजिकल रिजुविनेशन” अर्थात् “मनोवैज्ञानिक कायाकल्प” के नाम से जाना पड़ता है। शरीर की दृष्टि से किसी भी अवस्था में कोई क्यों न बना रहे, पर उसकी मानसिक प्रतिभा अवश्य प्रखर और परिष्कृत होती जायेगी।
स्मरण रहे मनुष्य के मनोभावों का कायिक संरचना पर विशेष प्रभाव पड़ता है। लोगों के मन में यदि यह बद्धमूल विश्वास जम जाता है कि एक समय विशेष के उपरान्त वे जीवित न रह पायेंगे तो वैसे ही आसार नजर आने लगते है। जन साधारण की यह धारण है कि 60 वर्ष से ऊपर की आयु में प्रवेश पाकर योग्यता, क्षमता और प्रतिभा का ह्रास ही होता चला जाता है। जीवन के किसी क्षेत्र में न तो कार्य करने की कोई अभिरुचि रह जाती और न सेवा सहयोग का उपक्रम ही बिठा पाता है। मन में वृद्धावस्था के विचार बीज पनपने और बुढ़ापे की खेती के रूप में प्रकट होने लगते हैं।
शरीर को ही एक मात्र जीवन मान बैठने वाले ने केवल मानसिक उपलब्धियों से अनभिज्ञ बने रहते है वरन् कायिक क्षमताओं का उपयोग भी भली-भाँति नहीं कर पाते और समाज और राष्ट्र के लिए हर तरह से भारभूत ही सिद्ध होते हैं।
विज्ञजनों का कहना है कि बचपन तो अबोध अवस्था है और जवानी बोध अवस्था लेकिन वृद्धावस्था एक परिपक्व-बोध अवस्था का नाम है। यहाँ पर बोध का अभिप्रायः अन्तःबोध से होता है। यानी मनुष्य अपनी मानसिक चेतना को इतना सजीव और सक्रिय बना लेता है कि शरीर की बढ़ती हुई उम्र भी उसके क्रिया-कौशल में किसी भी प्रकार का अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकती।
यदि इतना मर्म समझ में आ जाए तो जीवन का हर क्षण बहुमूल्य नजर आएगा, कभी भी शारीरिक या मानसिक बुढ़ापा शरीर पर भारभूत होकर नहीं लदेगा। सारा जीवन स्फूर्ति व मस्ती से भरा होगा।