
भावी पीढ़ी चरित्रवानों की होगी
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चरित्र इस शब्द में मनुष्य का समूचा व्यक्तित्व समाया हुआ है। सामान्य अर्थों में चरित्रवान उन्हीं को कहा जाता है जिनकी व्यक्तिगत जीवन में कर्तव्य परायणता, सत्यनिष्ठा, पारिवारिक जीवन में सद्भाव, स्नेह, सामाजिक जीवन में शिष्टता, नागरिकता आदि आदर्शों के प्रति निष्ठा है। इन्हें दृढ़ता के साथ पालन करते हैं। दूसरे शब्दों में इन्हीं को व्यक्तित्ववान भी कहा जाता है। किसी भी देश, समाज अथवा समुदाय का भाग्य इन्हीं पर टिका रहता है। ऐसे चरित्रवान नहीं सतयुगी परिस्थितियों को पनपाते विकसित करते तथा समाज का कायाकल्प करने में सक्षम होते है।
प्रथम विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों ने जापान को तहस नहस कर दिया था। दूसरे महायुद्ध में उसे कम क्षति नहीं उठाती पड़ी। इस सबके बाद कुछ ही गया। विजेता राष्ट्र विजय का उपहार लेकर भी युद्ध में हुई क्षति की भरपाई नहीं कर पाए थे कि पराजित जापान ने हर के बावजूद अपने जहाँ अर्थतंत्र की रीढ़ को पुनः .... कर लिया। कारण एक ही था, वहाँ के निवासियों का राष्ट्र-भक्ति सम्पन्न उन्नत चरित्र।
देश व समाज के प्रति प्रेम चरित्र का अनिवार्य अंग है। जहाँ यह तत्व जितना अधिक होगा वहाँ सुव्यवस्था, शान्ति व समुन्नति के आधार उतने ही मजबूती का कारण वे व्यक्ति हैं जो जनहित के लिए कुछ भी उत्सर्ग करने के लिए तैयार हो जाते है। स्पान पत्रिका में एक विवरण छपा था-एक बार अमेरिका में किन्हीं रोगों के उपचार का प्रयोग करने के लिए जीवित मनुष्यों के शरीर की चीर-फाड़ आवश्यक अनुभव की गई। वैज्ञानिक जीवित मनुष्य की देह पर कुछ प्रयोग करना चाहते थे, अतः समाचार पत्रों में विज्ञापन दिए गए। जनहित की भावना से प्रेरित होकर सैकड़ों व्यक्तियों ने स्वयं को प्रस्तुत किया। परिणाम स्वरूप कई असाध्य रोगों की चिकित्सा के उपाय ढूंढ़े जा सके।
चरित्रवान व्यक्ति के लिए खुद का स्वार्थ नहीं दूसरों का, समाज का हित प्रधान रहता है। इसको पूरा करने के लिए अपने स्वार्थ का ही नहीं अस्तित्व तक परित्याग कर देते है। पेरिस में हुई राज्य क्रान्ति के समय की घटना है। तब क्रान्तिकारी दमन चक्र से पीसे और जेलों में ठूँसे जा चुके थे। यहाँ तक कि विपक्षी सैनिकों ने कैदखानों में घुसकर इन्हें शाक-भाजी की तरह काटना शुरू कर दिया। इन सैनिकों ने एक बन्दी को पहचाना, जिसका नाम था आँवी सिफार्ड ने अनुरोध किया कि यदि तुम लोग मेरे बदले उस तरुण महिला को जाने दो, जो गर्भवती है तो मुझे मर कर भी प्रसन्नता होगी। माना कि हम लोगों ने नियम भंग किया है पर गर्भ में पल रहे मासूम को तो निर्दोषिता का पुरस्कार मिलना चाहिए। पादरी की करुणा व दयार्द्रता ने आँवी सिफार्ड नाम को इतिहास में अमर कर दिया।
आदर्शों के प्रति निष्ठा सामाजिक हितों के लिए उत्सर्ग की उमंग व्यक्तित्व को इतना तेजस्वी बना देती है कि लोक श्रद्धा अनायास ही उसके प्रति उमड़ने लगती है। जब समाज या राष्ट्र पर संकट के बादल घिर आते है तो जन समुदाय ऐसे ही चरित्रवान, साहसी लोगों से मार्गदर्शन की अपेक्षा करता है। उन्हें ही नेतृत्व सौंपता है। रोमन साम्राज्य जब संकट में फँसा तो शासन सभा के सदस्यों ने एक ऐसे व्यक्ति को सूत्र संचालन सौंपा जो सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर सामान्य जीवन व्यतीत कर रहा था। नाम था सिनसिनेट्स। वह अपने तेजस्वी व्यक्तित्व और आदर्श चरित्र के बल पर एक बार पहले भी राजप्रमुख के रूप में वर्षों तक राष्ट्र का नेतृत्व करता था। जब संकट की घड़ियाँ आई, एक बार फिर सभासद उसके पास पहुँचे। उस समय वह खेत पर काम कर रहा था। वहाँ से आकर संकट की घड़ियों में फँसे देश को चर्चिल की तरह उबारा। जनता ने उनके प्रति जो विश्वास व्यक्त किया था, उसे कायम रखा। संकट के दौर के समाप्त हो जाने पर पुनः उत्तराधिकारियों को बागडोर थमा शान्ति के साथ जीवन व्यतीत करने लगा।
सब जानते है कि लगभग दो सौ वर्ष पहले अमेरिका ने वाशिंगटन के नेतृत्व में स्वतंत्रता प्राप्त की थी। कुछ समय तक शासन सँभालने के बाद वह राजनीति से विरत होकर सामान्य जीवन व्यतीत करने लगे। इसी समय अमेरिका और फ्राँस में युद्ध छिड़ा। इस विषम वेला में लोगों ने एक बार फिर वाशिंगटन को याद किया। अपने कार्यकाल में उन्होंने कर्तव्य निष्ठा, सूझबूझ और चारित्रिक गुणों की ऐसी धाक जमा ली थी क तत्कालीन प्रेसीडेन्ट मि. एडम्स ने उन्हें देश की बागडोर सम्भालने को कहा। एक प्रमुख नेता ने अपने अनुरोध भरे पत्र में लिखा “अमेरिका की सारी जनता आप पर विश्वास करती है। यूरोप में एक भी राज्य सिंहासन ऐसा नहीं है जो आपके चरित्र बल के सामने टिक सके।”
ऐसों की प्रामाणिकता हर किसी के लिए विश्वसनीय होती है। हर कोई उन्हें सम्मान देता है। इन्हीं के लिए लोगों के हृदय श्रद्धा से भरे रहते है। स्वामी विवेकानन्द ने एक स्थान न कहा है कि संसार का इतिहास उन मुट्ठी भर व्यक्तियों का बनाया हुआ है जिनके पास चरित्र बल का उत्कृष्ट भण्डार था। यों कई योद्धा, विजेता हुए हैं। बड़े-बड़े चक्रवर्ती सम्राट हुए है। इतने पर भी इतिहास ने उन्हीं व्यक्तियों को अपने हृदय में स्थान दिया है जिनका व्यक्तित्व समाज के लिए एक प्रकाश स्तम्भ का काम कर सका है।
उन्हीं महापुरुषों का गुणगान किया जाता है जिन्होंने समाज को प्रगतिशील जीवन मूल्य, चरित्र को युग के अनुरूप मान दण्ड दिये हैं। आदर्शों की समयानुकूल परिभाषा खुद के व्यक्तित्व व कर्तृत्व के माध्यम से की है। जो गुण व्यक्ति के समग्र जीवन को आच्छादित करते हैं। जिनके द्वारा उसे जीवन व व्यवहार के सभी क्षेत्रों में प्रामाणिकता हासिल होती है। मानवीय गुणों का वही समुच्चय-चरित्र के तीन शब्दों में संजोया है। इन दिनों समाज में बदनीयती, स्वार्थपरता, बेईमानी चारों और दिखाई देती है। उसका एक मात्र कारण है कि जनमानस में चारित्रिक मूल्यों के प्रति आस्था नहीं है। उनकी अवहेलना की जाने लगी है। यह अवहेलना उपेक्षा ही समाज को विकृत और विवश बनाए हुए है। जब तक हम में से हर एक इसके लिए प्रयास हेतु कटिबद्ध नहीं होता, बात बनने की नहीं।
इस दिशा में शुभारम्भ यहाँ से करना चाहिए कि अगर हर व्यक्ति महापुरुष नहीं बन सकता तो न बने। पर चारित्रिक मूल्यों को अपनी भीतर समाविष्ट तो करे। माना कि हर आदमी हरिश्चंद्र की तरह सच बोलने वाला नहीं बन सकता। किन्तु अकारण बोले जाने वाली झूठ से तो बच सकता है। उदारता, सद्व्यवहार, कर्तव्यनिष्ठा, परदुःख कातरता आदि ऐसे गुण हैं, जिनका अभ्यास छोटे रूप में भी शुरू किया जा सकता है। अभ्यास का क्रम चलता रहा तो चरित्र साधना आगे बढ़ती रहेगी। भावी समय भी उन्हीं का होगा जो इस साधना में जुटे है। हमारी अपनी स्थिति क्या है? टटोलें, कहीं पीछे तो नहीं छूट रहे। नए युग की सुखद ऊषा के साथ हम आंखें खोलें और कदम बढ़ाएँ। ये बढ़ते हु कदम व्यक्तिगत जीवन में सरसता और सामाजिक जीवन में सुव्यवस्था लाने वाले होंगे। कायाकल्प हुआ समाज अपने नए यौवन में साफ दिखाई देने लगेगा।