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Magazine - Year 1991 - Version 2

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Language: HINDI
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देव संस्कृति की अमूल्य थाती

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देव। मैं इस योग्य नहीं हूँ। उत्तरापथ के वणिक प्रधान आज स्थाण्वीश्वर में उपस्थित थे। उनने इस बार कुछ शैलेय कस्तूरी और थोड़े से पर उत्तम कोटि के मृगचर्म सम्राट के सामने उपहार में रखे। देखकर सभासदों को आश्चर्य हुआ। उन सबकी आँखें चेहरे की भाव-भंगिमा यही दर्शित कर रही थी। पर सभी मौन थे। मणियों के अम्बार लगा देने वाले ये प्रधान-किन्तु आश्चर्य तब और बढ़ा जब सर्वथा अप्रत्याशित भाव से सम्राट ने स्वयं उठकर उपहार स्वीकार किया और प्रधान मन्त्री को न देकर पार्श्व रक्षक को देते हुए आदेश दिया कि ये अमूल्य वस्तुएँ पूजा कक्ष में रख दी जाएँ। किसी के उपहार को आराध्य-सेवा में अर्पित करें सम्राट, इतना सम्मान शायद पहली बार किसी को मिल रहा था। सभासदों की दृष्टि तो सक्रिय थी पर मस्तिष्क सोचने में अवश था। प्रधान महोदय सम्राट के संकेत के बावजूद अपने सदा के निश्चय आसन को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे।

आप मेरी गलती क्षमा करें। सचमुच वह आसन आपके योग्य नहीं। महाराज हर्ष से खड़े हुए और उन्होंने हाथ पकड़ कर उत्तरापथ के प्रधान को अपने सिंहासन के समीप-देश के गौरव भूत सम्मान्य जनों के लिए निश्चित आसनों में से एक पर बिठा दिया।

श्रीमान मेरी विनती....। प्रधान की आँखें भावाश्रुओं से भर रहीं थीं। वे गदगद कण्ठ से बोलते उठने लगे आसन से।

विनती बाद में सुनी जाएगी। पहले आप मुझे क्षमा कर दें। महाराज हर्ष ने न उन्हें उठने दिया और न बोलने दिया। उत्तरापथ में भयानक हिमपात हुआ। वहाँ के प्रजाजन बेघरबार हो गए। उनका पशु धन बर्फ की चपेट में नष्ट हो गया। उनकी अपार क्षति हुई और अपने को जनता का अभिभावक कहने वाला देश की रक्षा का उत्तरदायित्व लेने वाला वहाँ तक पहुँच नहीं सका। क्या हो गया जो उसे दस्युओं का प्रतिरोध करना था। देश की विस्तृत सीमाओं को एक साथ न सँभाल सकने वाले को सिंहासन पर बैठे रहने का क्या अधिकार है? उत्तरापथ की प्रजा की उपेक्षा करने वाला वहाँ का सम्राट कैसे कहला सकता है?

श्रीमान की प्रजा निरुपद्रव है। स्थाण्वीश्वर का प्रताप प्रकृति कोप पर भी जयी है। प्रधान ने उन्हें हाथ जोड़कर मस्तक नवाया। क्षेत्र का कोई ऐसा नागरिक नहीं जिसकी क्षतिपूर्ति न कर दी गई हो। सभी के घरों में पहले जैसी चहल-पहल है। उत्तरापथ का प्रत्येक जन पशुओं को वन में ले जाने के पूर्व श्रीमान की मंगल कामना करता है।

“यह सब उसकी कृपा से हुआ, जिसने अपना सर्वस्व लुटा दिया, वह आज कंगाल है।” स्थाण्वीश्वरेश्वर भरे कण्ठ से कह रहे थे। “वह महीनों से वन्य कन्दमूल पर अपने परिवार को और स्वयं को निर्भर रखता है। उसकी कोई सुधि नहीं ली गई, अन्ततः उसे विवश होकर निर्लज्ज सम्राट के समीप उपस्थित होना पड़ा।”

“महाराज! महाराज!!” लगभग चिल्ला उठा उत्तरापथ का वह वृद्ध। प्रधान- मैं अब और नहीं सुन सकूँगा। उसके गौर ललाट पर स्वेद बिन्दु छलछला आए।

“आप पहले मुझे क्षमा करें!” सामने खड़े होकर सम्राट ने हाथ जोड़े।

किसी को यहाँ तक आप को भी अधिकार नहीं कि स्थाण्वीश्वर के सिंहासन की मर्यादा नष्ट करें। आप विराजमान हों। सुपुष्ट देह पर्वतीय प्रधान ने उन्हें बैठने के लिए बाध्य किया। मैंने ऐसा कुछ नहीं किया जो स्तुत्य हो। हिमपात से पशु मरे, घर नष्ट हुए। प्रकृति के कोप को सह लेने के अतिरिक्त उपाय क्या था। मेरे पास जो भी था, वह मेरे उन भाइयों के यहाँ से ही आया। आकाश से तो मेरे घर सोना बरसता नहीं। जिनका द्रव्य था, अवसर पर उन्हें देने की जिम्मेदारी पूरी कर अपनी ईमानदारी भर निभा सका हूँ। अन्यथा अनैतिक और गैरजिम्मेदार कहलाता।

श्रीमान मुझे पूरी बात कह लेने दें। महाराज को कुछ कह लेने के लिए उद्यत देख प्रधान ने विनय की। पर्वतीय जीवन तो कन्द-मूल पर व्यतीत करने का जीवन ही है। जो औसत स्तर के नागरिक जैसा निर्वाह कर सके-क्या अधिकार है उसे वहाँ के नागरिक जीवन के प्रतिनिधित्व का। हाँ अब मैं उत्तरापथ के प्रधान के पद लायक अवश्य नहीं रह गया हूँ। अब उस पर कौन बैठेगा यह निर्णय राज्य सभा पर है। किन्तु मेरी एक प्रार्थना है।

प्रधान पद आपके कुमार सम्भालेंगे अब से। प्रधान मन्त्री ने तनिक हँस कर घोषणा कर दी। सभासदों का समर्थन मिल गया एक हर्षोन्मत्त जय ध्वनि से।

हिमपात फिर शुरू हो गया था। मैं चीन की सीमा देख नहीं सका। अब पता चला है कि सीमान्त के अरुण शिखर पर कोई यात्री अपने तीन रत्न छोड़ गया है। प्रधान ने अपनी बात कह सुनाई। वह जीवित है या नहीं पता नहीं है। रत्नों को वहाँ से हटा लेने पर वह आवे तो निराश लौट जायगा, वहाँ रहने दें तो गलता हुआ हिम, वन्य पशु आदि उन्हें सुरक्षित नहीं रहने देंगे।

उन रत्नों की रक्षा के लिए आप-अपने दोनों लड़के उस निर्जन वनस्पति शून्य प्रान्त में छोड़ आए हैं। सम्राट को अपने विस्तीर्ण देश के सुदूर प्रान्त की इतनी छोटी सी बात भी पता है, यह जानकर वह चौके बिना न रह सका। तभी उनने कहा- आप उन रत्नों को स्थाण्वीश्वर भेज दें। वहाँ एक पाषाण खण्ड गड़वा दें वह शिला लेख अंकित करके जिनके रत्न है, वे स्थाण्वीश्वर पधारने की कृपा करें। रत्न सुरक्षित है।

मैं मुक्त हुआ श्रीमान की कृपा। पर्वतीय प्रधान ने हाथ जोड़े। तभी सम्राट ने प्रधान अमात्य को देखा। दृष्टि संकेत समझ कर अमात्य ने घोषणा की आज उत्तरापथ के प्रधान स्थाण्वीश्वर के महामात्य सभासद बना दिए गए हैं।

कुछ ही समय बाद रत्न राज्यकोष में सुरक्षित हो गए। उनके रखने के स्थान पर एक पाषाण खण्ड गड़ गया।

ऊपर आओ ऊपर। वह चीनी यात्री पहाड़ी के ऊपर गड़े पत्थर के पास खड़ा होकर अपने मार्गदर्शक को पुकार रहा था। उसे याद हो आया पिछला समय जब वह भारत यात्रा पर निकला था। किन्तु हिमपात के प्रबल प्रतिरोध से विवश होकर उसे वापस लौटना पड़ा।

यह क्या है? क्या लिखा है इस पर? लगभग इसी जगह पिछली बार मेरे रत्न छूट गए थे। मार्गदर्शक को जोर से उसने बताया, यद्यपि मार्गदर्शक इतने पास आ गया था कि धीरे से बोलना काफी था।

यह शिला लेख हैं। मार्गदर्शक ने पढ़ा शिला लेख। आपके रत्न स्थाण्वीश्वर में सुरक्षित हैं। भारत के सम्राट ने इस शिलालेख में प्रार्थना की है कि आप अवश्य उनके अतिथि बनें।

वे मुझे जानते हैं। चीनी यात्री तो हक्का-बक्का हो रहा था। मार्गदर्शक द्वारा पूरी बात समझाने पर यह सोचने लगा-भारत की अमर संस्कृति को देव संस्कृति क्यों कहा जाता है। समझ में आने लगा उसके अपने चीन में प्रचलित लोकोक्ति में निहित तत्व-जिसमें कहा जाता है जो सर्वाधिक शुभ कर्म करता है, उसे भारत में जन्म मिलता है। बचपन से वह इस पुण्यभूमि भारत की साँस्कृतिक गरिमा का गौरवगान सुनता रहता था। बड़े होने पर उसने अपने जीवन का उद्देश्य बनाया उन तत्वों का शोध जिनने इस साँस्कृतिक को अक्षुण्ण महानता दी और वह चल पड़ा था।

प्रथम भारतीय जनपद में पहुँचने से पहले ही उत्तरापथ के प्रधान ने अपने कुछ साथियों के साथ आगे बढ़कर यात्री की अभ्यर्थना की- सम्भवतः आपने पिछले वर्ष भी इस देश में पधारने का प्रयास किया था। यों आप कहीं भी घूमने के लिए स्वतंत्र हैं। किन्तु सम्राट कृतज्ञ होंगे यदि आप स्थाण्वीश्वर पधारें।

यात्री अवाक् था प्रथम स्वागत की इस भव्यता और विनम्रता से ही। उसका आश्चर्य उत्तरोत्तर बढ़ता गया। अनेक बार उसने मार्गदर्शक ने कहा - अब मुझे पता चल रहा है क्यों भारत को देव भूमि कहा जाता है।

आप निर्विघ्न पहुँच सके? कोई कष्ट तो नहीं हुआ आपको यहाँ पर? स्थाण्वीश्वर में स्वागत सत्कार के पश्चात स्वयं सम्राट आए थे अतिथि के आवास पर।

स्वागत सत्कार देखकर चीनी अतिथि तो धरती पर लेट सा गया दण्डवत की मुद्रा में। उसके कण्ठ से शब्द ही नहीं निकल पा रहे थे।

मैं भगवान बुद्ध का एक तुच्छ श्रद्धालु जन हूँ। मेरा नाम हेनसाँग है। दुभाषिये ने यात्री के कथन से महाराज को अवगत कराया। भाव को समझकर महाराज हर्ष ने कहा-यह ठीक है कि आप तथागत के पवित्र देश में हैं। यदि आपने विश्राम कर लिया हो तो मेरे साथ पधारें।

ये आपके तीनों रत्न। रत्नागार में अतिथि को लेकर सम्राट स्वयं गए थे। आपके रत्न हमारी सीमा में इतने दिनों तक पड़े रहे, हम आपको सूचित न कर पाए। अतः आप हम पर अनुग्रह कर कोई तीन रत्न और स्वीकार कर लें। इस कथन को सुनकर वह चुपचाप खड़ा बहुमूल्य रत्न राशि को देखता रहा।

थोड़ी देर बाद उसने कहा ये रत्न आप तथागत के सिंहासन में जड़ित करने को अर्पित कर दें। मैं तो यहाँ की संस्कृति के अध्ययन हेतु आया हूँ। उन तत्वों को जानना चाहता हूँ जिनने इस संस्कृति को देव संस्कृति की गरिमा दी है। यात्री के मनोभाव को समझकर महाराज ने पास खड़े आचार्य सुगतभद्र की ओर देखा। उनकी दृष्टि में आचार्य के प्रति मौन निवेदन था।

निवेदन को समझते हुए आचार्य कह रहे थे “भद्र! इस संस्कृति के प्रेरक तत्व चार है। पहला-ईमानदारी अपने प्रति। जिस परमात्मसत्ता के हम शाश्वत अंश है उसके अनुरूप हमारा जीवन पवित्र और दिव्य है या नहीं। दूसरे तत्व के रूप में जिम्मेदारी समाज के प्रति, उस विशाल कुटुम्ब के प्रति, जिसकी कृपा के बल पर यह मानव देह पली बढ़ी है। तीसरा तत्व है बहादुरी, जिम्मेदारी के निर्वाह के लिए, भले स्वयं को दाव पर लगाना पड़ जाय। ये तीनों जहाँ उपस्थिति रहते हैं, वहाँ चौथे तत्व के रूप में समझदारी आए बिना नहीं रहती। यों भी कह सकते हो उपरोक्त तीनों का निर्वाह ही समझदारी है। इन चारों की उपस्थिति से मनुष्य देवता बनता है समाज देव समुदाय, संस्कृति-देव संस्कृति। इनमें से पहले के आने पर अन्य चारों को भी आना पड़ेगा।”

आचार्य ने अपने कथन की समाप्ति पर उसकी ओर देखा। यात्री का यह पहला पाठ था। उसकी अध्ययन यात्रा का प्रथम पग। इस अध्ययन में वह इतना रमा कि उसने चीन जाने का विचार छोड़ दिया। हेनसाँग के नाम से परिचित-संस्कृति के इस अध्येता ने अपने दस्तावेजों में स्वयं के जीवन की इस घटना का उल्लेख संवेदनशील शब्दों में करते हुए कहा है-मानव जब कभी जिस काल खण्ड में विश्व संस्कृति की रचना का अभियान छेड़ेगा ये ही तत्व उसके आधार बनेंगे।

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