
पहला कदम
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गंगाधर। बाहर जाने के लिए मुड़ा ही था कि चाची की आवाज उसके कानों में पड़ी। तनिक वहाँ चले जाना तो ठीक रहेगा। वे कह रही थी। कहाँ? पीछे मुड़कर उसने चाची की ओर देखा। उसकी नजरों ने चाची के चेहरे पर छाए भावों को पढ़ लेने की कोशिश की। उन्हीं के यहाँ जहाँ हम लोग तुम्हारे लिए लड़की देखने गए थे। जिन्होंने उधार लेकर हमें नाश्ता कराया था।
उनके यहाँ जाकर......? वह अभी तक नहीं समझ पाया था कि माजरा क्या है? कह आओ कि हम यह रिश्ता करने की स्थिति में नहीं है। आप और कोई जगह ढूंढ़ लीजिए। अब कहीं जाकर उसका मन अतीत और वर्तमान के सम्बन्ध सूत्र को जोड़ पाया। पिछले दिनों की बातें घर में होने वाली खुसफुसाहट के स्वर एक-एक करके अपना रहस्य खोलने लगे। न जाने कितनी बातें दिमाग में उभरी और विलीन हो गई। वह अपनी जगह पर खड़ा रहा। जैसे उसी के विचार सूत्र पावों को आबद्ध कर रहे हो।
सोच क्या रहे हो ? सोचो मत और कोई होता तो किसी दूसरे से कहला देती, चिट्ठी डालने से काम चल जाता। पर ये तो दूर के अपने रिश्तेदार हैं।
शब्दों ने उसे चल पड़ने के लिए विवश किया। चाची की वाक्य व्यंजना, बाह्य शैली और अन्तर भाव इन सबसे वह बखूबी परिचित था। अपने और दूर के। अजब उलझन भरा समीकरण था जिसे उसका गणित प्रेमी मन सारी कोशिशों के बावजूद नहीं सुलझाता पा रहा था। जो अपना है वह दूर का कैसे? कौन सी चीज अपनेपन में परायेपन का जहर घोलती है। स्वार्थ और अहं से घिरी मानवीय सोच ने जीवन के अनुपमेय सौंदर्य को नोच-खसोट कर फूहड़, भद्दा और भयावना बना दिया है। जिस क्षण तक स्वार्थ सधे, जब तक अहं तुष्ट होता रहे तभी तक रिश्तों की सृष्टि होती है। उसका मन अजीब सी जुगुप्सा से भर गया।
एक झुरझुरी उसके सारे शरीर पर दौड़ गई। लड़की के परिवार वाले पुराने परिचित थे। लड़की के पिता सेवाभावना और सद्गुणों की मूर्ति-मानस चक्षुओं के सामने प्रदीप्त हो उठी। क्या कमी है उन सब में। व्यवहार का गिरगिटी रंग परिवर्तन एक विचित्र सी वितृष्णा उसको कुरेदने लगी। कैसी विडम्बना है? उसका दिल धड़कने लगा और महसूस होने लगा कि दिल का कोई कोना पसीजने को हो रहा है। द्वार पर दस्तक देते हुए सोचने लगा कि द्वार खुलने के पहले वह भाग क्यों न जाए? लेकिन विचार को कार्यान्वित करने के पहली ही किवाड़ खुल गया। सत्यभामा खड़ी दिखाई दी। आइए आइए। सत्यभामा हाथ जोड़े कर कह रही थी अंदर आइए और बैठिए। पिताजी अभी बाजार तक गए हैं। अभी आते होंगे। आप अन्दर आइए न।
गंगाधर की दुविधा उसकी चाल में प्रत्यक्ष थी। बाहरी बैठक इतनी छोटी थी कि एक चटाई ही बिछ सके। सत्यभामा बायीं ओर के छोटे कमरे में घुसी। वह भी उसके पीछे-पीछे गया। दीवार से टिकी मूठदार कुर्सी की ओर इशारा करते हुए बोली बैठिए।
बैठने के स्थान से रसोई घर साफ-साफ दिखाई दे रहा था। दीवार की खूँटी में टँगे बरतनदान में तश्तरी-लोटे करीने से सजे थे। वहाँ विलासिता से सने ऐश्वर्य का प्रवेश न होने पर भी, उसकी सुवास ऐसी मनोहारिणी थी कि मन अपने-आप बँध गया था।
सत्यभामा रसोई की चौखट से सटी खड़ी थी। उसने कहा आप भी बैठ जाइए।
वह धीमी चाल से आकर उसके सामने बैठ गई। उसे लगा वह आज ही उसे पहले-पहल देख रहा है। आज से पहले सगे सम्बन्धियों के यहाँ होने वाले विवाह आदि कार्यक्रमों के अवसर पर एक आध झलक पाई थी। तब वह बहुत छोटी थी। स्वयं उसकी भी कोई खास उम्र न थी। देखने की दृष्टि में भी बहुत फर्क था। आज उसी को तीन कदम के फासले पर वह पूरा-पूरा देख रहा था। उसने झुके-झुके ही पूछा-क की जी नहीं आयी? हूँ! कसे हुए गले से मुश्किल से कह पाया। उससे क्या कहे और कैसे कहे? उसे तो कहना यह चाहिए था कि मैं तुमसे विवाह नहीं कर सकता, क्योंकि तुम्हारे पिता का स्तर मेरे परिवार के बराबर नहीं है। स्तर इस एक शब्द को कई बार मन ही मन दुहरा गया। स्तर क्या है? सौंदर्य जो हड्डी-माँस का ढेर है अथवा धन का वह जखीरा जिसकी अति मनुष्य को निकम्मा-आलसी, विलासी बना देती है। या वे सद्गुण जो व्यक्तित्व के क्षितिज पर पड़ने वाली आत्म-प्रकाश की रश्मियाँ हैं जिनसे स्वयं का और औरों का जीवन प्रकाश से भर उठता है।
सोच में फँसे मन को निकालने के प्रयास में खँखारते हुए बोला आना तो चाहती थी पर कोई काम आ पड़ा और मुझे भेज दिया। क्या बात कहने आया था वह यही न कि तुम्हारे पिता दहेज देने में असमर्थ हैं...... और....... ऐसा लगा कि उसका प्रयत्न मात्र कुछ वाक्यों को कहने का नहीं बल्कि किसी के सिर पर तवे भर अंगारे उड़ेल देने का है। वह काँप कर रह गया। सत्य और न्याय की हिमायत उसे प्रिय थी। लेकिन आज बड़ा असमंजस था। एक ओर बड़ों व गुरुजनों के प्रति मन में आदर भाव, दूसरी ओर न्याय की माँग।
वह सिर झुकाए बैठी थी। तीन ही पगों की दूरी पर था उसका चेहरा। बरसात के बाद पेड़ों पर जो धुली-धुली हरियाली आती है, वही उसके चेहरे पर छाई हुई थी? यह रंग में गोरी कही जा सकती है? नहीं, पर कद काठी में ऐसी तंदुरुस्त थी कि नजर फिसल-फिसल जाए। स्वास्थ्य से बढ़कर सौंदर्य कहाँ है? वह जमीन पर आँखें गड़ाए अपने अनजाने में ही आँचल की छोर से गाँठ बाँधती, खोलती खेल रही थी। उसके हाथ हल्के-हल्के काँप रहे थे।
इधर वह अपने चिन्तन तन्तुओं को समेटने-बटोरने की कोशिश में लगा था। बाहरी आकर्षण का सम्मोहन कितनी देर टिकेगा यदि व्यवहार सुगढ़ न हो। इसी के द्वारा तो मिलने वाले एक दूसरे के चरित्र में प्रवेश करते हैं। यदि इस क्षेत्र में कमजोरियाँ रहीं तो व्यवहार कुशलता भी धरी रह जाती है। पनपती है वितृष्णा। अगला कदम तो विचारों, आकाँक्षाओं और उद्देश्यों का है। इसमें यदि सामंजस्य बैठ सका तो रिश्तों की मजबूती असाधारण हो जाती है। इस कसौटी पर खरे उतरने वाले ही तो अपने हैं।
आँखें एक बारगी उसके चेहरे पर जा टिकीं। अजब भोलापन था वहाँ। कोई लड़की कितने वरों का जूठन बनती फिरे। सारा नाश्ता लड़की देखने वाले उड़ा जाते हैं। जूठन के रूप में बचती है लड़की, हमारा यहाँ रिश्ता नहीं जुड़ सकता, मानों लड़की न होकर पैर की जूती हो। असंख्य अपमान की चोटों से अभिशप्त हुआ जीवन....। नहीं..... नहीं। सोचते-सोचते अंतिम शब्द जरा जोर से निकल गए।
तभी द्वार पर चप्पल की चाप सुनाई दी। काका ही थे। उनके बाल पकड़कर दूधिया गए थे। चेहरे की झुर्रियां जीवन की सारी विवशता को चित्रित कर रही थी। आखिर वे लड़की के पिता जो थे। अरे तुम हो बेटा। काहे की नाहीं कर रहे थे। मैं जरा काम से बाजार चला गया था।
उनके विस्मय विस्फारित नेत्रों और बात करने के तरीके से उनकी घबराहट साफ झलक रही थी। स्वर में छुपे असमंजस को उसने भाँप लिया था। इस बीच अपने दिल में मचे द्वन्द्व से वह उबर चुका था। मोह और आदर्श के बीच हुए संघर्ष में विजय आदर्श की रही।
हमें लड़की पसंद है। शुभ घड़ी शोधने का कार्य आपको करना है।
अच्छा। मुझे अपार प्रसन्नता है, खुशी में हाथ पकड़ते हुए बोले तो लगा कि रो पड़ेंगे।
उनके विस्मय विस्फारित नेत्रों और बात करने के तरीके से उनकी घबराहट साफ झलक रही थी। स्वर में छुपे असमंजस को उसने भाँप लिया था। इस बीच अपने दिल में मचे द्वन्द्व से वह उबर चुका था। मोह और आदर्श के बीच हुए संघर्ष में विजय आदर्श की रही।
हमें लड़की पसंद है। शुभ घड़ी शोधने का कार्य आपको करना है।
अच्छा! मुझे अपार प्रसन्नता है खुशी में हाथ पकड़ते हुए बोले तो लगा कि रो पड़ेंगे।
वह उठकर बाहर आया। वे भी बिदा करने दरवाजे तक आए। बोले, कल ही मैं आपके चाचा से मिलने आऊँगा। अच्छा।
उसने मुड़कर द्वार की ओर दृष्टि दौड़ाई तो देखा सत्यभामा खड़ी है। उसकी आँखें आंसुओं में तर रही हैं, होठ फड़फड़ा रहे हैं। उस एक पल में आँखों ही आँखों में सत्यभामा ने हजार-हजार बातें कह डालीं और उसने हर अक्षर के भाव को समझ लिया।
राह की ओर मुड़ते हुए उसने पहला कदम रखा। यह अनीति से संघर्ष की ओर पहला कदम था। बिना दहेज विवाह करने के लिए स्वजनों से संघर्ष करने वाले युवक गंगाधर को सारे देश ने संघर्ष के प्रतीक के रूप में माना। इस लोक मान्यता का तिलक जिसके मस्तक पर लगाया गया उसे लोकमान्य तिलक के रूप में जाना गया।