
धर्म एवं धर्म-निरपेक्षता
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कसैला मुख बनाते हुए उसने भीड़ के कथन का एक शब्द दुहराया धर्म। इस शब्द के उच्चारण के साथ न जाने कितने भाव उभरे, विलय हुए। शब्द सिर्फ ध्वनि तो नहीं और न अक्षर समूह। यद्यपि इसके बगैर इसकी अभिव्यक्ति नहीं। अक्षरों के घट में भरे भावों की पहचान सार है। पर स्वयं की अनुभूतियों-मान्यताओं की मिलावट में यह खो जाती है। उसके साथ कुछ ऐसा ही घटा। अभी कल ही यहाँ आया था। आने के पीछे सोच थी मित्र से मिलन और भारत भ्रमण। भ्रमण का प्रथम बिन्दु यही क्यों न रहे बस यही सोच उसे वाराणसी ले आयी। सफर की थकान मिटाने के बाद ये घूमने निकले थे। वे दो थे महज रूप-रंग, देश के विचार से नहीं बल्कि व्यक्तित्व विचार-अनुभूतियों और मान्यताओं में दो। इस सबके अलग-अलग होने पर भी कहीं अन्दर से कोई सूत्र उन दोनों को जोड़ता था। अन्यथा मित्रता कैसे निभती? यह थी संवेदना की धारा जो दोनों दिलों को सींचती थी। थी मन की वह कसक जो उन दोनों के बीच सेतु बनी जिसके कारण दोनों ने समाज को अपना मन, अपना अस्तित्व और अस्मिता अर्पण की। यही सौहार्द था उनके बीच, नहीं तो दो कब एक हुए हैं?
दिन चढ़े सड़क की यह उदासीनता विचित्र लगी। मन में हल्का सा कंप हुआ। चिंतन सागर में विचारों की एक लहर उठी। असंख्यों भूले-भटकों, बिछुड़ों को अपने ऊपर ढोकर मिलाने वाली राह की यह विरक्ति। राह की विरक्ति मानव से अथवा मानव की राह से। दार्शनिक मन में सहज तर्कशास्त्रीय सवाल उठा। खैर होगा सोच कर सिर झटका और चल पड़े। मित्र को बताने लगे यह वाराणसी है। हमारे शास्त्र इसे तीनों लोक से न्यारी कहते हैं। उमा-महेश्वर की शाश्वत निवास स्थली जिसके चरणों को धोने के लिए गंगा हिमालय से गंगा जल ले दौड़ी आती है। उनके ये विदेशी मित्र खासी हिन्दी समझते हैं, हाँ बोलने में अभी जरूर थोड़ी कठिनाई थी। कवित्व पूर्ण भाषा में अपने मनोभावों को व्यक्त करते हुए साथ चल रहे मित्र महोदय के चेहरे की ओर देखा, वहाँ उदासीनता थी। सहज नास्तिक मन को इस विवरण से क्या? बात को पलटते हुए उनने कहना शुरू किया बनारस, अपनी कथन को पूरा करते इतने में देखा दो तीन आदमी तेज कदमों से गुजर रहे हैं। उनका चलना लगभग दौड़ने जैसा है। चाल का अटपटापन, चेहरों पर छायी दहशत भरी मायूसी, फटी-फटी सी आँखें दोनों की दृष्टि को अपनी तरफ घसीटे बिना न रहीं।
क्या हो गया इन्हें? तब क्या। प्रश्न दिशाओं में खोने लगे। दोनों ने एक-दूसरे की ओर ताका? तब एक ने दूसरे से कहा, चलते हैं आगे बढ़ने पर पता चल जाएगा। यद्यपि कहने वाले का मन शंकाकुल था। कल कुछ ऐसी-वैसी बातें कानों में पड़ी थीं जो मन को मथने लगीं।
उसके कदम शिथिल हो गए। चेहरे पर छायी उल्लास की कान्ति एक क्षण को मन्द होती दिखी। भौहों पर आकुँचन की रेखाएँ आयीं, गहरी हुई पर शीघ्र विलीन होने लगी। कुछ दूर आगे बढ़े कि गली के मोड़ से शोर उभरा। शब्द अस्फुट थे, ध्वनियों के गर्जन में। हाँ भावों का जरूर कुछ अनुमान लगा। थोड़ा फासला और तय करने पर दिखाई दिया कि कुछ लोग आगे खड़े हैं। उनके हाथ-लाठियों-भाले-फरसे आदि धारदार हथियारों से लैस हैं। चोरी छुपे कुछ और भी लिये हों तो कोई अचरज नहीं। एक दूसरे के पास कानाफूसी और भद्दी गालियाँ....।
क्या हुआ? पर भीड़ ठहरी, वहाँ कौन सुनने को तैयार था। एक आदमी जो भीड़ से निकल रहा था तनिक सा पूछने पर उबल पड़ा होगा क्या साहब? यहाँ और क्या होने को है? दंगा हुआ है। सब एक-दूसरे की जान के दुश्मन बने हैं। कल तक जो एक साथ रहते थे आज वहीं.....। ऐसे में आप लोग कहाँ जा रहे हैं, ऊपर से नीचे देखते हुए बोला लौट जाइए बाबू लोग अपने घर जाइये। धोती-कमीज पहने हिन्दुस्तानी और अँग्रेजियत की खिचड़ी बने 35-40 साल के इस आदमी पर दोनों ने अपनी दृष्टि उठाई। आहिस्ते से सवाल किया किसने किया दंगा? और कौन करेगा? इन की ओर इस तरह देखा जैसे बहुत बचकाना सवाल पूछ बैठे हों। आँखें साफ कह रही थी इतना भी नहीं जानते मूर्ख कहीं के। पर मुख से बोला इन्सान करता है हुजूर इन्सान-कभी सुनाई पड़ा है कि जानवरों ने दंगे किए हैं। वे तो बेचारे मेल-मिलाप से रहते हैं। धर्म और मजहब लड़ मर रहे हैं। कहता हुआ एक ओर चलने लगा। सम्भवतः वह समय से सुरक्षित घर पहुँच जाना चाहता था और इनके साथी ने उसके कहे एक शब्द को चबाते हुए दुहराया।
चलो लौट चलते हैं। इन्होंने उसका हाथ पकड़ा और वापस लौट चले। देखा! डॉक्टर साहब आप धर्म की इतनी वकालत करते रहते हैं और धर्म जहर बुझी कटार की तरह इन्सान और इन्सानियत का दिल चीर रहा है। उसे अपने वहाँ के कैथोलिक प्रोटेस्टेण्टों के झगड़े याद आ गए। बोला आज न जाने कितनी हँसती-खिलखिलाती जिंदगियाँ धरती से उठ जाएँगी। न जाने कितनों को अपनों की याद में सारे जीवन झुलसते हुए जीना पड़ेगा। कितने बेसहारों के भविष्य की उज्ज्वलता पर हमेशा-हमेशा के लिए कालिमा पुत जाएगी। कौन दोषी है इसका? वह तीखे शब्दों में आक्रोश व्यक्त कर रहा था। लम्बे समय तक यह एक शब्द उन दोनों के बीच बहस का मुद्दा रहा है, भले पत्र माध्यम बनते आए हों। हमेशा वह उन्हें समझाते आए हैं प्रकृतिवाद, भौतिकवाद, मानववाद मानव को उसके लक्ष्य तक नहीं पहुँचा सकते। पर आज-विषाद के घुटन भरे माहौल में उनसे कुछ कहते न बन पड़ा। उनने आँखें उठाई एक नजर मित्र की ओर देखा और नजरें झुका लीं। नेत्रों की पुतलियाँ गहरे जल में तैर रही थी। लगता था कि सारे विवाद को वह पी जाना चाहते हैं पर असमर्थ हो रहे हैं।
उनकी भाव दशा साथ चल हरे सज्जन से छुप न सकी-स्वर धीमा हो गया, मैं कहता हूँ धर्म की जरूरत क्या है? है भी तो कोई एक होता। धर्म के नाम पर इतनी खाइयाँ-खंदक, टीले, पहाड़। जहाँ देखो जिधर देखो आदमी भावना और भूगोल के आधार पर बँटा है, बँटा रहा है, बँटना चाहता है। कौन जोड़ेगा इन्हें? कौन पाटेगा विषमता के गड्ढे? कौन मेटेगा विभाजन की रेखाएँ? किससे ढहेगी बँटवारे की दीवारें?
धर्म उनके मुख से फिर से यह शब्द सुनकर वह बौखला गया। सड़क किनारे खड़े पेड़ इन दोनों की बहस मौन हो सुन रहे थे। आस-पास के मकानों के दरवाजे बन्द थे। श्मशान से सन्नाटे पर इन्हीं की आवाज हथौड़े बजाती हुई आगे बढ़ रही थी।
आप का स्वास्थ्य तो ठीक है। अभी इतना सब देख कर आ रहे है फिर वही बात। मैं भला चंगा हूँ पर वह धर्म नहीं है और न लड़ने वालों को इससे मतलब है। यह इन्सान के अहंकार की टकराहट है, और धर्म का पहला कदम है अहंकार का विसर्जन। ऐसा होने पर लड़ाई की गुँजाइश कहाँ? इस टकराहट को बहाना चाहिए कभी एक-कभी दूसरा। मित्र जितना उत्तेजित थे वह उतने ही शाँत। बातों की रफ्तार से शायद पैरों की रफ्तार तेज थी। बातों के लम्बे सिलसिले के बीच उनका मकान आ पहुँचा। कभी के डिप्टी कलेक्टर पर आज काशी-विद्यापीठ के संस्थापक संचालक का मकान। काशी में उन्हें सब पहचानते थे, समूचे देश में उनके नाम की कदर थी विदेशों में प्रसार था। विरोधी भी उनके सामने झुकते थे। यह थे डॉ. भगवानदास।
दरवाजा खोल कर अन्दर पहुँचे। घर के सदस्यों की जान में जान आई। सभी चिन्तित थे। हवाई जहाज राकेट सब को अपनी गति सीमा में पीछे छोड़ने वाली अफवाहें भला यहाँ तक पहुँचने से पीछे कैसे रहतीं? पर प्रत्यक्ष के प्रकाश में इनका प्रभाव फीका पड़ गया। अतिशयोक्ति के अलंकरण धूमिल पड़ गए। घर वालों को खैर-कुशल सुनाते हुए ये दोनों अध्ययन कक्ष में पहुँचे। पूरा कमरा किताबों से भरा था। एक नजर में ऐसा लगता कि सारे संसार भर की विद्वता ने अपनी पार्लियामेण्ट जमा रखी है। खिड़की का एक सिरा खोल दोनों एक-एक कुर्सी से टिक गए। इतने में चाय आयी। चाय की चुस्कियों में मौन घुल गया। एक बात सोचो-धर्म निरपेक्षता के जमाने में धर्म। है भी तो कोई एक होता। इनमें इतनी भिन्नता क्यों है? मैं तो धार्मिक-वार्मिक हूँ नहीं आप ही कुछ बोलो। हर धर्म की अलग-अलग अनुभूति.....। कथन को बीच में छोड़ दिया।
हँसते हुए वह बोले देखो ब्राण्ट! धर्म निरपेक्षता शब्द को तुमने भारत में सुना है इसका मतलब भी जानते हो। सेक्यूलिरिज्म सुनने वाला तपाक से बोल पड़ा। ‘नहीं’ उनने सहज भाव से कहा यह संस्कृत शब्द है धर्म का अर्थ है राह और निरपेक्ष का मतलब है अपेक्षा नहीं। अर्थात् राह की अपेक्षा नहीं और जिसे राह की जरूरत नहीं वह कौन होगा ‘गुमराह’ यही न, कहते हुए थमी हँसी एक बारगी में बह निकली सुनने वाले सज्जन ध्यान से सुन रहे थे और जहाँ तक अनुभूति का सवाल है वहाँ भेद नहीं। हाँ अभिव्यक्ति का जरूर भेद है। इस अभिव्यक्ति को सब कुछ मानने वाले लड़ने लगते हैं, देख ही लिया। क्योंकि अभिव्यक्ति अनुभूति से नहीं आती, अभिव्यक्ति आती है व्यक्तित्व से। जरा इस वाटिका की ओर देखो। उन्होंने खिड़की से उस ओर इशारा किया। यहाँ फूल खिले हैं, पक्षी उड़ रहे हैं और यदि एक रुपया भी पड़ा हो तो जानते हो धन प्रेमी के लिए सब कुछ खो जाएगा, दिखेगा सिर्फ रुपया। कहीं कवि प्रवेश कर गया तो उसका सारा व्यक्तित्व-पक्षी के गीतों में बह जाएगा। चित्रकार रंगों में खो जाएगा। फिर उन तीनों की बातों में व्यक्तित्व की भिन्नता झलकेगी जबकि तीनों बगीचे में गए हैं।
बात समझ में आ रही थी। ब्राण्ट का रोष कम पड़ा। चाय भी समाप्त हो गई थी। प्यालों को एक ओर रखते हुए दोनों ने हाथ झाड़े, पैरों को फैलाकर हल्की सी अँगड़ाई ली। एक क्षण के मौन के बाद गेलार्ड कहने लगे तब तो यही कहा जा सकता है कि कोई ऐसा सूत्र नहीं जो एकता स्थापित कर सके और यह विरोध अन्ततः धरती को.....।
अस्थिर मत बनो मि. गेलार्ड, धरती ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ ही साबित होगी। हाँ धर्मों को अनुभूति के आधार पर समझना होगा शब्दों के आधार पर नहीं।
कौन सी है वह अनुभूति। तनिक उत्सुकता बढ़ी।
‘संवेदना’ यह प्राण है धर्म का। हरेक धार्मिक यहीं एक है और जो यहाँ एक है वही धार्मिक है। यही संवेदना महावीर में अहिंसा बनकर अभिव्यक्त होती है। पग घुंघरू बाँधे हुए मीरा के नृत्य में। शंकर में विवेक और बुद्ध में करुणा, ईसा में वही प्रेम है। गंगा की तरह हिमालय से सागर पर्यन्त धर्म की शाश्वत समूचे विश्व में एक है, हाँ घाट जरूर अलग-अलग हैं। लड़ाई घाटों की है, जल धारा की नहीं। आप जैसे कोई मानववादी-धर्म संवेदना की धारा में बिना किसी घाट में प्रवेश किए सीधे धारा में नहा रहे हैं। इसी कारण सौ फीसदी धार्मिक होते हुए आज तक नहीं जान पाए कि आप धार्मिक भी हैं।
“खूब रही” गेलार्ड हँस पड़ा। मढ़ दिया वह सब मेरे मत्थे पर। वह मानववादी होने के साथ इण्डोलाजिस्ट भी था। मुख से कुछ भी कहे पर भारत और भारतीयता का अर्थ था उसके लिए महान सौंदर्य। इनकी समझ ने ही उसे यहाँ सूक्ष्मताएँ प्रदान कीं। उसकी हँसी थमने पर यह बोले धर्म पोथियों में नहीं रहता ब्राण्ट। इसका निवास ईंट पत्थरों के बेजान टुकड़ों में भी नहीं है। इसकी जगह है इन्सान का हृदय जो पीड़ितों के लिए पीड़ित है, जिसमें मानवीय विकलता के निवारण की तड़प है उसी के हृदय में धर्म है। वह जीता जागता मन्दिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा है। उसके जीवन के क्रियाकलाप धर्म स्थान के विराट प्राँगण हैं, और इस अनुभूति को पाना उसकी आवाज पुनः उभरी।
इसी के बिना तो सारा विवाद है। भाषा का विवाद है सच्चाई का नहीं और जो भाषा का विवाद कर रहे है कम से कम वे धार्मिक तो नहीं। हाँ शब्द शास्त्री भले हो, और शब्द जाल तो भ्रमों का आरण्य है जिसमें मनुष्य जाति भटक रही है।
दोनों सोच में डूब गए। मि गेलार्ड ब्राण्ड शाम को निकलना चाहते थे। तब तक साँध्य समाचार में खबर थी दंगे के कारण कर्फ्यू लगा दिया गया है। कब तक कैद रहेगा मानव? इसके जवाब का चित्राँकन कागज की कैनवास पर वह करने बैठ गए। विचारों की लकीरों में कल्पना की कूँची भावों के रंग भरने लगी। दार्शनिक डॉ. भगवानदास के “इजेशियल यूनिटी ऑव ऑल रिलीजन्स” नाम से प्रकाशित इस शब्द चित्राँकन के सारे शब्द मिल कर एक ही शब्द उभारते हैं- संवेदना। नए जमाने के नए मनुष्य की पहचान, उसके धर्म और धार्मिकता की पहचान। जिसको अपनाए बिना वह मानव नहीं-पशु भी नहीं। क्या है वह, स्वयं सोचे?