
पर्जन्य अर्थात् प्राण वर्षा
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गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं यज्ञाद् भरवति पर्जन्यः अर्थात् यज्ञ से पर्जन्य बरसता है। प्रायः लोग बरसने का अर्थ पानी बरसने से लगाते हैं। यह कथन यदि सही रहा होता तो पानी बरसाना मनुष्य के अपने हाथ में होता। कभी पानी की कमी न पड़ती। जब जितनी वर्षा की आवश्यकता होती, तब उतना पानी बरसा लिया करते। फिर बाढ़ आने का भी संकट न होता और वर्षा की कमी से दुर्भिक्ष पड़ने की कठिनाई भी सामने न आती। जब मन आया तभी पानी बरसा लिया। उसकी मात्रा भी अपने हाथ में होती। यज्ञ करना अपने हाथ की बात है। वह कुछ महँगा और कष्टसाध्य भी नहीं है। जो लोग अपने स्थान में मेह बरसा सकते हैं, वे आवश्यकता पड़ने पर अन्य किसी देश में जहाँ आवश्यकता होती, पानी बरसाने के लिए जा पहुँचा करते। इतना ही नहीं, जहाँ अधिक वर्षा होती वहाँ रोकने का उपाय कर दिया करते।
‘पर्जन्य’ का बरसना तो सही है, पर पानी बरसना नहीं है। तो क्या पानी के अतिरिक्त और कोई वस्तु भी बरसती है? इसका उत्तर हाँ में दिया जा सकता है और उस बरसने वाली वस्तु को ही ‘पर्जन्य’ कहा जाता है। यह पानी से भिन्न है। यह प्राण है। प्राण कहते हैं जीवनी शक्ति को। जीवनी शक्ति वह वस्तु है जो पुष्टि बल, समर्थता प्रदान करती है। जिनके शरीर में जीवनी शक्ति होती है, वह दुबले होते हुए भी बलिष्ठ होते हैं। गाँधी जी मरने के दिनों प्रायः 80 वर्ष के थे। वे कहा करते थे कि मैं 120 वर्ष जीना चाहता हूँ। यदि दुर्घटना न हुई होती तो संभव है उन्हें इच्छा मृत्यु मिलती। जीवनी शक्ति न केवल शरीर को बलिष्ठ, निरोग एवं दीर्घजीवी बनाती है, वरन् मनोबल की भी अधिष्ठात्री है। उससे ओजस, तेजस और वर्चस की विभूतियाँ हस्तगत होती हैं। इसे प्रतिभा कह सकते हैं।
प्रतिभा का स्त्रोत अन्तरिक्ष है। अन्तरिक्ष से जीवन भी बरसता है। सूर्य किरणों को जीवनदात्री कहा गया है। उससे वर्षा भी होती है। वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि उससे वर्षा के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ बरसता है। वर्षा के पानी में उत्पादक शक्ति होती है। कभी-कभी उसकी न्यूनता भी रहती है। इन परिस्थितियों में वनस्पतियाँ उत्पन्न तो होती हैं, पर वे निर्जीव रहती हैं। विश्लेषणकर्ताओं के अनुसार उनमें रासायनिक पदार्थ स्वल्प मात्रा में पाये जाते हैं। फलतः उनके पल्लव, फूल, फल स्वल्प मात्रा में होते हैं। उन्हें खाने वाले पशु-पक्षी भी दुर्बल ही रहते हैं। दूध कम देते हैं। बच्चे कमजोर रहते हैं।
पर्जन्य का अर्थ प्रकारान्तर से जीवनीशक्ति है जो वर्षा के साथ बरस सकती है और प्राणवायु में भी घुली हो सकती है। हवा में प्राणवायु कम हो तो उसमें साँस तो ली जा सकती है, पर वह विशेषता नहीं होती जिसके लिए जलवायु बदलने और स्वास्थ्य संवर्धन करने के लिए जाते हैं। वनस्पति की प्रखरता प्राणवान जल के ऊपर निर्भर रहती है। प्राणियों का जीवन प्राण पर निर्भर है। प्राण के ऊपर ही आयुष्य अवलम्बित है।
इस सम्बन्ध में अनुसंधान कर रहे मूर्धन्य वैज्ञानिकों का कहना है कि आमतौर से लोग आहार-विहार को ही दीर्घ जीवन का कारण मानते हैं, पर उन लोगों में से ऐसी कोई विशिष्टता नहीं पाई जाती। तलाश करने पर विदित हुआ कि उनमें प्राणशक्ति का बाहुल्य होता है। यह प्राण वहाँ की प्राणवायु की अधिकता से होता है। खाद्य पदार्थ देखने में अन्यत्र जैसे होते हुए भी उनमें पुष्टाई की मात्रा अधिक रहती है और यह शक्ति जल के साथ आकाश से ही बरसती है। जहाँ का अन्न, जल प्राणवायु की दृष्टि से कमजोर होता है, वहाँ के निवासी अनायास ही दुर्बल होते हैं। अनेकों नमी वाले क्षेत्रों के लोग जवानी आते-आते वृद्ध हो जाते हैं। मलेरिया, फाइलेरिया आदि से घिरे रहते हैं और अल्पायु में ही काल के गाल में चले जाते हैं। वस्तुतः प्राण के रूप में जीवनी शक्ति ही उस क्षेत्र में कम बरसती है। उस अभाव की पूर्ति यज्ञ के अतिरिक्त और किसी प्रकार संभव नहीं।
यज्ञ एक प्रकार से अन्तरिक्ष की उर्वरता बढ़ाने का एक साधन है। जमीन में खाद पड़ने से फसल की पैदावार अधिक होती है। यज्ञ की यह विशेषता है कि उसकी ऊर्जा अन्तरिक्ष में ऐसे तत्व भर देती है जो प्राणियों, मनुष्यों, वनस्पतियों, सभी को पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में प्रदान करती है। यह पोषण ही पर्जन्य है। गीता में यज्ञ से पर्जन्य वर्षा का जो उल्लेख है, उसका तात्पर्य यही है कि अग्निहोत्र से अन्तरिक्ष में ऐसी विशेष हलचलें उत्पन्न होती हैं जो समस्त जीवधारियों का पोषण करती हैं।