
धर्म की सच्ची परिभाषा
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धर्म जीवन का प्राण है। प्राणवायु के समान ही इसके बिना एक क्षण भी रह सकना संभव नहीं है। धर्म उतना ही व्यापक है। जितना कि यह सृष्टि। इसका सम्बन्ध मानव जीवन के साथ आदि काल से है। किसी न किसी रूप में वह मनुष्य जीवन के साथ सदा जुड़ा रहा है। आचरण की श्रेष्ठता, विचारों की उत्कृष्टता तथा भावनाओं की पवित्रता ही धर्म का व्यवहारिक लक्ष्य है। यही अपनी चरम सीमा पर पहुँच कर उन अलौकिक अनुभूतियों का मार्ग प्रशस्त करता है, जिन्हें ईश्वरानुभूति के रूप में शास्त्रकारों ने निरूपित किया है। धर्म की नाव पर बैठ कर ही आत्मकल्याण, आत्मशान्ति और आत्मिक प्रगति का समुद्र पार किया जा सकता है, उससे कम में नहीं।
मनीषियों ने धर्म को परिभाषित करते हुए कहा है ‘धारयते जनैरिति धर्म ‘ मनुष्य द्वारा जिसे धारण किया जाता है, अर्थात् मनुष्य मात्र जिसे अपने आचरण में लाये, वह ही धर्म कहलाता है। धर्म को धारण करने वाला, धर्म का अपने जीवन में आचरण करने वाला, धर्म के आधार पर जीवन जीने वाला व्यक्ति धार्मिक कहलाता है।
आस्तिकता, उपासना, शास्त्र श्रवण, पूजापाठ, कथा कीर्तन, व्रत-उपवास, संयम, नियम, सत्संग, तीर्थयात्रा, पर्व-संस्कार आदि समस्त प्रक्रियायें धर्म भावना को परिपक्व करने के उद्देश्य से विनिर्मित हुई हैं, ताकि मनुष्य अपने जीवन के महारिपुओं-वासना-तृष्णा, लोभ, मोह तथा आकर्षण एवं प्रलोभनों से मुक्त होकर अपने कर्तव्य पथ पर अवाधगति से अग्रसर हो सके। किन्तु आज तो इन सबकी उपेक्षा करके मात्र पूजा-पाठ के क्रिया कृत्यों में निरत रहना ही धर्म परायणता का चिन्ह बन गया है। धर्म के प्रति अनास्था इसी विकृति के कारण उत्पन्न हुई है।
प्रख्यात विचारक जी टी पैट्रिक ने अपनी कृति ‘इन्ट्रोडक्शन टू फिलॉसफी’ में लिखा है कि-अधिकाँश व्यक्ति धर्म का नाम लेते ही मन्दिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, गिरिजाघरों, प्रार्थनाओं आदि का स्मरण करते हैं और धार्मिक क्रिया-कृत्यों को ही धर्म का स्वरूप मान लेते हैं। जबकि वे धर्म नहीं मात्र कलेवर हैं। धर्म के प्रति आस्था की अभिव्यक्ति के माध्यम भर हैं। पर कितने ही व्यक्ति ऐसे भी हो सकते हैं जिनका विश्वास इन चीजों-बहिरंग उपादानों पर न हो। जबकि वे पूर्णतः धार्मिक हो सकते हैं। उनका आचरण धर्म को-उनमें सन्निहित आदर्शों को स्वयं व्यक्त करता है।
मूर्धन्य मनीषियों ने धर्म को कर्तव्यपरायणता के रूप में परिभाषित किया है। ऐसी कर्तव्यपरायणता जो मनुष्य को व्यक्तिगत संकीर्ण दायरे से निकालती तथा समष्टि की ओर चलने-उससे बँधने की प्रेरणा देती है। सचमुच ही गंभीरता एवं सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो स्पष्ट होगा कि धर्म के मूल में वही प्रेरणाएँ परोक्ष रूप से उद्भासित होती हैं। गुण, कर्म, स्वभाव, की-चिंतन, चरित्र , व्यवहार की उत्कृष्टता, प्रखरता ही धर्म का व्यावहारिक लक्ष्य हैं। पुरातन ऋषियों ने धर्म का सृजन - आत्मानुभूति के महान लक्ष्य को प्राप्त करने एवं आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना के अनुरूप आचरण करने के लिए किया था। शास्त्र-पुराण, देवालय आदि का निर्माण इसी प्रशिक्षण के लिये हुआ। मानवी व्यक्तित्व के परिशोधन एवं सद्गुणों के अभिवर्धन के लिए यह मनोवैज्ञानिक शैली उसकी मानसिक संरचना को ध्यान में रख कर ही अपनाई गई थी। जो प्रकारान्तर से अपने प्रयोजन में विशेष रूप से सफल रही।
मानव बुद्धि का दुरुपयोग तो हर क्षेत्र में हुआ है, फिर भला धर्म ही उससे अछूता क्यों बचे? निहित स्वार्थियों ने उसकी आड़ में अनेकानेक विकृतियाँ भर दीं। समाज और उससे संबद्ध जिन आचार संहिताओं, रीति-रिवाजों, परम्पराओं का निर्माण व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए हुआ था, उनका स्थान रूढ़ियों और मूढ़मान्यताओं ने ले लिया। धर्मक्षेत्र की इन विकृतियों को देखकर कभी यदि महान विचारक कार्लमार्क्स का यह उद्गार फूट पड़ा हो कि- धर्म अफीम की गोली है जिसके नशे में जनता को सुला दिया जाता है तो आश्चर्य किस बात का?
पर उन्होंने धर्म के सही स्वरूप को एवं लक्ष्य को समझा, उनने एक मत से कहा कि धर्म मानवी विकास के लिए एक अनिवार्यता है। धर्मतत्व का गहराई से अध्ययन करने वाले मनीषी दार्शनिक काण्ट का कथन है कि- हम धर्म से दूर नहीं जा सकते, क्योंकि उसके बिना जीवन में समग्रता एवं परिपूर्णता नहीं आ सकती। यदि धर्म अपने विकसित रूप में जीवन में व्यक्त होने लगे तो मनुष्य अमरता को प्राप्त कर सकता है और यह वैयक्तिक तथा सामाजिक प्रगति का सूत्रधार बन सकता है।