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Magazine - Year 1991 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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निर्भीक जीवन आध्यात्मिक जीवन

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First 35 37 Last
भय को मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु माना गया है और कहा गया है कि बीमारियोँ से उतने लोग नहीं मरते जितने कि भय और आशंका से मर जाते हैं। मृत्यु न हो तो भी भीरुता मनुष्य की सक्रियता और अभिरुचि को अस्त−व्यस्त करके रख देती है, जिसके कारण उसे न तो किसी कार्य में सफलता मिल पाती है और न ही उद्देश्य पूरा हो पाता है। दार्शनिक इमर्सन के कथनानुसार यह एक ऐसा मानसिक रोग है, जो मनुष्य की क्षमता और चेतना दोनों का ही अपहरण कर लेता है। यदि मनोबल बनाये रखा जाय तो काल्पनिक भयों में से तीन चौथाई ऐसे होते हैं, जिनसे कभी पाला ही नहीं पड़ता।

मनःचिकित्सा विज्ञानियों का कहना है कि भय चेतन या अचेतन रूप से मानवी मस्तिष्क को दुर्बल बना कर रख देता है और तदनुरूप आचरण करने को विवश कर देता है। भयभीत व्यक्ति यह सोचने लगता है कि अमुक कार्य करने की या प्रस्तुत कठिनाइयों से टक्कर लेने की उसमें क्षमता है ही नहीं। साहस के अभाव में कल्पित भीरुता अपना जितना अधिक दबाव मस्तिष्क पर डालती जाती है, उसी अनुपात से शारीरिक अंग-अवयव शिथिल पड़ने लगते हैं, बुद्धि जवाब दे जाती है और कभी-कभी तो अकाल मृत्यु का ग्रास भी बनना पड़ता है। इस संदर्भ में चिकित्सा विज्ञानियों ने गंभीर खोजें की हैं और पाया है कि चिन्ता, तनाव, क्रोधावेश आदि के समान ही डर की भावना भी मनुष्य को न केवल रोगी बना देती है, वरन् आयु भी घटा देती है। देखा गया है कि जब कोई व्यक्ति भयाक्रान्त हो उससे पीछा छुड़ाने का प्रयत्न करता है, तो प्रायः उसी से अपने को चारों ओर से घिरा पाता है। यदि साहसपूर्वक उन कारणों का निवारण किया जा सके, जिससे भय उत्पन्न होता है, तो सरलतापूर्वक उस महाराक्षस से अपनी रक्षा की जा सकती है। निर्भयता की सम्पदा जिसके भी पास होगी, वह हर कठिनाई का सामना साहस एवं बहादुरी पूर्वक कर सकेगा।

सुप्रसिद्ध चिकित्सा विज्ञानी डॉ. डलर का कहना है कि प्रायः अधिकाँश व्यक्ति निषेधात्मक कल्पनाएँ कर भय की रचना करते और रोगी बनते रहते हैं। जबकि वास्तविकता वैसी होती नहीं। ऐसे कितने ही व्यक्ति कल्पित जंजीर से जकड़े हुए होते हैं जिनका कोई औचित्य ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगा। वे सोचते रहते हैं कि कहीं बीमार न पड़ जायँ? घाटा न हो जाय? यदि बच्चे कुपात्र निकल गये तब क्या होगा? दूसरों के सामने आई विपत्ति देखकर आशंका करने लगते हैं कि कही वैसी कठिनाई उन्हें न घेर ले। संसार में दुःखी और असफल व्यक्तियों को देखते रहना और उसी वर्ग में अपने को जा पहुँचने की कल्पना करने से लोग भारी मानसिक कष्ट पाते रहते हैं। इस तरह की बीमारी को उनने आध्यात्मिक पंगुता के नाम से सम्बोधित किया है। इस पर विजय तभी पाई जा सकती है, जब अपनी विचारणा , भावना एवं कल्पना को विधेयात्मक गति प्रदान की जा सके।

डर केवल मन तक ही सीमित नहीं रहता। उसका दुष्प्रभाव अनेकानेक शारीरिक व्याधियों के रूप में भी प्रकट होता है। दिल की धड़कन का तेज हो जाना, मुँह सूखना, पसीना छूटना, कँपकँपी बँधना, सिर में तनाव होना, पीठ में दर्द होना, किंकर्तव्य विमूढ़ता और मूर्च्छा की भी स्थिति भय के कारण हो जाती है। स्मरणशक्ति भी कुँठित हो जाती है। यह बाह्य चिन्ह मानसिक तनाव और आन्तरिक अस्तव्यस्तता के कारण प्रकट होते हैं। इससे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। कितनी ही बार दबे रोग उभर आते हैं। काय-चिकित्सकों का कहना है कि इन रोगों से शरीर की रोग निरोधक शक्ति में बुरी तरह गिरावट आती है। अतः डर के भूत का जितना शीघ्र हो, निवारण किया जाना चाहिए।

भय निवारण में विवेक और दूरदर्शिता ही काम करती है। अतः यह समझने और समझाने का प्रयास करना चाहिए कि जिन भय, आशंकाओं, कुकल्पनाओं, और असफलताओं की कल्पना करके डरा जा रहा है, उनमें से अधिकाँश अवास्तविक हैं। कितनी ही बार जिन संकटों की आशंका की गई होती है, या तो वे आते ही नहीं, अथवा वे इतने सामान्य होते हैं कि थोड़े साहस, धैर्य और सूझ-बूझ से उनका निराकरण किया जा सके। वे धूप-छाँव की तरह आते और आँख-मिचौनी करके चले जाते हैं। सतर्कता, साहस यदि बनाये रखे जायँ, तो काल्पनिक भय और डरने से सदैव के लिए छुटकारा पाया जा सकता है।

First 35 37 Last


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Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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