Magazine - Year 1996 - Version 2
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Language: HINDI
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ज्योतिर्विज्ञान को समझें , इस विधा का लाभ लें
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सृष्टि का गतिचक्र एक सुनियोजित विधि व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। ब्रह्माण्ड अवस्थिति विभिन्न निहारिकाएं ग्रह दक्षत्रादि परस्पर सहकार - संतुलन के सहारे निरन्तर परिभ्रमण-विचरण करते रहते हैं। जिस ब्रह्माण्ड में हम रहते हैं उसकी अपनी परिधि एक लाख प्रकाश वर्ष है। और ऐसे-ऐसे हजारों अविज्ञात ब्रह्मांड विद्यमान हैं ।
आधुनिकतम अन्तरिक्ष यानों की अधिकतम गति (18 हजार मील प्रति घंटा ) से भी यदि ब्रह्मांड को पार करने की सोचा जाय तो मनुष्य को इस पुरुषार्थ में करोड़ों वर्ष लग जाएंगे ऐसी स्थिति में अन्यान्य ग्रहों की स्थिति , उनके परस्पर एक-दूसरे पर प्रभाव तथा सुन्दर स्थिति ग्रहों के पर्यावरण एवं जीव-जगत पर प्रभावों की कल्पना वैज्ञानिक दृष्टि से कठिन ही नहीं असम्भव जान पड़ती हैं यह की वह बिन्दु है जहां एस्ट्रानॉमी (खगोलशास्त्र) एवं एस्ट्रालॉजी (ज्योतिर्विज्ञान) का परस्पर टकराव होता देखा जाता है विज्ञानसम्मत प्रतिपादन फलित ज्योतिष की संभावनाओं को काटते नजर आते हैं तो ज्योतिष विज्ञान के ज्ञाता भौतिकी के नियमों को अपनी परिधि में न मानकर ग्रह-गणित आदि के आधार पर फलादेश की घोषणा करते दृष्टिगोचर होते हैं इनमें कौन सही है? कौन गलत? क्या कोई समन्वयात्मक स्वरूप बन सकना सम्भव हैं जिसमें ग्रह - नक्षत्रों की जानकारी से उनके प्रभावों से बचना, लाभान्वित हो सकना, अपने क्रिया -कलापों को तदनुसार बदलते रह सकना शक्य हो सके? इसका उत्तर प्राप्त करने के लिए हमें खगोलशास्त्र की कुछ प्रारम्भिक जानकारी प्राप्त करनी होगी।
अपना भू-लोक सौरमंडल के वृहत परिवार का एक सदस्य है सारे परिजन एक सूत्र में आबद्ध है। वे अपनी-अपनी कक्षाओं में घूमते तथा सूर्य की परिक्रमा करते हैं सूर्य स्वयं अपने परिवार के ग्रह उपग्रह के साथ महासूर्य की परिक्रमा करता है। यह क्रम आगे बढ़ते-बढ़ते ब्रह्माण्ड के नाभि महाध्रुव तक जा पहुंचता है इतना सब कुछ जटिल क्रम होते हुए भी सौर ग्रह, नक्षत्र एक-दूसरे के साथ न केवल बंधे हुए हैं वरन् परस्पर अति महत्वपूर्ण आदान प्रदान भी करते हैं इन सबके संयुक्त प्रयास का ही परिणाम है कि ग्रह नक्षत्रों की स्थिति अक्षुण्ण बनी रहती हैं यदि ऐसा न होता, तो कही भी अव्यवस्था फैल सकने के अवसर उत्पन्न हो जाते । ग्रहों का पारस्परिक सहयोग एवं आदान-प्रदान इतना अधिक महत्वपूर्ण है। कि इसे ब्रह्माण्डीय प्राण - संचार कहा जा सकता है।
इतनी पृष्ठभूमि को समझने के बाद उस विद्या की चर्चा की जा सकती है, जिसे ‘ज्योतिर्विज्ञान’ कहा गया हैं । विज्ञान के क्षेत्र में इसे उच्चस्तरीय स्थान प्राप्त है। ऋतु-परिवर्तन, वर्षा , तूफान, चक्रवात, हिमपात, भूकम्प, महामारी जैसी प्रकृतिगत अनुकूलता-प्रतिकूलताओं की बहुत कुछ जानकारियां वैज्ञानिक लोग अंतर्ग्रही स्थिति के आधार पर प्राप्त करते हैं खगोल भौतिकीविदों का ऐसा अनुमान है कि मौसम की स्थिति पृथ्वी पर अन्तरा से आने वाले ऊर्जा प्रवाह के सन्तुलन-असन्तुलन पर निर्भर होती है। सामान्यतया पृथ्वी के ध्रुवों पर ही अन्तरिक्षीय ऊर्जा का संग्रहण होता है। उत्तरी ध्रुव होकर ही ब्रह्माण्डव्यापी अगणित सूक्ष्म शक्तियां संपदाएं पृथ्वी को प्राप्त होती हैं जो उपयुक्त है उन्हें तो पृथ्वी अवशोषित कर लेती है एवं अनुपयुक्त को दक्षिणी ध्रुवद्वार से अनन्त आकाश में खदेड़ देतीं है जिस प्रकार वर्षा का प्रभाव प्राणि जगत एवं वनस्पति समुदाय में पड़ता है। उसी प्रकार अन्तर्ग्रही सूक्ष्म प्रवाहों का जो अनुदान पृथ्वी को मिलता है उससे उसकी क्षेत्रीय एवं सामयिक स्थिति में भारी उलट-पुलट होती हैं यहां तक कि इस प्रभाव से प्राणि - जगत भी अछूता नहीं रहता । मनुष्यों की शारीरिक और मानसिक स्थिति भी इस प्रक्रिया से बहुत कुछ प्रभावित होती है। ज्योतिर्विद्या के जानकार बताते हैं कि वर्तमान की स्थिति और भविष्य की सम्भावना के सम्बन्ध में इस वान के आधार पर पूर्व जानकारी से समय रहते अनिष्ट से बच निकलने और श्रेष्ठ से अधिक लाभ उठाने की विद्या को यदि विकसित किया जा सके तो मानव का यह श्रेष्ठ पुरुषार्थ होगा। ऋषिगणों ने इसके लिए समुचित मार्ग भी सुझाया है। आवश्यकता पूर्वाग्रहों सम मुक्त होकर इस विज्ञानसम्मत प्रणाली के सभी पक्षों को समझने की है।
प्राचीनकाल में ज्योतिर्विज्ञान न की एक सर्वांगपूर्ण शाखा थी जिससे खगोल विज्ञान, ग्रह गणित, परोक्ष विज्ञान जैसे कितने ही विषयों का समावेश था। उस ज्ञान के आधार पर कितनी घटनाओं का पूर्वानुमान लगा लिया जाता था आज भी उस महान विद्या से सम्बन्धित ग्रन्थ तथा ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं जिससे उस काल की ज्योतिर्विज्ञान की विस्तृत जानकारी मिलती है उसे अगणित ग्रन्थों एवं ज्योतिर्विदों का परिचय इतिहास के पत्रों में मिलता है ।
आर्ष वाङ्मय में सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद है। अनुमान है कि इनकी रचना 4000 ईसा पूर्व में 2500 ईसा पूर्व वर्ष के बीच हुई है ऐसे अनेकों प्रसंग वेदों में है। जिनसे ज्ञान होता है। कि प्राचीन ऋषि -मनीषियों को ज्योतिर्विज्ञान का पर्याप्त ज्ञान था उदाहरणार्थ ऋजुवेद में नक्षत्र दर्शन तथा ऋग्वेद में ग्रह का वर्णन मिलता है। अथर्ववेद के अनुसार ग्रन्थ ऋषि ने सर्वप्रथम अंतरिक्ष के विभिन्न में विभाजित करने का प्रयत्न किया था इसमें अतिरिक्त अट्टहास नक्षत्र समद्वि मण्डल, वृहल्लुब्धक आदि की भी पर्याप्त जानकारी वेदों में मिलती है। छह ऋतुओं का का नामकरण सर्वप्रथम खगोलशास्त्रियों ने किया था भौतिकविज्ञानियों को बहुत समय बाद यह जानकारी मिली कि सूर्य की किरणों में सात वर्ण होते हैं। पर सहित जैसे प्राचीन ग्रंथों में बहुत समृद्ध एवं ही सूर्य को सप्त रश्मि कहा गया हैं कुछ विद्वानों का अभिमत है कि भेतिकाशक्तियों को सूर्य रश्मियों को के आधार वह प्राचीन ग्रन्थ है।
वैदिक युग के बाद रामायण और महाभारत कहा गया है जो लगभग 2500 ईसा पूर्व से लेकर 3000 ईसा पूर्व तक माना जाता है कहा जाता है कि रामायण के रचयिता महर्षि बाल्मीकि न केवल तत्ववेत्ता थे वरन् महान ज्योतिर्विद् भी थे उन्होंने रामायण में भी तारे एवं ग्रहों को गति तथा उनकी स्थिति का वर्णन करते हुए उनका मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का उल्लेख किया है। रामायण का खलनायक रावण स्वयं महान ज्योतिर्विद् था ऐसा कहा जाता है कि उस काल में रावण जैसा प्रकाण्ड पण्डित तथा ज्योतिर्विद् कोई दूसरा न था। रावण संहिता’ उसकी ज्योतिर्विज्ञान की जानकारी का प्रमाण है जो ज्योतिर्विज्ञान की जानकारी का प्रमाण है जो ज्योतिष शास्त्र का असाधारण ग्रन्थ माना जाता है।
गुरु वशिष्ठ, विश्वमित्र, मनु, याज्ञवल्क्य जैसे ऋषि अपने समय के धुरन्धर तारों और तारा रश्मियों के विशद वर्णन है। जो इस संयम की खगोल विधा एवं ज्योतिर्विद् की जानकारी देता है। महाभारत में भी ऋतुओं एवं ग्रह - नक्षत्रों का वर्णन है एक स्थान पर उल्लेख है कि कौरव और पाण्डवों के बीच युद्ध छिड़ने के पूर्व चन्द्रग्रहण लगा था राहु एवं केतु प्रभावों का भी वर्णन मिलता है।
500 ईसा पूर्व से लेकर 500 ई॰ तक की अवधि में विदेशी आक्रमणकारी अत्यधिक सक्रिय रहे सिकन्दर ने इसी मध्य आक्रमण किया था। पुरातत्ववेत्ताओं का कहना है कि आतताइयों ने न केवल भारत में लूट-पाट मचायी वरन् यही की साँस्कृतिक धरोहरों विशेषकर ज्योतिर्विज्ञान की महत्वपूर्ण पाण्डु-लिपियों तथा वेधशालाओं को भी बुरी तरह नष्ट किया। ऐसा भी अनुमान है कि कितने ही बहुमूल्य अभिलेख वे अपने साथ बाध कर ले गये, जिनका जर्मन, रोमन, फ्रेंच आदि भाषाओं में अनुवाद हुआ , वे वहां से संग्रहालयों में अभी भी उपलब्ध है।
ज्योतिर्विज्ञान को पुनर्जीवित करने का कार्य आगे चलकर पाटलिपुत्र में अथंभद प्रभम ने किया। सन् 0048 ए0 डी0 में उनका जन्म हुआ। पाटलिपुत्र की विश्वविख्यात विद्यापीठ में उन्होंने ज्योतिर्विद्या का विशद अध्ययन किया। उन्होंने ‘आर्यभट्टियम्’ तंत्र तथा इशगोतिका नामक तीन प्रख्यात ग्रन्थ लिखें। वे सर्वप्रथम खगोलविद् थे जिन्होंने यह सिद्धान्त खोजा कि पृथ्वी अपनी धुरी व कक्ष पर दैनिक गति करती है। इसी गति के कारण दिन और रात होते हैं।
आर्यभट्ट के बाद ज्योतिर्विद्या पर सबसे अधिक काम आचार्य वराहमिहिर ने किया। उनका जन्म उज्जैन के काल्पी नामक स्थान पर हुआ। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांशतः भाग उज्जैन में ही अध्ययन -अध्ययन में बिताया। उनके शोध कार्य का नवनीत ’वृहद् जातक’ ‘वृहत संहिता‘ जैसे महान ग्रंथों में भरा है। वृहत संहिता में प्राकृतिक विज्ञान का इतना विस्तृत वर्णन है कि कोई भी क्षेत्र ज्योतिर्विज्ञान का बचा नहीं हैं ग्रहण, उल्कापात, भूकम्प, दिग्दाह, वृष्टि प्रकृति , ग्रह, नक्षत्रों, पर विशद् वर्णन है। कुछ विशेषज्ञों का अभिमत है कि विज्ञान की नया शाखा-एस्ट्रोंफिजिक्स (खगोल भौतिकी) , जिसमें ग्रह-नक्षत्रों के विद्युत चुम्बकीय ऊष्मा यदि प्रभावों का अध्ययन किया जात है उसकी उत्पत्ति वराहमिहिर के ग्रन्थों की प्रेरणा से हुई है। उनकी ‘पंच सिद्धिन्तिका‘ कृति भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। उसमें वर्णित ‘सूर्य सिद्धान्त’ अद्वितीय है। विषुवअयन की क्रिया का वर्णन भी वराहमिहिर ने की किया है। उन्होंने अपने विशद अध्ययन से उसका मान 54 विकल्प (सेकेंड) प्रतिवर्ष प्राप्त किया, जिसका आधुनिक मान खगोलविदों ने 54,2728 सेकेण्ड खोजा हैं दोनों खोजों में कितना साम्य है यह देखकर अचरज होता है साथ ही इस बात का भी आश्चर्य होता है कि बिना आधुनिक यन्त्रों के उस काम में इतनी सूक्ष्म शुद्धि गणना करना किस प्रकार सम्भव हो सका।
न्यूटन ने बहुत समय बाद यह खोज की कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति है। उसके सैकड़ों वर्ष पूर्व ही महान भारतीय वैज्ञानिक एवं ज्योतिर्विद् भास्कराचार्य ने उपरोक्त तथ्य की खोज कर ली थी उनकी प्रख्यात कृति ‘सिद्धान्त शिरोमणि - में इस बात का प्रमाण भी मिलता है। उसमें कहा गया है कि पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है इससे वह अपने आस-पास की वस्तुओं को आकर्षित कर लेती हैं पृथ्वी के निकट आकर्षण शक्ति अधिक होती हैं जैसे-जैसे दूरी बढ़ती जाती है। वैसे-वैसे वह घटती जाती है यदि किसी स्थान से भारी तथा हल्की वस्तु छोड़ी जाए, तो दोनों एक ही समय पृथ्वी पर गिरेंगी, ऐसा न होगा कि भारी वस्तु पहले गिरे तथा हल्की बाद में। ग्रह और पृथ्वी आकर्षण शक्ति के प्रभाव से ही परिभ्रमण करते हैं। स्पष्ट है, उस समय भी यह ज्ञात था कि वस्तुओं के ऊंचाई से गिरने में जो प्रत्यक्ष विरोधाभास दिखाई पड़ता है उसका कारण हवा का प्रतिरोध है। यदि इस अवरोध को हटा दिया जाय अर्थात् किसी प्रकार शून्य की स्थिति पैदा कर दी जाय तो हल्की भारी दोनों प्रकार की वस्तुएं साथ-साथ नीचे पहुंचेगी।
आज विज्ञान के पास अद्भुत जानकारियां , बेजोड़ राडार, टेलिस्कोप आदि यंत्र है। जिनके सहयोग से ज्योतिर्विज्ञान के क्षेत्र में मूल्यवान खोजे की जा सकती है। आवश्यकता मात्र इतनी भर है। कि जड़ संसार की खोज में उलझा विज्ञान, अदृश्य जगत की ओर भी अपने कदम बढ़ाये। प्राचीन ज्योतिर्विज्ञान के अगणित सूत्र -संकेत उसे मार्गदर्शन करने में समर्थ है। इस महान विद्या का पुनरुद्धार किया जा सके तो अदृश्य जगत से संपर्क साधने, सहयोग पाने तथा परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने का मार्ग प्रशस्त हों सकता है। यह एक ऐसी उपलब्धि होगी, जिस पर वैज्ञानिक गर्व कर सकते हैं। मारक आयुधों के निर्माण संलग्न प्रतिभाओं को वस्तुतः मनीषी की भूमिका निभाते हुए पुरातनकाल के ऋषिगणों की तरह ही ज्योतिर्विज्ञान की बौद्धिक प्रखरता का, सार्थकता का प्रमाण देना चाहिए।
शांतिकुंज गायत्री तीर्थ ने आर्यभट्ट परम्परा के अंतर्गत हुए इस कार्य को आगे बढ़ाने का प्रयास किया है। परमपूज्य गुरुदेव दृश्य गणित पर आधारित खगोल ज्योतिर्विज्ञान में न केवल निष्णात थे अपितु उनके मार्गदर्शन में गायत्री नगर में एक उच्चस्तरीय शोधकार्य करने वाली एक आँब्जर्वेटरी भी लायी गयी। साथ ही एक पंचाँग भी यहां से निकाला जाता रहा था। कालान्तर में स्थान की आवश्यकता बढ़ने पर वे यंत्र तीर्थ परिसर से हटाकर अन्य किसी उपयुक्त स्थान पर बनाने का उनने मार्गदर्शन दिया एवं यही कार्य परमवंदनीया माताजी से संरक्षण में अब नये परिसर में व्याप्त भवन के सामने के मैदान में पंडित कल्याणदत्तजी के प्रत्यक्ष जाता चाहिए कि मनीषी समुदाय की लुप्त होती जा रही इस विद्या की जाग्रत-जीवन संस्कृति की सबसे बड़ी सेवा है। ऐसी प्रतिभाओं का गायत्री तीर्थ-कुँज आह्वान करता है।