Magazine - Year 1996 - Version 2
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Language: HINDI
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किसी की उपेक्षा न करें(Kahani)
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एक सूफी कथा है किसी प्रेमी ने अपनी प्रेयसी के द्वार को खटखटाया। भीतर से पूछा गया कौन है ? प्रेमी ने उत्तर दिया मैं हूँ तुम्हारा प्रेमी प्रत्युत्तर मिला इस धर में दो का स्थान नहीं है। कुछ दिनों बाद प्रेमी पुनः उसी द्वार पर लौटा। इस बार “कौन है” के उत्तर में उसका जवाब था-”तू ही है।” और वे बन्द द्वारा उसके लिये खुल गये। ईश्वर और जीव के सम्बन्ध ऐसे ही होते हैं।
दक्षिण भारत की यात्रा करते समय एक बार गाँधीजी, महादेव भाई और काका कालेलकर जी को एक साथ काम करने का अवसर पड़ा। एक दिन सभाओं और विचार-गोष्ठियों का कुछ ऐसा ताँता बँधा कि उन्हें दिनभर एक क्षण का भी विश्राम करने का अवसर नहीं मिला। लौटे भी काफी रात गये। थकावट के तारने उनके शरीर बुरी तरह शिथिल हो चुके थे। वहां शिथिल हो चुके थे। वहाँ से आते ही तीनों चारपाईयों पर पड़ गये ओर पड़ते ही सौ गये।
चार बजे नींद टूटी। गाँधीजी का नियम था कि वह सायंकाल सोने के पूर्व और प्रातःकाल जगते ही प्रार्थना किया करते थे। उनके सभी साथी और अनुयायी भी इस नियम का पालन किया करते थे। प्रातःकालीन प्रार्थना के लिये एकत्रित हुए, काका कलोलकर से गाँधीजी ने बड़े दुःख भरे स्वर में पूछा-”शाम की प्रार्थना का क्या हुआ? काका जी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया-”बापू जी!मैं तो थकावट के मारे आते ही सो गया, प्रार्थना करना बिलकुल भूल गया।” महादेव भाई ने भी डरते-डरते कहा-”बापू जी! थकावट के मारे आते ही सो गया, प्रार्थना करना बिलकुल भूल गया।” महादेव भाई ने भी डरते-डरते कहा-”बापू जी! थकावट के कारण मैं भी सो गया। मेरी बीच में नींद टूटी, तब मैंने चारपाई में बैठकर मन-ही-मन प्रार्थना कर ली, भगवान् से क्षमा माँगकर फिर सो गया।”
गाँधीजी का दुःख बहुत गहरा था। उन्होंने कहा-”मेरा मन तो आज बहुत ही अस्वस्थ है। मैं कल की प्रार्थना क्यों नहीं कर सका? क्या सोना इतना आवश्यक था कि भगवान् का स्मरण तक न किया जाता? इसके बाद प्रातःकालीन समझाते हुए-” बापूजी, आप ही तो कहते हैं कि भगवान् के नाम से उनका काम बड़ा है। आप उनका काम करते हुए गया, इसमें बुरा क्या हो गया? “ “ माँ की इस सिखावन को कि भगवान् का नाम लेना कभी न भूलना, मैं कैसे भूल गया? दैव दूर रहने मकल शिक्षा दी थी, में डूबकर मैं भगवान् का नाम और काम कही दोनों न भूल जाऊँ।”
उस दिन सभी उपस्थित लोगों ने एक शिक्षा ग्रहण की। संस्कारों की जीवन-साधना में महत्ता की व छोटी-सी बात समझकर कभी किसी की भी उपेक्षा न करने की।