Magazine - Year 1996 - Version 2
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Language: HINDI
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हारे को हरिनाम
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जहाज समुन्दर की लहरों से बल खाता हुआ अपने गन्तव्य की और बड़ रहा था। लगभग पाँच सौ फौजी उस जहाज में सवार थे। साथ में खाने -पीने का समान भी था। द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका चारों ओर फैल चुकी थी। अनेक उपनिवेशों में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह भड़क उठा था। एक तरफ विश्व युद्ध में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका थी, तो दूसरी ओर चारों ओर से उठ रहे विद्रोही स्वरों को शान्त करने का उसका व्यस्त अभियान जारी था।
ये सभी अंग्रेजी फौज के सिपाही थे। यूँ उनमें बहुसंख्यक हिंदुस्तानी थे, अंग्रेजी की संख्या तो उंगलियों में ही गिनने लायक थी। से सब कभी जावा-सुमात्रा के निर्जन स्थानों में पहुंच जाते तो कभी वर्मा के व्यस्ततम इलाकों में आ धमकते । घर परिवार सब कुछ उन्होंने काफी अरसे से छोड़ रखा था। बस ! एक ही लक्ष्य था-दुश्मन को धूल चटाना।
बीच समुद्र मैं तैरता जहाज, चारों ओर गरजती लहरे। लहरों के इस संगीत के साथ ही ये सब भी जहाज की छत पर बैठ गाना गाकर अपना दिल बहला रहे थे इतने में अचानक जहाज चिकोले खाने लगा भय और आश्चर्य से सभी के चेहरों का रंग फीका पड़ गया। उनकी आंखें एक - दूसरे को ताकने लगी। सभी की नजरों में एक ही प्रश्न-चिन्ह अंकित था। अब क्या होगा? तभी जहाज ने जोर-जोर से सायरन बजाना शुरू कर दिया। सायरन की इस गूँज के बीच उनके मेजर ने इशारा करते हुए कहा -’जम्प’ और एक-एक करके सभी जहाज के डेक से अपनी सुरक्षा नौकाओं पर कूद पड़े। पल भर पहले जिस जहाज में पाँच सौ सैनिक गीत गाते हुए झूम रहे थे, वही जहाज अब बिना चालक के एकदम सुनसान मार्ग पर बढ़ रहा था। धरती का एक कतरा भी कही नजर नहीं आता था।
साँझ ढल गयी। अँधेरा घिर आया। उसने अपने आप-पास तैरते साथियों के मुख पर छाई निराशा को देखा। नीला आकाश काले रंग में बदल गया। एक सुरक्षा नौका उसके पास से गुजरी । ‘शुभ रात्रि......... उसके साफ स्वर सुना, पर पहचान ही पाया कि यह आवाज उसके किस साथी की थी। अब कुछ नजर नहीं आ रहा था।
हाँ भयानक समुद्री चक्रवात गर्जना बढ़ती जा रही थी इस तूफानी चक्रवात के अंधड़ के बीच नौका को नियन्त्रण में रख पाना मुश्किल होता जा रहा था। चीख - चिल्लाहट बढ़ती जा रही थी और इन्हीं के साथ चक्रवात उग्र से उग्रतर होता जा रहा था। चक्रवात की इस बढ़ती गर्जना में ये चीखें खोती जा रही हैं उसे सूझ नहीं पड़ रहा था कि वह किसे पुकारे , ऐसे में कौन उसकी मदद कर सकता है? वह भारतीय भा। अपने मा बाप से उसने सुन रखा था, हारे को हरिनाम। ‘ सारे सहारे टूट जाने पर, सारे आधार नष्ट हो जाने पर भी परमात्मा का सहारा नष्ट नहीं होता। उसके होठ चुप थे, लेकिन हृदय उस निर्बल को बल प्रदान करने वाले को पुकार उठा- हे भगवान!’
इस प्रकार की तारतम्यता के बीच चक्रवात शान्त हो चुका था और सूर्योदय की लाली समुद्री जल को अपने रंग में रंग रही थी। उसने दूर-दूर तक नजर दौड़ाई , कोई नजर नहीं आ रहा था कहा गए सब? समुद्री तूफान में भटक गए । या उफनती लहरों समं समा गए, उसे नहीं मालूम था। भोर होते उसने अपने को कनहरा तो पता चला कि इस विशाल सर्वथा निराश्रय । अब न उसके पास भोजन था और न पीने को पानी। यदि कुछ बचा था तो प्रार्थना का सम्बल, अंतर्हृदय से उठने वाली आर्त पुकार ।
सूरज चढ़ने के साथ गर्मी महसूस होने लगी। शायद वह गर्म इलाका था या वहां सूर्य की किरणें सीधी पड़ती थी। यूं ही बैठे - बैठे मस्तिष्क में तरह- तरह के विचार आ रहे थे। पहली बार वह अपने बचपन की घटनाओं को कुरेद-कुरेद कर याद कर रहा था। गांव में हनुमानजी का मन्दिर, उसमें होने वाली रामकथा जिसमें वह अपने पिताजी के साथ जाया करता था कथा सुनाने वाले वैष्णव सन्त के शब्द उसकी स्मृति पटल पर प्रकाशित हो उठे-” मानव मानव को प्रायः निराश कर देता पर परमात्मा से उसे दिल की गहराइयों से पुकारा जाय। अभी वह इन्हीं यादों में खोया था कि एक जहाज दिखा पाल लगे थे। जो हवा की दिशा के अनुरूप गुब्बारे की शक्ल में फूल कर जहाज को उसकी ओर बढ़ा रहे थे। यह देखकर उसके मन को खुशी की एक सुखद लहर भिगो गयी। उस निर्जन समुंदर में मानव जीवन का कल्पना करना ही दुष्कर था ऐसे में नाविकों का जहाज देखकर लगा जैसे किसी ने उसे काल के जबड़े से छुड़ा लिया हो।
वह जहाज इतने में एकदम समीप आ पहुंचा कुछ जंगली से दिखने वाले लोगों ने उसे तीतर की तरह दबोच कर जहाज के डेक में डाल दिया। यहां के डेक का दृश्य बड़ा भयानक था एक मोटा तगड़ा काला वनमानुष - सा दिखने वाला ठहाके लगाता हुआ उसे खा जाने वाली नजरों से देख रहा था। उसका साथ देते हुए उसके साथी जो उसकी तुलना में कम डरावने लग रहे थे, भी ठहाके लगा रहे थे । उनकी खुशी का राज उसकी समझ में नहीं आता था वो आपस में कुछ बाते भी कर रहे थे। पर वह भाषा भी उसकी समझ के बाहर थी उसे लग रहा था, मानो आसमान से टपक कर खजूर पर अटक गया हों।
सांझ ढलने से पहले वे जहाज एक छोटे से द्वीप के छोर पर आ लगा। उस टापू पर चारों ओर जैसे मातम छाया था। सब कुछ सुनसान लग रहा था उसी बांहें पकड़कर वे लोग उसे एक रेतीले मार्ग पर ले जाते हैं। आगे-आगे उनका सरदार चल रहा था । अभी एक- आध मील ही चले होगे कि एक महलनुमा आकृति पहुंचे कि एक बार दिमाग चकरा गया। चारों इसका मसाले जल रही थी। अभी वह उस महल के वैभव को ठीक से देख पाता कि एक डाकू ने बड़ा भारी लौह द्वार खोलकर उसे अन्दर धकेल दिया। वह कैदखाना था। अनेक समुद्री यात्री वहां बन्दी बनाकर रखे गये थे। कुछ अभागे युवकों को न जाने किस भूल के लिए कोड़ों की मार पड़ रही थी। कुछ कैदियों के शरीर पिटकर सूज चुके थे। लगभग सभी कैदियों के वस्त्र फटकर चिथड़े में बदल गए थे। भय से उसका भी कंठ सूखने लगा था चार जल्लाद वहां पहरे पर नियुक्त थे।
उन बन्दियों से उनकी कहानी सुनकर उसका हृदय द्रवित हो उठा एक बारगी उसे अपने दुःख विस्मृत हो गए। उन बन्दियों में कुछ व्यापारी थे, कुछ सामान्य नागरिक जो समुद्री यात्रा कर थे। दुर्भाग्यवश ये लोग इन डाकुओं की गिरफ्त में आ गए थे। बच्चों और स्त्रियों की दशा तो अकथनीय थी। खिड़की की सलाखों के छेद से उसने उन मायूस बच्चों को डाकुओं के इशारों पर बर्तन मांजने से लेकर उनके पैर दबाने तक के कार्य करते हुए देखा।
इन सबका छुटकारा किस तरह हो? इस सोच -विचार में रात्रि बीत गयी। अगली सुबह वे डाकू अपने सरदार के नेतृत्व में दूसरे यात्री जहाज की टोह में निकल पड़े। बन्दीगृह ने नियुक्त जल्लादों की उनके सरदार ने जाते समय कुछ निर्देश दिये। डरे-सहमे वे सभी अपनी पेशियों को मसलते हुए कोड़े खाने की तैयारी करने लगे। इन विचित्र परिस्थितियों के बीच भी उसका हृदय इन सभी पर कृपा हेतु परमात्मा को पुकार रहा था।
हाथों में कोड़े लिए हुए ज्यों ही वे जल्लाद कैदखाने की ओर बढ़ने को हुए मनोरंजन कक्ष से वाद्य यंत्रों की ताज पर एक मधुर स्वर लहरी गूंज उठी। अचानक इतना सुरीला स्वर सुनकर वे जल्लाद ठिठक कर रुक गए। गीत की धुन पर जब घुंघरुओं की छम-छम शुरू हुई तो वो मुस्कराते हुए एक दूसरे को गौर से निहारने लगे। न जाने उन्होंने क्या सोचकर कैदखाने से मुख फेरकर मनोरंजन कक्ष का रुख ले लिया। बात कुछ-कुछ समझ में आने लगी। उसे अपने मन में महसूस हुआ । कि इसके संगीत के पीछे परमेश्वर की ही कृपाशक्ति काम कर रही है।
अचानक कुछ क्षणों बाद स्वागत कक्ष से एक विदेशी युवती भागकर आयी। बन्दीगृह का लौह द्वार खोलकर उसने सभी को अपने साथ चलने का इशारा किया। किसी तरह साहस बांधकर जब ये सब मनोरंजन कक्ष में पहुंचे तो वहां का दृश्य देखकर दंग रह गए शराब के नशे में मदहोश होकर चारों जल्लाद निढाल जमीन पर लेटे हुए थे। स्त्रियों ने अपने सूजे हुए तलुवों पर मलहम लगा रखा था। यह देखकर सभी का हृदय रो उठा परन्तु वह समय भावनाओं में बहने का नहीं था इस समय तो विवेक एवं बुद्धि से काम लेने की जरूरत थी। स्त्रियों को साथ लेकर सभी बावर्ची खाने में पहुंचे । वहां छोटे-छोटे बच्चे अपनी कोमल हथेलियों से बर्तन साफ करने में व्यस्त थे। बचपन की इतनी दयनीय हालत पहले कभी किस ने नहीं देखी थी।
उस द्वीप में बन्धक बनाए गए सभी जनों ने एक साथ मिलकर चैन की सांस ली। अब उस महल में देर तक टिकना खतरे से खाली नहीं था जिस रेतीले मार्ग से उनको लाया गया था उसी मार्ग पर वापस चलते हुए सब के सब द्वीप के तट पर पहुंच गए। जहाज को तो डाकू ले गए थे परन्तु वहां पर एक बंधी पानी में स्थित खड़ी थी उफनते समुंदर में इतनी विशाल नौका को खेना असम्भव ही था, लेकिन उसके हृदय में साहस का संचार किया । सबने अपनी पूरी शक्ति उस नौका को आगे बढ़ाने में लगा दी क्फद कील का सफर तय करने के बाद समुंदर की लहरे उनके अनुरूप होने लगी। अब उनकी नाव तेजी से बढ़ रही थी पीछे मुड़कर देखा तो टापू आंखों से ओझल हो गया था।
इतनी लम्बी दूरी तक नाव को खेते हुए सब की बांहें दुखने लगी थी। लेकिन चारों ओर उफनते-गरजते सागर के अलावा और कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था। सभी दिशा - भ्रम की स्थिति में थे। किधर चले, कहा जाए थक को सूझ नहीं रहा था शाम ढलती जा रही थी। नीला आकाश सितारों जड़ी काली चादर ओढ़ने की तैयारी में था सभी एकबारगी फिर से घबरा गए।
हे भगवान ! प्राण जाते समय प्राणी के कष्ट से जो आर्तनाद फूटता है बिना अनुभव के कोई उस स्वर को समझ नहीं सकता । कोई आशा कोई युक्ति कोई बल जब नहीं रह जाता और मृत्यु का कराल खुला जबड़ा सम्मुख दिखाई पड़ता है। अहो भाग्य उसका जो उस समय भी उस परम सहायता को पुकार सके। उस सर्व समर्थ को पुकार कर ले कोई कभी निराश नहीं हुआ है।
यही पुकार सभी के हृदयों और धर्म के अनुरूप प्रयुक्त किए हों । पर भाव एक ही है। भावों में कोई भेद नहीं था। अब की बार उसकी प्रार्थना वैयक्तिक नहीं सामूहिक थी। सभी के हृदयों से एक ही समन्वित पुकार उठ रही थी । अश्रु भर आंखों से सबके सब आसमान की ओर सिर उठाए उस परम प्रभु की याद कर रहे थे तभी उन्हें अचानक तेज हार्न सुनायी दिया। हार्न की तीव्र ध्वनि से सभी एकबारगी चौक गए बच्चे डर कर रोने लगे लेकिन एकमात्र वही फौजी होने के कारण समझ सका कि ये ध्वनि संकेत ‘मित्र राष्ट्र’ कि विजय का सूचक होता है। उसने देखा प्रकाश का एक पुंज उनकी ओर बढ़ा चला आ रहा है कुछ आशा बंधी तो वे अपनी नाव की दिशा बदलकर उस प्रकाश पुँज की ओर मुड़ चले।
निकट आकर उसने उस जहाज पर ‘मित्र राष्ट्रों’ का संयुक्त झण्डा लहराता देखा। वह भी फौजी था। उसने अपने तरीके से हाथ उठा-उठाकर अभिवादन किया। अभिवादन करने का तरीका देखकर उन सैनिकों ने इन सभी को अपने जहाज में बुला लिया। जहाज में चढ़कर इन सभी ने सन्तोष की गहरी सांस ली। ये अभी कुछ और सोच पाते कि इनके साथ की कुछ जापानी महिलाएं जोर-जोर से रोने लगी। दरअसल उनको किसी सैनिक ने बता दिया था कि जापान के भव्य शहर परमाणु बम की विभीषिका में जलकर राख हो गए हैं। मित्र राष्ट्र के जहाज में शत्रु राष्ट्रों के कुछ सैनिक क्रुद्ध होकर शत्रु देश के निवासियों पर टूट पड़े।
एक बार जहाज में फिर हलचल मच गई वह जिस किसी तरह भागकर मित्र राष्ट्रों की सेनाओं के वरिष्ठ अधिकारियों को बुला लाया। ताकि वे अपने सैनिकों को इन बात के लिए समझा सके कि इन निरीह औरतों, मासूम बच्चों का कत्ल करना उचित नहीं । उसकी बाते एक बुजुर्ग सेनाधिकारी की समझ में आयी। वे अपने सैनिकों को सम्बोधित करते हुए भावावेश में कहने लगे-” लड़ाई बन्द करो यहां हमारा कोई शत्रु नहीं हैं काल के मुंह से बचकर आने वाले इन निर्दोष लोगों को फिर से काल के मुंह में धकेलना कोई वीरता नहीं हैं हमारी शरण में आए लोगों को इनके देशों तक सुरक्षित पहुंचाना हमारा कर्तव्य हैं ।
अपने वरिष्ठ अधिकारी के शब्द सुनकर क्रुद्ध सैनिक एकदम शान्त हो गए। लेकिन यह शान्ति किसी श्मशान की शान्ति जैसी लग रही थी। परमाणु बम की सदी की भयावह खबरें जहाज के वायरलैस पर लगातार आ रही थी। सभी के हृदय इस हादसे की भयंकरता को सुनकर सहमे हुए थे। ऐसे में क्या किया जा सकता है? प्रार्थना उसके अंतःकरण में एक स्वर में गूंजी। उसने अपने हृदय की बात जहाज के सैन्य अधिकारियों को बताई । वे सभी सहमा हो गए । जहाज में आए हुए स्त्री, पुरुष , बच्चों के साथ सैनिक और उनके अधिकारी तथा जहाज के कर्मचारी सभी एक स्वर से प्रभु को पुकारने लगे।
बड़ी करुण और आर्द्र पुकार थी इस बार वे अपनी जीवन की रक्षा के लिए नहीं विश्व शान्ति के लिए पुकार रहे थे। प्रार्थना का यह स्वरूप पहले की वैयक्तिक प्रार्थना और सामूहिक प्रार्थना से भिन्न था।
लेकिन उसका भरोसा था कि उसके प्रभु अवश्य सुनेंगे। सभी के हृदय की यह समन्वित पुकार निकल नहीं जाएगी तभी जहाज बन्दरगाह पर पहुंचा। बन्दरगाह पर पहुंचते ही उन्हें खबर मिली , संयुक्त राष्ट्र संघ नामक एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन को गठित करने पर दुनियाभर के राष्ट्र सहमत हो गए हैं। यह संगठन विश्व में शान्ति कायम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने और राष्ट्रों के बीच उपजे कटुता को मधुरता में परिवर्तित करने का प्रयास करेगा।
उसे यह खबर सुनाते हुए मित्र राष्ट्रों के एक वरिष्ठ सैनिक अधिकारी ने कहा-” कैप्टन मोहन सिंह , तुम्हारी प्रार्थना सफल हुई - अब किसी की नृशंस विजय को सराहा नहीं जाएगा। किसी शत्रु का खून नहीं बहेगा। यदि स्वागत होता तो शान्ति का और यदि तिरस्कार होगा तो घृणा का। अब एक शांतिमय विश्व पनपेगा। “ सैन्य अधिकारी के इस कथन को सुनकर वह गदगद था हृदय से निकले प्रार्थना के स्वरों का परिणाम आश्चर्यजनक और अद्भुत होता है उसने अपना शेष जीवन ‘प्रार्थना’ के लिए अर्पित करने का निश्चय किया। स्वामी सत्यप्रकाश के रूप में वह समाज में एक आध्यात्मिक विभूति के रूप में प्रख्यात हुए । प्रार्थना उनका जीवन-मंत्र बन गया।