Magazine - Year 1996 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
प्रकृति के साथ विवेकसम्मत व्यवहार करें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
आज ही सब कुछ पा लेने के लोभ में आने वाले कल की दुर्दशा बना देने को नासमझी के सिवा और क्या कहेंगे ? यह नासमझी जितनी अधिक कृषि क्षेत्र में हुई है , उतनी शायद और कहीं नहीं । एक बारगी खेतों से सारा कुछ छिन लेने की सनक के कारण रासायनिक खादों एवं कीटनाशक दवाइयों का प्रचलन इधर बेतहाशा बढ़ा है । इस प्रचलन से तात्कालिक राहत तो जरूर मिली है , खेतों में उत्पादन भी बढ़ा है । लेकिन इन तात्कालिक लाभों के पीछे क्या छुपा है , यह जानने की शायद हममें से किसी ने कोई जरूरत नहीं समझी ।
हमारे आज के कारनामे , हमें कल क्या परिणाम देखें ? इस सत्य पर यदि हम विचार करें, तो उस लालची आदमी का किस्सा हमारी आंखों के सामने तैरने लगेगा , जिससे एक साथ सारे सोने के अण्डे पा लेने के लिए बेचारी मुर्गी की जान ले ली। रासायनिक खाद के उपयोग के सम्बन्ध में भी कुछ ऐसी ही बात है । इसके उपयोग से थोड़े समय के लिए उत्पादन तो जरूर बढ़ता है , किन्तु इसके साथ ही मिट्ठी विद्यमान जैविक पोषण तत्वों का नाश होता है। साथ ही मिट्ठी की प्राकृतिक संरचना भी विकृत हो जाति है । जिन खेतों में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग किया जाता है, उनमें पानी की माँग भी बढ़ जाती है । उत्पादन की मात्रा बरकरार रखने के लिए दूसरी तीसरी बार क्रमशः ज्यादा रसायनों का प्रयोग करना पड़ता है । जिससे खर्चा बढ़ने के साथ मिट्ठी की प्राकृतिक उर्वरता नष्ट होने की दर भी बढ़ जाती है ।
पंजाब के लुधियाना जिले के कंगनवार गाँव में देखा गया कि जिंक उर्वरक के कारण खेतों में लौह तत्व एवं मैंगनीज की कमी हो गयी । अन्य पाँच गाँवों में ताँबे की कमी पायी गयी । अध्ययन के दौरान यह भी देखने को मिला कि जिंक डालने से 80 से 90 प्रतिशत भूभाग ऐसे रूप में बदल जाता है , जो पौधों के काम नहीं आता । रासायनिक खादों की तरह कीट नाशक दवाइयों के दुष्परिणाम सामने आते हैं पिछले कुछ सालों में इनके उपयोग में भी कई गुना बढ़ोत्तरी हुई हैं विशेषज्ञों का अनुमान है कि भारत में प्रतिवर्ष 5 लाख टन से भी ज्यादा कीटनाशक रसायन उपयोग में लाये जाते हैं। बिना सोचे समझे किए गए इस उपयोग से समस्या का समाधान होने की बजाय परिस्थितियां और अधिक उलझती जा रही है देखने को यह मिला है कि कई बार कीटनाशकों के उपयोग से कीटों की संख्या ओर बढ़ी है इस बढ़ोत्तरी को वैज्ञानिक भाषा में ‘अपसेट्स’ कहते हैं, जो कल्पनातीत ढंग से होती हैं कई बार इसे मूल संख्या से 1200 गुना तक बढ़ते हुए देख गया है इस क्रम में यह भी पाया गया है कि कीटों की प्रजातियां अपनी प्रतिरोधी क्षमता को इस कदर बढ़ा लेती है कि उनपर कीटनाशकों का कोई प्रभाव ही नहीं होता है।हाँ भूमि के उपयोगी तत्व जरूर विकृत हो जाते हैं। इस कारण एक के बाद एक नए-नए तरीके के कीटनाशकों का अनुसंधान करना पड़ता है इस कार्य में होने वाले भारी-भरकम खर्चे के परिणाम में बरबादी के सिवा कुछ हाथ नहीं लगता ।
इन फसलनाशी कीटों की प्रतिरोधी क्षमता ज्यामितीय अनुपात में बढ़ती देखी गयी है सन् 1940 में केवल 20 प्रतिशत कीट प्रजातियां ही कीटनाशकों के खिलाफ प्रतिरोध की क्षमता रखती थी। वर्तमान वर्ष तक यह क्रमिक वृद्धि लगभग 500 कीट प्रजातियों तक जा पहुंची हैं विशेषज्ञों ने अपने अध्ययन के दौरान इस दशा को खेतों में ही नहीं घरों में भी बरकरार अनुभव किया है। उनके अनुसार कई सालों डी0 डी0 टी0 की फुहार के बाद हिमालय क्षेत्र में क्षटमलों की संख्या हद से अधिक बढ़ गयी। यह बढ़ोत्तरी उनकी संख्या में ही नहीं कद में भी पायी गयी। ये पहले की कही अधिक बढ़े, अधिक रक्त चूसने वाले एवं अधिक चमकदार थे
कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग की वजह से इनके अंश भी खाद्य पदार्थों में पाये जाने लगे। है। अन्न , शाक-सब्जी ही नहीं मास मछली और जल भी इनके प्रभाव से अछूता नहीं रहा। इनके खाने से होने वाले प्रभाव विविध रोगों के रूप में प्रकट होते देखे जा सकते हैं कीटनाशकों की वजह से होने वाली मौत की पहली घटना केरल में हुई थी। जहां पैरापियान कीटनाशक रसायन युक्त गेहूं के उपयोग से 100 लोग मरें थे। फसलों में इस तरह के रसायनों का उपयोग जब भी किया जाता है उनका 50 प्रतिशत से अधिक भाग जमीन पर ही पड़ता है। मिट्ठी में डाले गए डी0 डी0 टी0 गैमेक्सीन, एरिछ्रन कलोरोडेन के अवशेषों के जहरीले कगर को क्रमशः 7,10,11,12, सालों तक मौजूद पाया गया है। खरपतवारनाशी रसायनों के अवशेषी अंश भी 6 से 36 महीनों तक बने रहते हैं। इस तरह के प्रयोग में नासमझी रसायनों के अवशेषी को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जहरीला एवं नुकसान देह घोषित कर दिया है अपने देश के किसान जानकारी के अभाव में उनका भी खुलकर प्रयोग कर रहे हैं ऐसे रसायनों में डी0 डी0 टी0, वी0 एच0 सी0 हैक्टोक्लोवर 2-4 डीफास्वेल, डेस्डिन, क्लोरोडेन प्रमुख है जिन्हें विकसित देशों में प्रतिबन्धित किया जा चुका है लेकिन न जाने क्यों अपने यहां इनके उपयोग में बढ़ोत्तरी होती जा रही हैं।
रासायनिक खादों के विकल्प में परम्परागत रूप में उपयोग की जाने वाली खादों को आज भी प्रभावी पाया गया है। सनई , ढाँचा आदि की बुवाई और इनके पौधे की बाद में जुताई करके मिट्टी में मिला देने से उर्वरता में असामान्य वृद्धि होती देखी गयी है। विभिन्न पशुओं के गोबर की खाद का भी कम मूल्य नहीं हैं पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के प्रयोगों से सिद्ध हुआ हैं कि मक्का गेहूं और चना के लिए जिंक की प्रति करने में मुर्गी की खाद एवं सुआरों की खाद उपयुक्त है। इसी तरह फली वाली फसलों व हरी खाद से मिट्टी के प्रायः सभी पोषक तत्व आ जाते हैं मिट्टी में लोहा व मैग्नीज की कमी पूरा करने में खेत को लम्बे समय तक पानी में डूबाए रखना भी एक अच्छा उपाय है रासायनिक उर्वरकों की जगह नीलहरित शैवाल और राइजोवियम जैसे उर्वरक भी विकल्प के रूप में सामने आते रहे हैं।
पश्चिमी बंगाल के सुन्दरवन दलदल क्षेत्र में नीलहरित शैवाल के प्रयोग से उत्साहवर्द्धक परिणाम आए हैं इसमें धान की पैदावार में 7 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी देखी गयी है भूमि खाद्यान्न एवं पर्यावरण एवं कीटनाशी रसायन एवं रासायनिक खादों के दुष्प्रभावों को देखते हुए इनके विकल्प की खोज जरूरी है विकल्प के रूप में उन प्राकृतिक तौर तरीकों को अपनाया जा सकता है। जो आज भी बेहद प्रभावी है।
हालैण्ड में कृषि का मुख्य उत्पादन फूल है जिनमें गुलाब का फूल प्रमुख है गुलाब के फूल में कुछ गोल कृमि लगे पाए गए । लेकिन जहां आस-पास गेंदे के फूल थे वहां इन कृमियों का कोई प्रभाव नहीं था । इस तरह गेंदे के फूलों द्वारा गुलाब को इन कृमियों से सुरक्षित किया गया है।
कुछ कीट-पतंगे भी इस कार्य में सहायक सिद्ध होते देख गए हैं। अमेरिका के पूर्वी तट पर एक वनस्पति उग आयी , जो किसी भी तरह उपयोगी न थी साथ ही पशुओं के लिए हानिकारक भी थी। देखते - देखते यह 25 लाख हेक्टेयर भूमि मैं फैल गयी। यूरोप में इसका कोई प्रभाव नहीं था, क्योंकि वहां इसके दुश्मन दो भूँग थे। सन् 1948 में इनका आयात किया गया। इनके असर से सन् 1959 तक अमेरिका में मात्र 1 प्रतिशत ही यह वनस्पति रह गयी।
आस्ट्रेलिया ने 18 वीं शताब्दी में कैक्टस मंगवाया जो इतना बढ़ा कि इसने 6 करोड़ एकड़ भूमि को अपने कब्जे में कर लिया। लगने लगा कि वृद्धि दर यदि यही बनी रही तो अन्न उपजाने के लिए जमीन न मिलेगी। स्थिति को नियंत्रण में लाने के लिए तरह-तरह के रसायन छिड़के गए, किन्तु कुछ भी असर न हुआ वर्ष 1930 में अर्जेन्टीना से पतंगों की एक प्रजाति के तीन अरब अंडों का आयात किया गया । जिससे उत्पन्न होने वाले पतंगों के प्रभाव से 7 सालों में ही कैक्टस की समाप्ति हो गयी। इससे खर्च मात्र 10 पैसा प्रति एकड़ आया था जबकि रासायनिक छिड़काव का खर्च 150 रुपए प्रति एकड़ था। अनावश्यक का बढ़ाव रोकने के प्रकृति की यह प्रक्रिया इकॉलाजी के सिद्धान्त के अंतर्गत सहज कार्य करती देखी जा सकती हैं।
नीम जैसे कुछ पौधे भी कीटों पर नियन्त्रण बनाए रखने में अपनी क्षमता प्रदर्शित करते देखे गए हैं। परम्परागत बीज का उपयोग कीट एवं कई तरह के रोगों के विरुद्ध सक्षम है कुछ पक्षी भी इसमें अपनी भूमिका निभाते देखे गए हैं कुछ सालों पूर्व चीन ने फसलों को हानि पहुंचाने के कारण गौरैया पक्षी को नष्ट कर दिया था लेकिन इसका दुष्परिणाम यह रहा है कि वहां चावल का एक दाना भी नहीं पैदा हुआ। क्योंकि गौरैया धान के साथ एक कीड़ा भी खाती थी। गौरैया के नाश के बाद यही कीड़ा खूब पनपा। पूरी फसल नष्ट हो गयी। अंत में चीन ने 40,000 गौरैया का आयात किया। जिससे समाधान हो गया।
इस तरह प्राकृतिक नियन्त्रण की दिशा में नए-नए प्रयोग भी किए गए हैं विकिरण द्वारा हानिकारक कीटों को निर्वीजित करके वंश को हो समाप्त करने के प्रयोग हुए हैं दूसरा कृत्रिम प्रजनन द्वारा नए कीटों की संख्या बढ़ाई गई । जिससे वे आपस में ही समाप्त हो जाए। इन तरीकों के अलावा एक तरीका सूझ-बूझ की भी है। जिनको अपनाकर हम प्रकृति के जैव-चक्र को समझे , तद्नुरूप विवेकसम्मत व्यवहार करें। साथ ही उन तथ्यों में भी हम कुछ लाभदायक तत्वों को खोजे, जिन्हें अति आधुनिकतावादी बनने की सनक में हम छोड़ चुके है। प्रकृति का सहयोग पाने कि दिशा में इस अन्वेषण अनुसंधान में हमें बहुत कुछ ऐसा मिल सकेगा, जिसे अपनाकर न केवल हम कीटनाशी रसायनों के एवं रासायनिक खादों के आत्मघाती तरीके को छोड़ सकते हैं बल्कि ऐसा कुछ सार्थक कर सकते हैं। जिससे हमारी भावी पीढ़ियों की उर्वरक धरती में लहलहाती फसलों का आनन्द उठा सके।