Magazine - Year 1996 - Version 2
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Language: HINDI
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गुणसूत्र दर्पण हैं बहिरंग में विकृति के
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प्रकृति के नियम में जब और जहाँ भी कोई व्यतिरेक उत्पन्न होता है तो वह उसका प्रतिकार किसी -न - किसी प्रकार अवश्य करती है इन दिनों चूंकि इस नियम का उल्लंघन सर्वाधिक जुड़ा हैं अतः उसी अनुपात से उसकी प्रतिक्रिया भी बढ़-चढ़कर प्रस्तुत हुई हैं शरीर में यह प्रतिक्रिया कितने ही रोगों के रूप में सामने आती है पर वर्तमान में जिसको सबसे अधिक व्यापकता है वह है कैंसर। कैंसर के कितने ही प्रकार है किन्तु स्तन कैंसर जिस गति से संपत्ति बढ़ा है। उसे असाधारण ही कहना चाहिए।
महिलाओं में स्तन कैंसर की शिकायत आखिर क्यों होती है। पिछले दस वर्षों के अध्ययनों से इस सम्बन्ध में जो निष्कर्ष सामने आया है उसके अनुसार या कहा जा सकता है कि स्त्रियों में होने वाले मासिक स्राव इससे गहरा लगाव है। ‘भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद’ के अनुसार, अपने देश में प्रतिवर्ष 5 लाख महिलाएँ विभिन्न प्रकार के कैंसर की शिकार होती है। इनमें से लगभग 1 लाख महिलाएँ स्तन कैंसर से आक्रांत होती है। आँकड़े बताते हैं कि इनमें से करीब 50 हजार स्त्रियां इस संघातिक बीमारी से प्रतिवर्ष असमय ही मृत्यु के मुँह में समा जाती है।
यों तो रजोदर्शन की आयु देश, काल और जलवायु पर निर्भर हैं, फिर भी इसके आरम्भ होने की सामान्य उम्र प्रायः 12 से 13 वर्ष के मध्य ही होती है पूरे विश्व में मासिक स्राव इस उपरोक्त सीमा में ही कभी आरम्भ होता है ठंडे देशों एवं प्रदेशों में यह क्रिया गर्म क्षेत्रों की तुलना में थोड़ी देर से शुरू होती है स्तन कैंसर का इससे काफी कुछ सम्बन्ध है इसके अतिरिक्त प्रथम गर्भाधान के समय मां की आयु, पहला बच्चा जनने के समय उसकी उम्र तथा कुल संतानों की संख्या की भी इसमें उल्लेखनीय भूमिका है। चिकित्सा-शास्त्रियों का कहना है कि यही वह अवधि है जब स्त्रियों के शरीर में हारमोनों की सक्रियता काफी घट जाती है। यही अतिशय सक्रियता अव्यवस्थित होकर स्तनों को रुग्ण बना देती है।
शोधकर्मी वैज्ञानिकों का कहना है कि विवाह के उपरान्त प्रथम संतान जितनी जल्दी होगी, स्तन कैंसर की संभावना उतनी ही कम होती है विशेषज्ञ यह भी बताते हैं। कि प्रसव के बाद शिशु को स्तनपान न कराना भी इसका एक प्रमुख कारण है अक्सर स्त्रियों में यह धारणा होती है कि बच्चे के स्तनपान से स्तनों का आकार-प्रकार बेडोल हो जाता है। इसलिए वे प्रायः उन्हें बोतल का दूध पिलाती हैं यह सच है कि इससे स्तन का आकार बढ़ जाता है पर इसके स्वाभाविक आकार को सुरक्षित रखकर इतना बड़ा खतरा मोल लेना कि जीवन की संकट में पड़ जाये- इसे बुद्धिमानी नहीं कहा जा सकता । दूसरी इससे बालक के भावनात्मक विकास में भी बाधा पड़ती है। अतः जच्चे-बच्चे के लिए सुरक्षित तरीका यही है कि उसे स्तनपान कराया जाय।
विश्व स्वास्थ संगठन ‘ के एक अध्ययन में बताया गया है कि विश्वभर में लड़कियों के रजस्वला होने की आयु घटती जा रही है इस आशय के विगत 125 वर्ष के अध्ययनों से विदित हुआ है। कि इस दौरान इस वय में 3 से 4 वर्ष का अन्तर आया है पहले बालिकाएँ प्रायः 16 वर्ष के उपरान्त ही रजस्वला होती है किन्तु अब तो 10-11 वर्ष में भी होने लगी है विशेषकर अमेरिका जैसे देश में यह समस्या बड़ी तेजी से बढ़ी है। स्तन कैंसर का यह भी एक प्रमुख कारण अल्पवयस्क अवस्था में ही मातृत्व का दायित्व आ पड़ने से शरीर के अन्दर एक व्यावधान पैदा हो जाता है। प्रसव हो जाने के कारण शरीर की अंतःस्रावी ग्रंथियां उसे पूर्ण वयस्क मान बैठती हैं। और उसके अनुरूप रस स्राव करना प्रारम्भ करती हैं , जबकि वास्तविक आयु उनसे काफी कम होती है । पूर्ण वयस्क न होने के कारण प्रकृति उसे यौवन की ओर ले जाना चाहती हैं जबकि शरीर क्रिया उसे पूर्ण वयस्क बताकर भ्रम उत्पन्न करती है। इसी द्वन्द्व की स्थिति में कुछ ऐसे कारक शरीर के भीतर सक्रिय हो उठते हैं जो स्तन कैंसर के लिए जिम्मेदार होते हैं।
बालिकाओं में रजोदर्शन की आयु घटने के पीछे कितने ही कारण बताये जाते हैं। इनमें से कुछ तो प्राकृतिक है, जबकि कुछ ऐसे जो हमारी वर्तमान जीवन पद्धति के परिणाम हैं इनमें से कतिपय प्रमुख कारण निम्न है - मन-मस्तिष्क में अश्लीलता का कुप्रभाव, गंदी तस्वीर, फिल्में, टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले कामोत्तेजक कार्यक्रम , अत्यधिक मानसिक दबाव, प्रदूषित वातावरण, माता-पिता का नशा सेवन, पैवि स्मेकिंग, सहशिक्षा, अतिशय खेलकूद, मिलावटी भोजन, कृत्रिम रहन-सहन आदि लोगों को पैसा कमाने की अंधी दौड़ में शामिल हो जाने के कारण अब नैतिकता, अनैतिकता की चिन्ता नहीं रही। इससे कितने की खाद्य हानिकारक बन जाती हैं जो शरीर में पहुंचकर उसकी स्वाभाविक क्रिया और व्यवस्था में हस्तक्षेप करते हैं। यह न्योता बुलाते हैं। उदाहरण के लिए इन दिनों पशुओं से ज्यादा-से -ज्यादा परिमाण में दूध प्राप्त करने के लिए , लोग उनकी खुराक बढ़ने के तुलना में एक एकदम सीधा-सरल उपाय यह अपनाते हैं कि उन्हें ‘आक्सीटोसिन’ नामक हारमोन का इंजेक्शन लगा दिया जाय। इससे दूध तो बढ़ जाता है पर साथ-साथ वह हारमोन भी पीने वालों के शरीर में पहुंच जाता है। लड़कियां जब इस प्रकार का दूध -सेवन करती हैं तो शरीर का अंतःस्रावी रस- संतुलन गड़बड़ा जाता है फलस्वरूप कितनी ही प्रकार की जटिलताएं पैदा होने लगती है। इनमें से कम आयु में रजोदर्शन भी एक है जल्दी मासिक स्राव शुरू होता है। एक अध्ययन के अनुसार अब से 55 वर्ष पूर्व भारत में महिलाओं की ऊँचाई औसतन 5 फुट 3 इंच हुआ करती थी अब वह घटकर 5 फुट रह गई है। यों तो मासिक स्राव लड़कियों में 14-15 साल तक की अवस्था में प्रारंभ हो जाता है पर कानून उसे 18 साल से पूर्व विवाह की अनुमति नहीं देता। अर्थात् कोई भी युवती 18 वर्ष से पूर्व माँ नहीं बन सकती है। यहां इन दोनों प्रकार की व्यवस्थाओं में किसी भी प्रकार की विसंगति नहीं है। कहने वाले यह कह सकते हैं कि जब प्रकृति की ओर से 15 वर्ष की अवस्था तक में लड़कियों को प्रसव करने योग्य दशा में पहुँचा दिया जाता है तो फिर यह सामाजिक बन्धन क्यों? ऐसा सोचने वाले वास्तव में आम के टिकोलों को आम समझने जैसी भूल कर बैठते हैं । बोर और परिपक्व आम में जमीन-आसमान जितना अन्तर है बोर केवल कमजोर व अपरिपक्व होता उसमें न स्वाद होता है, न कठोरता , न नई पौध उत्पन्न करने की क्षमता । उसके परिपक्व होने में 3-4 माह लग जाते हैं। ऐसे ही रजोदर्शन का अर्थ प्रजनन की योग्यता नहीं समझ लेना चाहिए। यह उस अवस्था की शुरुआत मात्र है इसके परिपक्व दशा में पहुंचने में कम से कम 4.5 साल लग जाते हैं। यही विवाह की यथार्थ आयु है इससे कम उम्र में शादी कारण कि अपरिपक्व एवं कोमल स्तन में ऐसी स्थिति में दूध उत्पन्न करने का अतिरिक्त बोझ आ पड़ता है। जो उसे अस्वाभाविक बना देता है।
हावर्ड विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ता डाँव कार्ल बोड का कहना है कि स्तन कैंसर पर नियंत्रण पाने के लिए यह जरूरी है कि जीवनशैली में नैसर्गिकता का समावेश हो लड़कियों को आध्यात्मिक वातावरण और चिन्तन दिया जाय, अश्लील पत्र-पत्रिकाओं से दूर रखा जाय, भोजन में भी सात्विकता का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाय , तले-भुने पदार्थों एवं मिर्च-मसालों का कम से कम उपयोग किया जाय, कवायद अथवा पुरुष जैसे श्रमसाध्य व्यायामों से परहेज किया जाय। वे कहते हैं। कि इनके द्वारा बहुत हद तक रजोदर्शन की आयु की बढ़ाया जा सकता है यह उम्र को बढ़ाया जा सकता है। यह उम्र जितनी अधिक होगी, स्तन कैंसर की सम्भावना उतनी ही घट जाएगी ऐसा उनका मत है। कैंसर के मूल में जाकर विचार करें तो पता चलेगा कि इसका वास्तविक कारण क्रोमोसोम्स हैं यह गुण-सूत्र जो हमारी हर जीवन कोशिका में होते हैं। हमारी जीवन-पद्धति से प्रभावित होते हैं। और फिर अकस्मात् जानलेवा बन जाते हैं। अन्वेषणों से ज्ञात हुआ है। कि कैंसर जन्य प्रसुप्त जीन जब हमारी अस्वाभाविक गतिविधियों से सक्रिय बनते हैं। तो फिर जीवन के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न करते हैं। ऐसी बात नहीं कि कैंसर जीन्स केवल कैंसर ही पैदा करते हो। वरन् सामान्य स्थिति में तो ये साधारण जीनों की तरह शरीर की आवश्यक क्रियाप्रणाली में योगदान करते हैं। किन्तु कृत्रिम रहन-सहन , अनुपयुक्त चिन्तन और प्रदूषित कोशिका वातावरण के कारण जब इनमें बदलाव आता है तो उससे प्रभावित कोशिका कैंसर सेल की भांति कार्य करने लगती है। कई बार तो जीन में पैदा होने वाली इस प्रकार की गड़बड़ी को हमारा शरीर तंत्र स्वतः ही सुधार लेता है पर जब इस प्रकार का आक्रमण लेता है पर जब इस प्रकार का आक्रमण बार-बार होने लगता है तो वह तंत्र भी कमजोर पड़ जाता है और आगे आक्रमण बर्दाश्त न कर पाने की स्थिति में रुग्ण बन जाता है। बचाव-कार्य में प्रायः ऐंजाइम ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं यह ऐंजाइम कैंसरजन्य तत्वों को निष्क्रिय बनाकर मूत्र के साथ शरीर के बाहर निकाल देते हैं। अध्ययनों से कैंसर की गाँठ बनते समय कोशिका के अन्दर होने वाले परिवर्तनों का भी पता चला है ज्ञात हुआ है कि जिन परिस्थितियों में कैंसर जीन निरंकुश होकर कैंसर पैदा करते हैं , उनमें कभी-कभी कैंसर जीनों की संख्या में अतिशय वृद्धि हो जाती है। अथवा वे अत्यधिक सक्रिय हो उठते हैं इसका कारण बताते हुए विज्ञानवेत्ता कहते हैं कि कई बार जिस गुणसूत्र पर यह जीन लगे होते हैं उसका कोई हिस्सा टूट जाता है तो कभी किसी अन्य गुणसूत्र का कोई खण्ड टूटकर उससे जुड़ जाता है।
यह सारी प्रक्रिया आहार-बिहार की गड़बड़ी के कारण हो होती हैं जब गुणसूत्र की यह जोड़-तोड़ प्रक्रिया कैंसर जीन वाले भाग के एकदम निकट होती हैं तो फिर यह क्रिया उक्त जीन को सोये सिंह की भांति अचानक जगा देती है। परिणाम कैंसर होता है चाहे वह स्तन कैंसर हो या किसी अन्य अंग की उसकी सम्पूर्ण प्रक्रिया ऐसी हो होती है।
हम सब प्रकृति का अनुसरण करें, नैसर्गिक भोजन और उसमें चिन्तन करें, तो कोई कारण नहीं कि ऐसी प्राणघातक बीमारियों से पिण्ड न छुड़ा सकें इस प्रकार के अधिकांश उदाहरणों में हमारा अस्वाभाविक आचरण ही इसके लिए जिम्मेदार होता है इसके प्रति सतर्क रहे, तो स्वस्थता सुनिश्चित हो नहीं, अवश्यम्भावी बन जाएगी।