
सर्वश्रेष्ठ औषधि
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
यह जावा द्वीप की बात है। उस समय एक ने मूसा का आविर्भाव हुआ था, और न ईसा का ही । यूरोप में विडालाक्ष जाति के लोग कमर में पशुओं की खाल लपेटे पर्वत कन्दराओं में निवास करते थे और भारत की सीमा मिश्र तक थी । बीच के समस्त पर्वतीय एवं मरु प्रांत उज्जयिनी द्वारा संचालित पोषित होते थे। भारतीय जल यान की अपार जल राशि को चीरकर श्वेत द्वीप तक जाने कर दुःसाहस कर सकते थे । आज भी पुरातत्व विभाग को सूर्य मंदिर इसी कारण वहाँ पर अस्तित्व में दृष्टिगोचर होते हैं।
भारत विश्व का सम्राट था, पर शोषक नहीं। केवल राजसूय एवं अश्वमेध यज्ञों में प्रत्येक देश से कुछ कर, धनराशि अथवा संस्कृति विस्तार के निमित्त पूर्ण समय दान के रूप में लिया जाता था। नहीं तो सबके सब अपनी संस्कृति शक्ति के पूर्ण उन्नति में सम्पूर्ण स्वाधीन थे। किसी को भी पराधीन करने की बात यहाँ का मस्तिष्क सोचता ही नहीं था।
भारत केवल सम्राट नहीं था, वह जगद्गुरु भी था। उसका यह पद पहले से ही महत्वपूर्ण था। यहाँ के जंगलों में फूस के कुटीरों के भीतर वल्कल पहनने वाले जो ऋषि मुनि निवास करते थे, संपूर्ण जगत उन्हीं की दिव्य वाणी से आलोक प्राप्त करता था। आज भी उनके उस आलोक से ही विश्व का समस्त दार्शनिक ज्ञान अवलोकित है।
बल, तेज, पौरुष, सजीव क्षात्र शरीरों में और त्याग तपस्या एवं ज्ञान साकार विप्रों के रूप में इस भवन आर्य भूमि को प्रकाशित करते हैं। भावना और भव्य मूर्तियाँ मात्र यहाँ प्राप्त हो सकती है। क्षुद्र शरीर एवं लौकिक भोग तो जैसे कोई वस्तु हीन थे। यम और इन्द्र वहाँ की धनुष टंकार से काँपते थे । मोक्ष प्राप्ति प्रधान लक्ष्य था अवश्य किंतु अलस्य जैसा कुछ नहीं था।
ईशान कोण के सभी समुद्री द्वीप उस समय भारतीय उपनिवेश थे। यहाँ से ही गये हुए वणिक विप्रादि यहां रहने लगे थे और वहाँ के आदि निवासियों के रूप में उनका भव्य स्वागत किया था। उसके शासक यहाँ सर्वश्रेष्ठ माने जाते थे । सच्ची बात तो यह थी कि उन्हीं के वंशज आस पास के द्वीप राज्यों के सिंहासन के अधिष्ठित थे और वे अपने मूल वंश के नरेश को प्रसन्नता से अपना अधिपति मानते थे।
भारत से जाने वाले विद्वान महात्मा एवं राजपुरुष ही सीधे यवद्वीप ही पधारते तथा वहाँ से उनका संदेश द्वीप राज्यों में प्रसारित था। आवश्यकता होने पर यष्व द्वीप के अधिपति ही उनकी इतर द्वीप यात्रा की व्यवस्था करते थे।
एक दिन भारत सम्राट की वैजयन्ती ध्वजा फहराया हुआ एक पोत आकर यवद्वीप के पोत निवास में रुका । दूर से ही द्वीप के शासक वर्ग ने ध्वजा देख ली थी। भूमि पर स्वागत की समस्त प्रस्तुति थी। पोत के किनारे लगते ही तोपों का गगन भेदी तुमुल ध्वनि ने अभिवादन प्रारम्भ कर दिया था। पोत के तट पर होते ही तोपें मौन थी।शंख ध्वनियों के बीच विप्रों का सामगान गुंजित हो उठा। मार्ग में पावड़े पड़े थे।
दोनों ओर सजल घट लिए संविकाएँ खड़ी थी। स्थान स्थान पर बने तोरण द्वार तीव्र गति से सज्जित हो रहे थे।
सबका अनुमान था कि पोत कोई राज पुरुष पदार्पण करेंगे । हुआ इसके विपरीत ही उससे बल्कल कौपीन लगाए सम्पूर्ण शरीर में भस्म मले हुए एक तेजोमय गौरव पूर्ण तपस्वी निकलें। उसके पास एक बल्कल में बँधी पोटली थी। विप्रों ने जो अपनी अग्नियों के साथ पधारे थे साष्टांग प्रणाम किया।
महामात्य ने युवराज को आगे करके राजपुरुष के साथ उनके चरणों पर पुष्पांजलि समर्पित किये। पुष्प दूर्वा, लाजा, अक्षत, की वृष्टि प्रारम्भ की गयी।
“ महाराज क्यों नहीं पधारें ?” यवद्वीप के राजपुरुषों ने देखा कि महात्मा के पीछे एक वृद्ध महापुरुष पूछ रहे है। उन्हें सम्राट की ध्वजा का अभिवादन करना आवश्यक ज्ञात नहीं हुआ ? इन वृद्ध के स्वरों में आज्ञा थी तथा कुछ रोष भी।
यदि वे आ सकते तो हम यहाँ क्यों आते ? किसी के कुछ कहने से पूर्व उन तपस्वी ने ही कहा” अमात्य ! रुट होने का कोई कारण नहीं। तुम राज सम्मान प्राप्त करो और विश्राम लेकर यहाँ से प्रस्थित हो जाना ।” फिर उन्होंने आगत राज कुमार से कहा- “ आप लोग भारत के सम्राट के प्रधान अमात्य का स्वागत करें। मैं एकाकी जाऊँगा। श्री गुरु देव के लिए ऐसी ही आज्ञा है।
किसी को कुछ कहने का अवकाश दिये बिना वे सीढ़ी से उतरे। लोगों ने मार्ग दे दिया। एक और चल पड़े। किसमें साहस था कि उस आविर्भूत को रोके या उनसे कुछ प्रश्न करें। दूर से आदेश आया “मेरे संबंध में महाराज को कोई सूचना न दी जाय।”
तपस्वी की यह यात्रा विदेश उद्देश्य को लेकर हुई थी। उसे अभी भी उन क्षणों का स्मरण था जब गिरनार की एक अगम्य गुफा में भगवान दत्तात्रेय ने अपने सम्मुख कर बद्ध घुटनों के बल उससे पूछा था -” तुम प्रस्तुत हो न ?”
यंत्र की प्रस्तुति क्या है? जब प्रेरक जहाँ चाहे ....नियुक्त कर दे! युवक में अगाध श्रद्धा थी एवं अपार विश्वास।
अपनी मुक्ति कोई अथग् नहीं रखती । उन योगेश्वर की वाणी गूँजी। हम सब का त्याग पवित्रता, एवं तप विश्व के लिए हैं। विभु की प्रसन्नता प्राप्ति का एक मात्र मार्ग है उत्सर्ग। तुम्हारे समीप जो कुछ हैं, विश्व के लिए उत्सर्ग कर दो। हमारे साधन विभूतियाँ बेकार हो जायेंगी यदि अधिकार प्राप्ति के क्षण में ही किसी साधक की हम सहायता नहीं दें सकेंगे।
युवक का गला भर आया। आँखों के भाव बिन्दुओं को उन पावन पदों पर अर्पित करते हुए बड़े कष्ट से उसने कहा - इस क्षुद्र को किसी योग्य नहीं समझते हैं, यह उनका अहासे भाग्य।’
“मित तुम समर्थ हो।” चाहे वह भले ही कुछ भी न हो, किंतु जब ये योगीराज कह रहे हैं तो इसीलिए यह भार तुम्हारे ऊपर डाला जा रहा है।”
प्रभु ने गम्भीर ध्वनि से कहा !
निश्चय ! युवक ने प्रभु के चरणों की धूल को अपने मस्तक पर लगाते हुए कहा-”जब तक यह शक्ति मेरे समीप है, निश्चय ही मैं ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण शक्तियों के सम्मुख समर्थ हूँ। उनकी वाणी में प्रेमाद्र विश्वास उमड़ पड़ता था।”
अच्छा ! प्रभु मुस्कुराये ऐसा ही सही। अब तुम यहाँ से बाहर जाओ, नगर द्वार पर राज प्रतिनिधि तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। तुम्हारे उज्जयिनी जाने का प्रबंध हो गया है। वहाँ तुम जैसा चाहोगे, प्रबंध हो जायेगा। उन सर्व सामर्थ्य के लिए यह कोई अनोखी बात नहीं थी। अभिवादन करते हुए युवक तपस्वी उठा । अपने गुप्त मार्ग से जो जो केवल सिद्ध योगियों के आने के योग्य था। वह बाहर आया । उसे नगर द्वार पर ही राज प्रतिनिधि मिल गया । स्वप्न में आदेश प्राप्त कर स्वयँ सम्राट ने उसे लेने के लिए प्रतिनिधि भेजा था।
उज्जयिनी पहुँचकर उसने केवल यव द्वीप की यात्रा का प्रबंध करने की माँग की थी। किसी भी आते जाते वणिक पोत से जाने की इच्छा प्रकट की गयी। लेकिन सम्राट सेवा का सौभाग्य छोड़ने वाले नहीं थे। सेवकों के साथ स्वयँ महाराज समुद्र तट पर पधारें । प्रधान अमात्य सम्राट के निजी पोत से उसे लेकर द्वीप के लिए विदा हो गये।
और इन क्षणों को वह इस ओर जा रहा था जहाँ यवद्वीप के महाराज पड़े बिलख रहे थे।उन चरणों में मैंने अपने आप को एक बार छोड़ दिया। यदि मेरे दुर्बल पैर लड़खड़ाये और आश्रय के अभाव में गिर पड़ा तो मेरा अपराध होगा? उनका कर्तव्य नहीं था कि वे मुझे बचा लेते। महाराज पता नहीं क्या क्या विलाप किया करते थे।राज वैद्य के आदेश को मानने की आवश्यकता उन्होंने समझी ही नहीं। परिचारक समझते थे यह प्रलाप रोग की प्रबलता के ही कारण है।
आज उन्हें अपनी युवावस्था के वे दिन स्मरण आते हैं, जब वे गम्भीर रहा करते थे । एकान्त को छोड़ना उनके लिए मुश्किल था। निरन्तर आत्म साधना की प्रबल प्रेरणा उन्हें अपनी ओर वेग पूर्वक आकर्षित किया करती थी। भगवान दत्तात्रेय के धवल कीर्ति दिशाओं में व्याप्त थी। मन ही मन वे उन योगी राज को अपना गुरु वरण कर चुके थे और उनकी एक मात्र इच्छा थी, एक बार चर्म चक्षुओं से उन श्रीचरण के दर्शन हो।
वह दिन भी स्मरण होता है जब पिता का शरीरान्त हुआ । अमात्यों ने बल पूर्वक उनको सिंहासन पर बिठाया । इच्छा न रहने पर भी ब्रह्मणो की आज्ञा के सम्मुख उन्हें मस्तक झुका कर श्वेत छात्र की छाया में बैठना पड़ा।
पता नहीं किस प्रारब्ध का उदय हुआ। युवावस्था राज सिंहासन और अतुल संपत्ति गर्व ने अधिकार जमाया। सुन्दरियों का जमघट जुटने लगा, अमात्यों की शिक्षा एवं सलाह ठुकरायी जाने लगी॥शासन व्यवस्था अस्त व्यस्त हो गयी।
आज छः महीने की शय्या से उठ नहीं सके थे । शरीर के भोगो ने रोग मंदिर बना दिया था। जलोदर है, ज्वर आता है, दया भी अपने वेग पर है और अब तो संभवतः यक्ष्मा का संदेह भी होने लगता है।वैद्य मुख पर कुछ कहते नहीं।
स्वाभाविक ही दीर्घ रोगी से लोग ऊब जाते हैं। वैसे भी कठोर स्वभाव एवं अपने ही भोग में लिप्त रहकर दूसरों की अपेक्षा रखते रहने के कारण कोई उन्हें हृदय से नहीं चाहता। राजकुमार भी दूर दूर खिंचे रहते हैं। सेवक और अमात्य भी कर्तव्य दिशा की प्रेरणा से ही सब कुछ करते हैं प्रेम से नहीं।
रोगी पड़े पड़े छिद्रान्वेषी हो जाय तो क्या आश्चर्य ? महाराज का स्वभाव अत्यंत चिड़चिड़ा हो गया। और उन्हें अकारण ही सबने अपने प्रति उपेक्षा की दृष्टि गत होती है। अत्यन्त तुच्छ भूल को भी वे बड़े महत्वपूर्ण ढंग से ग्रहण करते थे। उनके क्रोधी स्वभाव के कारण लो विशेषतः राजकुमार उनके सम्मुख कम ही जाते थे।
गुरुदेव ने तो अधम समझ का त्याग ही दिया। महाराज को सम्राट के पोत के आने की सूचना देकर ही अत्मादि तट पर गये थे। । जान पड़ता है कि मेरे दुर्गुणों की सूचना सम्राट तक पहुँच गयी। क्यों अपनी दुर्गति कराऊँ ? मरना तो अब है ही ?”
महाराज सोचने लगे।रोग ने उन्हें आत्म शक्ति हीन कर दिया था।
जब सम्राट के प्रतिनिधि प्रधान को लेकर युवराज लौटे तो उन्हें सेवकों ने सूचना दी कि महाराज का पता नहीं है। वस्तुतः वे सेवकों की दृष्टि बनाकर राजभवन से निकल गये। एक खलबली पड़ गयी। युवराज के प्रधान अमात्य का प्रबन्ध सेवकों पर छोड़ और स्वयँ पिता के अन्वेषण का प्रबंध करने लगे। किसी को कोई कष्ट नहीं हुआ। दोपहर बीतते द्वार पर से एक गम्भीर ध्वनि आई ! ॐ नमो नरायणा ‘ दौड़ कर राजकुमार द्वार पर पहुँचे भले चंगे महाराज के साथ वे युवा तपस्वी द्वार पर खड़े थे ।
उन्हें अब महाराज नहीं कहना चाहिए। पूरे शरीर में उन्होंने धूल लगा ली थी। उन्हीं के शब्दों में श्री गुरु चरण की वह रज उनके समस्त भौतिक शरीर एवं मानस रोगों की त्राण पा चुके थे और केवल इस लिए लौटे थे कि युवराज का अभिषेक करके प्रधान अमात्य के साथ ही भारत में श्री गुरु चरणों तक पहुँच सके।