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Magazine - Year 1996 - Version 2

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लोकसेवी का दृष्टिकोण और जीवन नीति

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विगत सात माह से सतत् पूज्यवर की लेखनी से प्रदत्त वह मार्ग दर्शन दिया जा रहा है जो किसी भी लोक सेवा के क्षेत्र में उतरने वालों के लिए एक पाठ्य पुस्तक में दिये गये निष्कर्षों की तरह है । इस लेख का एक एक वाक्य गीता के श्लोकों की तरह से सबके लिए नित्य पढ़ने योग्य है। महाशिव रात्रि की वेला में महाकाल के वरद पुत्रों को पढ़ने योग्य ठोस सामग्री इन पंक्तियों में मिलेंगी। पढ़ें और इसे मनन करें।

लोकसेवा के लिए मन में उमंग और उत्साह उठाने के बाद तत्काल उस ओर प्रवृत्त नहीं हुआ जा सकता । इसके लिए अपना दृष्टिकोण बदलना पड़ता है। मान्यताओं में आवश्यक परिवर्तन करना पड़ता है तब कही जाकर सेवा साधना संभव होती है। मनुष्य के पास थोड़ी सी शक्तियाँ है और छोटा सा जीवन, उसे अलौकिक प्रयोजन में लगा दया जाय तो यह निश्चय स्वयं ही करना पड़ेगा। अपने स्वार्थों के लिए हर कोई प्रयत्न करता है। लोकसेवी अपनी शक्तियों का नियोजन जन सेवा के लिए परमार्थ कार्यों के लिए करते हैं अतः उसे अपनी आवश्यकताओं और सुविधाओं के लिए दूसरों से भिन्न दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और अपना जीवन स्तर आवश्यकताओं और साधनों के उपयोग की रीति नीति भिन्न रखनी चाहिए।

प्रायः दृष्टिकोण न बदलने के कारण ही सेवा धर्म कठिन जान पड़ता है और उसका निर्वाह नहीं हो पाता। उदाहरण के लिए आवश्यकताओं को ही ले ले। बहुत से व्यक्ति यह सोचते हैं कि सम्पन्नता और समृद्धि ही जीवन का लक्ष्य है और उसे प्राप्त करने में जो सफल हों गया वही धन्य है। लोकसेवी का दृष्टिकोण इससे भिन्न होना चाहिए। उसे साधनों की विलुप्तता नहीं व्यक्तित्व की श्रेष्ठता के बड़प्पन का आधार मानना चाहिए। यदि ऐसा न हो सका तो लोक सेवी उसे गोरख धन्धों में उलझ कर रह जायेगा जिसमें कि दूसरे लोग उलझ जाते हैं। सर्वसाधारण की दृष्टि से सुविधायें और विलासिता के साध नहीं जीवन की सार्थकता है। यद्यपि वे सभी उपलब्ध नहीं होते परंतु इसकी गतिविधियों का केन्द्रीय आधार वही रहता है। इच्छित स्तर की स्तर की साधन सम्पन्नता हर कोई अर्जित नहीं कर पाता लेकिन लक्ष्य सभी का वही रहता है। लोकसेवी को सर्व साधारण से भिन्न रीति अपनानी चाहिए।अपने निर्वाह के लिए लोकसेवी को कम से कम आवश्यकतायें रखने का दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए। समझा जाता है कि हम जितनी शान शौकत और मौज मजे से विलासिता पूर्ण साधनों का उपयोग करेंगे उतना ही बड़प्पन मिलेगा। वस्तुतः यह सोचना गलत है। इसके लिए अपने बड़प्पन की परिभाषा बदलनी चाहिए। बड़प्पन धन संपत्ति या शान शौकत से नहीं उत्कृष्ट और आदर्श व्यक्तित्व तथा महान बनने वाले सद्गुणों से मिलता है। प्राचीन काल में लोक सेवी परम्परा के अंतर्गत जितने ही संत, ऋषि, विचारक, मनीषी और महापुरुष हुए हैं उन्होंने यही दृष्टिकोण अपनाया है। ऋषियों के रहन- सहन की ताजगी इतनी संविख्यात है कि उस संबंध में कुछ भी कहना ठीक नहीं है। चाणक्य जिन्होंने भारत को एक राष्ट्र रूप में संगठित करने के लिए चन्द्रगुप्त का मार्गदर्शन किया, हमेशा एक कुटिया में रहे।

यदि वे चाहते तो उनके लिए प्रचुर साधन सुविधाएँ जुटा सकते थे लेकिन लोकसेवी को आदर्श परम्परा की रक्षा के लिए उन्होंने न्यूनतम आवश्यकता की मर्यादा का पालन किया।

इस युग में भी वे न्यूनतम आवश्यकताओं को रखते जीवन व्यतीत करने वाले महापुरुष हुए हैं और उन्हें भरपूर श्रद्धा मिली है। गोपाल कृष्ण गोखले, महर्षि अरविन्द, ईश्वरचन्द विद्या सागर आदि मनीषी महामानवों ने के जीवन के तीस चालीस वर्ष पूर्व की ही बात है। उन्होंने अच्छी सम्पन्न स्थिति में रहते हुए न्यूनतम साधनों का उपयोग अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए किया।

गोपाल कृष्ण गोखले अच्छी सम्पन्न स्थिति के थे और आमदनी भी उन्हें पर्याप्त होती थी । पर उन्होंने अपने लिए यह मर्यादा बना ली थी कि परिवार के तीस रुपये से अधिक खर्च नहीं करेंगे। उन्होंने आजीवन इसी मर्यादा का पालन किया।

महर्षि अरविन्द जब इंग्लैण्ड से शिक्षा प्राप्त कर लौटे तो उनकी नियुक्ति बड़ौदा के पास एक कॉलेज में 500 रुपये माहवार पर हुई। चाहते तो वे अच्छा ठाठ बाट का जीवन व्यतीत कर सकते थे। लेकिन उन्होंने निश्चय किया कि पचहत्तर रुपये में ही गुजारा चलायेंगे और वास्तव में उन्होंने अपने निश्चय के अनुसार ही जीवन रखा। ईश्वर चन्द्र विद्या सागर को 500 रुपये प्रतिमास मिलते थे लेकिन उन्होंने अपने लिए 50 रुपये की ही व्यय सीमा रखी और आजीवन उसी स्तर को कायम रखते हुए सेवा धर्म का पालन करते रहें।

महात्मा गाँधी का सस्ता सा कपड़ा-धोती पहनते थे और सादे से सादा भोजन करते थे। इसी में उन्हें संतोष और अनुभूति होती थी और जन साधारण से निकट की आत्मीयता की अनुभूति भी प्राप्त होती रहती थी। अपने बीच का अपनी स्थिति का व्यक्ति मान कर लोगों ने उन्हें जो सम्मान दिया वह बीसवीं शताब्दी में शायद ही किसी को मिला है।

यहाँ दो-चार महापुरुषों की ही चर्चाएं की गयी हैं। अन्यथा संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं उन्होंने आवश्यकताओं के संबंध में अनिवार्यता का दृष्टिकोण अपनाया। सुकरात के संबंध में कहते हैं जब भी वे कोई वस्तु खरीदते या नया साधन जुटाते तो उससे पहले वे अपने आप से एक प्रश्न करते क्या इस वस्तु के बिना मेरा काम नहीं चल सकता है ?यदि उत्तर हाँ में मिलता तो वे वह वस्तु खरीदते अन्यथा उस विचार को ही छोड़ देते थे। कम साधनों में निर्वाह गौरव और गरिमा की बात है यह दृष्टिकोण विकसित किया जा सके तो न अभावों की समस्या रह जाती है और न किसी बात की कमी रह जाने की शिकायत रह जाती है।

यह समझा जाता है कि यदि साधारण स्तर का जीवन व्यतीत किया जाये तो लोग हमें घटिया, दरिद्र और कंजूस समझेंगे। लोगों की मान्यताएँ कभी कभी बनती और बिगड़ती रहती है। अन्यथा न सादगी का कभी अपमान हुआ है और न उसके प्रति किसी में घृणा उत्पन्न हुई है । बल्कि सादगी कम आवश्यकताओं में ही अपना गुजारा चला लेने वाले व्यक्तियों को असाधारण सम्मान मिलता है। महात्मा गाँधी खद्दर की एक धोती भर पहनते थे और जन साधारण जिसे अनुपयोगी और निम्न स्तरीय साधन अपाकरण समझते हैं, उनका प्रयोग करते थे। लेकिन इससे उनके सम्मान में कोई कमी तक नहीं आयी। अपितु सर्वसाधारण भी उन्हीं साधनों को अपनाने में गौरव अनुभव करने लगे ।

सामान्य रूप से लोग फूहड़पन और गंदे रहन- सहन को जरूर घृणा की नजर से देखते हैं, किंतु सादगी को सम्मान देते हैं। छोटे तबके के लोगों को लोग गिरी हुई निगाह से इसलिए देखते हैं कि उनके पास पर्याप्त वस्त्र नहीं होते अथवा और दूसरे साधनों का अभाव रहता है उनके प्रति असम्मान की भावना तब उभरती है जब वे आलसी होने के कारण गन्दे और मूर्ख होने के कारण अव्यवस्थित रहते हैं। कम वस्त्र या कम साधन होने से कोई छोटा या गिरा हुआ नहीं हो जाता। गिरावट आती है अस्वच्छता और अव्यवस्था से। इस प्रकार लोकसेवी को बड़प्पन की मान्यता परिष्कृत करनी चाहिए।सादगी पूर्ण वेशभूषा और न्यूनतम आवश्यकतायें -यह सिद्धाँत अपने जीवन में समाविष्ट कर लेना चाहिए। सुरुचिपूर्ण सादगी को ही अपनी गौरव गरिमा समझने की दृष्टि विकसित की जानी चाहिए।

लोकसेवियों को अपने स्वरूप की गौरव गरिमा को ध्यान में रखने के लिए उज्ज्वल चरित्र और धवल व्यक्तित्व की आवश्यकता अनुभव करनी चाहिए। इस संबंध में यह मान्यता बनाई और अपनायी जाय कि हम जो कुछ भी कहना चाहते हैं, जो कुछ भी शिक्षा दें वह वाणी से कम और व्यक्तित्व से अधिक उद्भूत हों। कहने का अर्थ यह है कि लोकसेवी अपनी गरिमा को समझे और उसे अक्षुण्ण बनाये। अपने स्वरूप और वेश के गौरव को प्राचीन काल में साधु ब्राह्मण लोक सेवियों की परम्परा में ही मानते थे किन्तु आजकल वे शब्द रूढ़ हो गये है और वर्ग विशेष का अर्थ बोध कराते हैं, क्योंकि इस नाम से संबंधित व्यक्तियों ने भी वही रीति नीति अपनाना आरम्भ कर दिया जिसे सर्वसाधारण अपनाता रहा। बल्कि एक दृष्टि से तो उनकी रीति नीति और भी विकृत हो गयी । कारण यह वर्ग जन श्रद्धा का भी दोहन करने लगा। अन्यथा एक समय था कि जब साधु वेश का अर्थ ही निस्पृह, अपरिग्रही और सेवाभावी व्यक्ति समझा जाता था। उस बहरूपिये की कहानी प्रसिद्ध है जिसने एक राजा के कहने पर एक बड़ा कमाल दिखाने और बड़ा इनाम लेने की बात कही थी।उस कमाल के लिए बहरूपिया साधु बनकर बैठ गया था और राजा ने उस साधु के सामने सिक्के और अशर्फियों का ढेर लगा दिया पर साधु बने बहरूपिये ने उस ओर आँख उठा कर तक नहीं देखा। बाद में जब रहस्य खुला तो राजा ने पूछा - कि तुम्हारे सामने इतनी सम्पदा का ढेर लगा हुआ था, यदि तुम चाहते तो उसे ले सकते थे । अब तुम्हें इतना इनाम मिल सकता है ?इनाम की तुलना में तो वह भेट कई गुना ज्यादा थी। बहरूपिये ने तब यही उत्तर दिया था कि -” यदि मैं वह भेट स्वीकार कर लेता तो उससे साधु वेश की मर्यादा ही समाप्त हो जाती और लोगों के हृदय में साधु के प्रति जो श्रद्धा है वह कम हो जाती । कहने का अर्थ यह है कि साधु ब्राह्मण -लोक सेवा ही जिनका जीवन लक्ष्य था अपनी मर्यादा और नियमों के प्रति इतनी दृढ़ इच्छा रखते थे कि जन सामान्य उस वेश को देख कर ही श्रद्धावनत हो उठता था। लोकसेवी को भी अपना स्वभाव, अपना रहन-सहन अपना आचरण इस स्तर का रखना चाहिए कि उसे देखकर लगो में लोकसेवी के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो।

इसके लिए आत्म निर्माण की साधना करनी पड़ेगी। अपनी कमियों को खोजना और दूर करना, कमजोरियों को हटाना तथा सत्प्रवृत्तियों को अपने स्वभाव का अंग बनाना होगा। व्यक्तित्व की दृष्टि से लोकसेवी को अपना विकास इतना प्रखर और उच्च करना चाहिए कि उसकी वाणी से अधिक उसके कर्म प्रेरक बनें।

व्यक्तित्व रूप में अपने साफ करने और उसमें उज्ज्वलता धवलता का समावेश करने के साथ ही परिवार के संबंध में भी अपने दृष्टिकोण की रीति नीति को परिष्कृत कर लेना चाहिए। लोकसेवा का व्रत ग्रहण करने के नाते अपनी आवश्यकताओं को भी कम किया जा सकता है लेकिन बच्चों को तो सुविधाओं में तो कटौती नहीं की जानी चाहिए।

यदि यह दृष्टिकोण अपनाया गया तो सादगी नाम मात्र की चिन्ह पूजा बनकर रह जायेगी। सेवा साधना के लिए सादगी जिन कारणों से आवश्यक है वे कारण भी पूरे नहीं हो सकेंगे- जैसे सादगी के कारण जन साधारण में अपनत्व की भावना जागती है। कहना नहीं होगा कि लोग लोकसेवी के साथ साथ परिवार के संपर्क में भी आयेंगे, परिवार के संपर्क में आने के बाद ठाठ बाट और वैभव विलास ही दिखाई देगा तो लोकसेवी की निष्ठा पर लोगों को संदेह होने लगेगा और वे लोक सेवी के रहन सहन को नाटकीय समझने लगेंगे। यह भी हो सकता है कि वे सोचे अपने अपने परिवार के लिए तो इन्होंने सारे साधन जुटा लिये है और हमें सादगी से रहने का संदेश दे रहे है।

वैसा ही परिवार के लिए साधन सम्पत्ति इकट्ठी करना और पर्याप्त सुविधाएँ जुटाना आवश्यक है। न केवल अनावश्यक वरन् अनेक दृष्टि से घर के बच्चों और स्वजनों का संस्कार बिगाड़ने जैसा है। उदाहरण के लिए आज परिवार में इतनी सम्पत्ति है या इतना धन इकट्ठा कर लिया गया कि बच्चों को कभी पैदल चलने की जरूरत ही न पड़े। साइकिल, रिक्शा या स्कूटर जैसे साधन जुटा दिये गये, सभी सुविधायें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने से एक तो बच्चों को शारीरिक श्रम से जी चुराने की आदत पड़ेगी दूसरे कभी संघर्ष पूर्ण परिस्थितियाँ आई तो उन परिस्थितियों में निर्वाह बहुत मुश्किल हो जायेगा।

परिवार के लिए सुविधा साधन जुटाने और धन सम्पत्ति इकट्ठी करने के स्थान पर घर के सदस्यों में सद्गुणों का संवर्धन और उत्कृष्टता का अभिवर्धन किया जाय तो अधिक श्रेयष्कर है। धन संचय और सम्पत्ति संग्रह कर घरों के बच्चों को निकम्मा और और आलसी बना देने की अपेक्षा अच्छा है कि उन्हें परिश्रमी पुरुषार्थी जीवन वाला तथा सद्गुणी बनाया जाय । संतान यदि सुयोग्य हो तो -संतान यदि अयोग्य हो तो दोनों ही स्थिति में उनके लिए धन सम्पत्ति एकत्रित कर छोड़ देना व्यर्थ है। किसी संत ने इसी को लक्ष्य कर कहा है-

पूत सपूत तो क्यों धन संचै। पूत कपूत तो क्यों धन संचै॥

अर्थात् संतान यदि सुयोग्य है तो उसके लिए संपत्ति संग्रह की क्या आवश्यकता क्योंकि अपने निर्वाह लायक उपार्जन तो, वह अपनी योग्यता द्वारा ही कर लेगा, और यदि संतान अयोग्य है तो तो उसके लिए भी संपत्ति का संग्रह व्यर्थ है क्योंकि वह सारी संपत्ति अपनी अयोग्यता के कारण शौक मौजों में नष्ट कर देगी।

अपना आदर्श परिवार के लिए भी प्रेरक बनता है। प्रायः अभिभावक स्वयँ अपनी आवश्यकताओं में कटौती कर बच्चों के लिए सुविधा साधन एकत्रित करते हैं। यदि बच्चे को अपने आदर्शों के अनुरूप ढालने की चेष्टा की जाय तो, उनके व्यक्तित्व को परिष्कृत और संस्कारित बनाने के प्रयास किये जाय तो उनके सुखद भविष्य की संभावना अधिक रहती है। धन संपत्ति से नहीं गुण और योग्यता से ही भविष्य का निर्माण होता है। इस दृष्टि से परिवार के सदस्यों को परिमार्जित करने में समय लग सकता है। इसके लिए मूर्तिकार सा धैर्य रखना चाहिए। एक साधारण से पत्थर को मूर्ति का रूप देने के लिए लम्बे समय तक परिश्रम करता और मनोकल्पित स्वरूप को साकार हुआ देखने के लिए धैर्य पूर्वक प्रतीक्षा करता है। लोक सेवी को चाहिए कि वह अपनी संतानों को, परिवार के सदस्यों को आदर्शों के साँचे में ढालने के लिए धैर्य पूर्वक प्रतीक्षा करते रहे, स्वयँ भी वैसा जीवन जिये और घर में भी वैसा वातावरण विनिर्मित करता रहे।

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