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Magazine - Year 1996 - Version 2

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आइए, मिल जुलकर जीना प्रकृति से सीखें

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First 19 21 Last
वनों में कुछ ऐसे वृक्ष होते हैं, जो अपनी सीमा में छोटे छोटे पौधों को पनपने नहीं देते हैं, सारे जंगल में दो चार ऐसे हिंसक जन्तु भी होते हैं,

वे छोटे छोटे जीव जंतुओं को खा जाते हैं, अफ्रीका में कुछ पौधे ऐसे धोखेबाज होते हैं उनमें कोई चिड़ियाँ आश्रय के लिए आई और उन्होंने अपने नुकीले पत्ते से उसे पकड़ कर खून पी लिया । समुद्र में एक दो मछलियाँ, एक दो जन्तु जैसे मगर और घड़ियाल ऐसे भी होते हैं, जो किसी का पनपना देख नहीं सकते, अपने से कम शक्ति का जो भी दाव में आ गया, उसी को चटकर लिया।

विविध -विपुला प्रकृति के ऐसे दृष्ट प्रकृति के जीव जन्तु है तो पर उनकी संख्या उनका औसत थोड़ा है पर मनुष्य जाति के दृष्टि दोष को क्या कहा जाय, जिन ने इन दो चार उदाहरणों को लेकर उपयोगिता वाद जैसा मूर्खतापूर्ण सिद्धाँत ही तैयार कर दिया। ढूँढ़े तो अधिकाँश संसार ‘आओ ‘ हम सब मिलकर जिये के सिद्धाँत पर फूल फल रहा है। यदि छोटे को मारकर खा जाने वाली बात सत्य रही होती तो कुछ ही समय में विश्व की आबादी दो गुने से अधिक न हो गई होती।

प्रस्तुत प्रसंग यह बताता है कि संसार के बुद्धिमान न समझे जाने वाले जीव-जंतु भी परस्पर मिलकर रहना कल्याणकारी मानते है

जंगल की नदियों में रोडियश नामक एक मछली पाई जाती है, एक साथ सीप नामक जीव भी पाया जाता है । सीप के शरीर को एक कछुए जैसा मोटा और कड़ा आवरण घेरे रखता है, जिससे वह अपने अण्डों की सेवा नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में रोडियश मछली और सीप दोनों मिलते हैं और आओ हम सब मिलकर जियें के अनुसार समझौता कर लेते हैं।

रोडियश अपने अण्डे सीप के खोल में प्रविष्ट कर देती है, इसी समय सीप अण्डे देती है, वह रोडियश अपने शरीर से चिपकाये होती है। रोडियश घूम घूम कर अपने लिए भोजन इकट्ठा करती है। उसी के दाने चारे से सीप के बच्चे पल जाते हैं, जबकि उसके अपने बच्चों को सीप पाल देती है । विभिन्न जातियों में सहयोग और संगठन की आचार संहिता से लगता है, कि भारतीय समाज शास्त्रियों ने प्रकृति की इस मूक भाषा को पढ़कर ही तैयार किया था। आज भी उसका मूल्य और महत्व सामाजिक जीवन में उतना ही है। इस सिद्धाँत के आधार पर ही संसार सुखी रह सकता है। शोषण, छल, कपट, बेईमानी, अनीति और मिलावट पर नहीं, वह यदि दूसरों के साथ वह दुष्टता करेगा तो शोध वातावरण उसके लिए वैसा ही तैयार मिलेगा।

यह उदाहरण कोई अपवाद नहीं। ‘एल्गो ‘ जाति के ‘प्रोटोकोकस ‘ पौधे और फंगस जाति के “ एक्टिनो माइसिटीज” पौधे भी मिलकर आपस में एक दूसरे को बहुत सुन्दर ढंग से पोषण की वस्तुएँ प्रदान करते है॥ हमें शिक्षक ज्ञान देता है कि हम अपनी अनपढ़ धर्मपत्नी या अशिक्षित पड़ोसी के लिए एक घण्टा भी नहीं निकाल सकते, हमारे माता-पिता जब हम बच्चे थे, आधे पेट खाकर, गीले वस्त्रों में सोकर, हमारी परवरिश करते थे, पर आज जब वे वृद्ध हो गये हैं, तब हम क्या उनकी उतनी सेवा कर पाते हैं ?

दुकानदार, रेलवाला, बसवाला, सारा संसार यों कहिए अपनी सेवाएँ हमें देने को तत्पर है, तब यदि हम दूसरों को धोखा देने के बारे में सोचे तो ऐसे व्यक्ति से नीच और घृणित कौन होगा ?

पौधे का क्या आस्तित्व, पर वे मनुष्य जाति से अच्छे है। ऊपर के दोनों पौधे मिलकर एक चपटे आकार का ढांचा बना लेते हैं, उसे ‘जूलाँजी ‘ में लाइकन कहते हैं। इसमें से होकर एल्गी की जड़े फंगस के पास पहुँचती है। एल्गी के पास जिन तत्वों की कमी होती है, उसे फंगस पूरा कर देता है और फंगस की कमी को एल्गी, दोनों का आदान प्रदान से एक थैला भी विकसित होता रहता है । औरों के कल्याण में अपना कल्याण, सबकी भलाई में अपनी भलाई अनुभव करने वाले समाज इसी तरह विकास और वृद्धि करते हैं और अपने साथ उन छोटे छोटे दीन- हीन व्यक्तियों को भी पार कर ले जाते हैं, जो सहयोग के अभाव में दबे पड़े पिसते रहते हैं।

स्कारपियन नामक मछली अपने शरीर के ऊपर छोटे छोटे हाइड्रा जाति के जीवों को फलने फूलने देती है, वे छोटे छोटे जन्तु हजारों की संख्या में एक सिरे से दूसरे सिरे तक पूरी सतह पर फैले रहते हैं । देखने पर यह हरें रंग के होते हैं। मछली के शरीर के ऊपर इनका पूरी तरह पोषण होता रहता है।

जब हम अविकसित मछली दूसरे दीन दुर्बलों की सहायता में इतना योगदान दे सकती है तो हम समाज के दलित माने जाने वाले वर्गों, हरिजनों, आदिवासियों, दहेज के प्रभाव में पीड़ित बहनों, दवा के अभाव में पिसते रोगियों के लिए जो अपने ही समाज के अंग है, कल्याण की योजनायें क्यों नहीं बना सकते। जीव - जीव, पेड़ - पौधे तक में जब एक दूसरे के प्रति सहयोग और सेवा का भाव पनप रहा है तब मनुष्य जाति उससे पीछे क्यों हटें, यह उसका दुर्भाग्य ही कहना चाहिए।

परोपकारिता घाटे का सौदा नहीं, व्यक्ति का महान स्वार्थ है। जब हम दूसरों की सेवा करते हैं, तब सही मानों में अपनी भी सेवा करते हैं। मछली इन हरे जीवों को पालते समय कोई मूल्य नहीं माँगती। वह पूर्ण निष्काम होती है। पर उसे क्या पता कि ये कीड़े अस्वादिष्ट होते हैं और अपने शरीर से एक ऐसी दुर्गंध निकालते हैं, जिनके कारण हिंसक मछलियाँ और जीव उनसे दूर भागते हैं, इससे वह मछली जो इन्हें पालती है, स्वयँ भी शिकार होने से बच जाती है।

हमारा मनुष्य भी निष्काम सेवा और परस्पर मिल जुलकर रहने के इस तत्व ज्ञान को समझ जाता तो वह इसी पृथ्वी पर स्वर्गीय सुखों की अनुभूति केर रहा होता इसमें राई -रत्ती भी संदेह नहीं है।

First 19 21 Last


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