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Magazine - Year 1996 - Version 2

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Language: HINDI
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भजन, मनन और चिंतन की त्रिवेणी

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First 18 20 Last
उच्चस्तरीय अध्यात्म साधना के भाव पक्ष के तीन चरण है। भजन, मनन, और चिंतन। इन तीनों को मिला देने से ही एक समग्र साधन प्रक्रिया का निर्माण होता है। अन्न, जल, वायु के तीनों अंग मिलकर पूर्ण आहार बनता है। इनमें से एक भी कम पड़ जाये तो जीवन यात्रा न चल सकेगी। इसी प्रकार आत्मिक जीवन के लिए भजन, मनन, और चिंतन का सूक्ष्म आहार प्रस्तुत करना पड़ता है। अंतःकरण की स्वस्थता, प्रखरता, परिपुष्टता एवं प्रगति इन तीनों आहारों पर निर्भर है। गायत्री महामंत्र के तीन चरणों की सूक्ष्म प्रेरणा भी इसी त्रिवेणी को ही कहा जाता है।

उच्चस्तरीय ‘भजन’ के लिए शरीर को शिथिल और मन को उदासीन करना पड़ता है। ताकि न शरीर की माँसपेशियों पर कोई तनाव रहें और न मस्तिष्क में कोई आकर्षण उत्तेजना पैदा करे । यह स्थिति कुछ ही दिन के अभ्यास से उपलब्ध हो जाती है। किसी आराम कुर्सी, कोमल बिस्तर या दीवार, पेड़ आदि का सहारा लेकर शरीर को निद्रित एवं मृतक स्थिति जैसा शिथिल कर देना चाहिए। इसमें शवासन या शिथिलीकरण मुद्रा कहते हैं। शारीरिक दृष्टि से यह पूर्ण विश्राम है। मानसिक दृष्टि से इसे ध्यान भूमिका कहा जाता है।उत्तेजित तनी हुई नाड़ी या मांसपेशियां होने पर कभी किसी का ध्यान लग नहीं सकता। इस लिए पद्मासन, वद्धपद्मासन जैसे तनाव उत्पन्न करने वाले आसन और किसी प्रयोजन के लिए उपयोगी भले ही हो -ध्यान के लिए उल्टे बाधक होंगे।

यही बात मन के संबंध में भी है समस्त संसार में शून्यता संव्याप्त है। प्रलय काल की तरह नीचे अथाह नील जलराशि और ऊपर नील आकाश है। सर्वत्र परम शाँतिदायिनी नीलिमा और नीरवता संव्याप्त है। कहीं कोई व्यक्ति या पदार्थ नहीं। मन को आकर्षित करने वाली कही कोई स्थिति परिस्थिति शेष नहीं। उस परम शून्यता में बालक की तरह अपनी निर्मल चेतना कमल पत्र पर लेटी हुई तैर रही है। अपने पैर का अंगूठा अपने पैर में लगा हुआ है और आत्म स्वरस का पान कर रही है। प्रलय काल का ऐसा चित्र बाजार में बिकता भी है। मनः स्थिति को उसी स्तर का बनाने का प्रयत्न किया जाय तो शून्यता की मानसिक स्थिति बनती और बढ़ती चली जाती है। शारीरिक शिथिलता और मानसिक रिक्तता की उपरोक्त स्थिति भजन साधना की पूर्व भूमिका समझी जानी चाहिए।

शिथिल शरीर एवं मनःस्थिति में ही भजन ठीक प्रकार हो सकता है। भावपरक ध्यान योग का यही पूर्वार्ध है । ऑपरेशन कराते, इन्जेक्शन लगाते समय हिलने जुलने पर प्रतिबन्ध रहता है। एक का रक्त दूसरे के शरीर में प्रवेश करते समय दोनों व्यक्ति अपने हाथों को हिलाते डुलाते नहीं है। भजन के समय मानसिक संस्थान को इसी प्रकार शान्त रहना चाहिए।

भजन का उत्तरार्ध यह है कि शक्तिवान -सर्व वैभववान् धर्म उत्कृष्टता से सम्पन्न सर्वाधिक प्रेमी परमेश्वर को अपनी सत्ता में प्रविष्ट होते हुए घुलते हुए अनुभव किया जाय । ब्रह्माण्ड व्यापी दिव्य प्रकाश सागर में अपने आपको मछली की तरह निमग्न अनुभव किया जाय।

जिस प्रकार मिट्टी के ऊपर जल गिरने से दोनों के मिश्रण का एक नया रूप “कीचड़” बनता है वैसी ही भावना की जानी चाहिए कि परम प्रकाश अपने रोम रोम में संव्याप्त हो रहा है। वह शरीर के अंग प्रत्यंग में वह संयम और बलिष्ठता का रूप धारण कर रहा है। इस प्रकार स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीरों में परमात्मा की परम ज्योति को ज्वलंत अनन्त की तरह समाविष्ट देखना आने को उस आलोक से आलौकिक अनुभव करना भजन साधना की प्रधान ध्यान विद्या है।

इस संयोग की वेला में आनंदानुभूति उठानी चाहिए। माता-पुत्र का त्र प्रेमी प्रेयसी का मिलन जितना सुखद होता है उससे भी अधिक तृप्ति दायक यह आत्मा परमात्मा का मिलन है। इस मिलन की प्रक्रिया को भी अनुभूति में उतारना चाहिए। शरीर और मन परमेश्वर को समर्पित किया गया और उसे स्वीकार कर लिया। इसके बाद यही होना चाहिए कि अपना काय कलेवर पूर्णतया परमेश्वर में इच्छानुसार गतिशील रहे॥ अपनी कोई इच्छा कामना परमेश्वर पर न थोपी जाय । परमेश्वर जिसमें प्रसन्न ही यही सोचना और वही करना सच्चे भजन परायण भक्त के लिए उचित है। बदला पाने के लिए किया गया भजन तो वेश्या वृति है। आज तो यही चारों ओर देखा जाता है।

कहा जा चुका है कि भावनात्मक साधनाओं के लिए किसी संध्या वदन की तरह ब्रह्ममुहूर्त का बंधन नहीं है। उसे सुविधानुसार नित्य उपासना के साथ या आगे पीछे किया जा सकता है। यही बात मनन साधना पर लागू होती है। उसे भजन के साथ या आगे पीछे किया जा सकता है। वातावरण शान्त ओर स्थान एकान्त होना चाहिए । आंखें बंद करके आराम से कुर्सी पर पड़े हुए यह सोचना चाहिए कि -” शरीर मृत अवस्था में पड़ा है और प्राण उसमें से निकलकर किसी ऊँचे स्थान पर हंस पक्षी की तरह जा बैठा। अब पड़ी हुई लाश के अंग प्रत्यंगों को पोस्टमार्टम के समय उघाड़े गये अवयवों की तरह उलटना पलटना चाहिए कि कपड़ों से भरी हुई पेटी की तरह खोलकर देखना चाहिए। इसी प्रकार मस्तिष्क को अपने छोटे डिब्बे की तरह खोलकर देखना चाहिए कि उसमें मन, बुद्धि, चित, अहंकार के चार आभूषण उपकरण औजार सुसज्जित रखे थे।”

इस ध्यान को जितनी गहराई से जितनी देर तक किया जा सकना संभव हो करना चाहिए और इस निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए कि प्राण हंस की आत्मा सत्ता सर्वथा स्वतंत्र है। शरीर की वस्त्र पेटी और मस्तिष्क की उपकरण पिटारी, जीवन रथ के दो अश्व वाहन की तरह थी। काय कलेवर लक्ष्य पूर्ति के लिए सहायक रूप से मिला था। उस की शोभा सुसज्जा के लिए आत्म कल्याण के लक्ष्य को तिलांजलि नहीं दी जानी चाहिए।

मृग मरीचिका को, कुछ भी साथ न जाने वाले वैभव को, अकाल मृत्यु को आयुष्य के क्षण भृगुरता को, विषयों की निरर्थकता को यदि मनुष्य गम्भीरता पूर्वक समझे तो उसकी आंखें खुले कि क्या करना चाहिए था और क्या किया जा रहा है ? किधर चलना चाहिए था और किधर चला जा रहा है। जीवन और मृत्यु दोनों एक दूसरे के साथ इस प्रकार से जुड़े है कि किसी के भी नीचे ऊपर होने में तनिक भी आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। यह वस्तुस्थिति समझ में आये तो हर व्यक्ति अपने बहुमूल्य क्षणों का ठीक प्रकार उपयोग करना सीखे, और उन निरर्थक बाल क्रीड़ाओं में न उलझें जिनमें आम तौर पर लोग अपने को घुलाये भुलाये रहते हैं।मृत्यु की विस्मृति ही वह कारण है जिसने नर जन्म के भ्रष्टतम सदुपयोग के प्रति उदासीनता उत्पन्न कर रखी है।

समय का दूसरा अर्थ है आत्म बोध। अपनी वास्तविक स्वरूप जीवन का उद्देश्य, शरीर ओर आत्मा का संबंध, श्रेय या प्रेय में से एक का चुनाव अपनी गतिविधियों या रीति नीतियों का सुनिश्चित निर्धारण जैसे अनेक महत्वपूर्ण निर्णय इसी केन्द्र पर टिके है कि आत्मबोध हुआ या नहीं। यह चेतना जब तक जागेगी नहीं तब तक लोभ और मोह की लिप्सा प्रचण्ड ही बनी रहेगी, तृष्णा और वासना की की प्रबलता उभरी ही रहेगी, माया पाश के भव बंधनों से छुटकारा मिलेगा ही नहीं फलतः व्यथा वेदनाओं के झुलसते रहने की दुर्गति से छुटकारा भी नहीं मिलेगा। यदि आत्मबोध का लाभ भी न मिल सका तो समझना चाहिए कि मानव जीवन की उद्देश्य और आनन्द हाथ से चला गया।

भजन अर्थात् ईश्वरीय सत्ता का समीकरण परस्पर विलय समन्वय की अनुभूति है।मनन अर्थात् आत्मबोध। शरीर और आत्मा के स्वार्थों और संबंधों का पृथक्करण। जीवन लक्ष्य के प्राप्त आस्था और रीति नीति का साहस पूर्ण निर्धारण । दोनों की साधना विधियाँ सरल है। एक ही समय या दो पृथक पृथक सुविधा के समय और शान्त एकान्त स्थान में, सुसंतुलित चित्त में यह दोनों ध्यान, चिंतन किये जा सकते हैं। भावनाओं की जितनी गहराई इनको लगेगी उतनी ही अंतर्ज्योति प्रखर होती चली जायेगी और आत्मा के साथ परमात्मा का प्रणय परिणाम होने पर जिन दिव्य सम्पदाओं की करतलगत होती चली जायेगी।

भाव साधना का तीसरा चरण है -चिंतन। चिंतन अर्थात् शारीरिक गतिविधियों का आदर्शवादिता और मानसिक हलचलों का उत्कृष्टता के आधार पर सुसंतुलित निर्धारण। इसके लिए प्रात’काल उठते ही “ हर दिन नया जन्म और हर रात नयी मौत” का तथ्य सामने रखकर आज ही समय परक दिनचर्या निर्धारित करनी चाहिए।एक ही दिन के लिए यह जन्म है। आज ही रात की मृत्यु निद्रा की गोद में जाता है।इसी लिए ईश्वर प्रदत्त समय सम्पदा और भाव वैभव का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने के लिए-जीवन लाभ लेने के लिए साहस पूर्वक तत्पर होना चाहिए । किसी भी व्यवधान को इस निर्धारण में बाधक नहीं होने देना चाहिए।

प्रातःकाल से लेकर सोने के समय तक की दिनचर्या निर्धारित करनी चाहिए। नित्य, कर्म, विश्राम उपार्जन से लेकर परमार्थ प्रायोजन तक के लिए उचित रीति से समय विभाजन किया जाय। उपार्जन और परिवार पोषण के उत्तरदायित्व अभी जिनके कंधों पर है उन्हें भी आठ घण्टा कमाने के लिए नैमित्तिक कर्मों के लिए लगाकर सांसारिक प्रायोजन के लिए अधिकतम 20 घण्टे ही खर्च करने चाहिए। शेष चार घन्टे जीवनोद्देश्य की की पूर्ति में लगाने चाहिए। हर क्रिया के साथ एक विचारणा अनिवार्य रूप से जुड़ी रहती हैं यह कार्य किस लाभ या प्रयोजन के लिए किया जा रहा हैं, इसमें रुचि या उत्साह किस लिए हैं, इसका कुछ न कुछ कारण आकर्षण होना ही चाहिए। मनोगत आकाँक्षा ओर शरीर गत क्रिया दोनों के सम्मिश्रण से समग्र कर्म बनता है, उसी के आधार पर संस्कार बनते हैं,पाप पुण्य का निर्धारण होता है। हमें अपने हर क्रिया कलाप के साथ उच्च आदर्शों से भरी पूरी भावना नियोजित रखनी चाहिए। पत्नी को अपने संरक्षण में रखी गई ईश्वर की पुत्री समझा जाना चाहिए ओर पिता के घर से जिस स्थिति में आई थी उसकी अपेक्षा अधिक स्वस्थ, सुयोग्य, सुविकसित, प्रसन्न, प्रफुलित बनाने का प्रयास निरन्तर करते रहना चाहिए। यदि उसके प्रति कर्तव्य, स्नेह, सौजन्य, बरसाया जाता रहा तो यह पत्नी भौतिक सुविधा ओर आत्मिक प्रगति की दोनों ही दृष्टि से बड़ी सुखद श्रेयष्कर सिद्ध होगी।

बालकों को ईश्वर के उद्यान में उगे हुए सुरक्षित पुष्प माना जाना चाहिए और उन्हें माली की तरह सींचा, संभाला जाय । अपनी सम्पदा बुढ़ापे की लकड़ी वंश चलाने वाले उत्तराधिकारी, मात्र प्रियपात्र यदि उन्हें माना समझा जायेगा तो वे ही बालक बन्धन रूप सिद्ध होंगे और लोक परलोक में विचित्र विधि दुर्गति का कारण बनेंगे। दृष्टिकोण का अंतर रहने के कारण एक व्यक्ति के लिए शिशु पोषण, परिवार पालन अपार उद्वेग उत्पन्न करेगा जब कि परिष्कृत चिंतन शैली से की गई परिवार सेवा गृहस्थ योग साधना बन जायेगी। पिता-माता, भाई-बहन आदि का भरा पूरा कुटुम्ब किसी भावना शील व्यक्ति के लिए अपने सद्गुणों के विकास के लिए विनिर्मित प्रयोगशाला ही सिद्ध होता है। इन थोड़े से व्यक्तियों की सुव्यवस्था बन जाना एक छोटे से राज्य का आगे स्पष्ट छपा नहीं था ।

यदि चटोरेपन की लालसा से अनुपयुक्त आहार किया जा रहा है तो वही सामान्य दीखने वाला भोजन प्रक्रिया पाप परिणाम प्रस्तुत करेगा।

तात्पर्य यह है कि दिन भर के समस्त कार्य पद्धति के साथ उच्च कोटि की भावनाएँ नियोजित रखी जाय। हर दिन कागज पर पूरी दिनचर्या नोट कर ली जाय जिसमें दिन भर का समय विभाजन और हर कार्य के साथ जुड़ी रहने वाली भावनाओं का विवरण लिखा रहे।

यह कागज मेज पर या जेब में रखा रहें। निर्धारित कार्य पद्धति और विचार प्रक्रिया में कितनी सफलता मिल रही है इसका निर्णय हर घण्टे करते रहा जाय। इस तरह चलता हुआ क्रम यह बतायेगा कि सब मिलकर कुल कितने प्रतिशत सफलता कितनी असफलता। कभी कामुकता का विचार मन में उठे तो उन्हें निरस्त करने के लिए व्यभिचार से उत्पन्न होने वाले असंख्य अनर्थों का, संयम ब्रह्मचर्य से उपलब्ध होने वाले सत्परिणामों की सूची तैयार रखनी चाहिए और जैसे ही उस स्तर के दुष्ट विचार उठे कि प्रतिरोधी सदाचार परायण विचार शृंखला पर गम्भीरता पूर्वक ऊहापोह आरम्भ कर देना चाहिए। जहाँ यह प्रक्रिया आरम्भ हुई वहाँ कुविचारों के निराकरण में तनिक भी देर नहीं लगती।

उच्चस्तरीय भावनात्मक साधना के लिए भजन, मनन, चिंतन की त्रिवेणी प्रवाहित की जानी चाहिए। गायत्री महामंत्र के उपासनात्मक कर्म काण्ड की प्राण प्रतिष्ठा इस भाव समन्वय से ही संभव होती है और इसी संयोग के फलस्वरूप वह सब कुछ उपलब्ध होता है जिसका महात्म्य वर्णन विभिन्न अध्यात्म प्रसंगों में किया जाता रहा है।

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