
कुमारिल भट्ट और उनका प्रायश्चित
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बात उस समय की है, जब बौद्ध धर्म सारे भारतवर्ष में तथा अन्य देश देशांतरों में भी अपने पूरे वेग के साथ फैल चुका था और वैदिक मान्यताएँ पंगु हो चुकी थी। मृत प्रायः वैदिक धर्म के पुनरुद्धार आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो गया था। बौद्ध धर्म में शून्यवाद की नास्तिक मान्यताएँ अधिकाँश जनता को नास्तिक बनाती चली जा रही थी।
ऐसी संघर्षमय परिस्थिति यों में श्री कुमारिल भट्ट का आविर्भाव हुआ। वे वैदिक धर्म के प्रकाण्ड पण्डित तथा पूर्णतया अनुयायी थे। उन्होंने वेद, शास्त्रों तथा उपनिषदों का गहन अध्ययन किया था। उनका विश्वास था कि वैदिक तथ्य ही मानव जीवन को ऊँचा उठाने में समर्थ हो सकता है। किंतु जनता के सामने अपनी बात कहने तथा उसे मनवाने से पूर्व यह आवश्यक था कि उस प्रभाव को मिटाया जाय तो बौद्ध धर्म के नास्तिक विचारधारा के रूप में जन मानस में छाया हुआ था। उन्होंने प्रतिज्ञा की, कि - चाहे जो कठिनाई मेरा मार्ग अवरुद्ध करे- मैं वैदिक मान्यताओं का प्रचार प्रसार करने में कुछ भी उठा न रखूँगा। “
मार्ग में सबसे बड़ी कठिनाई यही थी कि बौद्ध मतानुयायियों से शास्त्रार्थ करने से पूर्व बौद्ध धर्म का गहन अध्ययन स्वयँ को होना भी आवश्यक था। इसके लिए वे तक्षशिला गये और पूरे पाँच वर्षों तक बौद्ध धर्म का क्रमबद्ध व विशद् अध्ययन किया। जब शिक्षा पूर्ण हो गई तो चलने का अवसर आया। इस समय की प्रथा के अनुसार बौद्ध विश्वविद्यालयों के स्नातकों की यह प्रतिज्ञा करनी होती थी कि -” कि मैं आजीवन बौद्ध धर्म का प्रचार व प्रसार करूंगा तथा धर्म के प्रति आस्था रहूँगा।
समस्या बड़ी ही गम्भीर तथा उलझनमय थी। करना तो था उन्हें वैदिक धर्म का प्रचार। बौद्ध धर्म का अध्ययन तो उनकी ही जड़े काटने के लिए किया था। झूठी प्रतिज्ञा का मतलब था कि गुरु के प्रति विश्वासघात तथा वचनभंग।
किंतु इस मानसिक संघर्ष के मध्य में उन्होंने अपना विवेक खोया नहीं, और क्या करना चाहिए यह निश्चय कर लिया। आपत्ति धर्म के रूप में उन्होंने प्रतिज्ञा ली और बौद्ध धर्म का अपार ज्ञान लेकर वहाँ से चल दिये। लौटकर उन्होंने वैदिक धर्म का धुँआधार प्रचार करना शुरू कर दिया। जन जन तक वेदों का दिव्य संदेश पहुँचाया। फिर जहाँ भी विरोध की परिस्थिति उत्पन्न हुई वहाँ पर उन्होंने बौद्ध मान्यताओं का खण्डन किया। अपने गहन अध्ययन के आधार पर चुन चुन कर एक एक भ्रान्त बौद्ध मान्यता और वैदिक तथ्यों द्वारा काटा। बौद्ध मतावलम्बियों को खुला आमंत्रण दिया। शास्त्रार्थ के लिए बड़े से बड़े विद्वानों को अपने अगाध ज्ञान और विशद अध्ययन के आधार पर धर्म संबंधी विश्लेषणों तथा वाद विवादों में धराशायी किया। दिग्भ्रान्त जनता को नया मार्ग, नया प्रकाश और नयी प्रेरणाएँ दी।समस्त विज्ञ और प्रज्ञ समाज में यह साबित कर दिया कि वैदिक धर्म के प्रचार में उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया।
और जब उन्हें यह विश्वास हो गया कि गिरती दीवार थम गई है, वैदिक मान्यताओं के लड़खड़ाते पैर जम गये है- तब उन्हें कुछ संतोष हुआ। अब वे यह अनुभव कर रहे थे कि जो बीज मैंने बोये थे, वे फलते फूलते रहेंगे।
अब उन्होंने अपनी ओर देखा । झूठी प्रतिज्ञा करने का क्षोभ, उनके हृदय को निरंतर कचोटता रहता था। महान व्यक्तियों की तो यही विशेषता होती है कि जरा सी अनौचित्य उन्हें सहन नहीं होता। निदान उन्होंने प्रायश्चित करने का निश्चय किया। शास्त्रीय विधान के अनुसार गुरु के प्रति विश्वासघात करने का प्रायश्चित था, जीवित अग्नि में जल जाना और वह अग्नि भी धान के छिलके की, जो लौ उठकर हाल नहीं जल जाती केवल सुलगती रहती है।
इस प्रायश्चित के हृदय स्पर्शी दृश्य को देखने देश के बड़े बड़े विद्वान आये थे । उनमें आदि शंकराचार्य भी थे। उन्होंने समझाया भी, कि आपको तो लोक हित के लिए वैसा करना पड़ा है। आपने स्वार्थ के लिए तो वैसा नहीं किया है । अतः इस प्रकार भयंकर प्रायश्चित मत कीजिए। “
इस प्रकार श्री कुमारिल भट्ट ने जो उत्तर मंद मुस्कान के साथ दिया वह उनकी महानता को और भी कई गुना बढ़ा देता है।उन्होंने कहा कि - “ अच्छा काम केवल रास्ते से ही किया जाना चाहिए तभी उसका प्रभाव लोगों पर अच्छा पड़ता है। माना कि मैंने आपत्ति धर्म के रूप में ऐसा किया, लेकिन इस प्रकार की परम्परा नहीं चलाना चाहता। कुमार्ग पर चलकर श्रेष्ठ धर्म की परम्परा गलत है। हो सकता है, इस समय की मेरे मन की स्थिति को न समझ कर कोई केवल ऊपरी बात ही अनुकरण करने लग जाय । यदि ऐसा हुआ तो धर्म और सदाचार नष्ट ही होगा और तब इससे प्राप्त लाभ का कोई मूल्य न रह जायेगा।अतः मेरा प्रायश्चित करना उचित है।”?
और उसके पश्चात उस दिव्य आत्मा के लिए दिव्य चिता जलाई गई । वे उसमें सहसा ही बैठ गये और आग लगा दी गई। धीरे धीरे सुलग सुलगकर पता नहीं कितनी पीड़ा के साथ, कितनी वेदनाओं के तर्प हटाकर निकलें होंगे प्राण।
देह जल कर भस्म हो गई और उस प्रायश्चित की भीषण अग्नि में । लेकिन उनका आदर्श सदा के लिए अमर हो गया।