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Magazine - Year 1997 - Version 2

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प्रेतात्माओं को मित्र बनाकर तो देखिए

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First 10 12 Last
परामनोविज्ञानियों के अनुसार जीवितावस्था में मानव जीवन का तीन भाग उपचेतन अथवा परामन के अधीन रहता है। मृत्यु के उपरान्त जाग्रत मन का अस्तित्व तो समाप्त हो जाता है, किन्तु उसका मौलिक तत्व, जिसमें वासना, संस्कार और समस्त भौतिक वृत्तियाँ रहती है, उपचेतन मन में चला जाता है। यही कारण है कि मरने के पश्चात् उपचेतन मन की शक्ति और अधिक बढ़ जाती है। इतना ही नहीं, विराट् मन अथवा परमचेतना से भी उसका संपर्क और घनिष्ठ हो जाता है। परामनोविज्ञान का यह अत्यन्त गम्भीर विषय है, जिस पर प्रेतविद्या के सारे सिद्धान्त अवलम्बित हैं।

गुह्यविद्या के आचार्यों के मतानुसार जीवात्मा के तीन स्वरूप होते हैं-मानवात्मा व प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा। मानवात्मा व प्रेतात्मा तब कहलाती है, जब जीवात्मा का निवास वासनामय शरीर में होता है। सूक्ष्मात्मा उस अवस्था का नाम है, जब वह अत्यन्त सूक्ष्म परमाणुओं से निर्मित सूक्ष्मतम शरीर में अवस्थान करती है। इस प्रकार जीवात्मा की तीन अवस्थाएँ और तीन भोग शरीर हैं।

वासनामय शरीरधारी प्रेतात्माओं का जो जगत है, उसे वासनालोक या प्रेतलोक कहा गया है। कुछ आचार्यों का विचार है कि प्रेतलोक सुदूर कहीं अन्तरिक्ष में स्थित है, पर अधिकाँश की धारणा इससे भिन्न है। उनके अनुसार प्रेतलोक वास्तव में कहीं अन्यत्र नहीं, वरन् इसी पृथ्वी पर दूध और पानी की तरह घुला-मिला है।

वासना को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-अच्छी और बुरी। इस आधार पर प्रेतलोक को भी वर्गों में बाँटा गया है-एक वह, जिसमें अच्छी वासना वाली मृतात्माएँ निवास करती हैं। इसे पितृलोक कहते हैं। दूसरा वह, जिसमें बुरी वासनाओं वाली अतृप्त, असंतुष्ट और विक्षुब्ध आत्माएँ देवात्मा कहलाती हैं। इनमें मनः शक्ति और विचार-शक्ति अति प्रबल होती है। प्राण-शक्ति और इच्छाशक्ति की की उनमें प्रबलता होती है, किन्तु प्रेतात्माओं में सिर्फ वासना की प्रबलता रहती है। वासना की शक्ति ही उनकी वास्तविक शक्ति है।

यों विज्ञान अब तक भूत-प्रेतों के अस्तित्व को नकारता रहा है, पर पिछले दिनों के शोध-अनुसंधानों के दौरान कुछ ऐसी उपलब्धियाँ हस्तगत हुई, जिसने विज्ञानवेत्ताओं को यह सोचने पर विवश कर दिया कि स्थूल पदार्थों की कोई सूक्ष्म प्रतिकृति भी होती है क्या अथवा मनुष्य की कोई मरणोत्तर सत्ता भी है क्या? विज्ञानियों के मस्तिष्क में यह प्रश्न तब उभरे, जब पीटर एफ, ड्र्कर एवं सी. डब्ल्यू. मिल्क नामक दो अमरीकी शोधकर्मी एक अनुसंधान के दौरान इन्फ्रारेड फोटोग्राफी कर रहे थे। तस्वीर लेने के उपरान्त जब उनने उनका अध्ययन करना आरम्भ किया, तो वे यह देखकर आश्चर्यचकित रह गये कि जहाँ निर्जन और सपाट मैदान था, वहाँ चित्र में अनेक महल और मोटर दिखाई पड़ रहे थे। यह कैसे हुआ? उनकी समझ में कुछ नहीं आया। तब वे उस स्थान का इतिहास जानने की कोशिश करने लगे। गहन छानबीन और विस्तृत अध्ययन से ज्ञात हुआ कि लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व वह स्थान आबाद था और वहाँ कई बड़ी इमारतें थीं। इसका अर्थ यह हुआ कि हर पदार्थ की अपनी एक सूक्ष्म अनुकृति होती है, जो उसके साथ-साथ मौजूद रहती है। वर्षों बाद स्थूल संरचना के न रहने पर भी उसकी वह सत्ता यथावत् बनी रहती है।

इस निष्कर्ष पर पहुँचने के पश्चात् वैज्ञानिकों ने ब्रह्मांड और उसमें फैली हुई ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का कोई अंग हो, जो ब्रह्माण्ड के नियमन, संगठन और संचालन का कार्य करती है। उनके सामने ब्रह्माण्ड की अनेक गुत्थियों में से एक गुत्थी यह भी है कि मनुष्य की चेतना का मूल स्वरूप क्या है ओर उसका ब्रह्माण्डीय चेतना से क्या सम्बन्ध है? एक और भी प्रश्न है कि क्या प्रकट चेतना से परे मनुष्य किसी अव्यक्त चेतना का भी स्वामी है, जो इस पदार्थ जगत के नियमों से ऊपर है तथा जो मनुष्य को प्राकृतिक शक्तियों से परे कहीं अधिक सूक्ष्म पराभौतिक शक्तियाँ प्रदान करती है?

इन प्रश्नों पर विचार करने से पूर्व यहाँ पराचेतना और मन को समझ लेना आवश्यक है। पराचेतना वास्तव में ‘आत्मा’ को कहते हैं और परमचेतना परमात्मा है। इस आधार पर मन के दो रूप हुए-चेतन और अचेतन। चेतन मन को ही जाग्रत मन भी कहते हैं। अचेतन मन पराचेतना (आत्मा) का एक महत्वपूर्ण अंश है। इसी प्रकार चेतन मन परमचेतना (परमात्मा) का प्रमुख अंश है। मन का एक बहुत बड़ा अंश किसी अज्ञात रहस्यमय आवरण में छिपा हुआ है। चेतन मन के इस छिपे हुए भाग को ‘उपचेतन मन’ कहते हैं। उपचेतन मन दो प्रकार के कार्य करता है-एक ओर अदृश्य लोकों एवं अदृश्य प्राणियों के विचारों, इच्छाओं आदि को ग्रहण करता है, वहीं दूसरी ओर मानवीय विचारों, भावनाओं, इच्छाओं आदि को सम्प्रेषित करता है। इसी उपचेतन की रहस्यमयी शक्ति के माध्यम से प्रेत-पितर अपने विचारों, भावनाओं, इच्छाओं और संकल्पमय उद्देश्यों को मानव मस्तिष्क में प्रेषित करते हैं, जो बाद में मानवीय विचारों, भावनाओं, इच्छाओं आदि में परिवर्तित होकर भौतिक रूप और आकार ग्रहण करते हैं।

प्रेतात्माएँ जिस वातावरण में रहती हैं, उसे वासनालोक या प्रेतलोक कहा जाता है। मनुष्य का जन्म वासना के ही कारण होता है। इसलिए सन्त पुरुष वासनाओं के, इच्छाओं के त्याग पर बल देते हैं, ताकि ये आत्मोत्थान के मार्ग में बन्धन न बन जाएँ। जो वासनाओं का, आकाँक्षाओं का त्याग नहीं कर पाते, दूसरे शब्दों में जो अपना चिन्तन और दृष्टिकोण अध्यात्मवादी नहीं बना पाते, उनका उपचेतन मन का सम्बन्ध बराबर वासनालोक की प्रेतात्माओं से बना रहता है, जिसके कारण प्रेतात्माएं उनके सिर चढ़कर अपनी अवाँछनीय आकाँक्षाएँ आसानी से पूरी करती रहती हैं। इन दिनों नैतिकी का जितना अधिक अवमूल्यन हुआ है, उतना कदाचित् ही पहले कभी रहा हो। यही कारण है कि आज सर्वसाधारण द्वारा उलटा सोचते और उलटा करते ही बन पड़ रहा है। कारण उनका संपर्क उच्च आयामों के देवतुल्य आत्माओं से न होकर उनके मन-मस्तिष्क पर सदा निम्न स्तर की निकृष्ट आत्माओं का ही आधिपत्य बना रहता है। यही हमारे आध्यात्मिक विकास के मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा और बारबार भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेने का निमित्त बन जाता है।

जिनका गुण, कर्म, स्वभाव जैसा होता है, मृत्यु पश्चात् सूक्ष्मलोक में भी वे उसी स्तर की अनुभूति करते हैं। उदाहरण के लिए जो अपने भौतिक जीवन में अशान्त, असंतुष्ट और विक्षुब्ध होते हैं, उनका पारलौकिक जीवन भी पिशाचों की तरह उन्मादग्रस्त बना रहता है। इसके विपरीत जो मनीषी, कलाकार, साहित्यकार, साधक स्तर के लोग हैं, वे मरणोत्तर जीवन में भी अपने इर्द-गिर्द वैसा ही वातावरण बनाये रहते हैं। ये आत्माएँ अपने स्तर के व्यक्तियों से संपर्क साधते और उनकी विचारणाओं ओर भावनाओं को प्रभावित करते हैं। उनकी जिन इच्छाओं का आवेग कमजोर होता है, वे चेतन मन की परिधि तक आते-आते काफी क्षीण व दुर्बल हो जाती है, अतः मानवी क्रिया-कलापों पर इनका कोई विशेष असर नहीं पड़ता, किन्तु जिनमें वासना का वेग प्रचण्ड होता है, उनकी वह भावनाएं पूर्ण रूप से चेतन मन में प्रकट होती हैं। इस प्रकार वासना वेगयुक्त विचारों के मानसिक जगत अनुसार काम जाने-अनजाने कर बैठता है। बाद में वह यह सोचकर आश्चर्यचकित हो उठता है कि अचानक या अपने आप उससे यह काम कैसे हो गया।

प्रेत शरीर केवल भोग शरीर है। मानव शरीर भोग और कर्ममय दोनों है। भौतिक शरीर के द्वारा भोग भी किया जाता है और कर्म भी। इसीलिए प्रेतात्माओं जैसी भेग शरीरधारी आत्माएँ भेग का उपभोग करती और तृप्ति अनुभव करती हैं। जैसे कोई व्यक्ति जीवन में शराबी रहा है। मरने के पश्चात् पार्थिव शरीर के अभाव में शराब तो पी नहीं सकता, इसलिए जो व्यक्ति शराब पीता होगा, उसके अचेतन मन में प्रभाव डालकर उसकी प्रेतात्मा उसे प्रेरित करेगी और जब वह शराब पीने लगेगा, तो वह प्रेतात्मा उस व्यक्ति के शराब के माध्यम से मदिरा के तत्वों को ग्रहण कर तृप्ति अनुभव करेगी, किन्तु इसकी तनिक भी जानकारी उस मद्यपी को न मिल सकेगी। इसी प्रकार जो व्यक्ति जीवन भर लूट-पाट, हत्या, आगजनी, चोरी, डकैती आदि कृत्यों में संलग्न रहा, मरने के बाद भी वह अपने जैसे स्वभाव और संस्कार के व्यक्तियों की तलाश में रहता है, ताकि वह उन पर सवार होकर वैसी ही दुरभिसंधि रच सके। इन कामों में उसे आत्मिक सुख की प्रतीत होती है।

इस प्रसंग में यह भली’-भाँति समझ लेना चाहिए कि क्रोध या आवेशवश अचानक बिना किसी पूर्व योजना अथवा उद्देश्य के कोई अप्रिय कार्य अनचाहे में किसी व्यक्ति द्वारा हो जाता है, तो इसकी पृष्ठभूमि में इसी प्रकार की अतृप्त प्रेतात्माओं की वासनाएँ ही रहती हैं। ऐसे ही किसी गंभीर चिन्तन में निमग्न व्यक्ति की बुद्धि जब समस्या के समाधान में निरुपाय होती प्रतीत होती है, तभी न जाने कहाँ से वैसे विचार की एक ऐसी किरण मस्तिष्क में कौंध उठती है कि हल सरल और साधारण जान पड़ने लगता है। इस सहायता में भी अदृश्य आत्माओं का ही हाथ है। गुह्मवेत्ताओं का कथन है कि मनुष्य की पचास प्रतिशत विचारणाएँ ऐसी ही अगोचर आत्माओं द्वारा प्रेरित होती है। शेष में पचास प्रतिशत विचार ही ऐसे होते हैं, जिन्हें उनके निजी और मौलिक कहे जा सकते हैं।

उच्च कोटि की प्रेतात्माएँ एक विशेष सीमा तक प्रकृति के गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित कर सकने में समर्थ होती हैं। इसी प्रयोजन से सृष्टि के गूढ़ तत्वों से तथा साथ ही जीवन के रहस्यमय तथ्यों से परिचित होने के लिए ताँत्रिक साधना के सभी सम्प्रदायों में किसी न किसी रूप में प्रेत साधना प्रचलित है, किन्तु प्रत्येक सम्प्रदाय के अलग-अलग साधना, नियम, पद्धति और विधियाँ हैं और किस पद्धति ए0 किस विधि से किस प्रकार की प्रेतात्माएँ अधिकार में आती हैं और उनसे कौन-सा काम लिया जा सकता है-इन सब बातों का भी ताँत्रिक साहित्य में उल्लेख मिलता है।

आत्मा परमात्मा का अंशधर है। इसमें भी वही सारी शक्तियाँ और विभूतियाँ है।, जो ईश्वर में हैं, पर लौकिक जीवन में हम उसे इतना मलिन और कलुषित बना देते हैं कि उसकी वास्तविक विभूति का परिचय हमें मिल ही नहीं पाता और इसी दीन-हीन अवस्था में इस संसार-सागर से हम विदा हो जाते हैं तथा पारलौकिक जीवन प्रेत-पिशाचों जैसा बिताने कि लिए विवश होते हैं। यदि भौतिक जीवन में व्यक्ति अपनी चेतना को तनिक भी परिष्कृत कर सके, तो न सिर्फ वह मन और आत्मा की दिव्य शक्तियों को पाकर निहाल हो सकेगा, वरन् ऐसी उच्चात्माओं का अदृश्य सहयोग भी अर्जित, आकर्षित कर सकेगा, जो उसकी भौतिक सफलता को सुनिश्चित कर सकें।

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