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Magazine - Year 1997 - Version 2

Media: TEXT
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एक नर्तकी का बलिदान

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First 20 22 Last
राणा हम्मीर डूबते सूरज की लालिमा को गवाक्ष से एकटक निहार रहे थे। क्षण-क्षण बदलती किरणों के संग महाराज के मन की विचार-लहरें भी प्रतिक्षण बदल रहीं थी, वह अपने ही ख्यालों में मन्द बयार के साथ झूल रहे थे। यदा-कदा उनके उन्नत ललाट पर चिन्ता की रेखाएँ उभर उठतीं। न जाने कितनी देर तक वे अपलक शून्य की ओर निहारते रहे। अचानक कोई आहट पाकर वे पलटे तो पाया कि महल की परिचारिका दबे पाँव आकर दीप प्रज्वलित करने को तत्पर हैं अस्ताचलगामी भगवान सूर्यदेव का रथ न जाने कब का क्षितिज से दूर जा चुका है। हल्की उजास ही बाकी बची थी।

दरवाजे की हल्की आहट हुई। उन्होंने देखा कि एक राज कर्मचारी हाथ बाँधे खड़ा है। महाराज ने उसे संकेत से बोलने के लिए कहा। अनुमति पाकर वह कहने लगा, “मुहम्मद शाह, आपके सम्मुख पेश होने की इजाजत चाहते हैं।” महाराज के चेहरे पर भावों का एक गहरा उतार-चढ़ाव आया और उन्होंने हलकी-सी हुँकारी भरकर पेशी की रजामन्दी दे दी।

क्षण मात्र में ही मुहम्मद शाह ने कक्ष में दाखिल होकर जुहार की। क्षीण स्मित के साथ उन्होंने उसे सामने रखे आसन पर बैठने का संकेत किया। कक्ष के दीपाधारों पर अब तक अनेकों दीप जगमगाने लगे थे। गवाओं से घना अँधेरा अन्दर आने के लिए आतुर था। मुहम्मद शाह था तो शरणागत, लेकिन राणा हम्मीर ने उसे शाही मेहमान का दर्जा दिया हुआ था। इस समय वह कुछ कहने की बाट जोह रहा था। कुछ देर चुप रहकर उसने अपनी बात शुरू की, “महाराणा, गुस्ताखी माफ हो, कुछ अर्ज करने की इजाजत चाहता हूँ।”

तेरहवीं सदी के उत्तरार्द्ध का समय अलाउद्दीन के अत्याचारों से आक्रान्त था। उसने अपने दहशतअंगेज कारनामों से सभी को झुका रखा था। लेकिन ऐसे में भी रणथम्भोर का यह दुर्ग अपना मस्तक ऊपर उठाए खड़ा था। रण और थम्भोर दो पहाड़ियों के सिरमौर बने इस दुर्ग में राणा हम्मीर की वीरता की आभा प्रदीप्त थी।

इतिहासकारों के अनेकों दस्तावेज आज भी इस दुर्ग के अभिमानी वीरों के किस्में कहते हैं। ऐतिहासिक अनुमान के अनुसार इसका निर्माण आठवी शती के आस-पास हुआ। चौहानों के अनेक वंशज वहाँ राज करते रहे और समय-समय पर आक्रान्ताओं से लोहा लेते रहे। कभी हार तो जीत, यहाँ की प्राचीरों ने देखी। किन्तु यह दुर्ग इतिहास में अभेद्य ही माना जाता रहा। दिल्ली के शहंशाह हर हमेशा इसे जीतने की तदबीरें भिड़ाते रहे। लम्बे अरसे तक हार-जीत से लुका-छिपी खेलता यह दुर्ग तेरहवीं सदी के अन्तिम पड़ाव पर परम यशस्वी राव हम्मीर देव के अधिकार में था। राव जयसिंह का यह होनहार सपूत समूचे हिन्दुत्व की शान बना हुआ था। रणकुशल योद्धा होने के साथ उसने दैवी भावनाओं से ओत-प्रोत हृदय भी पाया था। अपनी राजनैतिक कुशलता से उसने चौहान साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार मालवा से माँडलगढ़, उज्जैन व धार तक किया।

दिल्ली के तख्त पर इस समय अलाउद्दीन खिलजी की हुकूमत थी और उसकी नजर चौहानों के गढ़ रणथम्भोर के किले को हासिल कर पाना इतना आसान नहीं था और न ही आसान था राणा हम्मीर के हठीले हौंसले को तोड़ना। हठी हम्मीर अब तक कोई युद्ध हारे ही न थे। खिलजी को यह सब मालूम था। मगर लोभ ने उसे अन्धा बना दिया और इसी वजह से बार-बार हार का मुँह देखने के बावजूद भी वह इन दिनों दुर्ग पर घेरा डाले पड़ा था। दुर्ग के सामने स्थित पहाड़ी पर उसका पड़ाव था। दस सालों की लम्बी लड़ाई में खिलजी तब तक हारता ही आया था। लेकिन अबकी बार रसद और गोला-बारूद की कमी की खबरें उस तक पहुँच चुकी थीं। खिलजी राजपूती पराक्रम से अनजान नहीं था। जौहार और साका के रचाने के रोमाँचक हौंसलों से अभी भी उसका दिल दहल जाता था। लेकिन फिर भी अपने लोभ से वह उत्साहित था।

दिल्ली दरबार से अपमानित किया हुआ मुहम्मद शाह इस समय राव हम्मीर की शरण में था। खिलजी के प्रति अपनी भरपूर सेवाओं के बदले उसे तिरस्कार ही मिला था। रणकौशल में मँजा हुआ मुहम्मद शाह हम्मीर की इनसानियत के सामने भाव-विगलित था।

लगातार चलते युद्ध ने दुर्गवासियों को थका डाला था। इस बार खिलजी को घेरा डाले दस महीने से ऊपर बीत चुके थे। मुहम्मद शाह को दुर्ग की स्थिति और महाराज की चिन्ता का पूरा अहसास था। इसी चिन्ता से महाराज का कुछ ध्यान बँटाने की तरकीब पेश करने वह आज महाराजा के कक्ष में हाजिर हुआ था। मन्द मुस्कान लिए हम्मीर देव उसकी ओर देख रहे थे। वह कहे जा रहा था, “गुस्ताखी माफ हो, हुजूर, क्या यह खादिम जान सकता है कि जनाब ने मनोरंजन की महफिलों से क्यों मुँह मोड़ रखा है?”

हम्मीर देव कुछ गम्भीर स्वर में बोले,”कुछ अच्छा नहीं लग रहा है, मुहम्मद।”

“हुजूरे आला, आपकी सल्तनत में तो ऐसे नायाब फनकार हैं जिनकी चमक यहाँ से लेकर दिल्ली दरबार तक पहुँची हुई हैं।”

महाराज ने जिज्ञासापूर्वक उसकी ओर देखा, जिसके उत्तर में उसने मालवा की धारा नर्तकी का जिक्र करते हुए अपनी योजना सामने रखी। योजना के अनुसार नर्तकी दोनों पहाड़ियों के दो छोरों के बीच बँधी रस्सी पर नाचते हुए खिलजी के पड़ाव स्थिति का ब्योरा देगी। जिससे आक्रमण में आसानी हो सकेगी।

“लेकिन यह तो काफी जोखिम भरा काम है। क्या धारा इसके लिए तैयार हो जाएगी?”

“हुजूर खुद ही उससे पूछ लें।”

योजना की बारीकियों को समझते हुए महाराज ने मनोरंजन के इस अद्भुत आयोजन की स्वीकृति दे दी।

मालवा की नट जाति की थी धारा। भगवान ने उसके पैरों में ही ही अद्भुत लास्य ही नहीं दिया था वरन् उसके पोर-पोर में बिजली भर दी थी। उसके ‘डोरी नृत्य’ की चर्चा पूरे हिन्दुस्तान में फैल चुकी थी। चम्पई रंग पर भँवरे-सी मँडराती काली आँखें। सुतवाँ नाक व गुलाब की कनियों से ओंठ। सुगठित देह और जंघाओं को छूती, बलखाती नागिन-सी चोटी-देखने वालों को सम्मोहित कर देती थी। नृत्य की उसकी मुद्राएँ किसी रंगमंच में नहीं हवाओं के अधर में ही सम्पन्न होती थी पहाड़ की एक चोटी से दूसरी चोटी पर वह डोर पर ठुमकते हुए यूँ आती थी जैसे कोई हंसिनी तैर रही हो।

नृत्य का आयोजन दिवस के तीसरे प्रहर के पश्चात् रखा गया था। सूर्य के रथ चक्र पल-पल पश्चिम की ओर सरकने लगे थे। तभी बुर्ज की चौखट पर धारा नटनी किसी देवलोक की अप्सरा की तरह प्रकट हुई। आज उसका शृंगार असाधारण था। नख से शिख तक आभूषणों की आभा विकीर्ण हो रही थी। अपनी बलखाती चोटी को उसने खुला ही छोड़ दिया था। सतरंगी चूनर पश्चिम की ओर बढ़ रहे सूर्य देव की रश्मियों से जगर-मगर हो रही थी। नीले आसमानी घाघरा-चोली में राजी वह धरती की कोई नारी नहीं, स्वर्गलोक की अलौकिक अप्सरा लग रही थी। न जाने कब से उसके हृदय में चाह थी कि समस्त प्रदेश के लोकनायक राव हम्मीर के समक्ष कला प्रदर्शन का मौका मिले।

लेकिन हम्मीर की रुचि राग-रंग में न होने के कारण वह अब तक वंचित ही रही थी। आज उसे मौका मिला था, एक खास जिम्मेदारी के साथ। राणा ने उसे जब जिम्मेदारी के बारे में बताया, तो उसने हर्षित होते हुए कहा, “मैं भी राज्य की नागरिक हूँ, देश की रक्षा के लिए मैं अपना फर्ज खुशी से निभाऊँगी।” इस स्वीकारोक्ति के साथ महफिल सज चुकी थी। नगाड़े बज उठने को आकुल थे। धारा बुर्ज पर हम्मीर देव के सामने झुकी हुई उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रही थी। खचाखच भरे महल के प्राँगण, अटारियों, झरोखों से उत्सुक आँखें धारा पर लगी थीं। सन्नाटा छाया हुआ था। महाराज ने मुस्कुरा कर धारा का अभिवादन कबूल किया और आयोजन प्रारम्भ करने का आदेश दिया।

क्षणमात्र में नगाड़ों की गूँज से समस्त रणथम्भोर लगा। हवाओं में धारा की सुरीली तान गूँज उठी। उसके साथी नट ताल दे-दे कर तान में तान मिलाने लगे। समूचा वातावरण धारा के नृत्य के साथ थिरक उठा। जनसमूह साँस रोके, सम्मोहित-सा इस दृश्य को देख रहा था। ऐसे में धारा डोरी पर अपने आसमानी सफर को तरंगित कर रही थी।

वह नृत्य करते-करते डोरी के मध्य तक आ पहुँची थी। पीछे की पश्चिमी पहाड़ी पर सूर्यास्त होने में अभी कुछ देर थी। अद्भुत दृश्य था। ऐसा लग रहा था, मानो नर्तकी सूर्य किरणों पर ही नाच रही हो। उसके अद्भुत लयकारी पर प्रकृति भी थाप दे रही थी। नीचे घाटी में चलती तेज हवाएँ थमकर आज का नजारा देखने को उतावली थीं। किसी को याद नहीं वह कब दूसरे सिरे तक पहुँच गयी।

बारी अब उसके लौटने की थी। नृत्य करते हुए उसकी नजर खिलजी की सेना के पड़ावों की स्थिति पर थी। धारा का पद-संचालन खिलजी की सेना में रोमाँच उत्पन्न कर रहा था। धारा के तलवे बार-बार खिलजी की आँखों के सामने कौंध जाते। उसे यह सब किसी जहर बुझे तीर की तरह लग रहा था। खेमे में हुक्म जारी कर दिया गया कि जो धारा को मारेगा, वह मुँह माँगा इनाम पायेगा। किले में जाकर धारा को मार पाना संभव नहीं था। अतः यही सबसे उत्तम मौका था। लेकिन ऐसा निशानेबाज था कहाँ?

खिलजी के खास सिपहसालार याकूब खाँ ने गुजारिश की कि यह काम केवल एक शख्स अंजाम दे सकता है और वह है ओदन सी। सुल्तान ने उसे फौरन पेश करने का हुक्म दिया। अब तक डोरी पर नाचते-नाचते धारा दोनों पहाड़ियों के मध्य में आ पहुँची थी। उसका हर कदम अपनी मंजिल की तरफ बढ़ रहा था। किन्तु उसे अपने दुर्भाग्य का आभास न था। शिकारी निशाना साध चुका था। उसकी ख्याति से धारा भी भली’-प्रकार परिचित थी।

लेकिन उसे भी आज अपने देश व धर्म का कर्ज चुकाना था। बर्बर और नृशंस खिलजी की सारी की सारी ब्यूह रचना को अब तक वह भली-प्रकार देख-समझ चुकी थी। राणा हम्मीर को सारी सूचनाएँ दिए बगैर वह मरना नहीं चाहती थी। ओदन सी ने निशाना साधते हुए अपना तीर कमान से छोड़ दिया। धारा डोरी पर लहराई और तीर उसकी गर्दन के पास से होकर निकल गया। देखने वाले दर्शकगण धारा की जान की खैर मना रहे थे।

अब क्या होगा? इस सवाल का जवाब कोई खोज पाता, तब तक ओदनी सी का दूसरा तीर छूट चुका था। इस बार तीर के धँसते ही उसके नृत्य में और तेजी आ गयी। ओदनी सी तीर छोड़े जा रहा था। धारा किले की ओर कदम बढ़ाती जा रही थी। तभी एक तीर ने उसकी पीठ को छेद दिया। लेकिन अब वह किले के अन्दर प्रवेश कर चुकी थी। दर्शकों का समूह साँस रोके। उसके नृत्य को ही नहीं, जिजीविषा और राष्ट्रप्रेम को देख रहा था।

महाराज के सिंहासन के पास पहुँचते-पहुँचते वह डोरी से गिर पड़ी। अनेकों हाथों ने उसे लपक लिया। घाव गहरे थे, बचने की आशा कम ही नजर आ रही थी। उसे महाराज को खिलजी की सेना का पूरा विवरण देने की जल्दी थी। महाराज के बुलाए वैद्य को उसने इशारे से रोका और अटकते हुए वह सारा विवरण सुनाने लगी। सारी बातें सुनाकर वह हिचकियों के साथ बोली-”महाराज! मैंने अपना फर्ज पूरा किया। खिलजी की बर्बरता को रोकने की जिम्मेदारी अब आप पर है।” अन्तिम शब्द कहते हुए उसकी गर्दन एक ओर लुढ़क गई।

सबके सब स्तब्ध थे। ऐसी नायाब कलाकार का ऐसा करुण अन्त देखकर प्रत्येक हृदय चीत्कार उठा। सभी के सिर उसके महान बलिदान के सामने झुक गये। राणा हम्मीर देव ने धारा की सूचनाओं के आधार पर खिलजी की फौज पर दो तरफ से आक्रमण किया। इस अचानक आक्रमण को खिलजी की सेना झेल न सकी। उसके पैर उखड़ गए। राणा हम्मीर ने विजयोपरान्त घोषणा की-”आज की यह विजय धारा के बलिदान की विजय है। जब तक देश में बलिदान की परम्परा कायम है। यहाँ मानवता की मर्यादाएँ भी अक्षुण्य रहेंगी।”

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