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Magazine - Year 1997 - Version 2

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Language: HINDI
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ब्रह्मवर्चस् की प्रयोगशाला की विशेषता : सर्वांगपूर्ण मनोविज्ञान

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‘मन एवं मनुष्याणाँ कारणं बन्ध मोक्षयो’ की बहुप्रचलित उक्ति प्रायः हर रोज अनगिनत मनुष्यों द्वा कही सुनी जाती है। मन के माहात्म्य का परिचय हर किसी को अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में मिलता रहता है। द्वेष-दुर्भाव हों या फिर प्रेम-सद्भाव, व्यक्ति की मनोभूमि में ही अंकुरित और पल्लवित होते हैं। मन में समायी कंपूचिया-प्रवृत्तियां, संस्कार ही इनसान के व्यवहार में प्रतिबिंबित होकर उसे आकर्षक अथवा घृणास्पद होकर उसे आकर्षक अथवा घृणास्पद बनाते हैं। मन और उसके विज्ञान को जाने बिना मनुष्य का वास्तविक परिचय पाना असम्भव है। इनसानी जिन्दगी को जानने, उसे सँजाने-सँवारने के लिए मन के विज्ञान की खोज, इस क्षेत्र में गहन व सतत् अनुसंधान बेहद जरूरी है।

परमपूज्य गुरुदेव का समूचा जीवन इसी के प्रति समर्पित रहा। उन्होंने ईश्वर की अनूठी कृति मनुष्य को जाना ही नहीं, उसकी प्रकृति को बारीकी से समझा। यही नहीं उसमें आयी विकृति के निदान खोजे और उसकी संस्कृति को सँवारने में अपना मौलिक योगदान दिया। विचारक्रान्ति की कथा-गाथा, युग-निर्माण आन्दोलन का इतिहास, प्रज्ञा-अभियान के क्रियाकलाप मानव मन के सर्वांग विज्ञान के विविध पहलुओं की कहानी कहते हैं। अपने युग के महान अध्यात्मवेत्ता के रूप में उन्होंने अपने प्रवचनों, गोष्ठियों, लेखों और पुस्तकों में इस सत्य को अनेकों बार दुहराया कि अध्यात्म एक उच्चस्तरीय मनोविज्ञान हैं।

आज के जमाने में मनोविज्ञान के महत्व से सभी वाकिफ हैं। शायद इसका कारण यही है कि इनसान की व्यक्तिगत एवं सामाजिक जिन्दगी की हर समस्या मन के ही किसी न किसी कोने में उपजती है और मन के ही किसी कोने में उसके समाधान मिलते हैं। काम कोई भी हो, उसकी सफलता बहुत कुछ करने वालों की मानसिकता पर निर्भर है। यदि हम मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों और प्रेरणाओं को समझने की कोशिश करें तो हमारे लिए व्यक्ति के व्यवहारों की दिशा और गति का अनुमान लगाना सरल हो जाएगा।

मानव मन में ही घृणा, द्वेष और युद्ध के बीज होते हैं। इस बात को आज सभी मानने लगे हैं यदि हम संसार में शान्ति और सुरक्षा चाहते हैं तो हमें इनसानी दिमाग में छुपी अशान्ति और घृणा को दूर करना होगा। जीवन के हर क्षेत्र में समाज के विभिन्न स्तरों पर व्यक्ति के व्यवहार दिखाई पड़ते हैं। व्यक्ति के व्यवहारों का ही नहीं उसके प्रेरक तत्वों का वैज्ञानिक अध्ययन करना मनोविज्ञान का कार्य है। ‘मनोविज्ञान’ मन का विज्ञान है। मन क्या है? क्या मन का वैज्ञानिक अध्ययन हो सकता है? इन सवालों के सार्थक हल खोजने के लिए ही पूज्य गुरुदेव ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान में अनुसंधान के अनुष्ठान आयोजन कर गए हैं।

हमारी भारतीय परम्परा और पश्चिमी परम्परा जिसमें यूरोप और उत्तरी अमेरिका प्रमुख है, मनोविज्ञान की ऐतिहासिकता में अपना मूल्यवान स्थान रखती है। ब्रह्मवर्चस् के शोध प्रयासों की विशेष ध्यान दिया गया है, जिन्हें पहले के मनीषी और मनोवैज्ञानिक किसी कारणवश नहीं सुलझा सके। अनुसंधान का यह शोध प्रारूप कुछ ऐसा है जिसकी एक झलक हमारे मन से पूर्व एवं पश्चिम का भेद भुला देती है। जिस प्रकार हम विज्ञान के अन्यान्य क्षेत्रों में विश्व दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं, उसी प्रकार मनोविज्ञान के अध्ययन में भी सर्वांग दृष्टि की आवश्यकता है। इसमें भी विश्व दृष्टिकोण की स्थापना की जरूरत है। लेकिन अभी तक इस क्षेत्र में जो भी अध्ययन और अनुसंधान हुए हैं, उनमें मनोविज्ञान के क्षेत्र में भारत की देन की अवहेलना ही हुई है। इसलिए यह जरूरी है कि हम संसार के अन्य देशों का विशेषकर पश्चिमी देशों का ध्यान भारत में हुए मनोविज्ञान के विकास की ओर आकर्षित करें।

ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान में हो रहे अनुसंधान के प्रति अखण्ड ज्योति के पाठकों एवं विशेषज्ञों की जिज्ञासा प्रारम्भ से रही है। समय-समय पर मिलने वाले उनके पत्रों में यही तत्व झलकला रहा है। इस बारे में कहना इतना ही है कि गुरुदेव द्वारा प्रेरित एवं प्रवर्तित ब्रह्मवर्चस् का शोध आयोजन मानवीय चेतना में आ गयी विकृतियों के निदान एवं उसकी अन्तर्निहित शक्तियों के जागरण हेतु किया गया है। जड़ प्रकृति पर अध्ययन एवं अनुसंधान का सिलसिला जारी है। इस प्रयास में इनसान को अनगिनत सुविधाएँ एवं शक्तियाँ मिली हैं। लेकिन अपने इस प्रयास में जुड़ी विश्व मनीषा यह भूल गयी कि यदि मानवीय चेतना को परिमार्जित एवं परिशोधित करने की तकनीकें न खोजी गयीं तो जड़ प्रकृति से पायी गयी सारी उपलब्धियाँ सर्वनाशी सिद्ध होंगी।

चेतना जगत के महावैज्ञानिक परमपूज्य गुरुदेव ने विज्ञान के इतिहास में पहली बार घोषणा की कि शोध-अनुसंधान चेतना क्षेत्र में भी हो। सर्वांग मनोविज्ञान इसी का दूसरा नाम है। यूँ अब तक गुरुदेव के विचारों के विविध पहलुओं पर दर्जनों छात्र-छात्राएँ पी. एच. डी. की उपाधियाँ प्राप्त कर चुके हैं। ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान के मार्गदर्शन में किए-गए इन कार्यों की व्यापक प्रशंसा हुई है। विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ विद्वानों ने गुरुदेव के विचारों के मूल्य को स्वीकारा और सराहा है। अनेकों विशेषज्ञ तो इस बात पर आश्चर्य भी प्रकट कर चुके हैं कि आखिर वे कैसे इतने अलग-अलग विषयों पर अपना बहुमूल्य अनुदान प्रस्तुत कर सके।

पी. एच. डी. एवं डी. लिट. उपाधियों के लिए मार्गदर्शन एवं दिशा-दर्शन अब ब्रह्मवर्चस् के क्रियाकलापों का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है। अनेकों ज्ञान-पिपासु शोधार्थी यहाँ आकर अपने शोध-कार्य के लिए मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं। पूज्य गुरुदेव के ज्ञान-वितरण की परम्परा का यहाँ समुचित रूप से निर्वाह हो रहा है। लेकिन यह तो यहाँ के काम का छोटा-सा, बहुत छोटा-सा हिस्सा है। असली चीज तो मानवीय चेतना पर किया जाने वाला अनुसंधान हैं।

पश्चिमी देशों में मनोविज्ञान के विकास पर अनेकों पुस्तकें हैं। ये पुस्तक मानवीय चेतना का विशद ज्ञान तो नहीं पर उसका साँकेतिक इतिहास अवश्य प्रस्तुत करती है। ब्रेट का अमरग्रन्थ ‘हिस्ट्री ऑफ साइकोलॉजी’ तीन भागों में प्रकाशित हुआ था। पहले भाग के अट्ठारहवें अध्याय में ब्रेट ने भारतीय मनोविज्ञान का उल्लेख किया है। उन्होंने वेदान्त, साँख्य और वैशेविज्ञान तथा बौद्ध दर्शनों में भारतीय मनोविज्ञान के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। उनका यह प्रयास एक छोटी ही सही, पर अच्छी शुरुआत जरूर बना। इसी तरह की एक कोशिश हेराल्ड आई. कैप्लान, अल्फ्रेड एम. फ्रीडमैन एवं बेंजामिन जे. सैडोक ने अपने द्वारा सम्पादित ग्रन्थ ‘कम्प्रेहंसिव टेक्स्ट बुक ऑफ साइकियाट्री’ में की। उन्होंने अपने इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में सभ्यता की सुबह में मनोचिकित्सा की शुरुआत को स्पष्ट करते हुए वेद, उपनिषद्, श्रीमद्भगवद्गीता एवं षड्दर्शनों में मनोचिकित्सा के तत्वों का संक्षेप में किन्तु सारगर्भित विवेचन किया है। इसी विवेचन में अपना निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए ‘हिस्टोरिकल एण्ड थ्योरिटिकल ट्र्ण्ड्स इन साइकियाट्री’ नामक इस प्रथम अध्याय के लेखक डॉ. जार्ज मोरा का कहना है कि यह सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता है कि पश्चिमी दार्शनिक मूल रूप से प्राकृतिक दार्शनिक है। चीनी दार्शनिक सामयिक दार्शनिक हैं, परन्तु भारतीय दार्शनिक मनोवैज्ञानिक दार्शनिक हैं।

जार्ज मोरा की यह उक्ति भारतीय ऋषियों की मनोवैज्ञानिक विरासत की महत्ता स्पष्ट करती है। लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे इस शृंखला में आगे कुछ काम नहीं हो सका। आधुनिक जीवन की आपाधापी कुछ ऐसी रही कि ब्रेट के महान ग्रन्थ के तीन भागों को जब एक जिल्द के लघुरूप में आर. एस. पीटर्स ने प्रस्तुत किया, तो वह इस संक्षिप्त ग्रन्थ में भारतीय मनोविज्ञान के सम्बन्ध में कुछ भी न दे सके। यही बात फैटलन और सैडोक ने अपने ग्रन्थ का संक्षिप्त संस्करण निकालते वक्त की। उन्होंने जब ‘कम्प्रिहेंसिव बुक ऑफ साइकियाट्री’ को दो खण्डों में समेटा तो भारतीय मनोविज्ञान के तत्वों पर ध्यान देना भूल गए।

फ्रायड की सन्तानों की यह भूल उतना मायने नहीं रखती जितनी कि ऋषियों की सन्तानों द्वारा अपने पूर्व पुरुषों की विरासत की उपेक्षा। आज भारत में मनोविज्ञान का अध्ययन पश्चिमी मनोविज्ञान तक ही सीमित है। भारत में इस समय कितने मनोवैज्ञानिक हैं, जो भारतीय मनोविज्ञान तक ही सीमित है। भारत में इस समय कितने मनोवैज्ञानिक हैं, जो भारतीय मनोविज्ञान से परिचित हैं? पश्चिमी मनोविज्ञान के पुजारी भारतीय मनोवैज्ञानिक अपने अज्ञान को यह कहकर छुपाते हैं कि भारत में मनोविज्ञान था ही कब? जो कुछ भारतीय मनोविज्ञान के नाम पर लिखा गया है वह वास्तव में भारतीय दर्शन है, धर्मशास्त्र है, मनोविज्ञान नहीं हैं मनोविज्ञान भी आज के जमाने की उपज है।

पश्चिमी मनोवान के अन्ध भक्तों की ये बातें इस आधार पर हैं कि दर्शन और मनोविज्ञान दो अलग विषय है। यहाँ यह अपेक्षित नहीं है कि इस बारे में ज्यादा विवाद किया जाय। लेकिन यह तो ऐतिहासिक सच्चाई है कि अपने शुरुआती दौर से लेकर अब से कुछ दशाब्दियों पूर्व तक अकेले भारत ही नहीं दुनिया के सारे दर्शनों में मनोविज्ञान सम्मिलित था। ज्यों-ज्यों हम भौतिकवादी होते गए, त्यों-त्यों दर्शन एवं मनोविज्ञान के सम्बन्ध-सूत्र कमजोर पड़ते गए। विज्ञान के नाम पर भौतिकवादी दृष्टिकोण मनोविज्ञान के दार्शनिक आधार को छोड़ता गया। ये बातें किसी को भी बदलती परिभाषाओं के अध्ययन से मालूम हो सकती हैं।

पहले मनोविज्ञान में आत्मा की प्रधानता थी। लेकिन कुछ सदियों बाद आत्मा को दार्शनिक एवं धार्मिक तत्व मानकर बहिष्कृत कर दिया गया। उसके स्थान पर मन यानि कि माइण्ड को स्वीकार किया गया। इस बारे में एक परिहासपूर्ण कहावत प्रचलित है-’व्हाट इस माइण्ड? नेवर मैटर। व्हाट इस मैटर? नेवर माइण्ड।’ यह कहावत भले ही हँसी भरी हो, फिर भी इसमें एक निहित सत्य है। मन क्या है? इसके उत्तर में यह निश्चित है कि मन कोई मैटर (पदार्थ) नहीं है। तब फिर मन क्या है, जिसकी खोज मनोवैज्ञानिक करते हैं? इस सवाल का सन्तोषजनक हल न खोज पाने के कारण भौतिकवादियों ने मनोविज्ञान के अध्ययन का विषय जीव का व्यवहार निश्चित किया।

व्यवहार देखा जा सकता है और वैज्ञानिक प्रणाली द्वारा व्यवहार का अध्ययन किया जा सकता है। अध्ययन के इसी क्रम में संरचनावाद, क्रियावाद व्यवहारवाद आदि की मनोवैज्ञानिक विधाओं का जन्म हुआ। अध्ययन के इस क्रम में मनोविज्ञान का विद्यार्थी जीव विज्ञान का विद्यार्थी बनकर रह गया। मन को जानने-समझने की बजाय वह शरीर की जानकारी इकट्ठी करने में जुट गया। मनुष्य में आत्मा नाम का कोई चेतन तत्व है या नहीं, इससे किसी को कोई मतलब नहीं। गेस्टाल्ट साइकोलॉजी के प्रवर्तक थोड़ा कर नहीं पाए। लेकिन पहली बार जब फ्रायड ने मन के अचेतन और अवचेतन रूपों पर इतना प्रकाश डाला कि मानवीय व्यवहार के अध्ययन में जुटे लोग घबरा गए और आखिर मनोवैज्ञानिकों को स्वीकार करना पड़ा कि शरीर व मन के सम्मिलित स्वरूप का अध्ययन मनोविज्ञान का विषय है। इसके लिए उन्होंने एक नया शब्द ‘साइकोसोमेटिक’ बनाया। साइकिक का मतलब हुआ ‘मन’ और सोमा के मायने ‘शरीर’।

इस तरह हम यह साफ समझ सकते हैं कि मनोविज्ञान के अध्ययन का केन्द्रीय विषय किस प्रकार भौतिकवादी प्रभाव में अपने रंग बदलता रहा है। बात यहीं खत्म नहीं हुई, मन के परे क्या? यह सवाल आज भी मनोवैज्ञानिकों को हतप्रभ किए हुए है। इसका उत्तर ढूँढ़ने के लिए रोज नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। पैरासाइकोलॉजी के नाम से नया मनोविज्ञान जन्म पा चुका है। ई. एस. पी. (एक्स्ट्र् सेन्सरी परसेप्शन) पर प्रयोग हो रहे हैं। ई. एस. पी. के प्रसिद्ध खोजी डाक्टर जे. बी. राइन की पुस्तक ‘न्यू फ्रंटियर्स ऑफ माइण्ड’ इस सम्बन्ध में एक अनोखी शुरुआत की कहानी कहती है। काफी पहले ‘द अमेरिकन वीकली’ में उनका एक लेख प्रकाशित हुआ था। इस लेख में डाक्टर राइन ने मृत्यु के बाद के जीवन की वैज्ञानिक रीति से जानकारी प्राप्त करने के प्रयासों का वर्णन किया है और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे है-सिद्ध नहीं कि मृत्यु के बाद जीवन को विज्ञान असत्य सिद्ध कर पाया है। उन्हें मृत्यु के बाद जीवन का अस्तित्व सिद्ध करने के प्रमाण तो मिले हैं, परन्तु उनकी ठीक-ठीक वैज्ञानिकता सिद्ध करनी बाकी है। वे लिखते हैं, हमारे पास अभी कोई निर्भर योग्य परीक्षण नहीं है। हमें शायद बिलकुल नए तरीकों को काम में लाना होगा।

कहना न होगा कि यह चुनौती पूर्ण कार्य अभी भी बाकी है। यही नहीं, मानवीय चेतना के अभी अनगिनत ऐसे पहलू हैं, जिनका वैज्ञानिक अध्ययन अभी बाकी है। ब्रह्मवर्चस् ने अपने संस्थापक द्वारा किए गए मार्गदर्शन के अवलम्बन के सहारे युग की इस चुनौती को स्वीकार किया है। मन के रहस्य एवं मन के परे की बातों की ढूंढ़-खोज के लिए वैज्ञानिक तकनीकें विकसित की जा रही है और यह सुनिश्चित विश्वास है कि सर्वांग मनोविज्ञान अपने नाम के अनुरूप मानवीय चेतना का सर्वांग अध्ययन कर सकेगा।

परमपूज्य गुरुदेव भारतीय ऋषियों की दार्शनिक परम्परा के नवीनतम संस्करण है। उनके लिए सदा से दर्शन दिमागी कसरत नहीं वरन् आध्यात्मिक अनुभव व सिद्धि रहा है। उन्होंने अपनी साधनाओं से मानव प्रकृति की सूक्ष्मता को भली प्रकार जाना और उसकी विभिन्न क्षमताओं को जगाने में सफल रहे। अपनी मनोवैज्ञानिक सर्वांगता में उन्होंने कुछ पहलू रचे जो बाद में ब्रह्मवर्चस् की शोध का आधार बने। इस शोध की आधार-भूत मान्यताएँ इस प्रकार हैं-

1- मनुष्य आध्यात्मिक प्रकृति का है। वह विकास के सिद्धांत को मानते हैं, परन्तु डार्विन की मान्यताएँ उन्हें स्वीकार नहीं। उनके अनुसार यथार्थ में विकास चेतना के नए आयामों का प्रकटीकरण है। चेतना के नए आयामों का प्रकटीकरण है। जीवों के शरीरों का विकास इन्हीं नए आयामों के अनुरूप होता रहता है। मानवीय चेतना के विकास का नया आयाम व चेतना है। देव मानव को अपने अनुरूप आदर्शों, व्यवहारों एवं सम्बन्धों की खोज करनी होगी।

2- जीवन के दो पक्षों अन्तः और बाह्य में से पूर्ववर्ती भारतीय मनोवैज्ञानिक अन्तःपक्ष को स्वीकार करते रहे हैं। आधुनिक पश्चिमी मनोवैज्ञानिक जीवन के बाहरी पक्ष को ही स्वीकारते हैं। ब्रह्मवर्चस् की शोध में सम्पूर्ण जीवन को स्वीकार किया गया है। इस शोध में आत्मानुभूति एवं अतीन्द्रिय क्षमताओं के जागरण का जितना महत्व है, लोकव्यवहार भी उतना ही मूल्यवान है। यहाँ अब तक की गयी शोध के निष्कर्ष यही बताते हैं कि व्यक्ति का आन्तरिक जीवन जितना अधिक सामंजस्यपूर्ण एवं उन्नत होगा, वह परिवार एवं समाज के लिए उतना ही कर्तव्यनिष्ठ, सदाशय एवं उदार होगा।

3- इस शोध की तीसरी एवं आधारभूत बात यह है कि मानव की योग्यता की कसौटी सिर्फ बौद्धिक प्रतिभा नहीं है। परमपूज्य गुरुदेव ने योग्यता के मानदण्ड के रूप में बुद्धि के साथ भावनाओं को भी स्वीकार है और उन्होंने भविष्य के योग्य मनुष्यों के युग को भावनाओं का युग कहा है। भावना विहीन बुद्धि कुचक्र ही अधिक रचती है। त्याग-बलिदान का उत्सर्ग तो भावों से ही पैदा होता है। अब तो पश्चिमी मनोवैज्ञानिक भी भावनाओं में ही जीवन के समाधान ढूँढ़ने लगे है। डेनियल गोलमैन की रचना इमोशन इन्टेलीजेन्स इसी का प्रमाण है।

4- ब्रह्मवर्चस् के अनुसंधान प्रयास में सर्वांग मनोविज्ञान की अध्ययन प्रणाली के रूप में इन्ट्रोस्पेक्शन एवं इंट्यूशन दोनों को ही समान रूप से स्वीकार किया गया है। पश्चिमी मनोवैज्ञानिक सहज बोध को अंतर्दर्शन की तुलना में कुछ भी महत्व नहीं देते। जबकि भारतीय मनोविज्ञान के लिए सहज बोध का ही मूल्य है, लेकिन यहाँ पर मानव सर्वांग प्रकृति के अध्ययन के लिए इन दोनों की उपयोगिता को स्वीकारा गया है।

अनुसंधान के इस प्रयास में मानवीय चेतना के विविध पहलुओं को छोटे-छोटे उपविषयों में बाँटा गया है। इन उपविषयों के अनुरूप प्रयोगों की प्रक्रिया सुचारु से गतिमान है। इस क्रम में तथ्य-संग्रह शान्तिकुँज के साधना सत्रों में भागीदार साधकों के माध्यम से किया जाता है। इसी के साथ युगनिर्माण आन्दोलन के विविध क्रियाकलापों की मनोवैज्ञानिकता को परखने का सिलसिला भी जारी है।

परमपूज्य गुरुदेव ने धर्मतन्त्र से लोकशिक्षण के रूप में समाज के मनोवैज्ञानिक विकास के लिए एक सशक्त पद्धति का आविष्कार किया था। अपने युग में इसकी उपादेयता और भी बढ़ जाती है, जबकि इनसान आत्म-परिचय से अनजान है। विज्ञान के इस युग में अध्ययन की वैज्ञानिक प्रणाली के आधार पर उसने अपने बारे में जो कुछ मालूम किया है, वह उसकी तुलना में नहीं के बराबर है जो कि वह अपने बारे में नहीं जानता। इस अनजानेपन के ही कारण चित्तवृत्तियों के उन्मुक्त व्यवहार की वकालत करने वाले फ्रायड योग दर्शन के सूत्र योगाश्चित्तवृत्ति निरोध का मर्म नहीं समझ सकते। इसका निहितार्थ तो ब्रह्मवर्चस् जैसी प्रयोगशाला में ही खोजा जा सकता है।

इस शोध प्रयास में एक तथ्य यह भी स्वीकार किया गया है कि अध्ययन की प्रणाली विषय के अनुरूप होनी चाहिए। जो चीज तौलने की है उसे नापना अर्थहीन है। मानव मन भी इसी तरह है। इसके अध्ययन में हर कहीं उपकरणों का आग्रह स्वयं ही अवैज्ञानिक है। यहाँ तो यन्त्रों के साथ ही अन्तर्ज्ञान भी जरूरी है।

उपयोगिता के इस क्रम में वहाँ के शोध अनुसंधान में पूर्वी दर्शन, पश्चिमी दर्शन, पूर्वी मनोविज्ञान, पश्चिमी मनोविज्ञान, साइकियाट्री एवं आयुर्वेद के सूत्रों को समुचित रूप से स्वीकारा गया है। इन सब से कहीं उपादेय गुरुदेव की वह मनोवैज्ञानिक पद्धति है, जिसे उन्होंने उच्चस्तरीय मनोविज्ञान एवं सर्वांग मनोविज्ञान कहा है। अध्ययन के क्रम में अनेकों विशेषताएँ एवं उपलब्धियाँ सामने आयी हैं। जिन्हें पाठकों के आग्रह पर अखण्ड-ज्योति में प्रकाशित किया जाता रहेगा। विषयक विस्तारपूर्वक अध्ययन के लिए एक महाग्रन्थ का कलेवर वाँछित है, जो समयानुसार विशिष्ट शोध रीति से जनम लेगा और अध्ययन की यह शृंखला बन्धन के नहीं मुक्ति के रहस्य खोलेगी। सर्वांग मनोविज्ञान के तत्वों को जानने के बाद अपना मन बन्धन का नहीं, मुक्ति का कारण बनेगा।

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  • प्रतिभा पाई नहीं कमायी जाती है।
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