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Magazine - Year 1997 - Version 2

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Language: HINDI
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पश्चिम का विकासवाद : एक थोथी कल्पना

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आधुनिककाल में विकासवाद एक महत्वपूर्ण शास्त्र है। वैज्ञानिक और ऐतिहासिक शास्त्र है। वैज्ञानिक और ऐतिहासिक दोनों ही विचारधाराओं में उसका प्रवेश हो गया है। वैज्ञानिक विचारधारा में प्राणियों की विभिन्न जातियों की उत्पत्ति में विकासवाद को मान्यता दी जाती है और ऐतिहासिक विचारधारा में मानवी-बुद्धि के विकास अथवा ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धि में विकासवाद को आधार माना जाता है। साधारण दृष्टि से देखने पर यह बात ठीक-सी प्रतीत होती है, परन्तु गहराई से विचार करने पर इसका खोखलापन स्पष्ट हो जाता है।

आरम्भ में अमीबा (एककोशीय प्राणी) की भाँति के सूक्ष्म जल जन्तु हुए। धीरे-धीरे जलीय कीट, मछली, मेढक, कछुआ, वराह, रीछ, बन्दर, वनमानुष आदि विभिन्न प्राणि स्तरों को पार करता तथा विभिन्न प्राणि स्तरों को पार करता तथा विकसित होता हुआ मनुष्य बन गया। आदिकालीन एक कोश के प्राणी से मनुष्य तक पहुँचने के लिए मध्य में जीवन के न जाने कितने स्तर पार किये गये ।तब कहीं लाखों-करोड़ों वर्षों में मनुष्य अपने वर्तमान रूप में आया है।

इस विचार के अनुसार यदि हम मनुष्य की उत्पत्ति को एक करोड़ वर्ष पूर्व मानें और हैकल की ‘हिस्ट्री ऑफ क्रिएशन’ पुस्तक में लिखी हुई प्राणियों की कड़ियों के बाद मनुष्य की उत्पत्ति मानें और प्रत्येक कड़ी को एक करोड़ वर्ष का समय दें, तो प्रथम वर्ष होते हैं। लोकमान्य तिलक के ‘गीता रहस्य’ में डॉक्टर गैडी की साक्षी से लिखा है कि ‘मछली से मनुष्य होने में 53 लाख 75 हजार पीढ़ियाँ अमीबा से मछली होने में बीती होंगी, अर्थात् अमीबा से आज तक लगभग एक करोड़ पीढ़ियां बीत चुकीं कोई पीढ़ी एक दिन और कोई सौ वर्ष जीती है। यदि सबका औसत 25 वर्ष मान लें तो इस हिसाब से भी प्राणियों के प्रादुर्भाव को आज 25 करोड़ वर्ष होते हैं। यह भी माना जाता है कि पृथ्वी के हो चुकने के करोड़ों वर्ष बाद प्राणी हुए और प्राणियों की उत्पत्ति से आज तक 25 करोड़ वर्ष हो गये। इस प्रकार यह अवधि विकासवादियों की निश्चित की गई अवधि (दस करोड़ वर्ष) से बहुत आगे निकल गई है। ऐसी दशा में समय की दृष्टि से यह विकासवाद कितना लचर है-यह स्पष्ट है।

आधुनिक विकासवाद के अनुसार प्राणी के क्रमिक विकास में उसकी आवश्यकताजन्य इच्छा तथा उसको पूरा करने के लिए किये गये चिरकालीन अभ्यास के परिणामस्वरूप होने वाले आकृति-परिवर्तन के उदाहरण के रूप में अफ्रीका के मरुदेश में पाये जाने वाले लम्बी गर्दन वाले जिराफ नामक पशु का उल्लेख किया जाता है। कहते हैं, यह पहले ऐसा नहीं था, जैसा आज देखा जाता है। जिराफ ने जब वृक्षों पर नीचे के पत्ते खा लिये तो ऊपर के पत्ते खाने की इच्छा हुई। अपनी इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए वह गर्दन उठा-उठाकर प्रयत्न करने लगा। चिरकाल तक ऐसा करते रहने से उसकी गर्दन लम्बी हो गई।

परन्तु परिस्थिति के अनुरूप, आवश्यकतावश आकृति परिवर्तन की मान्यता युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होती। बकरी जब नीचे के पत्ते चुग लेती है तब तने पर यह टहनियों पर अगले पैर टिकाकर पत्ते चुग लेती है। लाखों वर्षों से वह इसी तरह अपना पेट भरती आ रही है। परन्तु आज तक न उसकी गर्दन बढ़ी, न उसका अगला भाग लम्बा हुआ और न उसके लिए चारे की कमी हुई। यहाँ यह भी विचारणीय है कि गर्दन बढ़ाने की बजाय जिराफ में बन्दर की तरह पेड़ पर चढ़ने की प्रवृत्ति का विकास क्यों नहीं हुआ? न जाने कब से मनुष्य उत्तरी ध्रुव तथा ग्रीनलैण्ड जैसे शीत प्रधान देशों में बसा हुआ है, किन्तु शीत से बचने की इच्छा तथा आवश्यकता के होते हुए भी उसके शरीर पर रीछ जैसे बाल लम्बे बाल राजस्थान की तपती मरुभूमि में रहने वाली भेड़ के होते हैं, वैसे ही हिमालय के शीत प्रधान देश में रहने वाली भेड़ के होते हैं। अफ्रीका के अति उष्ण प्रदेशों में दीर्घरोमा रीछ और रोमरहित गैंडा एक साथ रहते हैं। अपने ही देश में एक जैसी परिस्थिति में रहने वाली गाय और भैंस में इसके विपरीत अन्तर देखा जाता है। भैंस का चर्म पहला, चिकना और लघु रोम होता है। इसके विपरीत गाय को चर्म अपेक्षाकृत कठोर और रोम बहुल होता है। विकासवाद के अनुसार आत्मरक्षा की भावना के कारण हरिण, चीतल, नीलगाय आदि अनेक प्रकार के जंगली पशुओं में नर के सींग होते हैं, मादा के नहीं। क्या आत्मरक्षा के लिए सींगों की आवश्यकता नर को होती है, मादा को नहीं? जंगली पशुओं की अपेक्षा की मनुष्य द्वारा पालित व सुरक्षित गाय, भैंस आदि को कम खतरा होता है। फिर क्या कारण है कि उनमें नर-मादा दोनों के सींग होते हैं। फिर, कोयल के मधुर कण्ठ और मोर के सुन्दर पंखों का प्राणरक्षा से क्या सम्बन्ध है? फिर भी ये दोनों गुण अपने-अपने स्थान पर विद्यमान हैं। कौवे को क्या अपनी काँ-काँ अच्छी लगती होगी और मोर के सुन्दर पंख देखकर क्या मोरनी को ईर्ष्या नहीं होगी?

भाई और बहिन एक ही परिस्थिति में उत्पन्न होते और बढ़ते हैं। पर बहिन के मुँह पर दाढ़ी-मूँछ का नाम भी नहीं होता। हाथी और हथिनी एक ही परिस्थिति में रहते हैं। पर हथिनी के मुँह में बाहर को निकले बड़े दाँत नहीं होते। विकासवाद के अनुसार इसके विपरीत होना चाहिए था। प्राणिमात्र में आत्मरक्षा की प्रवृत्ति स्वाभाविक है। यह प्रवृत्ति पतंगे में भी होनी चाहिए। दीपशिखा के संपर्क में आते ही वह जल जाता है। न जाने कब से जलता आ रहा है, परन्तु उसने कभी भी उससे बचने का प्रयास नहीं किया। इसके लिए उसे कोई विशेष प्रयत्न भी नहीं करना पड़ता। दीपशिखा से तनिक दूर रहने का अभ्यास मात्र करना था। किन्तु लाखों-करोड़ों वर्षों में वह इतना भी नहीं कर पाया।

बया नामक छोटी चिड़िया जैसा सुन्दर घर बनाती है, वैसा मनुष्य से केवल एक पीढ़ी नीचे माना जाने वाला बन्दर नहीं बना सकता। पर यह भी सत्य है कि जैसा घर यह लाखों-करोड़ों वर्ष पहले बनाती थी, आज भी वैसा ही बनाती है। मकड़ी जाला बनाती है। मधुमक्खी छत्ता बनाती है और फूलों से पराग लाकर और उसे मधु बनाकर उसमें एकत्र करती है। किन्तु उन्होंने ये कलाएँ किसी से सीखी नहीं-ये उनके अपने आविष्कार भी नहीं हैं। उन्होंने अपनी ये कलाएँ अन्य प्राणियों को सिखाई भी नहीं। जिसको जो आता है और जैसा आता है, वह उसे उसी रूप में करता आ रहा है।

लैमार्क नामक विद्वान ने चूहों की दुमें काटकर बिना दुम के चूहे पैदा करने चाहे। चूहों की अनेक पीढ़ियों तक वह ऐसा करता रहा, पर बिना पूँछ के चूहे पैदा न हुए। हिन्दुओं के लड़के-लड़कियाँ लाखों वर्षों से कान छिदवाते आ रहे हैं, हजरत इब्राहिम के समय से यहूदी और मुसलमान खतना कराते आ रहे हैं, चीनी स्त्रियाँ न जाने कब से पैर छोटे करने का प्रयास कर रही हैं। परन्तु न हिन्दुओं के घरों में कनछिदे बच्चे पैदा हुए, न मुसलमान के यहाँ खतना की हुई सन्तान पैदा हुई और न चीनी घरों में छोटे पैरों वाली लड़कियाँ पैदा हुई।

जब मनुष्य जैसा सर्वोत्कृष्ट प्राणी तैयार हो गया, तो निचले स्तर के सभी पशु-पक्षियों का सर्वथा लोप हो जाना चाहिए था। परन्तु हम देखते हैं कि आज भी मछली से मछली, भेड़ से भेड़ और कुत्ते से कुत्ते ही पैदा हो रहे हैं। यहाँ तक कि जिस बन्दर से मनुष्य बना कहा जाता है, उससे भी बन्दर ही पैदा हो रहे हैं, मनुष्य नहीं। फिर, विकास तो विकास है, उसकी कोई अन्तिम सीमा नहीं आ सकती। तो फिर विकास का क्रम कैसे रुक गया? मनुष्य से आगे अन्य कुछ क्यों क्यों नहीं बना।

इस प्रकार के सैकड़ों उदाहरण दिये जा सकते हैं, जो विकासवाद द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त के व्यतिक्रम को स्पष्ट करते हैं। वस्तुतः जो योनियाँ जिस प्रकार की हैं, वे सदा से वैसी ही हैं और भविष्य में भी वैसी ही बनी रहेंगी। आवश्यकता, तन्मूलक इच्छा, अभ्यास एवं वातावरण या परिस्थिति के कारण उनमें किसी प्रकार परिवर्तन सम्भव नहीं। अत्यन्त प्रतिकूल प्राकृतिक परिस्थितियों में अनेक जातियाँ नष्ट भले हो जाएँ, पर उनमें ऐसा परिवर्तन नहीं हो सकता जो उनकी नैसर्गिक जाति को बदल डाले। इन सब बातों से प्रमाणित होता है कि आदिम मनुष्यों ने हीन मस्तिष्क प्राणियों से विकसित होकर उन्नति नहीं की, प्रत्युत वे परमात्मा की विशिष्ट रचना थे और आज के उत्तम मस्तिष्कों की अपेक्षा अधिक उन्नत एवं विकसित थे।

वनस्पतिशास्त्र के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान डाक्टर बीरबल साहनी से पूछा गया-”आप कहते हैं कि आरम्भ में एक सेल के जीवित प्राणी थे, उनसे उन्नति करके बड़े-बड़े प्राणी बन गये। आप यह भी कहते हैं कि आरम्भ में बहुत-थोड़ा ज्ञान था, धीरे-धीरे उन्नति होते हुए ज्ञान उस अवस्था को पहुँच गया जिसको विज्ञान आज पहुँचा हुआ है। तब आप यह तो बताइये कि प्रारम्भ में जीवन कहाँ से आया और प्रारम्भ में ज्ञान कहाँ से आया? क्योंकि जीवन शून्य से उत्पन्न हो गया और शून्य से ज्ञान उत्पन्न हो गया, यह नहीं माना जा सकता। डाक्टर साहनी ने उत्तर में कहा-”इसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं कि आरम्भ में जीवन या ज्ञान कहाँ से आया। हम इस बात को स्वीकार करके चलते हैं कि आरम्भ में जीवन भी था और कुछ ज्ञान भी था।” सच तो यह है कि जब जड़ पदार्थों में स्वयं संचालन तथा समन्वय की शक्ति है ही नहीं, तो विकासवाद के सिद्धान्तानुसार अरबों वर्ष में भी जड़ परमाणुओं में इस प्रकार संचालन कि अन्ततोगत्वा जीवित प्राणियों का विकास हो सके, असम्भव है। अंतिम सत्य यही निकलता है कि हमें अध्यात्मवाद के आधार पर विकासवाद को परिभाषित कर मनुष्य की सर्वोत्कृष्टता पर ही मोहर लगानी होगी। मनुष्य श्रेष्ठ था, अंदर से आज भी है, वही उसे बनना भी होगा। यही अध्यात्म की विकास यात्रा है।

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