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Magazine - Year 1997 - Version 2

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नियति की चुनौती स्वीकार कीजिए

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कठिनाइयों से घिर गए तो क्या हुआ? ये पल तो हर किसी के जीवन में कभी न कभी तो आते हैं। हाँ समय थोड़ा-बहुत कम-ज्यादा हो सकता है। लेकिन इन्हें देखते ही रोने-बिलखने लगना, निडाल होकर बैठ जाना, दोनों हाथों से माथा थामकर अकर्मण्य बन जाना, विपत्ति को दूना करने के समान है। हमें यह मानकर चलना ही पड़ेगा कि जीवन आरोह-अवरोह के ताने-बाने से बुना गया है। धूप-छाँव की तरह सफलताओं और असफलताओं की उभयपक्षीय हलचलें होती ही रहती हैं और होती ही रहेंगी। सर्वथा सुख’-सुविधाओं से भरा जीवनक्रम कदाचित ही कोई जीता है। ज्वार-भाटों की तरह उठाने और गिराने वाली परिस्थितियाँ अपने ढंग से आती और अपनी राह चली जाती है। तट पर बैठकर उतार-चढ़ाव का आनन्द लेने वाले ही जीवन नाटक के अनुभवी कलाकार कहे जा सकते हैं।

सदा दिन नहीं बना रहे रात कभी आए ही नहीं, भला यह कैसे हो सकता हैं? जन्मोत्सव ही मनाए जाते रहें, मरण का रुदन सुनने को न मिले यह कैसे सम्भव हैं? सुख की घड़ियाँ ही सामने रहें, दुःख के दिन कभी न आएँ यह मानकर चलना यथार्थता की ओर से आंखें मूँद लेने के समान है। बुद्धिमान वे हैं, जो सुखद परिस्थितियों का समुचित लाभ उठाते हैं और दुःख की घड़ी आने पर उनका सामना करने के लिए आवश्यक शौर्य, साधन इकट्ठा करते हैं।

इसके अलावा दुःख सिर्फ रुलाता ही नहीं है, परिस्थितियाँ से निबटने के लिए प्रचण्ड साहस और शौर्य का संचार भी करता है। इसकी पीड़ा हमें औरों की वेदनाओं का अहसास भी दिलाती है। जिसने कभी पीड़ा भोगी ही नहीं, वह दूसरों के कष्टों को भला क्या समझेगा? विकल वेदना की छटपटाहट तो वही समझ पाता है, जो स्वयं परेशानियों के चक्रव्यूह से घिर चुका हो। फिर दुःख भला किसके जीवन में नहीं आए। ईश्वर के अवतार प्रभु श्रीराम स्वयं वन-वन भटके। अपरिमित सामर्थ्य के धनी होते हुए रावण के छल-कपट के जाल में फँसना पड़ा। पर उनकी विकलता-अकर्मण्यता का पर्याय नहीं शौर्य का मानदण्ड बनी। लोकविजेता रावण को पराभूत होना पड़ा।

धर्मराज युधिष्ठिर अपनी सारी नीतिनिष्ठा के बावजूद शकुनि के कुचक्र में फँसे बिना न रहे। अपमान के अनेकों जहरीले घूँट पीकर भाइयों सहित निर्वासित होना पड़ा। लेकिन वनवास की अवधि उन्हें अलौकिक तप से सम्पन्न कर गयी। अर्जुन ने प्रायः सभी दिव्यास्त्र इसी अवधि में प्राप्त किए। कष्टों ने पाँचों भाइयों की संघर्ष क्षमता, साहस परायणता को इतना बढ़ा-चढ़ा दिया कि कठिनाइयों का कुचक्र तार-तार होकर बिखर गया।

कठिनाइयाँ कैसे और किस तरह? इन सवालों के उत्तर में हरेक की अपनी-अपनी अनुभूतियाँ हैं। लेकिन प्रायः सभी का यह मानना है कि ऐसे ईर्ष्यालु इस दुनिया में कम नही, जो किसी का सुख-सन्तोष फूटी आँखों से नहीं देख सकते। जिनके अन्धेर-अनाचार में बाधा पड़ती है, वे भी शत्रु बन बैठते हैं। अनुचित लाभ उठाने के उत्सुक भी शोषण एवं आक्रमण से बाज कहाँ आते हैं। इन आसुरी तत्वों का अस्तित्व अनादिकाल से रहा है और अनन्त काल तक रहेगा। उनसे बच निकलना कठिन है। हाँ, इतना हो सकता है कि अपना शौर्य, साहस इतना विकसित कर लिया जाए कि उन्हें छेड़-छाड़ करने का साहस ही न हो। व्यक्तिगत समर्थता बढ़ाने के साथ ही आदर्शों के पक्षधरों को भी बढ़ाकर भी आततायियों की गतिविधियों पर अंकुश किया जा सकता है। प्रतिरोध और प्रतिकार बढ़ाकर आक्रमणकारियों से अपनी आँशिक सुरक्षा हो सकती है। उनका सामना ही न करना पड़े, कुछ अनुचित, अवाँछनीय सामने आए ही नहीं, ऐसा सोचना आकाश कुसुम पाने जैसी बाल कल्पना है। अवरोधों से जूझने और संघर्षों के बीच अपना रास्ता बनाने के अतिरिक्त यहाँ और रास्ता है ही नहीं।

परिस्थितियों की अनुकूलता और प्रतिकूलताओं से इनकार नहीं किया जा सकता। शारीरिक संकट उठ खड़ा हो, कोई अप्रत्याशित रोग घेर ले, यह असम्भव नहीं। परिवार के सरलक्रम में कोई साथी बिछुड़ जाए और शोक, सन्ताप के आँसू बहाने पड़े यह भी कोई अनहोनी बात नहीं है। ऐसे दुर्दिन हर परिवार में आते हैं और हर व्यक्ति को कभी-न-कभी यह सहन करना ही पड़ता है। मनचाही सफलताएँ किसे मिली हैं? मनोकामनाओं को सदा पूरी करते रहने वाला कल्पवृक्ष किसके आँगन में उगा है? ऐसे तूफान आते ही रहते हैं, जो बड़े अरमानों से सँजोये घोंसले को उड़ाकर कहीं से कहीं फेंक दें और एक-एक तिनका बीनकर बनाए गए उस घरौंदे का अस्तित्व ही आकाश में छितरा दें। ऐसे अवसरों पर दुर्बल मनः स्थिति के लोग टूट जाते हैं।

नियति क्रम से हर वस्तु का, हर व्यक्ति का अवसान होता ही है। मनोरथ और प्रयास भी सर्वदा सफल कहाँ होते हैं। यह सब अपने ढंग से चलता रहे, पर मनुष्य भीतर से टूटने न पाए इसी में उसका गौरव है। समुद्र तट पर जमी हुई चट्टानें चिरअतीत से अपने स्थान पर जमी-अड़ी बैठी हैं। लुटेरों ने अपना टकराना बन्द नहीं किया सो ठीक है, पर यह भी यहाँ गलत है कि चट्टान ने कभी हार नहीं मानी।

पलायन नहीं संघर्ष, बुज़दिली नहीं साहस, अकर्मण्यता नहीं शौर्य, रुदन के आँसू नहीं मन्यु की प्रचण्डता ही मनुष्य की गौरवपूर्ण परिभाषा है। कठिनाइयों से घिरे हैं तो क्या हुआ? न हमें टूटना चाहिए और न हार माननी चाहिए। परिस्थितियों के हर कुचक्र को पहले से दूने उत्साह से छिन्न-भिन्न करके ही हमें अपनी मानवी-अस्मिता को सिद्ध करना चाहिए। नियति की चुनौती को स्वीकार करना और उससे दो-दो हाथ करना ही मानवी-गौरव को स्थिर रख सकने वाला आचरण है। अच्छा यही है कि इससे घबराने की बजाय ऐसा ही श्रेयस्कर जीवन जिएँ।

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