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Magazine - Year 1997 - Version 2

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तीन चमत्कारी हानिरहित योगसाधनाएँ

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अन्तःकरण की गहन परतों तक जिन योग-साधनाओं की पहुँच है, उनमें (९) बिन्दुयोग (२) नादयोग (३) लययोग को प्रमुख माना गया है । इनमें मान्यता, भावना एवं आकांक्षा क्षेत्रों में सुधार-परिवर्तन कर सकने की विशिष्ट क्षमता है।

बिन्दुयोग को त्राटकसाधना भी कहा जाता है। नादयोग को अनाहतध्वनि भी कहते हैं। लययोग का आत्मदेव-साधना कहते हैं। छाया-पुरुष जैसे अभ्यास इसी के अंतर्गत आते हैं। स्थूलशरीर के साथ लययोग, सूक्ष्म के साथ बिन्दुयोग और कारण-शरीर के साथ नादयोग का सीधा सम्बन्ध है। इन साधनाओं के आधार पर इन तीनों क्षेत्रों को अधिक परिष्कृत, आधिक प्रखर एवं अधिक समर्थ बनाया जा सकता है।

स्थिर शरीर-शान्त चित्त, कमर सीधी, हाथ गोदी में, आँखें बन्द, यह है ध्यानमुद्रा का स्वरूप-अनुशासन ध्यान-धारणा आरम्भ करने से पूर्व साधक को अपनी स्थिति ऐसी ही बना लेनी चाहिए। तीनों योगों का सामान्य विवरण इस प्रकार है-

(१) बिन्दुयोग- त्राटकसाधना को आज्ञाचक्र का जागरण एवं तृतीय नेत्र उन्मीलन कहा जाता है। दोनों नेत्रों के बीच मस्तक के भृकुटी भाग में सूक्ष्मतम स्तर का तृतीय नेत्र है। भगवान शंकर की, देवी दुर्गा की तीन आँखें चित्रित की जाती हैं। दो आँखें सामान्य-एक भृकुटी स्थान पर दिव्य। इसे ज्ञानचक्षु भी कहते हैं। अर्जुन को भगवान ने इसी के माध्यम से विराट् के दर्शन कराये थे। भगवान शिव ने इसी को खोलकर ऐसी अग्नि निकाली थी, जिसमें उपद्रवी कामदेव जलकर भस्म हो गया। दमयंती ने भी कुदृष्टि डालने वाले व्याध को इसी नेत्र ज्वाला के सहारे भस्म कर दिया था। संजय इसी केन्द्र से अद्भुत दिव्यदृष्टि का टेलीविजन की तरह-दूरबीन की तरह उपयोग करते रहे और धृतराष्ट्र को घर बैठे महाभारत का सारा आँखों देखा हाल सुनाते रहे।

आज्ञाचक्र को शरीरविज्ञान के अनुसार पीनियल और पिट्यूटरी ग्रन्थों का मध्यवर्ती सर्किट माना जाता है और उसे एक प्रकार का द्विदलीय चक्र-दिव्य दृष्टि केन्द्र कहा जाता है। टेलीविजन, राडार टेलिस्कोप की समन्वय युक्त क्षमता से इसकी तुलना की जाती है। जो चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता, वह इसमें सन्निहित अतीन्द्रिय क्षमता के सहारे परिलक्षित हो सकता है, ऐसी मान्यता है। दूरदर्शन, विचार संचालन जैसी विभूतियों का उद्गम इसे माना जाता है। साधारणतया यह प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है और उसके अस्तित्व को कोई प्रचण्ड परिचय नहीं मिलता, किन्तु यदि इसे प्रयत्नपूर्वक जगाया जा सके, तो यह तीसरा नेत्र विचार संस्थान की क्षमता को अनेक गुनी बढ़ा देता है। चूँकि यह केन्द्र दीपक की लौ के समान आकृति वाला बिन्दु माना जाता है, इसलिए उसे जाग्रत करने की साधना को बिन्दुयोग कहते हैं। इसी का एक नाम त्राटकसाधना भी है।

दीपक के प्रकाश की लौ आँखें बन्द करके आज्ञाचक्र के स्थान पा प्रज्वलित देखने का अभ्यास करना होता है, साथ ही यह भी धारणा करनी होती है कि वह प्रकाश समूचे मस्तिष्क में फैलकर उसके प्रसुप्त शक्ति केन्द्रों को जाग्रत कर रहा है। आरम्भ में यह ध्यान दस मिनट से आरम्भ करना चाहिए और बढ़ाते-बढ़ाते दूनी-तिगुनी अवधि तक पहुँचा देना चाहिए। दीपक का सहारा आरम्भ में ही कुछ समय लेना पड़ता है। इसके बाद आज्ञाचक्र के स्थान पर प्रकाश लौ जलने और उसकी आभा में समूचा मनःसंस्थान आलोकमय हो जाने की धारणा बिन किसी अवलम्बन के मात्र कल्पना, भावन के आधार पर चलती रहती है।

दीपक की ही तरह प्रभातकालीन सूर्य का प्रकाशपुँज लक्ष्य इष्ट माना जा सकता है। गायत्री का प्राण “सविता” भी है। आज्ञाचक्र के स्थान पर हम उदीयमान सूर्य का ध्यान करते हैं, साथ ही यह धारण करते हैं कि सविता देवता की ज्योतिकिरणें स्थूल शरीर में प्रवेश करके पवित्रता, प्रखरता, सूक्ष्मशरीर में दूरदर्शी विवेकशीलता, कारण-शरीर में श्रद्धा, संवेदना का संचार करतीं और समग्र काय-कलेवर को

ज्योतिपुञ्ज बनाती हैं। दीपक या सूर्य दोनों में से किसी को भी माध्यम बनाकर आज्ञाचक्र का जागरण-तृतीय नेत्र का उन्मीलन हो सकता है। शान्तिकुञ्ज में दीपक के स्थान की पूर्ति हेतु नीले प्रकाश के बल्ब लगाए गए हैं। इनसे भी वही लाभ मिलता है। बुझने आदि की झंझट भी नहीं रहता।

(२) नादयोग- यह साधना सूक्ष्म कर्णेन्द्रियों द्वारा सम्पन्न की जाती है। खुले कान तो एक सीमा तक की समीपवर्ती प्रत्यक्ष ध्वनि ही सुन पाते हैं, किन्तु सूक्ष्म कर्णेन्द्रियों में ज्ञानातीत दिव्य ध्वनियाँ सुनने की भी क्षमता है। प्रकृति का मूल “शब्द” है। शब्द को ब्रह्म भी कहा गया है। नादयोग में इसी शब्दब्रह्म की साधना है। उस आधार पर दिव्य ध्वनियों को सुनने का अभ्यास किया जाता है और ब्रह्माण्ड में संव्याप्त अदृश्य रहस्यों को जाना जाता है। अपनी आन्तरिक स्थिति का विश्लेषण-पर्यवेक्षण करने एवं प्रकृति की सामयिक हलचलों का कारण समझकर अपनी ज्ञानपरिधि को अत्यधिक व्यापक बनाया जा सकता है। इसी आधार पर भूतकाल के स्मृतिकम्पन एवं भविष्य में घटित होने वाले प्रकरणों का पूर्वाभास सम्भव हो जाता है। नादयोग की शब्द साधना को “कालजयी” कहा जाता है। ऋषियों को दृष्टा, त्रिकालदर्शी, सर्वज्ञ आदि की सिद्धियाँ इसी आधार पर उपलब्ध होती थीं।

बिन्दुयोग की तरह नादयोग में भी ध्यानमुद्रा पर एकान्त स्थान में बैठते हैं। स्थूल ध्वनियों को रोकने के लिए कान में रुई लगा लेते हैं। इसके उपरान्त प्रयत्न करते हैं कि प्रकृति के गर्भ में प्रवाहित दिव्य ध्वनि तरंगों का सुनना सम्भव हो सके। आरम्भ में बहुत धीमी अनुभव होता है। जो सुनाई पड़ता है, वह वंशी, नफीरी बजने, झींगुर बोलने, भ्रमर गूँजने, बादल बरसने, झरना झरने जैसा हल्का होता है। बाद में अधिक प्रखरता, उत्तेजना और उतार-चढ़ाव भी उत्पन्न होने लगता है, यह दिव्य-ध्वनियाँ बड़ी मोहक और आनन्ददायक होती है। इनकी तुलना सर्प को मृग को मोहने वाले वीणा निनाद से की जाती हैं नारद की वीणा, शंकर का डमरू, सरस्वती का सितारा अलंकार रूप में इस नादयोग के रहस्यों का ही उद्घाटन करने वाले सकते हैं।

(३) लययोग- कला साधना में तीसरा अनिवार्य अभ्यास लययोग का है। इसमें शरीर अभ्यास को आत्मसत्ता के साथ समर्पित-विसर्जित करना पड़ता है। आमतौर से मनुष्य अपने आपको शरीर भर मानता है और उसी की इच्छा, आवश्यकता पूरी करने में जुटा रहता है। आत्मा को, उसके स्वरूप, लक्ष्य एवं उत्तरदायित्व को तो एक प्रकार से विस्मृत ही किए रहता है। यह वह भटकाव है जिसे मायापाश, भवबन्धन आदि नामों से पुकारते हैं।

ध्यानमुद्रा में बैठकर दर्पण को सामने रखा जाता है। साधना के समय अपने स्वरूप के भीतर ही परमात्मा की सत्ता का अनुभव-अभ्यास किया जाता है। अपने चेहरे पर सज्जा-सौन्दर्य की नहीं, एक विशेष दृष्टि डाली जाती है कि इस माँस-पिण्ड के भीतर स्रष्टा का प्रतिनिधित्व करने वाली आत्मसत्ता विद्यमान है। वही इस काया की अधिष्ठात्री है। उसी का उत्कर्ष परम लक्ष्य है। काया उसी प्रयोजन की पूर्ति का वाहन, साधन, उपकरण मात्र है। शरीर की सार्थकता आत्मा के प्रति वफादार, जिम्मेदार और ईमानदार रहने में ही है। आत्मा काया का पोषण तो सही रूप में करे पा साथ ही यह भी ध्यान रखे कि उसे उच्छृंखल बनाने वाली वासना, तृष्णा, अहंता के आक्रमण से सुरक्षा का प्रबन्ध भी होता रहे।

छाया-पुरुष साधना से अपने समतुल्य एक और व्यक्तित्व का निर्माण कर लिया जाता है और वह एक अभिन्न मित्र एवं समर्थ सेवक की तरह निरन्तर साथ देता तथा सहायता करता है। दर्पण साधना से भी उस छाया साधना की उद्देश्य पूर्ति होती है।

बंध-इन तीन योग-साधनाओं के साथ ही चक्रों पर सूक्ष्म प्रभाव डालने वाले बंध अभ्यासों की चर्चा भी अभीष्ट हैं। ध्यानयुक्त साधनाओं में इनका प्रतिफल मानसिक एवं आध्यात्मिक उत्कर्ष के रूप में मिलता है। बंध कुल तीन हैं। मूल बंध, जालंधर बंध, उड्डियान बंध। सुषुम्ना नाड़ी में प्राण के स्वतन्त्र प्रवाह में अवरोध उत्पन्न करने वाली ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि तथा रुद्रग्रन्थि इन अभ्यासों से शीघ्र खुल जाती है। बंध मुख्यतः प्राण-प्रवाह के नियंत्रण हेतु किए जाते हैं, जिनका सुनियोजन ध्यान प्रक्रिया द्वारा किया जाता है।

प्राणायाम करते समय गुदा के छिद्रों को सिकुड़कर ऊपर खींचे रहना मूलबंध कहलाता है। मूलाधार स्थित कुण्डलिनी में इससे स्फुरण होती है। चूँकि यह मनुष्य के मूल को बाँधता है, अपव्यय के मार्ग को अवरुद्ध करता है इसलिए यह नाम दिया गया है।

मस्तक को झुकाते हुए ठोड़ी को, कण्ठकूप से लगाने की प्रक्रिया जालन्धर बन्ध कहलाता है। इस बंध का भावार्थ है- जाल को धारण करना अर्थात् ज्ञान तन्तुओं को स्थिर नियोजित करना । चित्तवृत्ति शान्त होती है तथा एकाग्रतापूर्वक ध्यान योग की सिद्धि में सफलता मिलती है। पेट में स्थित आँतों को पीठ की ओर खींचने की क्रिया को उड्डियान बंध कहते हैं। यह अधोमुखी से ऊर्ध्वमुखी बनने की स्थिति की पहली सीढ़ी है। कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया में सुषुम्ना नाड़ी का द्वार खोलने हेतु यह सर्वश्रेष्ठ योगाभ्यास है। ये तीनों ही क्रियाएँ अल्पकाल में साधकों को उनकी स्थिति, आवश्यकतानुसार बताई समझाई जाती हैं। निरापद लेकिन फलदायी इन क्रियाओं का प्रयोग जब उपर्युक्त योग-साधनाओं व उपयुक्त प्राणायामों के सम्मिश्रण के साथ किया जाता है तो साधक अपने में अप्रत्याशित परिवर्तन पाते हैं।

साधना काल में इन निष्कर्षों पर पहुँच जाना चाहिए। (१) सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन को अलभ्य सौभाग्य माना जाए और उसकी सार्थकता के लिए उस अवधि को आत्मकल्याण और लोकमंगल के लिए निरत रखा जाए। (२) शरीर को ही सब कुछ न माना जाए। आत्मा का भी हित सोचा जाए। अपनी क्षमताओं तथा सम्पदाओं का उपयोग आत्मकल्याण के निमित्त आवश्यक पुण्य-परमार्थ में भी उपयुक्त मात्रा में नियोजित रखा जाए। (३) भगवान को परिवार के एक सदस्य जितना तो माना ही जाए। उसके निमित्त इतना मन तथा धन तो खर्च किया ही जाए, जितना कि एक परिवार के सदस्य पर होता है। (४) औसत भारतीय स्तर का निर्वाह अपनाया जाए। परिवार छोटा रखकर स्वावलम्बी एवं सुसंस्कारी बनाया जाए। इसके लिए औचित्य कर्त्तव्यपालन ही पर्याप्त समझा जाए। विलास, संग्रह और उत्तराधिकार में बहुत छोड़ने की ललक पर अंकुश लगाया जाए। क्षमता को समयदान में और सम्पदा को अंशदान में जितना अधिक लगाया जा सकता है, उसकी सम्भावना पूरी तरह परखी और कार्यान्वित की जाए। (५) भावी जीवन को महामानव स्तर का बनाने की उमंग लेकर वापस लौटा जाए। इसके लिए गुण, कर्म, स्वभाव में आदर्शवादी परिवर्तन किया जाए। अंगों की कार्यपद्धति, विधि-व्यवस्था एवं रीति-नीति ऐसी बनाई जाए, जिसकी सहारे क्षुद्रता को महानता में परिवर्तित कर सकना सम्भव हो सके।

इन निर्धारणों को दिनचर्या और परिवार क्षेत्र में प्रयुक्त करते रहने से उन्हें व्यवहार में उतारना एवं समाज क्षेत्र में कार्यान्वित कर सकना सम्भव हो सकता है। परिवारचर्या को नये सिर से नये निर्धारणों के अनुरूप ढालने के लिए सुव्यवस्थित योजना बनाकर उनकी पूर्ति हेतु अगले दिनों निरन्तर प्रयत्नरत रहने का निश्चय किया जाए।

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