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Magazine - Year 1997 - Version 2

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उपासनाएँ सफल तब हों, जब उनका मर्म समझें

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उपासनाएँ सफल क्यों नहीं होती ? यह सवाल हर किसी के मन में चक्रवात की तरह घूमता रहता है। सालों-साल पूजा की घण्टी बजाने, माला घुमाने, नाक दबाने, भोग-प्रसाद का लालच देने तथा ऐसी ही अनेक चित्र-विचित्र क्रियाएँ करते रहने वालों को अन्ततः निराशा ही हाथ लगती है। बड़े ही हताश स्वर में वह यह कहते फिरते हैं कि अब तो घोर कलियुग है। इस कलिकाल में भी भला भगवान किसी को दर्शन देते हैं। ऐसा कहते हुए वे भूल जाते हैं कि श्री अरविन्द जैसे ऋषि, स्वामी दयानन्द जैसे तपस्वी, युग नायक विवेकानन्द जैसे संन्यासी, मीरा जैसी भक्त, महर्षि रमण जैसे ज्ञानी इसी युग में हुए हैं।

प्राचीन काल के इतिहास-पुराण देखने से पता चलता है कि कितने ही साधकों और तपस्वियों ने कठिन उपासनाएँ करके अद्भुत शक्तियाँ, विभूतियाँ एवं उपलब्धियाँ प्राप्त की थीं। स्वयं में वे इतने समर्थ हुए कि दूसरों को अपनी साधना का एक अंश देकर वरदान-आशीर्वाद से लाभान्वित कर सकें। भारत ही नहीं संसार भर का पुराण-साहित्य ऐसी ही घटनाओं से भरा पड़ा है जिनमें चर्चा के प्रमुख पात्रों में से अधिकाँश की सामर्थ्य और विशेषताएँ देवप्रदत्त थीं। ऋषियों, तपस्वियों, संतों के जीवन चरित्रों में अधिकाँश में ऐसे वर्णन मौजूद हैं जिनसे प्रतीत होता है कि उनमें कितनी ही अलौकिक विशेषताएँ थीं और उन्हें उन्होंने तप-साधना के द्वारा देवताओं से अथवा सीधे भगवान से पाया था।

साथ-साथ यह भी देखने में आता है कि घर-बार छोड़कर पूरा समय देवाराधन में लगाने वाले व्यक्ति साधना आरम्भ करने के बाद और भी अधिक गई-गुजरी स्थिति में चले गये। न तो उनमें कोई प्रत्यक्ष विशेषता देखी गयी, न आत्मिक महत्ता, न उन्हें सुख प्राप्त था, न शान्ति। स्वास्थ्य से लेकर सम्मान तक कोई भी सम्पदा उनके पास नहीं थी और न विवेक से लेकर आत्मबल तक कोई प्रतिभा-विशेषता उपलब्ध हुई, वरन् जिस स्थिति में उन्होंने वह उपासनात्मक प्रक्रिया अपनाई, पीछे उनकी स्थिति हर प्रकार बिगड़ती ही चली गयी। भौतिक सुख-सम्पत्ति ना सही, आत्मिक शान्ति और विभूति का प्रकाश मिला होता, तो भी संतोष किया जा सकता था, पर वैसा भी वे कुछ ना प्राप्त कर सके।

यह स्थिति स्वभावतः मन को असमंजस में डालती है। उसी प्रक्रिया का अवलम्बन करने से एक को लाभ, एक को हानि ऐसा क्यों ? एक को सिद्धी दूसरे को निराशा यह किसलिए ? कैसे? वही देवता, वही मंच, वही विधि, एक की उपासना फलित, एक की निष्फल, इसका क्या कारण ? यदि भगवान या देवता और उनकी उपासना अन्धविश्वास है तो फिर इससे कितने ही लाभान्वित क्यों होते हैं ? यदि सत्य है तो उससे कितनों को ही निराश क्यों होना पड़ता है ? जल हर किसी की प्यास बुझाता है, सूरज हर किसी को गर्मी, रोशनी देता है फिर देवता और उनकी उपासना क्रम में परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएँ क्यों ?

इस उलझन पर अनेक दृष्टियों से विचार करने के उपरांत इस नतीजे पर पहुँचना पड़ता है कि देवता या मंत्रों में जितनी अलौकिकता दिखाई देती है, उससे लाभान्वित हो सकने की पात्रता साधक में होना निहायत जरूरी है। मात्र उपासनात्मक कर्मकाण्डों की लकीर पीट लेना इस संदर्भ में सर्वथा अपर्याप्त है। तेज धार वाली तलवार से सिर काटने की क्षमता है, इसमें कोई संदेह नहीं, लेकिन वह क्षमता सही सिद्ध हो सके इसके लिए चलाने वाले का बाहुबल, साहस एवं कौशल भी आवश्यक है। बिजली में सामर्थ्य की कमी नहीं, पर उससे लाभान्वित होने के लिए उसी प्रकार के यंत्र चाहिए। यंत्र-उपकरणों के जमाव में बिजली का उपयोग व्यर्थ ही नहीं होता अनर्थ मूलक भी बन जाता है।

स्वाति के जल से मोती वाली सीपें ही लाभान्वित होती हैं। अमृत उसी को जीवन दे सकता है, जिसका मुँह खुला हुआ है। प्रकाश का लाभ आँखों वाले ही उठा सकते हैं। इन पात्रताओं के अभाव में स्वाति का जल, अमृत अथवा प्रकाश कितना ही अधिक क्यों न हो उससे लाभ नहीं उठाया जा सकता है। ठीक यही बात उपासना के सम्बन्ध में लागू होती हैं। घृत सेवन का लाभ वही उठा सकता है, जिसकी पाचन-क्रिया ठीक हो। देवता और मंत्रों का लाभ वे ही उठा पाते हैं, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व के भीतर और बाहर से विचार और आचार से परिष्कृत बनाने की साधना कर ली है।

औषधि का लाभ उन्हें ही मिलता है, जो बताए हुए अनुपात और पथ्य ठीक तरह से प्रयोग करते हैं। अतः पहले आत्म-उपासना फिर देव-उपासना की शिक्षा ब्रह्मविद्या के विद्यार्थियों को दी जाती है। लोग उतावली में मंत्र और देवता के भगवान और भक्ति के पीछे पड़ जाते हैं। इससे पहली आत्मशोधन की आवश्यकता पर ध्यान नहीं देते हैं। बादल कितना ही जल क्यों न बरसाए उसमें से जिसके पास जितना बड़ा पात्र है उसे उतना ही मिलेगा। निरन्तर वर्षा होते रहने पर भी आँगन में रखे हुए पात्रों में उतनी ही जल रह पाता है, जितनी उनमें जगह होती है। अपने भीतर की जगह को बढ़ाए बिना कोई बर्तन बादलों से बड़ी मात्रा में जल प्राप्त करने की आशा नहीं कर सकता। देवताओं और मंत्रों से लाभ उठाने के लिए भी पात्रता नितान्त आवश्यक है।

रुचि, प्रवृत्ति एवं क्रिया की दृष्टि से यदि मनुष्य उत्कृष्टता और आदर्शवादिता से अपने को सुसम्पन्न कर ले तो उनके कषाय-कल्मषों की कालिमा हट सकती है और अन्तःकरण तथा व्यक्तित्व शुद्ध, स्वच्छ, पवित्र एवं निर्मल बन सकता है। ऐसा व्यक्ति मंत्र उपासना, तपश्चर्या का समुचित लाभ उठा सकता है और देव-शक्तियों के अनुग्रह का अधिकारी बन सकता है। जब तक यह पात्रता न हो, तब तक उत्कृष्ट वरदान माँगने की दूरदर्शिता ही उत्पन्न न होगी। ऐसी दशा में साधना के पुरुषार्थ से कुछ भौतिक लाभ भले ही मिल जाये, देवत्व का एक कण भी उसे प्राप्त न होगा। आसुरी भूमिका पर कहीं कोई सिद्धि मिल भी पायी तो अन्ततः उसी के लिए घातक सिद्ध होगी। अध्यात्म विज्ञान का समुचित लाभ लेने के लिए साधक का अन्तःकरण एवं व्यक्तित्व जितना निर्मल होगा, उतना ही उसकी उपासना सफल होगी। धुले हुए कपड़ों पर रंग आसानी से चढ़ता है, मैले पर नहीं। स्वच्छ व्यक्तित्व सम्पन्न साधक किसी भी पूजा-उपासना का आशाजनक लाभ सहज ही पा लेते हैं।

भगवान एवं देवता कहाँ हैं ? किस स्थिति में हैं? उनकी शक्ति कितनी है? इन सवालों का सही जवाब यह है कि वह दिव्यचेतना सत्ता निखिल विश्व-ब्रह्माण्ड में व्याप्त है और पग-पग पर उसके समक्ष जो अणुगति जैसी व्यस्तता के कार्य प्रस्तुत हैं, उन्हें पूरा करने में संलग्न है। उनके समक्ष असंख्य कोटि प्राणियों की जड़-चेतन की बहुमुखी गतिविधियों को संभालने का विशालकाय काम पड़ा है, सो उसी में लगी रहती है। एक व्यवस्थित नियम और क्रम उन्हें इन ग्रह-नक्षत्रों की तरह कार्य संलग्न रखता है। व्यक्तिगत संपर्क में घनिष्ठता रखना और किसी की भावनाओं के उतार-चढ़ाव की बातों पर बहुत ध्यान देना उनके लिए समग्र रूप से सम्भव नहीं। वे ऐसा करती तो हैं, पर अपने एक अंश प्रतिनिधि के द्वारा दिव्य सत्ताओं ने हर मनुष्य के भीतर उसके स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीरों में अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, जैसे आवरणों में अपना एक-एक अंश स्थापित किया हुआ है और यह अंश प्रतिनिधि द्वारा सम्पन्न होता है।

व्यक्ति की अपनी निष्ठा, श्रद्धा भावना के अनुरूप यह देव अंश समर्थ बनते हैं और दुर्बल रहते हैं। एक साधक की निष्ठा में गहनता और व्यक्तित्व में प्रखरता हो तो उसका देवता समुचित पोषण पाकर अत्यन्त समर्थ दृष्टिगोचर होगा और साधना की आशाजनक सहायता करेगा। दूसरा साधक आत्मिक विशेषताओं से रहित हो तो उसके अन्तरंग में अवस्थित देवअंश पोषण के अभाव में भूखा-नंगा रोगी-दुर्बल बनकर एक कोने में कराह रहा होगा। पूजा भी नकली दवा की तरह भावना रहित होने से उस देवता को परिपुष्ट न बना सकेगी और वह विधिपूर्वक मंत्र, जप आदि करते हुए भी समुचित लाभ न उठा सकेगा।

विराट् ब्रह्म कितना ही महान् क्यों न हो-व्यक्ति की इकाई में वह उस प्राणी की परिस्थिति में पड़ा हुआ लगभग उससे थोड़ा ही अच्छा बनकर रह रहा होता है। अन्तरात्मा की पुकार निश्चित रूप से ईश्वर की वाणी है, पर वह हर अन्तःकरण में समान रूप से प्रबल नहीं होती। सज्जन के मस्तिष्क में मनोविकारों का एक झोंका घुस जाये तो तुरन्त उसकी अन्तरात्मा प्रबल प्रतिकार के लिए उठेगी और उसे ऐसी बुरी तरह धिक्कारेगी कि पश्चाताप ही नहीं, प्रायश्चित किये बिना चैन न पड़ेगा । इसके विपरीत दूसरा व्यक्ति जो निरन्तर क्रूर कर्म ही करता रहता है, उसकी अन्तरात्मा यदा-कदा बहुत हल्का सा प्रतिवाद ही करेगी और वह व्यक्ति उसे आसानी से उपेक्षित करता रहेगा। ईश्वर दोनों के हृदय में हैं। दोनों की अन्तरात्मा की प्रकृति एक सी है-दोनों ही अपना कर्तव्य निबाहती हैं। पर दोनों की स्थिति सर्वदा भिन्न है। सज्जन ने सत्प्रवृत्तियों को पोषण देकर अपनी आत्मा को निर्मल बनाया है। उसकी प्रबलता कभी शाप-वरदान के चमत्कार भी प्रस्तुत कर सकती है, पर दूसरे ने अपनी आत्मा को निरन्तर पददलित करके उसे भूखा रखकर दुर्बल बना रखा है। वह न तो कभी प्रबल प्रतिरोध कर सकती है और न कभी उसके द्वारा ईश्वर की पुकार आदि की जाय तो उसका कुछ प्रतिफल निकल सकता है।

इस तथ्य को हमें समझना ही होगा। न समझने से हमें असमंजस और भ्रम में पड़ना पड़ेगा, निराशा हाथ लगेगी और सम्भव है, तब उपेक्षा ही नहीं नास्तिकता भी सामने आ खड़ी होगी। तथ्य यही है कि हमने अपने इष्टदेव को अपनी श्रद्धा, निष्ठा एवं स्वयं की प्रवृत्तियों द्वारा इतना परिपुष्ट नहीं बनाया कि वे हमारी प्रार्थना के अनुरूप उठ खड. होने और सहायता कर सकने में समर्थ होते। द्रौपदी के कृष्ण अलग थे, वे एक पुकार सुनते ही दौड़कर आये। हमारे कृष्ण अलग हैं, वे लगभग लंघन में पड़े रोगी की तरह, पुकार सुनने और सहायता के लिए खड. होने का सामर्थ्य उनके हाथ-पैरों में है नहीं, फिर वे प्रार्थना का क्या उत्तर दें ?

हर किसी के मस्तिष्क में गणेश विद्यमान हैं जो बुद्धि-विकास की साधना करके अपने गणेश को परिपुष्ट बना लेगा, वह विद्वान बनकर अनेक विभूतियों के वरदान प्राप्त करेगा। जो अपने गणेश की जड़ में पानी नहीं देगा उसके विनायक भगवान सूखे, मूर्छित एक कोने में पड़े रहेंगे। लड्डू-खीर खिलाने, स्तोत्र-पाठ करने पर भी वे कुछ सहायता नहीं कर सकेंगे। बुद्धिमान और विद्वान बनना सम्भव न होगा। यही बात अन्य देवशक्तियों के बारे में भी है।

जो लोग उपासना की जादूगरी, बाजीगरी जैसी कोई चीज मानकर चलते हैं, उनकी कल्पना किन्हीं ऐसे देवताओं की होती है, जो स्तुति, “पूजा” प्रसाद के तनिक से प्रलोभन से ललचाए जा सकते हैं और उनसे इन नगण्य उपहारों के बदले मनचाहे लाभ उठाए जा सकते हैं। ज्यादातर पूजा-उपासना करने वालों मनोभूमि इसी स्तर की होती है। वे विधि-विधानों कर्मकाण्डों या उपहारों का ताना-बाना बुनते रहते हैं और उसी खुराफात से अपना उल्लू सीधा करने की तरकीबें भिड़ते रहते हैं। तथाकथित भक्तों की मण्डली इसी स्तर की होती है। वे तिलक छापे लगाकर अपनी भक्ति का प्रमाण भगवान के सामने प्रस्तुत करते हैं या कुछ और खेल खड. करके भगवान की आँखों में धूल झोंक कर अपने असली स्वरूप को छिपाते हुए भक्त को मिलने वाले लाभ प्राप्त करना चाहते हैं।

सच तो यह है कि न भगवान इतने भोले हैं, न कोई देवता इतना सरल है, न कोई मन्त्र ऐसा है जिसे कुछ बार जप-रट कर मनचाहा लाभ उठाया जा सके। उपासना एक सर्वांगपूर्ण विज्ञान है। आध्यात्मिक विद्या अपने आप में एक उच्चस्तरीय साइंस है, जिसमें नियम एवं प्रयोजनों को समझ कर तदनुकूल चलने से लाभान्वित हुआ जा सकता है। यदि यह तथ्य लोगों ने समझा होता तो अध्यात्म मार्ग की देहरी पर पैर रखते ही पहला प्रयोग अपने अन्तरंग में मूर्छित, पददलित, बुभुक्षित, मलिन पड़े हुए अपने अन्तर्यामी इष्टदेव को संभालने-संजोने का प्रयत्न किया होता। उन्हें समर्थ एवं बलवान बनाया होता। इस प्रथम प्रयोजन को पूरा करने के बाद ही मन्त्र, जप, उपासना, पूजा, स्तोत्र आदि के चमत्कार देखने का दूसरा कदम उठाया गया होता तो निश्चित रूप से हर किसी को उपासना में आश्चर्यजनक सफलताएँ मिली होती और तब किसी को निराश होने अविश्वासी बनने या असमंजस में पड़ने का अवसर न आता।

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