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Magazine - Year 1997 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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क्या कहेंगे इन अजूबों को आप ?

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एक समय था जब क्यूबा में रहने वाला सेनर एवेलिनो पेरेज नामक एक व्यक्ति व्यक्तियों और वैज्ञानिकों के आकर्षण और शोध का बहुचर्चित विषय बन गया था। पेरेज की यह विशेषता थी कि वह अपनी इच्छानुसार अपनी एक आँख या एक साथ दोनों आँखों को पुतलियों से दो इंच बाहर निकाल लेता था और उन्हें वापस यथा-स्थान बैठा लेता था। उससे उसकी देखने की शक्ति में किसी भी तरह का दबाव नहीं पड़ता था।

यौगिक अभ्यास और प्राणायाम द्वारा शरीर और प्राणों पर नियन्त्रण करके उन्हें मनमाने ढंग से मोड़ने ढंग से मोड़ने-मरोड़ने के यौगिक प्रदर्शन हमारे देश में कोई अनोखी घटनाएँ नहीं मानी जातीं। यहाँ का प्रायः सामान्य नागरिक भी इस तरह के चमत्कारों से परिचित मिलेगा। कई शिक्षित लोग इसे उनका अन्ध-विश्वास भी मान लेते हैं, पर जिन्होंने भी योग साहित्य का अध्ययन किया होगा, शरीरस्थ चक्रों, गुच्छकों, उपत्यिकाओं का जिन्हें थोड़ा भी विज्ञान ज्ञात होगा, वे इस तरह के आश्चर्यजनक लगने वाले प्रदर्शनों की पृष्ठभूमि भली प्रकार अनुभव कर सकते हैं। अंतःस्रावी ग्रन्थियों (ग्लैण्ड्स) के बारे में आधुनिक शरीर-शास्त्रियों ने अब तक जो जानकारियाँ प्राप्त की हैं, उनसे भी यह सिद्ध हो गया है कि यदि इन स्रावों (हारमोन्स) पर पूरी तरह नियन्त्रण कर लेना मनुष्य के लिए सम्भव हुआ तो एक दिन वह आयेगा जब हनुमानजी की तरह मनुष्य एक क्षण में “मसक समान” और दूसरे क्षण शत योजना मुख सुरसा बन जाना बिलकुल साधारण बात हो जाएगी।

यह सब मनुष्य की प्रचण्ड इच्छा-शक्ति संकल्प और इनके द्वारा विकसित अभ्यासों की उपलब्धियाँ मात्र हैं। यद्यपि डाक्टर लोग अब भी यह नहीं समझ सके कि पेरेज ने इस तरह आँख की पेशियों पर नियन्त्रण कैसे प्राप्त कर लिया, जबकि यह मात्र नियन्त्रण का कौतुक है। पेरेज की आँखों को इधर-उधर घुमाकर व्यायाम प्रारम्भ किया और यह क्षमता विकसित कर ली। इच्छाशक्ति समुचित एक महान दैत्य है, यदि वह अपनी पर आ जाए, संकल्प रूप धारण कर ले तो मनुष्य ऐसे-ऐसे एक नहीं लाख चमत्कार दिखाई देने वाले परिणाम प्रस्तुत कर सकता है। किसी व्यक्ति का स्वस्थ होना, किसी का जीवन भर रोगी बने रहना, किसी का प्रखर बुद्धि विद्यार्थी होना, किसी का मन्द बुद्धि, किसी का जीवन भर परमुखापेक्षी बने रहना उस मनोबल के ही प्रतिफल हैं, जो मनुष्य को कुछ से कुछ बना देते हैं।

केन्या में सम्बरु नामक एक व्यक्ति ने निश्चय कर लिया कि वह जिन्दगी भर कभी बैठेगा नहीं और सचमुच ही अब वह लगभग ४७ वर्ष का होने को आया, २७ वर्ष का था तब उसने यह प्रतिज्ञा की थी अब तक ३० वर्ष हो गये, खाना, पीना , टट्टी, पेशाब सब उसने खड़े ही खड़े किया। लेटने या खड़े रहने की प्रतिज्ञा मृत्युपर्यन्त निबाहने की आन अब उसकी सामान्य आदत बन गई है, जबकि सामान्य व्यक्तियों के लिए उसकी चर्चा भी कम विस्मयकारक नहीं होंगी। बुफेली अमेरिका के टाममीलिफ के एक भी हाथ नहीं था, पर वह विश्व का माना हुआ गोला चैम्पियन था। उसने १७ बार चैम्पियनशिप जीती। योगी हरिदास अपनी जीभ से भूर-मध्य का स्पर्श कर लेते थे। अफ्रीका के सार्स जिन्जेस ने अपने दोनों ओठ इतने बढ़ा लिए थे कि वह उसकी पत्नी के लिए पूरी तकिया का काम देते थे। ओठों के इस राक्षसी आकार के कारण जिन्जेस न तो कड़ा खाना खा सकता था, न बोल सकता था। ऊपर से वह कहीं भाग न जाए, इस भय से उसकी पत्नी उसके ओठों तकिया बनाकर सोती था, ताकि वह कहीं खिसकने का प्रयास करे तो तुरन्त नियन्त्रित किया जा सके।

अच्छे हों या बुरे परिणाम संकल्प शक्ति को जुटाकर मनुष्य अतिमानव बन सकता है, इसमें सन्देह नहीं। इतने होने पर भी उसे सर्वशक्तिमान नहीं कह सकते। इसलिए कि उसकी इच्छा और माँग ने विरुद्ध आनुवांशिकी, भौतिकी और पराभौतिकी क्षेत्र में ऐसी सैकड़ों घटनाएँ घटती रहती हैं, जिनका नियन्त्रण तो दूर वह उस रहस्य तक को नहीं जान सकता कि उस कारण क्या है ? जबकि निसर्ग में उस तरह का स्वयं में कोई सुनिश्चित सिद्धान्त नहीं होता। उदाहरण के लिए, १७२९ में लन्दन में चार्ल्सवर्थ नामक एक बच्चे ने जन्म लिया। सामान्यतः ४ वर्ष तक की आयु ऐसी होती है, जब बच्चा अच्छी तरह बोल भी नहीं पाता, किन्तु चार्ल्सवर्थ ने आनुवांशिकी के सारे वैज्ञानिक नियमों को उठाकर एक ओर फेंक दिया। चार वर्ष में ही वह पूर्ण वयस्क हो गया। उसके मूँछ, दाढ़ी भी निकल आई। उसके व्यवहार, बात-चीत में भी पूरी तरह बुजुर्गपन टपकने लगा था। सात वर्ष की आयु में उसके सम्पूर्ण बाल सफेद हो गए और इसी वर्ष उसकी मृत्यु हो गई।

आनुवांशिकी के सिद्धान्तानुसार बच्चे में यह तो हो सकता है कि उसके माता-पिता के न होकर बाबा, नाना, परबाबा, परनाना, दादी, परदादी, नानी, परनानी अथवा इससे ऊपर वहाँ तक जहाँ से उस वंश के आविर्भाव का महापुरुष पहुँचता है, भले ही वह ब्रह्माजी ही क्यों न हों, के आनुवांशिकीय लक्षण अवश्य होने चाहिए, जबकि विश्व इतिहास में यह अपनी तरह का एकमेव उदाहरण है, जो मनुष्य की संकल्प शक्ति से भी परे किसी विधेय-सत्ता की ओर संकेत करता है।

एक ही रंग-रूप आकृति के एक से अधिक व्यक्ति हो सकते हैं, पर उनमें ऊँचाई, तिल, मस्से, नाक, भौंह, दाँत, माथा, बाल कहीं न कहीं, कोई न कोई ऐसा अन्तर अवश्य रह जाता है, जिससे उनकी पहचान सरल हो जाती है, किन्तु सन् १७९४ में न्यूयार्क में एक साथ एक ही मुहल्ले में हेनरी, थामस तथा वेनन नाम के तीन ऐसे व्यक्ति निकल आये, जिनकी पहचान स्वयं उनके माता, पिता, भाई बहिनों के लिए दुःसाध्य हो गई। कई बार थामस को घर पहुँचने में देर हो जाती तो उसकी माँ ढूँढ़ने निकलती और सामने पड़ जाता हेनरी, तो वह उसी की पिटाई करते घर ले जाती। बेचारा हेनरी कहता भी कि मैं हेनरी हूँ, पर माँ उसकी आवाज तो पहचानती थी, उन तीनों की आवाज भी एक जैसी थी। आवाजों से भी उन्हें पहचानना कठिन था।

अब तक वे काफी बड़े हो गये थे । लोगों ने समझा अब दाढ़ी , मूँछें में तो कुछ फर्क आयेगा ही, पर न जाने किस सत्ता का निर्माण है यह , जो मनुष्य की सारी कल्पनाओं को भी लाँघकर कल्पनातीत सृष्टि का सृजन करता रहता है । तीनों की मूँछ , दाढ़ी भी एक ही तरह की थीं । अन्त में दाढ़ी, मूँछ की आकृति भिन्न -भिन्न रखने का उन तीनों ने निश्चय किया । हेनरी ठोढ़ी के नीचे के बाल तो साफ रखता था, पर दोनों गालों के नीचे दाढ़ी समानान्तर लटकती थी, उन्हें मूँछ इस तरह जोड़ती थी कि दाढ़ी -मूँछ का आकार अँग्रेजी के एच की तरह बन जाता था । उसके नाम का पहला अक्षर भी यही था । थामस मूछों के अतिरिक्त केवल ठोढ़ी के नाचे मुसलिम कट दाढ़ी रखता था, दोनों गाल के बाल साफ रखने से उसकी मूँछ और और दाढ़ी की आकृति अँग्रेजी के “टी” वर्ण के आकार की हो गई और इस तरह उसकी पहचान सम्भव हुई वेर्नन ने तीसरी युक्ति निकाली उसने अपनी मूँछें तो सफाचट करा लीं और दाढ़ी के बालों की इस तरह कटिंग कराता कि वह दोनों कनपटियों से चलकर ठोढ़ी में अँग्रेजी के वर्ण “वी” की सी आकृति बना देती। इस तरह मानवीय बुद्धि ने एक समस्या का निराकरण ही कर लिया, पर लगता है, वह उस रहस्य का कुछ महत्व ही नहीं समझता कि ऐसा किस नियम के अंतर्गत होता है कि भिन्न-भिन्न परिस्थितियों, वातावरण, माता-पिता आहार-विहार के भी एक-सी शक्ल के वह भी इतने साम्य गुणों वाले कि उनकी पहचान तक न हो सके किसी बहुत ही कुशल कलाकार की तूलिका का ही चमत्कार हो सकता है। उस पूर्ण परात्पर रचनाकार को पाना ही मानव जीवन का लक्ष्य बताया गया है, पर मनुष्य वो अपने साँसारिक बखेड़ों में इतना उलझ गया है, कि इस तरह की दुर्लभ घटनाएँ देखकर भी उसका विवेक जाग्रत नहीं होता। इस तरह के विलक्षण अपवाद मनुष्य ही नहीं जीव-जन्तुओं के भी मिलने लगे तो विकासवाद के सिद्धान्त को एक दूसरा प्रश्न-चिन्ह लग जाता है और उसके समर्थकों के दावों पर सन्देह होने लगता है, कहीं उन्होंने उपहास में ही तो दर्शन को विकृत नहीं कर डाला।

ऐली (इंग्लैण्ड) एच. जी. बाय उनके धर मुर्गी ने ऐसा बच्चा दिया जिसके चार पैर थे। तमाम उम्र इस बच्चे ने यों ही सामान्य स्थिति में बिताई । प्रजनन क्रियाएँ भी उसमें सम्मिलित थीं, पर उसकी सन्तानों में कहीं कोई इस तरह का अद्भुत देखने को नहीं मिला। मैनचेस्टर सागर में कैप्टेन जे0 टी0 बैनेट ने एक ऐसा कछुआ पकड़ा जिसके दो सिर थे। वह कछुआ उन्होंने अपनी मृत्यु पर्यन्त पालकर रखा। जोन्सवर्ग के वाल्टर रडिल मैन के पास एक ऐसी भेड़ थी, जिसके सारे शरीर में बाल उगते थे, किन्तु पीठ के बिलकुल ऊपरी हिस्से में विधिवत घास उगा करती थी। यह एक-विलक्षण संरचना थी, जिसका कोई भी आनुवांशिकी आधार शारीरिक त्रुटि या कारण ढूँढ़ पाना आज तक भी वैज्ञानिकों के लिए सम्भव नहीं हो पाया । यह वैसा ही कठिन कार्य है जैसे धड़ में जमाये दूध को बिलोने वाली रई से समुद्र मंथन की बात सोची जाए । सृष्टि जितनी विराट् है, मानवीय ज्ञान की सीमाएँ उतनी ही नगण्य हैं, अतएव सुनिश्चित अनुभूति प्राप्त न होने तक किसी भी उस परम सत्ता पर अविश्वास नहीं करना चाहिए, जिसकी शक्ति से ही इस विलक्षण निर्माण की प्रक्रिया चलती है।

हस्तक्षेप प्राणि-सत्ता तक ही सीमित नहीं है, लगता है प्रकृति को भी इच्छानुसार बनाने और बदलने की शक्ति का कोई और उद्गम है। स्काटलैण्ड के डंकल्स नामक स्थान में १६ फुट लम्बा, ७ फुट चौड़ा तथा ५ फुट ऊँचा एक पत्थर तीन छोटे-छोटे पत्थरों पर इस तरह टिका है, मानो कोई भीमकाय कछुआ चल पड़ने की तैयारी में हो, पुरातत्व वेत्ताओं के अनुसार यह पत्थर पिछले बीस लाख वर्षों से इसी तरह टिका हुआ हैं, जबकि इस बीच आये अंधड़-तूफानों ने सैकड़ों पहाड़ ढहा दिए। बिना किसी गणितीय आधार के ही यह तीन छोटे सिपाही खड़े अपने महान् सम्राट् की अभ्यर्थना करते जान पड़ते हैं।

एण्डले फ्रान्स में भी इसी तरह वोल्डर (पत्थर) इस तरह नन्हें-से आधार पर नाचते हुए लट्टू की-सी आकृति में खड़ा हैं, मानो उसे किसी विद्युत चुम्बकीय शक्ति ने चारों ओर से साध रखा हो। वैज्ञानिक उस बल की सब तरह जाँच कर चुके, पर वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके। विचित्र बात यह है कि यह पत्थर गज़ब की भविष्यवाणी भी करता है, मौसम साफ रहेगा, तो वह अपनी उसी धुरी पर चुपचाप खड़ा रहेगा, किन्तु तूफान आने को हो तो वह धीरे-धीरे हिल-डुलकर उसकी सूचना दे देता है, उस स्थिति में भी उसका सन्तुलन यथावत् रहता है, जबकि यदि दूसरा पत्थर हो तो हाथ के रत्तीभर इशारे से सैकड़ों फीट दूर जा लुढ़क सकता है, पर उसे जोर देकर भी हटाया नहीं जा सका।

भारतीय वेद-पुराण और दर्शन कहते हैं, उसके अपनी इच्छाशक्ति को मुखर करने के उद्देश्य से सृष्टि की रचना की । अनेक-अनेक जीव योनियों की संरचना वस्तुतः इच्छाशक्ति का ही संगठन है, सम्भव है, उससे सर्वशक्तिमान सत्ता परमात्मा का अस्तित्व सिद्ध न हो, पर इंग्लैण्ड के वाटफोर्ड नामक कस्बे में हुई एक घटना ने यह सिद्ध कर दिया है, मानवीय इच्छाशक्ति किसी न किसी रूप में एक अति समर्थ सत्ता की ही सन्तान है, उसे परमात्मा, विश्वात्मा, ब्रह्मपरमेश्वर कुछ भी कहे, वह विचार की ही श्रेणी का कोई श्रेष्ठ तत्व है। हुआ यह कि लिड नामक एक व्यक्ति को अंजीर बहुत प्रिय थे। उसकी मृत्यु होने लगी तो उसने कहा-अंजीर ने मुझे जीवन में अत्यन्त तृप्ति प्रदान की है, मेरा मन है कि मेरे ताबूत में अंजीर का एक पौधा रखा जाए, मेरी आत्मा उसी से फूटे और इतने फल दे कि हजारों लोग उससे तृप्ति पाएँ।

ऐसा ही किया गया। लिड को जिस ताबूत में रखकर दफनाया गया, उसी में अंजीर का एक नन्हा-सा पौधा भी रख दिया गया। कुछ दिन बाद समय के गर्भ में दबा हुआ वह अंजीर का पौधा पृथ्वी को फोड़कर ऊपर निकल आया। जैसे-जैसे उसका विकास होता गया, वैसे-वैसे कब्र फटती गई और एक दिन वह पूर्ण वृक्ष के रूप में उभर उठा सचमुच सामान्य अंजीर वृक्षों की अपेक्षा उसमें इतने अधिक, मीठे और बढ़िया अंजीर लगते हैं कि खाने वाला उस वृक्ष की याद अवश्य करता है। उसके अंजीरों पर किसी का प्रतिबन्ध नहीं रखा गया ताकि लिड की इच्छा की पूर्ति हो सके।

गीता कहती है कि मृत्यु के समय मनुष्य की जो भी इच्छा हो परमात्मा उसे उसी रूप में स्वीकार और पूर्ण करता है। सम्भवत’ यह भी उसी का एक उदाहरण हो-जो भी हो संसार में कोई ऐसी शक्ति है अवश्य, जो मानवीय सामर्थ्य और प्रकृति से भी बृहत्तर है। इन्हें संयोग नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इस तरह की और भी घटनाएँ हैं, जो मानवीय बुद्धि को प्रकृति में प्रतिघटित होने को ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करती हैं, जिन्हें न तो वैज्ञानिक नियमों के अंतर्गत कहा जा सकता है, न प्राकृतिक संयोग। सम्भवतः कोरिया की कोयम नदी “नाक्वाह्म चट्टान” इस सम्बन्ध में सबसे प्रामाणिक और सृष्टि की सबसे बड़ी आश्चर्यजनक घटना कह सकते हैं। सन् ६६० में चीन के बादशाह ने कोरिया पर आक्रमण कर दिया। कोरिया नरेश पाकेज, उनके पुत्र, महामन्त्री, मन्त्री और सचिव आदि सभी बन्दी बना लिए गए और उन्हें चीन भेज दिया गया। किन्तु साम्राज्ञी राजघराने की दूसरी स्त्रियों तथा मन्त्री आदि की ७१ (इकहत्तर) स्त्रियों ने कोयम नदी के किनारे ढलवाँ बनी इस चट्टान से नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली। ज्ञात नहीं मृत्यु के समय इन साध्वी स्त्रियों की इच्छाएँ क्या थीं, यही भी अविज्ञात है कि परमात्मा उस घटना को क्यों अमर बनाये रखना चाहता है ख् पर यह बड़े आश्चर्य की बात है कि लगभग १४०० वर्ष होने को आये प्रतिवर्ष उस चट्टान पर एक ही नस्ल के केवल ७१ (इकहत्तर) पौधे ही उगते हैं और उनमें १७ ही फूल लगते हैं। यह सभी इकहत्तर फूल एक ही दिन कली से पुष्प का आकार ग्रहण करते हैं और जब तक खिले रहते हैं, सभी इकहत्तर के इकहत्तर। एक दिन वर्ष का, इसी बसन्त ऋतु का वह दिन आता है, जिस दिन ७१ महिलाओं ने सामूहिक जौहर किया था, ठीक उसी दिन सभी इकहत्तर फूल एक साथ नदी में गिर जाते हैं। इस दृश्य को देखने और अपनी भाव भरी श्रद्धा समर्पित करने के लिए हजारों-लाखों व्यक्ति वहाँ एकत्रित होते हैं और यह मानते हैं, सृष्टि में कोई विराट् विचारशील चेतना कार्य अवश्य कर रही है, भले ही दृश्य रूप में वह दिखाई न दे।

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