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Magazine - Year 1997 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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स्वतंत्रता की स्वर्णजयंती, गिरते नैतिक मूल्य एवं प्रबुद्धों का दायित्व

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१५ अगस्त, १९९७ को हमने अपनी राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के पचास वर्ष पूरे कर लिए। अर्द्ध शताब्दी पूर्व ठीक इसी दिन हम अँग्रेजी राज की दासता से मुक्त हुए थे। स्वतंत्रता दिवस राष्ट्रीय जीवन का एक नया मोड़ था। इस ऐतिहासिक मोड़ पर एक उम्मीद बँधी थी कि अब देश का स्वतंत्र विकास होगा, किसी के आँसू नहीं बहेंगे, कोई भूखा नहीं रहेगा, पिछड़ों व गरीबों का उत्थान होगा, दंगा-फसाद नहीं होगा और सभी खुशी से रहेंगे। इस अवसर पर महात्मा गाँधी ने कहा था, “अन्ततोगत्वा पूर्ण स्वराज्य का दरवाजा खुल गया है। सारे भारत ने इस दिन का इन्तजार किया है। इसकी बाट जोही है और इसके लिए तकलीफें उठाई हैं।” समूचे देश ने स्वतंत्रता मिलने पर उम्मीद की कि हम सभी राष्ट्रवासी आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक सभी क्षेत्रों में प्रगति करेंगे। देश जनसंख्या की दृष्टि से भी विश्व का सबसे बड़ा लोकतन्त्र होगा।

आज स्वाधीनता के पचास वर्ष पूरे करते समय हम सभी को आत्मसमीक्षा करनी है कि इस पुण्ययात्रा को शुरू करते समय हमने जो राष्ट्रीय लक्ष्य निर्धारित किए थे, उनको साकार करने में हम कहाँ तक सफल हो पाए हैं? आर्थिक, सामाजिक विषमताओं से मुक्ति, सुखी, समृद्ध, स्वावलम्बी, शक्तिशाली एवं स्वाभिमानी राष्ट्रीय जीवन के निर्माण का जो सपना सँजोया था, उस यात्रा में हम कहाँ पर खड़े हैं?

इसमें कोई सन्देह नहीं कि इन पचास सालों में हमने प्रगति की है। जहाँ अपने देश में एक सुई तक नहीं बनती थी, वहाँ आज हवाई जहाज एवं सुपर कम्प्यूटर तक बनने लगे हैं कृषि क्षेत्र में हरित क्राँति, खेलों में एशियाड आयोजन से लेकर पोखरण न्यूक्लियर विस्फोट व अन्तरिक्षीय क्षेत्र में हमारी उपलब्धियाँ इसकी एक झलक देती हैं। अभी कुछ ही दिनों पहले इनसेट २-डी के सफल प्रक्षेपण के साथ हमने अन्तरिक्षीय प्रौद्योगिकी में आत्मनिर्भरता व अन्तर्राष्ट्रीय अन्तरिक्ष की दुनिया में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज की है। सुरक्षा क्षेत्र में हमने कई बार पाकिस्तानी आक्रमणों को मुँह तोड़ जवाब देकर विफल किया है। वैज्ञानिकों व तकनीशियनों की संख्या में हमारा विश्व में दूसरा नम्बर है।

इन प्रगति प्रतिमानों पर हमें गर्व है, लेकिन इनके पीछे निहित विसंगतियाँ, इस विकास की समग्रता एवं यथार्थता पर सवालिया निशान लगाते हैं। आजादी के ५० साल पूरे होने के बाद भी आज आम भारतवासी को पेटभर भोजन, तन ढकने के लिए कपड़ा, सिर पर छत और हाथों के लिए काम नसीब नहीं है। ग्रामीण विकास अभी भी अधूरा है। एक तिहाई आबादी अभी भी विकास के लिए तरस रही है। यह सच है कि शहरों का बड़ी तेजी से औद्योगीकरण हुआ है, लेकिन इस दौड़ में गाँव पिछड़ गए हैं। परिणामतः शहरों का तेजी से विकास हुआ है और गाँवों से उसी तेजी से पलायन। हर साल पचास लाख ग्रामीण जन रोजी-रोटी के लिए गाँव छोड़कर शहर जाते हैं। शहरी आबादी भी इसी वजह से ३.५ प्रतिशत हर साल की दर से बढ़ रही है।

आज ७० फीसदी लोग गाँव में रहते हैं व ३० फीसदी शहरों में, लेकिन ६० फीसदी आय सम्पत्ति शहरी क्षेत्र के लोगों के पास है। इनमें से भी ५० प्रतिशत राष्ट्रीय धन मात्र १० प्रतिशत लोगों के हाथ में है। ७० प्रतिशत ग्रामीणों के पास राष्ट्र की मात्र ४० प्रतिशत आय सम्पत्ति है। सारी सुविधाएँ शहरों में ही सिमट कर रह गयी हैं। भारत के हृदय कहे जाने वाले गाँव उपेक्षित पड़े हैं। राष्ट्रीय नव-जागरण के पुरोधा श्री अरविन्द ने चेतावनी भरे स्वरों में कहा था-जो कौम अपने जीवन में ग्रामीण मूल की पुष्टता को शहरी तड़क-भड़क रूपी फूल-पत्तियों के लिए बलिदान नहीं करती, वही स्वस्थ दशा में मानी जाएगी और उसी का स्थायित्व सुनिश्चित होगा।”

आज उद्योगपति गाँवों की जनसंख्या को अपने उत्पादों के उपभोक्ता तो बनाना चाहते हैं, पर देना कुछ नहीं चाहते। अपने को राष्ट्र का कर्णधार कहने वाले राजनेता गाँवों में अपना वोट तो पाना चाहते हैं परन्तु इनके विकास के लिए प्रस्तुत करोड़ों की राशि को स्वयं हजम कर जाते हैं। बुद्धिजीवी भी गाँवों की बातें तो करते हैं लेकिन वहाँ रहना नहीं चाहते। कवि एवं कहानीकार गाँवों पर यदा-कदा कविता या कहानी तो लिख लेते हैं, लेकिन उस ओर जाने में उन्हें असुविधा आड़े आती आती है जबकि आज जिन्हें हम महानगर कहते हैं वहाँ न शुद्ध जल है, न शुद्ध वायु, न शुद्ध दूध है और न शुद्ध सब्जी। यहाँ का सारा वातावरण ध्वनि एवं वायु प्रदूषण से भरा हुआ है।

यह ठीक है कि हमने अन्न क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति की है। लेकिन इसका लाभ छोटे किसान एवं मजदूर वर्ग तक नहीं पहुँच पाया है। अन्न उत्पादन वृद्धि के साथ ही जनसंख्या भी तेजी से बढ़ी है। जनसंख्या की दृष्टि से हर साल एक हरियाणा राज्य भारत में जुड़ रहा है और शायद यही वजह है कि स्वतंत्रता के पचास सालों बाद भी सरकारी आँकड़ों के अनुसार २० करोड़ बच्चे पुरुष-महिलाएँ बिना पेट भर भोजन किए सो जाते हैं। ४७.७ प्रतिशत घरों को पर्याप्त कैलोरी नहीं मिल पा रही है। १० प्रतिशत घरों को पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन नहीं मिल पा रहा है। १९ प्रतिशत घरों को पर्याप्त कैलोरी व प्रोटीन दोनों ही नहीं मिल पा रहे हैं।

प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न में कमी आयी है। प्रतिव्यक्ति खाद्य ऊर्जा २२०० किलो कैलोरी के स्थान पर घटकर १८४९ किलो कैलोरी रह गयी है। स्कूल न जाने वाले बच्चों में इसकी असाधारण कमी महसूस की जा रही है। केरल में ३४ प्रतिशत व गुजरात में ७२ प्रतिशत बच्चे इस कमी के शिकार हैं। अभी हाल में ही महाराष्ट्र के दो ताल्लुकों में कुपोषण के चलते ५०० बच्चों की दर्दनाक हर संवेदनशील हृदय को पीड़ा से भर गयी। ४७ प्रतिशत वयस्कों का शरीर द्रव्यमान सूचक १८.५ से कम है, जो इस बात का सूचक है कि समाज बड़े पैमाने पर दीर्घकालिक ऊर्जा की कमी से ग्रसित है।

गर्भवती महिलाओं के होमोग्लोबिन के स्तर से पता चला है कि ८७.५ प्रतिशत महिलाएँ एनीमिया अर्थात् रक्त की कमी की शिकार हैं। जन्म के समय ३० प्रतिशत शिशुओं का भार सामान्य से कम होना आम बात है। इस तरह जन-साधारण को स्वास्थ्य-संरक्षण देने में हम पिछड़े हुए हैं। यह अलग बात है कि स्वास्थ्य सुविधाओं में वृद्धि हुई है व आम आदमी की औसत आयु बढ़ी है।

शिक्षा के क्षेत्र में सबको प्राथमिक शिक्षा दिलाने के अपने लक्ष्य से अभी भी हम कोसों दूर हैं। शिक्षा का विस्तार निःसन्देह हुआ है। लेकिन यह क्षेत्र भी अपनी तरह की विसंगतियों से ग्रसित हैं। यहाँ अमीर आदमी के लिए अलग शिक्षा-व्यवस्था है तो गरीब आदमी की अलग। हरित क्रान्ति एवं श्वेत क्रान्ति की ही तरह शिक्षा क्रान्ति का लाभ सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से विपन्न व पिछड़े लोगों को नहीं मिल पाया है। आधी आबादी आज भी निरक्षर है। गाँवों के देश भारत में गाँवों की ही सबसे ज्यादा उपेक्षा हुई है। ग्रामीण लोगों को दूसरे दर्जे का नागरिक मानकर दोयम दर्जे की शिक्षा प्रदान की जाती है। परिणामतः सर्वाधिक फेल होने वाले, बीच में ही स्कूल छोड़ने वाले और निरक्षर रहने वाले बालक-बालिकाएँ गाँव में ही रहते हैं। अभी तक १,८३,२०८ गाँवों में प्राथमिक स्कूल तक नहीं हैं ६ से १४ वर्ष के बीच के ६ करोड़ ३० लाख बच्चों ने स्कूलों का मुँह तक नहीं देखा है।

जिस भौतिक सुख-समृद्धि व आर्थिक स्वराज्य के वशीभूत होकर हमने रूस की पंचवर्षीय योजना का अनुसरण करके औद्योगीकरण की पश्चिमी शैली को अपनाया था, उसने स्वावलम्बी बनाने की बजाय विदेशी पूँजी व तकनीक का दास बना दिया है। यह अलग बात है कि देखने में स्थूल दृष्टि से हमारी आर्थिक मजबूती बढ़ी है। १९५० के दशक में हमारी बचत दर सकल घरेलू उत्पादन का केवल १० प्रतिशत हुआ करती थी। जो १९८० के दशक में बढ़कर ३५ प्रतिशत तक पहुँच गयी। इसका सीधा-सा अर्थ यह हुआ कि हम विकास कार्यों में पहले की तुलना में अधिक निवेश कर सकते हैं। १९०१ से १९५० तक आर्थिक विकास की औसत दर ३ प्रतिशत थी। आजादी के बाद पंचवर्षीय योजनाओं से १९७० के दशक के अन्त तक यह बढ़कर ५.५ प्रतिशत तक पहुँच गयी। इस दृष्टि से अर्थव्यवस्था में पिछले पाँच दशकों में विकास हुआ है। लेकिन इस विकास का लाभ जनसाधारण तक कितना पहुँच पाया है और आर्थिक स्वराज्य की दिशा में हम कहाँ खड़े है? यह सवाल विचारणीय है।

आज हम विकसित देशों की पूँजी की कठपुतली बन गए हैं। उदारीकरण की आड़ में हमारी नीतियाँ विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष तय करता है। उदारीकरण की प्रक्रिया हमें एक नयी तरह की गुलामी की ओर ले जा रही है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का समूचे भारतीय बाज़ार पर कब्जा हो गया है। ये कम्पनियाँ भारतीय संसाधनों का इस्तेमाल करके भारतीय अर्थतन्त्र पर अपना शिकंजा कसती जा रही हैं और हम अपनी जेब डॉलरों से भरने में मगन हैं।

ताजा आँकड़ों के हिसाब से मैक्सिको और ब्राजील के बाद भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा कर्ज में डूबा देश है। हम पर पिछले वर्ष के अन्त तक लगभग साढ़े तीन लाख करोड़ रुपयों का विदेशी कर्ज था। सरकार एक वर्ष में कुल जितना खर्च करती है, उसका ५५ प्रतिशत इस कर्ज पर ब्याज चुकाने में ही लग जाता है। जनता पर कर लगाकर जो राजस्व प्राप्त होता है, उसका ६७ प्रतिशत इस कर्ज की अदायगी में चला जाता है जहाँ कर्ज बढ़ता जा रहा है, वहीं सरकार की आय की तुलना में व्यय भी बढ़ रहा है। इस तरह राजकोष का घाटा निरन्तर बढ़ता जा रहा है।

हम भूल गए हैं कि उधार, कर्ज व दान की राशि हमें अपनी प्रारम्भिक जरूरतों को पूरा करने व पूँजी की कमी को पूरा करने के लिए मिला था, जिससे कि हमारा आधार मजबूत हो। लेकिन इस कर्ज की राशि को अपनी पूँजी मानकर उसका बेतरतीब उपभोग करने में जुट गए। नतीजा यह रहा कि न ही पूँजी का निर्माण कर पाये और न उद्योगों को कुशलता से चला पाए, बल्कि ऋण के दलदल में आकण्ठ डूबते चले गए। यदि केवल उधार-ब्याज और घाटे की राशि जोड़ लें तो अभी सालों तक शायद अगली पीढ़ी तक हम कर्ज में ही डूबे रहेंगे और आर्थिक स्वराज्य की कल्पना तक मृगतृष्णा ही बनी रहेगी। यही नहीं हम सिर्फ एक दिवालिए राष्ट्र की तरह विदेशियों के दरवाजे खटखटाकर गुहार लगाते रहेंगे।

‘ऋण कृत्वा घृतं पिबेत’ के इस आदर्श को लेकर हमने जो विकास का चित्र खड़ा किया है, उसमें बहुमंजिली इमारतों, पंचसितारा होटलों, सड़कों पर दौड़ती कारों, कम्प्यूटरों, टेलीविजन सेटों की संख्या तो अवश्य बढ़ी है, पर साथ ही विषमता की खाई और चौड़ी हुई है। ऊँची अट्टालिकाओं के बगल में बसी झुग्गी-झोपड़ियाँ हमारे समाजवाद की हँसी उड़ा रही हैं। समाज परिवर्तन के नाम पर हमने आम आदमी की जिन्दगी को पश्चिमी तर्ज के आधुनिकीकरण और औद्योगीकरण की वेदी पर चढ़ा दिया हैं कुछ गिने-चुने क्षेत्रों को छोड़कर गरीबों के साथ अभी तक न्याय नहीं हो सका है। पिछड़े क्षेत्रों के अधिकाँश लोग वैसे ही हैं, जैसे आजादी के समय थे। ७० फीसदी जनसंख्या आज भी निर्धनता के कुचक्र में फँसी है।

अन्य सफल एशियाई देशों की तुलना में हम बहुत पिछड़े हुए हैं। हमने कभी स्वयं पर विश्वास ही नहीं किया, बस विदेशी पूँजी व तकनीक का ही मुँह ताकते रहे। नतीजतन हम कोई ऐसी तकनीक नहीं विकसित कर पाए जिसे भारतीय तकनीक कहा जा सके। आज रूसी तकनीक जानना हो तो रूसी भाषा सीखनी पड़ती है, जापानी तकनीकों के लिए जापानी भाषा आनी चाहिए, अमेरिकी तकनीक समझनी है तो उनकी भाषा जाननी पड़ती है, लेकिन भारत न तो अपनी राष्ट्रभाषा विकसित कर पाया है और न ही अपनी तकनीक।

कार्य के अभाव में बेकारों की संख्या बढ़ती जा रही है। इस वर्ष निकली रजिस्ट्रार जनरल कार्यालय की रिपोर्ट के अनुसार देश की करीब एक तिहाई आबादी अर्थात् ३० करोड़ लोगों के पास काम नहीं हैं शिक्षित बेरोजगारों की संख्या ४ करोड़ के लगभग है, जो १९९८ तक बढ़कर ६ करोड़ हो जाएगी। दूसरी ओर १ करोड़ १३ लाख से भी अधिक बाल मजदूर अपने बचपन को श्रम की वेदी पर चढ़ा रहे हैं।

५० वर्ष पूर्व ब्रिटिश शासकों द्वारा आयोजित जिस संविधान रचना को हमने लोकतांत्रिक चेतना की अभिव्यक्ति का सर्वोत्तम साधन मानकर अपनाया था और जिसके माध्यम से हमने जाति, भाषा, क्षेत्र तथा सम्प्रदाय आदि की शताब्दियों पुरानी दीवारों को ढहाकर समतापूर्ण अखिल भारतीय राष्ट्रभाव से ओत-प्रोत एकात्म सर्वधर्म समभाव वाले लोकतांत्रिक जीवन खड़ा करने का उद्घोष किया था, उस दिशा में आज जम कहाँ खड़े हैं?

यह सच है कि हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। तमाम झंझावातों को सहते हुए भी हम अभी तक अडिग हैं। इसे अपनी सन्तोषजनक उपलब्धि मान सकते हैं। जबकि हमारे साथ स्वतंत्र हुए अन्य एशियाई देशों जैसे-पाकिस्तान बंगलादेश, बर्मा, अफगानिस्तान आदि में लोकतंत्र अनेक अवसरों पर डाँवाडोल हुआ है तथा सैनिक तानाशाही या अधिनायकवाद का शिकार हुआ है। इन देशों में लोकतन्त्र की पुनः-पुनः स्थापना के लिए बार-बार संघर्ष करना पड़ा है। कहीं-कहीं तो अब भी संघर्ष कली स्थिति है। इस संदर्भ में अपने देश में लोकतन्त्र की स्थिति को एक उपलब्धि मान सकते हैं?

लेकिन आज इसमें भी दरारें शुरू हो गई हैं व कई तरह की विकृतियों से ग्रसित होता जा रहा है। हमने जाति विहीन समाज की कल्पना की थी, लेकिन आज उस बिन्दु पर पहुँच गए हैं, जहाँ पूरा सार्वजनिक जीवन जाति के इर्द-गिर्द घूम रहा है। बड़े-बड़े नेता निर्लज्जता के साथ जातिवाद का सहारा ले रहे हैं। जिस जातिवाद की समस्या पर राजा राममोहनराय से लेकर महात्मा गाँधी तक ने कठोर प्रहार किये थे, उसी को राजनैतिक स्वार्थों ने पुनः संजीवनी देकर ऐसा जिला दिया है कि यह आज भस्मासुर बनकर खड़ी हो गयी है। यही नहीं धर्म निरपेक्षता की आड़ में साम्प्रदायिकता की राजनीति खुलकर खेली जा रही है। दलीय राजनीति अखिल भारतीय राष्ट्रवाद के अधिष्ठान से हटकर क्षेत्रीय दलों में बिखरती जा रही है।

आजादी के बाद एक सबसे बड़ा खतरा उपस्थित हुआ है, संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादाहीनता का। अपनी मर्यादाओं को तोड़कर अपने अधिकार का विस्तार करने की होड़ पिछले कुछ समय से संवैधानिक संस्थाओं में देखने में आयी है। राष्ट्र की तीन प्रमुख संवैधानिक संस्थाएँ कार्य-पालिका विधायिका और न्यायपालिका ही नहीं निर्वाचन आयोग और प्रेस भी अपनी सीमाएँ लाँघकर स्वाधिकार विस्तार करती पायी गयी हैं। हमारे लोकतंत्र के अन्य स्तम्भ राजनैतिक दल व श्रमिक संगठन कभी के अपनी ऊर्जा खो चुके हैं।

लोकतंत्र में भारतीय जनता का बहुतांश उपेक्षित प्रायः स्थिति में रह रहा है। लगता है कि लोकतंत्र तथा प्रशासन मुख्यतः नेताओं और प्रशासकों की खातिर बनाया और चलाया जा रहा है। एक तरफ संसदीय लोकतन्त्र बोलता है तो दूसरी ओर जमीनी हकीकत अपना ही रंग दिखाती है। संसदीय लोकतंत्र और जन-सामान्य के लोकतंत्र में वही दूरी है जो फाइव स्टार कल्चर और झुग्गी-झोंपड़ी की स्थिति में है। बुनियादी नैतिक मूल्यों का कोई अर्थ नहीं रह गया है, जिनकी दुहाई देते हुए लोकतंत्र को एक प्रणाली के रूप में अपनाया गया था। इस तरह लोकतांत्रिक नैतिकता संसदीय लोकतंत्र में एक अछूत का जीवन जी रही है।

संसदीय कार्य के निष्पादन में व्यतीत होने वाले समय में निरन्तर कमी आ रही हैं १० वीं लोकसभा में ६८ प्रतिशत समय व्यतीत हुआ था। इस लोकसभा में ३६०० मामले उठाए गए जिसमें अनेक सवाल ऐसे थे, जो जनहित से सम्बन्धित नहीं थे। आज की सच्चाई कड़वी लगने के बावजूद यही है कि लोकतंत्र. के मुखौटे के पीछे एक भ्रष्ट, निरंकुश और सामन्तवादी व्यवस्था काम कर रही हैं आम आदमी लूट-खसोट नौकरशाही के छल-कपट और राजनैतिक झाँसा-पट्टी में पिस रहा हैं हमारा शासन तन्त्र शक्तिशाली और समृद्ध लोगों के हाथ का खिलौना बना हुआ है।

आध्यात्मिक मूल्यों का तिरस्कार एवं उपेक्षा ही वजह है, जिसके कारण राजनीति आज भ्रष्टाचार, अपराध और धन लोलुपता का पर्याय बन चुकी हैं आम-जनता में राजनीति को लेकर संशय और जुगुप्सा का बोध पनप रहा है। राजनीति के स्वरूप में आया यह बदलाव सामाजिक-साँस्कृतिक मूल्यों के विघटन की भी कहानी प्रस्तुत करता है।

स्वतन्त्रता मिलने से पूर्व राजनैतिक क्षेत्र उन लोगों के लिए हुआ करता था, जिन्हें समाज से गहरा लगाव था। इसके बावजूद उन्हें यह मालूम रहता था कि यह काँटों भरी है और सिवाय कष्ट के कुछ मिलने वाला नहीं है। अनिश्चित दिनचर्या, संदिग्ध भविष्य और तमाम खतरों को अनदेखा करते हुए राष्ट्रीय भावना के लिए समर्पित आजादी के इन दीवानों की सन्तुष्टि केवल यह आसरा रहता था कि वे एक बृहत्तर प्रयोजन से जुड़े हुए हैं। उनकी प्रतिबद्धता और आग्रह देश की संवेदना से ओत-प्रोत थी। आजादी के हवन कुण्ड में अपनी आहुति देने के लिए प्रस्तुत सरफरोशी की तमन्ना वाले लोगों में सभी शामिल थे। उनमें जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा की विविधता होने पर भी एक ही लक्ष्य को पाने कली एक जैसी बेचैनी थी। तिलक, गोखले, गाँधी, सुभाष, राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल, पण्डित नेहरू, चन्द्रशेखर आजाद भगतसिंह जैसे राष्ट्रनायकों ने अपने कर्म में सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह जैसे अनेक मूल्यों को चरितार्थ किया था। उनके आचरण की शुचिता विस्मयकारी और संक्रामक थी। पारस पत्थर की तरह उनके संस्पर्श में आए अनेक व्यक्तियों के मन, विचार और कर्म में भी सहज बदलाव आया।

जबकि आज प्रायः सभी राजनैतिक हस्तियों का कैरियर ग्राफ कुछ ऐसी आड़ी-तिरछी कटी-फटी रेखाओं वाला है, जिसकी कोई सहज व्याख्या नहीं। धवल चरित्र वाले राजनैतिक व्यक्ति शायद ही कहीं ढूँढ़े मिल जाएँ। जो हैं भी वे भी वहाँ घुटन महसूस कर रहे हैं और रोज ही राजनीति छोड़ने के मनसूबे बनाया करते हैं। ताजा इतिहास गवाह है प्रायः सभी नेताओं ने भ्रष्टाचार का रास्ता अपनाया और सत्ता में रहने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए। शर्मोहया छोड़कर इन सभी ने सारे नियमों और कानूनों को तिलाञ्जलि दे रखी हैं पिछला दशक ऐसे ही व्यक्तियों द्वारा अपने लिए शासन का दुरुपयोग करने व स्वयं के लिए अकूत सम्पत्ति खड़ा करने की कोशिशों से भरा पड़ा है।

पहले राजनेता देश को आगे ले जाते थे व जनता उन्हें सिर-माथे बिठाती थीं अब वे भार होते जा रहे हैं। वे देश व सरकार दोनों के लिए भारी पड़ रहे हैं, उनकी रक्षा, देखभाल, सुख-सुविधा और ताम-झाम बेहद खर्चीला होता जा रहा हैं इनकी उपस्थिति से आम आदमी का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। चारों ओर अफरा-तफरी मच जाती है। शील-सदाचार से दूर कई किस्म के मुखौटे ओढ़े इन महानुभावों की गिद्धदृष्टि सब कुछ हजम कर लेने वाली है। इनकी जीवनशैली पुराने राजाओं, सामंतों की विलासिता की याद ताजा कर देती हैं।

इन दशकों में राष्ट्रीय लोकतन्त्र के अस्तित्व के लिए सबसे खतरनाक पहलू उभरा है-राजनीति में बढ़ता माफिया तंत्र का वर्चस्व। सदनों की गिरती गरिमा का सबसे प्रमुख कारण यही राजनैतिक अपराधीकरण ही है। सम्प्रति भारतीय लोकसदन अपराधियों के चरागाह बन रहे हैं। प्रत्येक सदन में अपराधियों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। उत्तरप्रदेश व बिहार इन मामलों में सबसे आगे हैं। उत्तर प्रदेश में ४० जिलों की रिपोर्ट से पता चलता है कि वहाँ ९० उम्मीदवार ऐसे खड़े हुए जिन पर हत्या के मामले चल रहे थे। २८ उम्मीदवार ऐसे थे, जिनकी हिस्ट्री शीट थानों में खुली है। १९९३ में उत्तरप्रदेश की जनता ने ४२५ विधायकों में १८० ऐसे लोगों को चुना था, जिनका आपराधिक इतिहास था। गतवर्ष के लोक-सभा चुनाव में उत्तरप्रदेश में कुल मिलाकर ४३५ आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार खड़े हुए जिनमें २७ लोग चुनकर संसद में पहुँच गए। स्थानीय निकाय एवं पंचायतों में तो अपराध तंत्र पहले से ही अपना वर्चस्व बनाए हुए हुए है।

स्वतंत्रता के पचास साल पूरे होने के बाद भी स्थिति की विषमता बढ़ी-चढ़ी है। आज हम अँग्रेजों के नहीं अपने ही भ्रष्टाचार के गुलाम हैं। भ्रष्टाचार ने न केवल राजनैतिक बल्कि प्रशासनिक जीवन को राहु की तरह ग्रस लिया हैं स्थिति कुछ ऐसी हो गयी है कि अब तो इसे सामान्य आचरण के रूप में लिया जाने लगा है। विभिन्न सरकारों के मंत्री, नौकरशाही से जुड़े वरिष्ठ अधिकारी से आरम्भ होकर कनिष्ठतम सरकारी कर्मचारी तक सभी कहीं न कहीं भ्रष्ट आचरण की लपेट में है।

इसी के चलते भारत आज विश्व के दस भ्रष्टतम देशों में से एक हैं दिन-प्रतिदिन घोटालों व काण्डों का अन्तहीन सिलसिला शुरू हो गया जो समाप्त होने का नाम ही नहीं लेता है। चारा घोटाला, यूरिया घोटाला, आयुर्वेद घोटाला, कोलतार घोटाला, जमीन पेट्रोल पम्प आवंटन घोटाला, आयात-निर्यात घोटाला, दूर-संचार घोटाला, हवाला काण्ड, सांसद खरीद काण्ड, प्रतिभूति घोटाला आदि इसी अन्तहीन शृंखला की कुछ कड़ियाँ हैं।

राष्ट्रीय स्वाधीनता की अर्द्धशताब्दी पूरी होते-होते जन-मानस को दिशा देने वाला हमारा साहित्य आज दिशाहीनता व मूल्यहीनता की स्थिति में है। सस्ता साहित्य मंडल के संस्थापक व गाँधीवादी प्रख्यात साहित्यकार यशपाल जैन का कहना है कि आजादी के पहले एक ध्येय था, उद्देश्य था जो साहित्य को दिशा देता था, पर आजादी के बाद कोई ध्येय नहीं रहा। पुराने लेखक चुक गए, अधिकाँश तो चल बसे। नई पीढ़ी संघर्ष से घबराती है। इन पचास वर्षों में महिलाओं ने जहाँ पुरुष प्रधान, सुरक्षा, पर्वतारोहण आदि क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है, वहीं उन्हें हिंसात्मक अत्याचार एवं शोषण भी कम सहना नहीं पड़ा है।

यही क्यों, विश्व के मानचित्र में केवल भारत ही ऐसा अकेला देश है, जिसने अपने पर सदियों तक हुकूमत करने वाले विदेशियों की भाषा को स्वतंत्रता के पचास सालों बाद भी छाती से चिपकाए रखा है। पिछले सालों में अँग्रेजी भाषा का वर्चस्व पहले से बहुत बढ़ा है। धनी लोग अपने बच्चों को अँग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भेजते हैं। विश्वविद्यालयों की साँस्कृतिक भाषा अँग्रेजी हैं। भारतीय भाषाओं में विशेषकर हिन्दी साहित्य पर पश्चिम की पतनशील संस्कृति का प्रभाव बढ़ रहा है। गत ५-६ सालों में जिस कदर देश में वैश्वीकरण का दौर चल रहा है, उसकी गहराई से पड़ताल करें तो यही पाएँगे कि जिस भारतीय सम्पदा को मुगल सल्तनत या अँग्रेज भी भारतीयों से नहीं छीन पाए वह स्वतः ही भारतीयों के हाथों से विदेशियों के पास चली गयी आज न तो हमारा नीम है और न हमारी हल्दी। कहते हैं इन दोनों का पेटेण्टीकरण हो गया है।

इस तरह पचास वर्षों की यात्रा में हम जहाँ खड़े हैं, वहाँ विकास व प्रगति के मुखौटे के पीछे सर्वतोमुखी पतन एवं निराशा के मुखौटे छाए हुए हैं। इसका प्रमुख कारण यह रहा कि भौतिक विकास के साथ साँस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विकास उपेक्षित रहा। हम पश्चिमी चकाचौंध में आकर उसका अन्धानुकरण करते रहे व अपनी आत्मा को भूल बैठे। पचास साल पहले हमने राजनैतिक स्वतंत्रता की जंग अवश्य जीत ली थी, लेकिन साँस्कृतिक रूप से अभी हम परतन्त्र ही हैं, जो हमारी वर्तमान दुर्दशा का प्रमुख कारण है।

अब समय साँस्कृतिक स्वतंत्रता के इस मोर्चे पर लड़ने का है। युग-निर्माण मिशन की लाल मशाल इसी विजय अभियान की प्रतीक बनी हुई हैं। स्वयं को इससे भावनात्मक एवं वैचारिक रूप से जोड़े बगैर हमारे आर्थिक स्वराज्य, भौतिक विकास, सुसंस्कृत एवं नैतिक समाज के सपने मात्र ही बने रहेंगे, क्योंकि किसी भी राष्ट्र या समाज को महान् बनाने वाली इकाई व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण का रसायन इस भोगवादी संस्कृति के पास नहीं है, जिसका हम अन्धानुकरण कर रहे हैं। राष्ट्रपिता गाँधीजी के शब्दों में, “यह देश इसलिए महान् नहीं है कि यहाँ संसार का सबसे ऊँचा पहाड़ या सबसे पवित्र नदी गंगा हैं बल्कि यह देश इसलिए महान् बना क्योंकि यहाँ हिमालय से भी ऊँचे और गंगा से भी परम पावन मनुष्य पैदा हुए।” राष्ट्र को आज उन्हीं मनुष्यों की खोज है। ऐसे कुछ इनसान हो जाएँ तो देश हर संकट का मुकाबला कर सकता है और हर सपने साकार कर सकता है।

राष्ट्रीय स्वतंत्रता की स्वर्णजयंती पूर्ण होने के पुण्य अवसर पर देश के प्रत्येक प्रबुद्ध एवं भावनाशील नागरिक का इन पंक्तियों के माध्यम से आह्वान किया जाता है कि वे वर्तमान भोगवादी, पतनकारी प्रवाह से छूटकर साँस्कृतिक गौरव गरिमा के पक्षधर उच्च आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों से भरे युगऋषि के संदेश को सुनने व गुनने को, मनन व अवधारण करने को प्रस्तुत हों, ताकि उसकी ऊर्जा से अनुप्राणित होकर हम राष्ट्र के, स्वधर्म के प्रति जागरूक हो सकें और अपसंस्कृति के मोहक, कुटिल रूप, छद्म व्यूह जाल को तहस-नहस कर अपनी आध्यात्मिक, साँस्कृतिक एवं भौतिक प्रगति के पथ पर आगे कदम बढ़ा सकें और अंधेरे में भटकते समूचे विश्व को प्रकाश पथ दिखला सकें व पुनः अपने उसी राष्ट्रीय गौरव पर प्रतिष्ठित हो जाए, जिसकी कल्पना हम सबने आज से पचास वर्ष स्वतन्त्रता मिलने पर की थी।

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