
यह कैसा विरोधाभास?
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सम्पूर्ण जीव-जगत् में कदाचित् ही ऐसा कोई प्राणी हो, जिसका युग्म न हो, अन्यथा भगवान ने हर जन्तु के जोड़े बनाये हैं। जहाँ नर है, वहाँ मादा भी होगी। स्वयं सृष्टि ही इसका उदाहरण है। प्रकृति और पुरुष के संयोग से इसकी उत्पत्ति हुई बतायी जाती है। इनमें से यदि कोई तत्व भी अनुपस्थित होता, तो चित्र-विचित्र अद्भुतताओं से भरा यह सुन्दर संसार आज हमारे समक्ष नहीं होता। मनोहारी ग्रह-नक्षत्र और विलक्षणताओं से परिपूर्ण ब्रह्माण्ड नहीं होता। यह सब कुछ दो विपरीत तत्वों के सम्मिलन का ही सत्परिणाम है। मनुष्य में ही नर-नारी के दो पक्षों में से यदि किसी एक की विद्यमानता न होती, तो क्या उसका जीवन आज जितना सरस-सुखद बन पाता अथवा वह अपनी वंशवृद्धि कायम रख पाता? कदापि नहीं। ऐसे में नारी को घृणास्पद, पापपूर्ण, अछूत कहना न सिर्फ मातृसत्ता को कलंकित करने जैसा होगा, वरन् इसे पुरुष-मानसिकता का दिवालियापन भी कहना पड़ेगा।
ऐसा ही एक स्थान यूनान में ‘माउण्ट एथोस’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह लघु राज्य एजियन सागर से लगभग 50 किलोमीटर दूर एक पहाड़ी पर स्थित है। यहाँ नारियों का रहना और जाना दोनों ही निषिद्ध घोषित किये गये हैं।
उसकी स्थापना आज से करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व हुई बतायी जाती है। उस समय स्थान-स्थान पर वहाँ अनेक चर्च बनायी गई, जिनका कलाकृतियाँ अब भी लोगों को बरबस आकर्षित करती हैं। संन्यासियों के निवास के लिए तब यत्र-तत्र मठों का निर्माण भी हुआ था, जिनमें लगभग एक हजार संन्यासी रहते थे। स्वयं को विरक्त बताने वाले यह संन्यासी उन दिनों यूनान के दूर-दूर के इलाकों से आकर यहाँ बस गये। सबने मिलकर एक आचार-संहिता का निर्माण किया, जिसमें सर्वोपरि तथ्य यह शामिल किया गया कि यहाँ रहने वालों को नारी संपर्क से हर प्रकार से बचना होगा, उनका चिन्तन-मनन भी वर्जित होगा, उनकी तस्वीर और छवि से अपने आप को दूर रखना होगा। यह शर्तें जिन्हें स्वीकार हुईं, वे ही वहाँ रह सके, शेष वापस चले गये। संहिता में इस बात का भी प्रावधान रखा गया कि यदि बात का भी प्रावधान रखा गया कि यदि कभी अकस्मात् किसी नारी-मूर्ति से आमना-सामना हो जाय, तो तत्काल अपने को आड़ में करना पड़ेगा। स्वयं को छिपाने के लिए और नारी-दर्शन से बचने के लिए वहाँ के प्रत्येक व्यक्ति को सिर में अरबों जैसा एक दुपट्टा बाँधना अनिवार्य होता है। अन्तर सिर्फ इतना है कि अरबों का दुपट्टा सिर के पीछे पीठ पर लटकता रहता है, जबकि इनका चेहरे के सामने पर। सामान्य स्थिति में वे इसे अरबों की भाँति पीछे लटकाये रखते हैं। इनकी मान्यता है कि स्त्रियों का दर्शन-स्पर्शन पाप है, इससे मनुष्य का पतन होता है। कैसी विडम्बना है कि जिस मातृत्व की स्नेह-छाया में पल-बढ़कर आदमी बड़ा होता है और जिस देवी के गर्भ से जन्म पाता है, उसी का दर्शन पातक माना जाता है। विकृत चिन्तन की यह घोर पराकाष्ठा है और अकृतज्ञ मनुष्य का अक्षम्य अपराध । होना तो यह चाहिए कि नारियों को और भी अधिक सम्मान, श्रद्धा और सहयोग उनकी ओर से मिले, ताकि उनके परिपालन में जो कष्ट-कठिनाइयों का उनने सामना किया, कम से कम उसके प्रति कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित हो सके, पर मनुष्य की स्वार्थपरता को क्या कहा जाय, जो काम बनते ही तोते की तरह आँखें फेर ले!
कहने को तो लोग यहाँ शान्ति की खोज में आते हैं, पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि शान्ति बाहर की वस्तु नहीं, भीतर का विकास है। जहाँ लोग इसे बाहर तलाश करते हैं, वास्तव में वहाँ वे मृगतृष्णा में भटकते हैं। शान्ति को स्थान और वस्तु से जुड़ा देखना भारी भूल है। इसे आकाँक्षा पूर्ति कहना ज्यादा उचित होगा, क्योंकि दोनों में जमीन-आसमान जितना अन्तर है। एक आध्यात्मिक है दूसरा भौतिक, एक स्थायी है दूसरा क्षणिक । एक को उपलब्ध कर व्यक्ति काफी सुखद अनुभव करता है, जबकि दूसरे की उपलब्धि लिप्सा को और जाग्रत कर देती है। दोनों ही अपने में अनन्तता को सँजोये हुए हैं, पर एक सुखकारक है, दूसरा कष्टकारक । अतः माउण्ट एथोस में जाकर कोई सचमुच ही शान्ति पा लेगा, यह कहना कठिन है।
यहाँ की जनसंख्या लगभग दस हजार है। इनमें नौ हजार के आस-पास संन्यासी हैं और शेष उनके सेवक, जो हर प्रकार से हर समय उनकी सेवा में लगे रहते हैं। जहाँ संन्यासी और सेवक के दो वर्ग होंगे, वहाँ सही अर्थों में न तो संन्यास सध पाता है, न सेवा ही। कारण कि अंतःवृत्तियों के शमन का नाम ही संन्यास है। यह यदि ठीक-ठीक सम्पादित हो गया, तो उसे सेवक की आवश्यकता नहीं पड़ती, वह स्वयं सेवक बन जाता है और सेवाओं से औरों को कृतकृत्य करता है।
यहाँ के निवासियों का जीवन खेती एवं व्यापार पर चलता है। कृषि में यहाँ अन्न, फल, शाक आदि का उत्पादन होता है। अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियों की भी कृषि होती है। मेवे भी उपजाये जाते हैं। विश्व के कितने ही देशों में इनका निर्यात किया जाता है। सबकी अपनी व्यक्तिगत संपत्तियां हैं। इस दृष्टि से बाहरी दुनिया से यह स्थान पृथक् नहीं। यहाँ धनी और निर्धन-दो प्रकार के संन्यासी हैं। सम्पन्नों से किसी भी प्रकार भिन्न नहीं। जो सुविधाएँ किसी धनपति के पास दूसरे देशों में देखी जा सकती हैं, उन सब वस्तुओं की झांकी यहाँ के धनकुबेरों के यहाँ भी की जा सकती। प्रथम दृष्टि में उनके ठाट-बाट और ऐश-आराम को देखकर यह अनुमान लगाना कठिन होता है कि सचमुच ही ये संन्यासी हैं। श्रम और कृषि सम्बन्धी कार्य वहाँ के गरीब लोग करते हैं। जिस अनुपात में उनकी मेहनत होती है, उस परिमाण में उन्हें पारिश्रमिक नहीं मिल पाता, फलतः वे भौतिक दृष्टि से दरिद्र ही बने रहते हैं।
वहाँ धार्मिक जीवन बिताने में कोई दोष है, सो बात नहीं, पर पूरे समुदाय के सामूहिक विकास पर भी समुचित ध्यान दिया जाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो वह धार्मिक राज्य अपना अस्तित्व अधिक दिनों तक बचाये रख सकेगा, इसकी आशा नहीं की जा सकती। यों अभी तक माउण्ट एथोस में गरीब और अमीर श्रेणी के संन्यासियों के बीच किसी प्रकार का मनमुटाव हुआ, ऐसी बात नहीं, पर जिस कदर दोनों वर्गों में आर्थिक असमानता बढ़ रही है, उसे देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि भविष्य में वहाँ किसी प्रकार का आन्दोलन नहीं होगा। यदि ऐसा हुआ, तो शान्ति की खोज में गये लोगों को वहाँ अशांति ही पल्ले पड़ेगी और धर्म लाभ के नाम पर रहने वाले संन्यासियों के हिस्से अधर्म लाभ आयेगा।
दैनिक जीवन का अधिकांश भाग वहाँ धार्मिक कृत्यों में ही बीतता है, फिर भी श्रमिक स्तर के जो सेवक लोग हैं, उन्हें इसका सौभाग्य कम ही मिलता है। उनकी तो जैसे नियति ही सेवा और श्रम है। उन्हीं के कारण वहाँ खेती सम्भव हो पायी है, अन्यथा वहाँ के संन्यासी नाममात्र को श्रम करते हैं। ऐसे संन्यासियों की संख्या आधे से अधिक होगी। जो निर्धन स्तर के हैं। जहाँ श्रम से जी चुराया जायेगा, उनके पास सम्पन्नता भला कैसे आ सकती है? परिश्रम की महत्ता सर्वविदित है। इसी से दुर्बल पहलवान, निर्धन धनवान, मूर्ख विद्वान और साधक विभूतिवान बनते हैं। अतः दैनिक जीवन में इसकी उपयोगिता की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
प्रति सप्ताह यहाँ एक विशेष प्रकार का धार्मिक जुलूस और जलसे का कार्यक्रम आयोजित होना है, जिसमें श्रमिकों एवं सेवकों के अतिरिक्त सभी हिस्सा लेते हैं। कार्यक्रम में वहाँ के आचार-संहिता का सब स्मरण करते और संकल्प दुहराते हैं। आयोजकों का कहना है कि मनोभूमि को मजबूत बनाये रखने के लिए इसका आयोजन अनिवार्य है। अन्त में सभी अपने-अपने हाथों में जलती मशालें लेकर एक पूर्व निश्चित मठ की परिक्रमा करते हैं। इस दौरान तरह-तरह के नारे लगाये जाते हैं, जो सभी स्त्रियों से सम्बन्धित होते हैं और यह प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त होते हैं कि नारी नीच होती है, उससे मानसिक अस्थिरता उपजती और अशांति पैदा होती है। इसीलिए वह चिन्तन, दर्शन, श्रवण सब कुछ के अयोग्य है।
यह कितना हास्यास्पद है कि जहाँ नारी के प्रति इतनी घोर घृणा, वहाँ की उपास्य नारी है। वहाँ मरियम के अतिरिक्त अन्य किसी भी देवता की आराधना नहीं होती। अपने इष्ट के प्रति लोग अद्भुत श्रद्धा रखते और उसी का ध्यान-चिन्तन करते हैं। वहाँ के बाजारों में मरियम के चित्र के अतिरिक्त कोई अन्य नारी तस्वीर नहीं बिकती और न स्त्रियोचित सौंदर्य प्रसाधन नहीं मिलते हैं। वस्त्र के नाम पर दुकानों में सिर्फ भगवा परिधान ही उपलब्ध हैं।
नारी न तो घृणास्पद है, न पापपूर्ण । जो आद्यशक्ति है, उसकी जीवन्त प्रतिमूर्ति भला इतनी हेय कैसे हो सकती है कि उसकी निकटता शान्ति भंग करे? वह तो उलटे शान्ति प्रदान करने वाली त्राता है। ‘गायत्री’ का अर्थ ही है-गाने वाले का त्राण करने वाली । नारी को तो भाव-सम्वेदनाओं का घनीभूत रूप कहना ही उचित होगा, जिसका हृदय करुणा से परिपूर्ण हो, उसकी समीपता कल्याणकारी ही होगी, अहितकर नहीं। उसमें अपना अनहित और अवगति देखने वालों की वास्तव में दृष्टि ही विकृत कहनी पड़ेगी, अन्यथा जिसका अंतःकरण यथार्थ में पवित्र और परिष्कृत हो वह चाहे कहीं भी और किसी भी स्थिति-परिस्थिति में क्यों न रहे, कोई अन्तर पढ़ने वाला नहीं, किन्तु जहाँ अन्तस् में कालिमा ही कालिमा हो, वह काजल की कोठरी में प्रवेश कर उससे बेदाग भला कैसे बच सकता? विकार की खोज बाहर नहीं, अन्दर तलाशनी पड़ेगी , तभी वास्तविक अर्थों में हम निर्विकार बन सकेंगे और यह स्वीकार कर सकेंगे कि नर और नारी यथार्थ में एक सिक्के के दो पहलू हैं। एक को उपेक्षित-तिरस्कृत कर दूसरा गतिवान बना रह सकता है, यह सम्भव नहीं। दोनों परस्पर अविच्छिन्न रूप से जुड़े हैं। वैयक्तिक , पारिवारिक , सामाजिक प्रगति में दोनोँ की अपनी-अपनी प्रकार की भूमिकाएं हैं। माँ का दायित्व पिता नहीं निभा सकता और न पिता की जिम्मेदारी माँ भली प्रकार वहन कर सकती है। परिवार में कठोरता भी आवश्यक है और मृदुलता भी । उद्दण्डता को साधने के लिए कठोरता भी चाहिए और सौम्यता भी । परिस्थिति-भेद से दोनों का अपना-अपना मूल्य और महत्व है। कठोरता का प्रदर्शन तो हर कोई कर सकता है ,पर करुणा और सम्वेदना एक नारी ही दे सकती है। प्रगति के लिए दोनों प्रकार की विभूतियों की समान आवश्यकता है, अतएव नारी उपेक्षणीय नहीं, आदरणीय है, उसका सम्मत किया जाना चाहिए।