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Magazine - Year 1997 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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भावी युग भावनात्मक विकास को योग्यता का मानदण्ड मानेगा

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नया युग नये मानदण्डों को लेकर आ रहा है। योग्यता की प्रचलित कसौटियां प्रश्न चिन्हों के घेरे में आ चुकी है। किसे योग्य मानें ? किसको उपयोगी कहें ? इन सवालों के जवाब में बुद्धिमत्ता आगे आती रही है आई. क्यू. का ज्यादा होना ही योग्यता की पहचान बनी हैं लेकिन अब मनोविज्ञानी कहने लगे कि जिन्दगी की सभी उलझनों सिर्फ आई. क्यू. के भरोसे नहीं सुलझाया जा सकता। इनका मानना है कि बौद्धिक प्रखरता का जीवन की सफलताओं में सिर्फ बीस फीसदी हाथ हैं शेष अस्सी प्रतिशत ऐसा है जिसका समाधान चतुरता, चालाकी, बौद्धिक दाँव-पेंच एवं वैचारिक प्रखरता के बूते का नहीं। इसे सुलझा पाना इमोशनल कोफीशिएण्ट (ई. क्यू.) यानि कि भाव प्रवणता से ही मुमकिन है। व्यक्ति के जीवन में ई. क्यू. की अधिकता ही उसे क्रोध , तनाव उदासी जैसे मनोविकारों से छुटकारा दिलाकर सोच व सफलता की नूतन दिशा प्रदान करती है।

वैज्ञानिकों ने अपने अनुसंधान प्रयासों में पाया है कि जिन्दगी को संचालित करने के दो केन्द्र है। एक तो मस्तिष्क से उपजे विचार तथा दूसरी हृदय से निःसृत भावना। विचार व भावना की संतुलित स्थिति ही ई. क्यू. है। इसके बारे में येल विश्वविद्यालय के मनोविज्ञानी पीटर सैलोव तथा न्यू. हैम्पशायर यूनिवर्सिटी के जान मेयर ने मिल जुलकर गंभीर अध्ययन किया। इनके अनुसार मनोभाव का ठीक-ठीक नियमन ही जीवन की सफलता का आधार हैं व्यवहार मनोविज्ञान पर शोध करने वाले उनियल गोलमैन ने इस विषय पर पहली बार ‘इमोशनल इण्टेलीजेन्स’ नामक पुस्तक लिखी। इसमें उन्होंने आई. क्यू. को प्राचीन परम्परा के रूप में उल्लेख किया हैं उनके अनुसार वर्तमान समाज एक संक्रमण बेला से गुजर रहा है। ऐसे में उसके आंतरिक भावों में जो तब्दीली आ रही है, उसका अध्ययन मात्र बुद्धि द्वारा नहीं भाव प्रणव सोच के आधार पर ही सम्भव है। गोलमैन ई. क्यू. को इसका एकमात्र निदान मानते हैं।

मस्तिष्क के विचार व हृदय की भावना का संतुलन जरूरी हैं इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए जान हापंकिंस यूनिवर्सिटी के प्राध्यापक एवं मनोचिकित्सक डॉ. पाल मैकडग कहते हैं। कि भावना वह शीतल स्रोत है, जो मस्तिष्क को शान्त तथा स्थिर बनाए रखती हैं इस अवस्था में ही सही विचार उत्पन्न हो सकता है। अकेला भाव प्रवण विचार में यह दोष सम्भव नहीं। यह जीवन के किसी नये आयाम को खेलता है।

आज जबकि परिवार संस्था बिखर रही है। सौहार्दता, प्रेम, विश्वास लगभग समाप्तप्रायः है। तनाव, उदासी एवं मानसिक रुग्णता का चारों ओर कुहराम मचा हैं । वैवाहिक जीवन भी घुटन एवं कलह से त्रस्त हैं सिनेमा की वर्तमान अपसंस्कृति से बच्चों तक में हिंसा तथा अपराध की वृत्ति बढ़ रही है। जीवन का लक्ष्य किसी तरह की कोई जुगत भिड़ाकर धनोपार्जन तक संकीर्ण हो गया हैं इन परिस्थितियों में आई. क्यू. नहीं ई. कयू. ही समाधान का सूत्र हैं हावर्ड विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिकों के अनुसार किसी में भय ज्यादा होता है, तो अनुसार किसी में भय ज्यादा होता है, तो कोई क्रोध से परेशान होता रहता है। इन मनोविकारों के रहते, सब कुछ सुविधा साधन होने के बावजूद जिन्दगी का आनन्द नहीं उठाया जा सकता।

ई. क्यू.,आई. क्यू. के विरुद्ध नहीं है बल्कि इसे समग्र व सम्पूर्ण बनाता है जिन्दगी में आई. क्यू. का योगदान तो सिर्फ बीस प्रतिशत है। बाकी 80 प्रतिशत जीवन के क्रियाकलाप , भावनाएँ ई. क्यू. से ही सँभाले जाते हैं। मनुष्य के असामान्य व्यवहार को जानने के लिए न्यूरोसाँइटिस्ट व नृतत्ववेत्ता कॉफी अर्से से खोजबीन करते रहे हैं। मनोवैज्ञानिकों की कोशिश यह जानने की रही है कि किन्हीं विषम परिस्थितियों में जैसे भय के कारण काँपना , हृदय की धड़कनों का बढ़ जाना आदि क्यों होता ?

इन स्थितियों का वैज्ञानिक प्रतिपादन जोजेफ ली एण्ड इमोशन में किया है। इसी सफल प्रयास से मनोवैज्ञानिक मोशनल ब्रेन की कल्पना कर सके। भावनाओं की लहरें मस्तिष्क के लिम्बिक तन्त्र से उठती है। इसका मुख्य स्थान है-अमाइग्ल (Amygdale) । यहीं से भय,क्रोध, घृणा व प्रेम भाव जगता है। यह यादों का स्टोर हाउस भी कहा जाता है। इसी के कारण आँखों में आँसू छलकते हैं। मस्तिष्क का दूसरा मुख्य भाग है हिप्पोकैम्पस। इसको कार्टेक्स तथा अमाइग्ल को नियोकार्टेकस भी कहते हैं। सरीसृप वर्ग में नियोकार्टेंक्स नहीं पाया जाता। यही कारण है कि साँप अपने बच्चों तक को खा जाने में हिचकते नहीं है, लेकिन इनसान में भावों का यह संस्थान होने से ऐसी अप्रिय घटनाएँ नहीं घटती।

झाड़ी को भूत एवं रस्सी को साँप समझने की मानसिक विमूढ़ता के समय भी व्यक्ति सही निर्णय नहीं ले पाता और कुछ क्षणों तक असामान्य व्यवहार करता रहता है। इन परिस्थितियों में उत्पन्न भय से मस्तिष्क में कैसी स्थिति होती है- ‘गैलेन्सी प्रोफेसी’ में जीरोम कैजन ने विस्तार से वण्रन किया है। अमाइग्डल भय का भी केन्द्र है, इसके नष्ट हो जाने से रोगी को भय व्याप्त नहीं होता। कोई व्यक्ति अपने कमरे में बैठा हुआ है, अचानक कुछ आवाज सुनाई देती है। इस आवाज को अमाइग्डल का न्यूरल सर्किट सिस्टम मस्तिष्क की भाषा में रूपांतरण करते हुए कारण का पता लगाता है। यह सर्किट कान से ब्रेन स्टेम होते हुए थैलमस तक पहुँचता है। यहाँ से यह प्रक्षेपण दो भागों में बँट जाता है। इसका छोटा-सा भाग नियोकार्टेकस तथा हिपोकैम्पस के पास तथा दूसरा टेम्पोरल लोब के आडिटरी कार्टेक्स में पहुँचता है। जहाँ इस ध्वनि को परखा जाता है।

हिप्पोकैम्पस स्मृतियों के संग्रह का निकटतम स्थान होने के कारण अपनी पहली यादों पर कल्पना करता है। कि वह आवाज क्या हो सकती है। इस बीच आडिटरी कार्टेस इससे भी तीव्र कल्पना चित्र खींचता है यदि संदेह का निवारण नहीं होता तो अमाइगडल, हिप्पोकैम्पस तथा प्रीफ्रटल कार्टेक्स पुनः कल्पना करने में जुट जाते हैं। इस पर भी समाधान न मिलने की स्थिति में अंततः अमाइग्डल मस्तिष्क के प्रत्येक मुख्य केन्द्र को सूचना के बतौर चेतावनी देता है। इस तरह हाइपोथैलमस, कार्टिकों रापिक हार्मोन (CRH) का स्राव करता है, जिससे पलायन या संघर्ष की क्रिया संचालित होती है। अमाइग्डल ब्रेनस्टेम के लोकस सेसल्यस से नारएपिनेफ्रीन या पारएड्रेनेलिन का उत्सर्जन का पूरे मस्तिष्क में फैला देता है। यह हार्मोन आकस्मिक घटना के संवेग को ग्रहण कर उसका प्रतिकार करता है इसी के फलस्वरूप चेहरे में परिवर्तन तथा हड़बड़ाहट देखी जाती हैं एक अन्य हार्मोन डोपामिन भी भय से सम्बन्ध रखता है।

अचेतन धारणाएं भी भावपूर्ण स्मृतियाँ ही है। इसका केन्द्र भी अमाइग्डल ही है। इस बारे में लैरीकैहील ने प्रसिद्ध अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के 20 अक्टूबर , 1994 के अंक में ‘बीटा------------------------------------------

सोचता व निर्णय करता है। हालाँकि नियोकार्टेक्स की सजगता भी सोच में परिवर्तन ले आती है। इस अवस्था को ‘मेटामूड’ कहते हैं। लेकिन इसमें घटनाओं का सही आकलन नहीं हो पाता एवं कभी कभी भ्रम भी पैदा हो जाता है। जैसे आज्ञा का उल्लंघन करके कोई बालक जब सड़क पर दौड़ जाता है, तो पहले उस पर क्रोध आता है परन्तु तत्काल ही भावी आशंका से क्रोध भय में बदल जाता है। डोमासियों इसे ‘सोमेटिक मार्क्स’ के नाम से उल्लेख करते हैं। उनके मतानुसार टी. वी. या सिनेमा देखते समय किसी भयावह दृश्य को देखकर भय से काँपने तथा चेहरे पर पसीना आना इसी का लक्षण है। वास्तविकता का बोध होते ही स्थिति सामान्य हो जाती है, य ही सेल्फ अवेयरनेरा हैं गोलमैन ने ऐसी घटनाओं को आत्म जागरुकता का अभ्यास बताया है।

कुछ आवेगों का नियमन आसान है, पर कुछ का कठिन। उदाहरण के लिए क्रोध का नियन्त्रण बड़ा कठिन है। इसलिए अरस्तू ने ठीक ही कहा है, क्रोध करना सरल है, लेकिन सही समय पर तरीके से उचित व्यक्ति के प्रति क्रोध करना आसान नहीं है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जब कोई व्यक्ति खुद को सही मानता है और उसके प्रति अवज्ञा का भाव प्रदर्शित किया जाता है तो वह क्रोधित हो जाता है। इस समय उसके शरीर से अतिरिक्त ऊर्जा प्रवाहित होने लगती हैं कैटोकोलामाइन्स नामक न्यूरो-ट्राँसमीटर इस ऊर्जा की तेजी और बढ़ा देता है तनावहीन व्यक्तियों में ऊर्जा का यह क्षरण नहीं के बराबर होता है गोलमेन संयमित क्रोध यानि कि मन्यु को शरीर के लिए उपयोगी मानते हैं। ऐसी अवस्था में शरीर एड्रेनेलिन नामक रसायन के स्राव तथा शिथिलीकरण का अभ्यास करता है इसी तरह चिंता व उत्सुकता भी जरूरी है। ताकि समस्या पर सोच-विचार किया जा सके। परन्तु चिन्ता इतनी भी न हो कि सोच ही कुन्द पड़ जाए।

अच्छे और बुरे के बीच सन्तुलन बनाए रखना आवश्यक है। भावनाओं के साथ लम्बे समय तक विचारों पर कैसे नियन्त्रण रखा जाय, इसका वर्णन मनोविज्ञानी डायनी टाइस ने किया हैं उनका कहना है कि तनाव या गुस्से में निर्णय नहीं लेना चाहिए। शान्ति से घटना का पुनर्विश्लेषण करना चाहिए। भावात्मक प्रतिभा ही इसका एकमात्र निदान है। इसमें अभिवृद्धि के लिए टाइस प्रार्थना एवं प्राणायाम का सुझाव देते हैं।

सफलता के लिए विधेयात्मक चिंतन, साहस तथा आत्मविश्वास पूर्ण भावनाओं की अनिवार्यता है। पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय के मनोचिकित्सक माकिन सेलीशमेन ने एक बीमा कम्पनी में ऐसे हजारों उन आदमियों की भर्ती किया जो भावनाओं से उदार एवं समर्पित थे, लेकिन उनकी बौद्धिक दक्षता उतनी नहीं थी। यहाँ तक कि उनमें से कई तो परीक्षा में उत्तीर्ण भी नहीं हो सके थे। परंतु अपनी लगन एवं आत्मविश्वासपूर्ण भावनाओं के कारण उन्होंने कम्पनी को पहले वर्ष में 21 प्रतिशत एवं दूसरे वर्ष 5 प्रतिशत लाभाँश दिया।

सामान्यतया सहानुभूति, शिष्टता, शालीनता आदि व्यवहार तो मनुष्य देखकर सीख जाता है मनोवैज्ञानिकों के अनुसार 90 प्रतिशत भावनात्मक सम्प्रेषण अनुभव द्वारा होता है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के मनोचिकित्सक राबर्ट रोसेन्शल ने प्रोफाइल ऑफ नानवर्बल सेन्सटीविटी’ यानि क्कह्रहृस् टेस्ट ईजाद किया हैं इसके माध्यम से मनोभावों का परीक्षण किया जाता है। इसमें भावों को अभिव्यक्त करने का प्रशिक्षण दिया जाता है। देस्ट में उत्तीर्ण व्यक्ति अपने कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदार तथा शान्त मनः स्थिति के पाए गए। इसमें पास होने वाले छात्रों की कार्यकुशलता अधिक आई. क्यू. वाले छात्रों से बहुत अच्छी थी।

सहानुभूति भी अन्य भावनाओं की तरह एक सहजात गुण हैं। इसे छोटे बच्चों से लेकर बड़ों तक में आसानी से देखा जा सकता है। जीवन की गतिविधियों के लिए इसकी उपादेयता जारी हैं एरिक्सन इन्स्टीट्यूट शिकागो के वर्ट कोहलर तथातथा फ्रानस्टाट ने इस पर कई प्रयोग किए। उनके निष्कर्ष के अनुसार जिन परिवारों में प्रेमपूर्ण सद्भावना एवं सहानुभूति नहीं होती उनके बच्चे हाइपोविजिलेण्ट हो जाते हैं। माता-पिता का तनाव तथा उग्र स्वभाव बच्चों की क्षमताओं को प्रभावित करता है ऐसे में सहानुभूति बफर का काम करती है। इसके प्रभाव से मनोविकार पनपने नहीं पाते हैं कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिक राबर्ट होमर ने कुछ ऐसे मनोरोगियों पर इलेक्ट्रिक शॉक का प्रयोग किया लेकिन वह बेअसर रहा। यही वजह है कि ऐसे निर्दय मनोरोगी ही बेखौफ हिंसा व हत्या जैसे जघन्य कृत्य करने में हिचकते नहीं हैं लेकिन जब इन्हीं व्यक्तियों को प्रेम एवं सहानुभूति का स्पर्श मिला, तो उनकी उग्रता में पर्याप्त गिरावट आई।

जीवन का हर क्षेत्र चाहे व्यापार हो या विज्ञान अथवा पारिवारिक एवं सामाजिक परिक्षेत्र हो, भावनात्मक प्रति कारगर सिद्ध हो रही है। जीवन के विकास में ई. क्यू. का अमूल्य योगदान साबित हो रहा हैं गोलमैन ने न्यूजर्सी की विश्वविख्यात कम्पनी बेललैव के इंजीनियरों का हवाला देते हुए कहा है। कि अपने व्यावसायिक काम-काज में इनका दिमाग इलेक्ट्रानिक मेल के समान चलता है, परंतु अपने पारिवारिक-सामाजिक जीवन में ये सभी प्रायः असफल सिद्ध हुए हैं इसी तरह डेविड कैम्पबेल तथा इंग्लैण्ड के तमाम उच्चाधिकारियों का सर्वेक्षण किया। एक ओर जहाँ ये बेहद बुद्धिमान है, वहीं दूसरी ओर चारित्रिक दोष, कार्य में अक्षमता एवं अति महत्वाकाँक्षी पाए गये।

इस अक्षमता एवं असफलता का कारण उनमें भावनात्मक प्रतिभा का अभाव है। उसके बिना पारस्परिक सामंजस्य कार्य के प्रति समर्पण बन ही नहीं पड़ता। जो भावों के महत्व से अपरिचित है, वे टीम वर्क को अपनी बौद्धिक दाँव-पेंच की नीति से क्षति पहुँचाते रहते हैं। गोलमैन तो ड्रग्ससेक्स हिंसा को रोकने के लिए ई. कयू. में अभिवृद्धि को महत्वपूर्ण उपचार मानते हैं अमाइग्उल तथा नियोकार्टेकस का सम्बन्ध ही विचारों व भावनाओं में तारतम्य बनाता है । इसी से विवेकपूर्ण निर्णय बन पड़ता है प्रीर्फण्टल कार्टेक्स नामक पुस्तक में लीन डी सोलेमन ने ‘वर्किंगमेमेरी’ पर विस्तार से प्रकाश डाला है यह मस्तिष्क की सम्पूर्ण मानसिक दक्षता का क्रियात्मक स्वरूप है और प्रीफेण्टल कार्टेक्स से नियन्त्रित होता है। लिम्बिक ब्रेन का संबंध जब इस क्षेत्र से कमजोर पड़ जाता है भावनाओं में कमी आ जाती है, हाँ आई. क्यू. जरूर तेज बना रहता है। ऐसी अवस्था में अच्छे छात्र भी ड्रग्स, अपराध जैसे कुकृत्यों में डूब जाते हैं ओर जब प्रीफ्रण्टल कार्टेक्स का सम्बन्ध कमजोर हो जाता है, तो भावना तो रहती है पर विचार-शक्ति क्षीण हो जाती है, ऐसे भावुक व्यक्ति वैचारिक जगत में उतना प्रखर नहीं हो पाते।

भावनात्मक प्रतिभा की महत्ता, वैज्ञानिकता समुदाय ने अपने निरन्तर किए ‘जीन अनुसंधान-अन्वेषण’ से समझ ली है। यही कारण है कि अमेरिका के विद्यालयों में ऐसे पाठ्यक्रमों को शुरू किया हो, जो छात्रों में बौद्धिक क्षमता के साथ भावनात्मक क्षमता को बढ़ा सकें। न्यूयार्क सिटी के पब्लिक स्कूल के प्रिंसिपल राबर्ट क्रिशबम का कहना हैं कि उन्होंने अपने स्कूल में पाँच साल पहले से ही इसको शुरू कर दिया है। इसके माध्यम से बच्चों को क्रोध, तनाव, उदासी तथा एकाकीपन जैसों मनोरोगों से छुटकारा पाने की उचित शिक्षा एवं मार्गदर्शन दिया जाता है। र्किशबम के अनुसार इस तरह के शिक्षण से बच्चों की आपराधिक वृत्तियों में आश्चर्यजनक रूप से कमी आयी हैं अमेरिका के ही नेशनल एसोसिएशन ऑफ इंडिपेन्डेण्ट स्कूल्स के प्रजीउण्ड मि. पोलर रेलीक्स अपना मन्तव्य प्रकट करते हुए कहते हैं। कि हमें आई. क्यू. के परीक्षण के बजाय ई. क्यू. टेस्ट को व्यक्तियों की पूर्ण सफलता के लिए जिम्मेदार मानने से इनकार किया है। उनके मत से यह सीमित एवं संकीर्ण प्रणाली हैं ।

दुनिया के हर कोने , विश्व की हर जाति एवं संसार के हर देश के विचारशीलों का मत है कि वर्तमान जीवन उन तनावों से मुक्ति पाने के आकुल है।, जो उसकी अपनी बौद्धिक क्षमताओं के कारण पनपा हैं इस तनाव को भावनात्मक प्रति के माध्यम से ही समाप्त किया जा सकता है मनुष्य से ही समाप्त किया जा सकता है मनुष्य में भावनात्मक जागरण ही उसे शान्ति, संतोष, प्रेम एवं सहानुभूति पूर्ण वातावरण दे सकता है हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के प्रोफेसर डा’ एल्विन पीसेट जिन्दगी के उलझे हुए इन धागों का एकमात्र उपाय ई. क्यू. ही मानते हैं। इनके अनुसार अति बौद्धिकता की ज्वालाओं से झुलसे मानव के लिए भाव प्रवणता शीतल जल के समान हैं इससे मानव में संवेदनशीलता का विकास होगा। यह विकास ही उसे परिवार के छोटे दायरे विश्वव्यापी समस्याओं को सुलझाने में सहायक होगा।

भावनात्मक प्रतिभा के विकास के लिए कोलम्बिया विश्वविद्यालय के वाल्टर माइकल प्रार्थना को कारगर उपाय मानते हैं। उनके अनुसार जब हम अपने अस्तित्व की गहराइयों में एकाग्र होकर उस परम दयालु परमात्मा से प्रार्थना करते हैं, तो हमारा सम्बन्ध विश्वव्यापी भावनाओं से हो जाता है। भावनाओं की पवित्र लहरें हमारे व्यक्तित्व में प्रवेश करने लगती है और हमारा अपना व्यक्तित्व किसी दिव्य व्यक्तित्व में रूपांतरित होने लगता है। इस रूपांतरण से हम न सिर्फ योग्य बनते हैं। बल्कि समाज एवं विश्व के लिए उपयोगी एवं उपादेय भी । मनोवैज्ञानिक वाल्टर माइकल के अनुसार सही योग्यता भावी युग में प्रति का अभिनव मानदण्ड होगा।

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