
शौर्य का रहस्य
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आज पंजाब के महाराजा ने विशेष बैठक बुलायी थी इसमें उन्होंने अपने सभी सामन्तों, सरदारों एवं सेनापतियों को आमंत्रित किया था। मन्त्रणा का विषय गम्भीर समस्या थी जिस उनके पड़ोसी काबुल देश के शासकों और निवासियों ने जन्म दिया था। आततायी कबायली अकस्मात पंजाब के सीमावर्ती क्षेत्रों में चोरी-छुपे घुस आते और खूब लूट-पाट मचाते। सरहद के नजदीक वाले गाँवों के लोग इतने आतंकित हो उठे कि वे अपने गाँवों छोड़कर भागने लगे।
लगातार हो रही इन वारदातों से पंजाब के महाराजा का चिन्तित होना स्वाभाविक था। उन्होंने अपने सभी सरदारों को इसी चिन्ता से अवगत कराने के लिए बुलाया था। वस्तुस्थिति जानकर सभी जोश में आ गए।
परन्तु समाधान क्या हो? महाराजा से अपने प्रधान सेनापति हरिसिंह नलवा की ओर इशारा किया। वह अभी तक चुपचाप बैठे सभी की बातें सुन रहे थे। युवा अवस्था का यह व्यक्ति देखने में जितनी कमनीय व मोहक था उतनी ही विचारशील। साथ में शौर्य का पुँज भी। उसकी बहादुरी के किस्से पंजाब के हर गाँव में कहे, सुने जाते थे। महाराज का संकेत पाकर उन्होंने कहना शुरू किया- “हम हिन्द के निवासी शान्तिप्रिय अवश्य हैं पर कायर नहीं। इस बात को हमें काबुल के निवासियों को उन्हीं के देश में जाकर बताना होगा।” हरिसिंह की इस बात का उपस्थिति सभी सरदारों ने एकमत से समर्थन किया। निर्णय यह हुआ कि उनके नेतृत्व में सेना काबुल की और प्रस्थान करे।
हरिसिंह नलवा का व्यक्तित्व अनोखा था। वे जितने बहादुर थे, उतने ही उदार भी। दीन-दुःखियों की सहायता करना और स्त्रियों को सम्मान देना उनकी विशेषता थी। उनके आक्रमण से सर्वत्र चीख-पुकार मच गयी। काबुलवासी भाग-भागकर जंगलों की शरण लेने लगे। काबुल का सरदार एकदम हतप्रभ हो उठा कि कैसे इस शौर्य के तूफान का मुकाबला किया जाय। उसने अपने सेनापति एवं वीर सामंतों को बुलाया। इस मन्त्रणा में सरदार की युवा पुत्री शहजादी मेहर भी शामिल हुई।
मेहर बेहद खूबसूरत थी। वह वीराँगना भी थी। जब सफेद कपड़े पहनकर वह घुड़सवारी करती तो देखने वालों को लगता जैसे परी जन्नत से जमीन पर उतरी हो। इस वक्त भी वह सभी में सफेद कपड़े पहनकर ही अपने पिता के पास बैठी थी। उस युवती की कजरारी आँखें पिता के उस सैनिक समूह पर लगी थी, जिसके बलबूते पर सरदार ने पंजाब जैसे वीर भूमि के नागरिकों को छेड़ा था।
अर्द्धरात्रि में नलवा के खेमें की ओर कबायली सैनिक बढ़ने लगे। किन्तु नलवा और उसकी सेना सतर्क थी । उन्होंने चारों ओर से कबायलियों को घेर लिया और युद्ध करने लगे। कितनी ही काबुल के सैनिक मौत के घाट उतर गए। हरिसिंह की तलवार तो जैसे बिजली जैसी चमकती थी। काबुल की सेना पर कहर ढाते हुए वह काबुल के सरदार के महल में घुस गया। मेहर ने सुना तो वह अपना घोड़ा दौड़ते हुए वहीं पहुँची पर तब तक हरिसिंह और उसके पिता के बीच युद्ध जम चुका था। काबुल का सरदार टिक न सका। वह हरिसिंह के हाथों मारा गया। हरिसिंह ने सरदार के सिर को धड़ से अलग कर दिया। रक्त का फव्वारा फूट पड़ा। मेहर चीख पड़ी और भागने लगी। उसे पकड़ने के लिए नलवा ने कोई चेष्टा नहीं की।
भागते-भागते घने जंगलों में आ गयीं मेहर का मन अपने पिता की मौत से बेहद आहत था। वह हर हालत में हिन्द से उस बहादुर सेनापति से बदला लेने के लिए कृतसंकल्प थी। वह सोचती रहती कि यदि आमने-सामने प्रतिशोध पूरा न कर सकी तो रूप-जाल में फँसाकर उसे खत्म करूंगी। आखिर वह युवा है, बहादुर होने के साथ मोहक भी है। उसका प्रचण्ड पौरुष मेरे मादक यौवन को देखकर पिघल जाएगा।
एक दिन मेहर को हरिसिंह के खेमे को सुराग मिल गया। वह रात के अँधेरे में अकेली ही तलवार खोंसकर निकल पड़ी। रात्रि का दूसरा पहर हो रहा था। पर नलवा के सैनिक पूरी मुस्तैदी से तैनात थे। मेहर को उन्होंने रोक दिया “तुम इधर क्यों आयी हो?”
“तुम्हारे सेनापति से मिलना है।” वह बोली।
प्रहरी चौंका इतनी रात को? “तुम सुबह आओ। वैसे भी हमारे सरदार किसी लड़की-वड़की से परहेज करते हैं। तुम चली जाओ।”
“असम्भव ! मैं हरिसिंह से मिले बिना नहीं जाऊँगी । तुम उनसे जाकर कहो कि काबुल के सरदार की बेटी मेहर आयी है।”
हरिसिंह ने सुना तो सादर बुला लिया। मेहर का वस्त्र-विन्यास, चेहरे के हावभाव उसके सौंदर्य को अधिकाधिक मादक बना रहे थे। रात्रि के क्षणों और नितान्त एकांतिकता ने किसी भी पुरुष का उन्मत्त कर देने वाली इस मादकता को और अधिक सहायता प्रदान करने की ठान ली थी। लेकिन हरिसिंह किसी और ही धातु के बने थे। उन्होंने उसकी ओर एक नजर डालकर मुसकराते हुए कहा-”बैठो बहिन।”
हरिसिंह की निश्छल मुसकान और बहिन के सम्बोधन से मेहर के मन की सारी विकृति धुल गयी। वह हतप्रभ होते हुए बोली, “ तुमने मुझे बहिन कहा।”
“हाँ, तुम उम्र में मुझ से कुछ छोटी होगी। इसीलिए मेरी छोटी बहिन ही हो। हमें तुम्हारे पिता के मारे जाने का बेहद अफसोस है। पर हमारी मजबूरी समझने की कोशिश करो। क्या तुम अपने यहाँ के लोगों के आतंक से परिचित नहीं हो । हमारी लगातार की चेतावनी से भी जब वे बाज नहीं आए, तब हमें सैनिक अभियान के लिए विवश होना पड़ा।”
मेहर सत्य से अवगत थी। लेकिन अभी तक उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था, कोई व्यक्ति इतना संवेदनशील और उज्ज्वल चरित्र वाला भी हो सकता है। क्योंकि उसके देश में यह असम्भव-सा था। उसने नतमस्तक होते हुए कहा- “भाई जान ! हमने आपकी बहादुरी के बहुत किस्से सुने थे। पर आज जान लिया कि उसका वास्तविक रहस्य क्या है।”
हरिसिंह मुसकराते हुए कहने लगे-”मेरे ही नहीं, किसी के भी शौर्य का रहस्य उसके उज्ज्वल चरित्र में निहित होता है।” अब मेहर सन्तुष्ट थी। वह धीमे कदमों से शिविर द्वार की ओर चल दी।