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Magazine - Year 1997 - Version 2

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क्यों आत्महत्या को उतारू है आज की दुनिया?

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जिस जिन्दगी से हम इतना प्यार करते हैं, यह अचानक हमें बोझ क्यों लगने लगती हैं? इस सवाल ने इन दिनों सबको उलझन में डाल रखा है। मनोवैज्ञानिक, सामाजिक चेतना के नियामक सभी जानते हैं कि जिन्दगी का सामान्य परिचय देह से होता है। साधारण तौर पर देह में एक छोटा-सा काँटा लगने पर हम सिसक उठते हैं। देह के रख-रखाव, बनाव-शृंगार के लिए रोज न जाने कितने सरंजाम जुटाए जाते हैं। जिस देह से इतना लगाव, उससे यकायक विरक्ति फिर क्यों कि उसे रस्सी से लटका दिया जाए, विष देकर प्राणहीन कर दिया जाए।

रोज के अखबारों में ऐसी न जाने कितनी ही खबरें छपती हैं। जिन्हें पढ़कर पूरे अस्तित्व में एक सिहरन-सी दौड़ जाती है। यदा-कदा तो ऐसा भी सुनने में मिलता है कि अमुक नामी-गिरामी अभिनेत्री ने आत्महत्या की। जिसके पास दौलत शोहरत, रूप-यौवन सभी कुछ था। नहीं था तो सिर्फ जीवन जीने की कला, जिन्दगी के प्रति सकारात्मक नजरिया। सिर्फ एक वर्ग या किसी खास पेशे के लोग जिंदगी से छुटकारा पाना चाहते हों, बात ऐसी नहीं है। समस्या जीवन व्यापी है। छात्र-छात्राएँ, किशोर-युवक, व्यापारी-अभिनेता इसमें सभी शामिल हैं। कोई भी, कभी भी जीवन से उकता जाता है। हैरत तो तब होती है जब तत्वज्ञान का उपदेश देने वाले परिस्थितियों से पलायन करने की सोचते हैं।

अलेक्जेन्डर, वुलकट, लाँगफेलो, वोल्टासर एवं कोकटी ने समन्वित रूप से इस विषय में गम्भीर शोध-अनुसंधान किए हैं। उन्होंने अपने शोध ग्रंथ में आत्महत्या के तकरीबन पचास कारणों पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार इस मनोवृत्ति का मुख्य कारण है-प्राकृतिक जीवनशैली से मुँह मोड़कर कृत्रिम-शैली का अंधानुकरण करना। यह कृत्रिमता का आवरण जैसे ही टूटता है, व्यक्ति निराशा से हतोत्साहित होकर स्वयं को समाप्त करने की ओर कदम बढ़ाता है। कार्ल मैनिंजर अपने अध्ययन ‘मैन अगेंस्ट हिम सेल्फ’ में निराशा से उपजी तीन मनोवृत्तियों का विश्लेषण करते हैं। पहली मनोवृत्तियों का विश्लेषण करते हैं। पहली है-मारने की इच्छा (ञ्जद्धद्ग ख्द्बह्यद्ध ह्लश द्मद्बद्यद्य), दूसरी है मर जाने की इच्छा (ञ्जद्धद्ग ख्द्बह्यद्ध ह्लश ड्ढद्ग द्मद्बद्यद्यद्गस्र), तीसरी है मरने की इच्छा (ह्लद्धद्ग ख्द्बह्यद्ध ह्लश ड्ढद्ग ष्ठद्बद्ग)।

मारने की इच्छा उन व्यक्तियों में होती है, जो स्वभाव से उग्र-आक्रामक एवं बहिर्मुखी होते हैं। ये अपने आवेश में पहले दूसरों को मारने का यत्न करते हैं, फिर असफल हो जाने पर निराशा में स्वयं को समाप्त करते हैं। दूसरे तरीके के व्यक्ति वे हैं जो कुण्ठा और अवसाद में मरना तो चाहते हैं, लेकिन उन्हें मरने से डर भी लगता है। वे चाहते हैं कि उन्हें कोई आसानी से मारकर इस संसार से छुटकारा दिला दें। तीसरे प्रकार के व्यक्ति में घुटन के परिणाम पहले तो मरने की चाहत के रूप में उभरते हैं, फिर वे किसी तरह स्वयं को समाप्त करने की युक्ति बिठाते हैं।

‘साइकोलॉजी फ्राँम द स्टैण्ड प्लाइण्ट ऑफ ए बिहैवियरिस्ट’ नामक शोध ग्रन्थ में जे. बी. वाटसन इस तरह की वृत्तियों के पीछे व्यवहार में उपजे व्यतिक्रम को जिम्मेदार ठहराते हैं। उनके अनुसार समाज में जैसे-जैसे व्यवहार की कृत्रिमता बढ़ी है, इस तरह की प्रवृत्तियों में बढ़ोत्तरी हुई है। के. ए. लेवीन अपने ग्रन्थ ‘डायनिमिक थ्योरी ऑफ पर्सनालिटी’ में भी इसी तथ्य स्वीकार किया है। वाटसन के अनुसार युवाओं के अन्दर बढ़ती कुण्ठा उन्हें जीवन से पलायन की ओर प्रेरित करती है। ‘द अननोन मर्डरर’ में थिरोडोर रीक्स इसके लिए अचेतन की हलचलों को जिम्मेदार मानते हैं। उनके अनुसार मुख्यतया समाज के सुसभ्य कहे जाने वाले वर्ग में घृणा, वैमनस्यता अचेतन में दबी पड़ी रहती है और अपना अनुकूल समय मिलने पर विध्वंसक हो उठती है।

अहंकार को आहत करने वाली परिस्थितियों में व्यक्ति की अन्तर्निहित ऊर्जा विध्वंसात्मक हो जाती है। उसकी सुकोमल एवं संवेदनशील भावनाएँ सूख जाती है। फ्रायड इसे बाहरी परिस्थितियों के दबाव की परिणति मानते हैं। कोई ऐसा व्यक्ति अथवा वस्तु जिसका जीवन से गहरा सम्बन्ध है, के खो जाने से अचेतन मन अनियन्त्रित हो जाता है। इससे उपजी हताशा में व्यक्ति यदा-कदा स्वयं को मार लेता है। शिकागो से प्रकाशित ‘हेराज्ड एण्ड एक्जामिनर’ के अनुसार शेयर मार्केट में शेयर के भावों में यकायक मन्दी आ जाने से कई शेयर धारकों ने आत्महत्या कर ली। एक अन्य समाचार पत्र शिकागो ट्र्ब्यून के अनुसार इस दौरान कई ग्राहकों ने पहले शेयर दलालों को गोली मारी और अन्त में स्वयं को गोली मार ली।

क्रिकेट एवं फुटबाल से गहरा लगाव रखने वालों के बीच भी ऐसी वारदात होने के समाचार प्रकाशित होते रहते हैं। अपने प्रिय खिलाड़ी अथवा प्रिय टीम के हार जाने पर ऐसे लोग खुदकुशी कर लेते हैं। अपने अनियन्त्रित आवेगों के फलस्वरूप परस्पर प्रेम करने वाले प्रेमी-युगल भी निराशाजन्य स्थितियों में जीवन-लीला समाप्त कर बैठते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक अपने देश में प्रेम सम्बन्धी समस्याओं के कारण प्रतिवर्ष 5177 लोग आत्महत्या कर लेते हैं। ब्रेगरी जीलवर्ग ने ‘ कन्सीडरेशन आँन स्युसाइड विथ पार्टीक्युलर रिफरेन्स टू दैट ऑफ ए यंग’ में अपरिपक्व मनः स्थिति को इसके लिए दोषी माना है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति गहरी उदासीनता तथा कुण्ठाओं से घिर जाता है और अपने को समाप्त कर देने पर उतारू हो जाता है। ‘द आरिजिन एण्ड डेवलपमेंट ऑफ द मोरेल आइडिया’ में एडवर्ड मार्क इसके लिए कई कारण गिनाते हैं, जैसे असफल प्रेम या ईर्ष्या, लम्बी बीमारी अथवा बुढ़ापा, दण्ड का भय, उत्पीड़न, पश्चाताप, शर्म, आहत अभिमान, क्रोध व प्रतिहिंसा आदि।

कई जातियों में आत्महत्या एक अद्भुत रिवाज हैं। गोल्ड कोस्ट में थिरसीकिंग जाति के लोग दूसरों को फँसाने के लिए आत्महत्या कर लेते हैं। दोषी व्यक्ति को उनका समाज आर्थिक दण्ड देता है। जिससे मरे हुए व्यक्ति के परिवार का पालन-पोषण हो सके। चौबासे की थिंकेट जातियों में दुश्मनों के दरवाजे पर फाँसी लगाकर आत्महत्या की जाती है। दुश्मन को आक्रमण में पराजित न कर पाने के कारण यह कायरतापूर्ण कृत्य किया जाता है। चीनी लोग जीवित आत्मा की अपेक्षा मृतात्मा को ज्यादा ताकतवर मानते हैं। वे दुश्मन से बदला लेने के लिए आत्महत्या को हथकण्डे के रूप में प्रयुक्त करते हैं।

आत्महत्या का दूसरा पहलू है स्वयं को मार देना। कार्ल मैनिंजर का कहना है कि अति मैनिंजर का कहना है कि अति आक्रामक-वृत्ति से हत्या एवं आत्मा को अत्यधिक दमन करने पर आत्महत्या की परिस्थिति का निर्माण होता है। दूसरों को मारने की असमर्थता के कारण उठा आवेग स्वयं को समाप्त करने के बाद ही थमता है।

‘हौडोनो एस्केप फ्राँम रिएलिटी’ में लुडस जे. ब्रागमेन इसको विस्तार से बताते हैं। इसके मत से व्यक्ति पर व्यथा, वेदना और असहाय अत्याचार जब उनके मानसिक स्तर से अधिक हो जाता है, तो उससे छुटकारा पाने के लिए वह आत्महत्या को ही एकमात्र साधन मानता है।

परिष्कृत अन्तःकरण इनसान के लिए वरदान है तो इस पर अहंकार की कालिमा भयावह अभिशाप। अहं को चोट पहुँचाने पर यह क्रुद्ध नाग जैसा फुफकारने लगता है और प्रतिवाद करता है। प्रतिवाद के न बन पाने से घायल अहंकार विस्फोट कर जाता है। इस तरह आत्महत्या के रूप में अनहोनी घटनाएँ घटित होती हैं।

आत्महत्याओं का कारण हर-हमेशा अचेतन ही नहीं होता। बल्कि सचेतन प्रयास द्वारा भी आए दिन ऐसी वारदातें होती रहती हैं। मनुष्य के अन्दर प्रेम, सहिष्णुता, दया, क्षमा-आस्था-विश्वास में सतत् आ रही कमी और दमन से ऐसी घटनाएँ घटती हैं। ‘क्वाइट स्ट्रीट’ के उपन्यासकार ओसेनोर्गीन ने दण्डित अपराधियों का रोचक अन्दाज में मनोविश्लेषण किया है। अपराधी अपनी विकृत एवं विक्षिप्त मानसिकता के कारण प्राणदण्ड के भय से घबरा जाता है और फाँसी से पूर्व ही खुद को खत्म कर लेता है। आजकल उग्रवादियों के पकड़े जाने पर स्वयं को समाप्त करने की उनकी कोशिशें इसी मनोवृत्ति का संकेत हैं। इसे सिरामण्ड फ्रायड ने ‘मोर्निंग एण्ड मेलोकोलिया’ के अंतर्गत वर्णन किया है।

आत्महत्या का तीसरा पहलू हैं-अन्तर्मुखी व्यक्तियों में मरने की इच्छा। स्वयं अपने में दबाए-समेटे रहने वाले ये व्यक्ति प्रायः अन्दर ही अन्दर घुटन का शिकार बने रहते हैं। जब कभी यह घुटन आवेश बनकर उठती है तो स्वयं उनका विनाश करके छोड़ती है। रथ सोनेल ने अपने शोध निष्कर्ष स्युसाइड नामक ग्रन्थ में इस तरह के अनेकों रोगियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है। इसके अनुसार उच्च प्रतिष्ठित व्यक्ति अपने बाह्याडंबरों के आवरण तले अनेक घिनौने कुकृत्यों को छुपाए रहते हैं। इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर किसी के सामने भी नहीं कर पाते। जब स्थिति हाथ से छूट जाती है, तो तमाम कुकृत्यों का पर्दाफाश होने से पूर्व स्वयं को समाप्त करने का प्रयास करते हैं।

‘द कन्सेप्ट ऑफ नार्मल माइण्ड’ में अर्नेस्ट जोन्स की मान्यता है कि गहरी उदासी की वजह से रोगी का सम्बन्ध जीवन के वास्तविक धरातल से टूट जाता है, सदैव नकारात्मक सोच पैदा होती है। प्रसन्नता, आत्म-सन्तोष के स्थान पर भयावह निराश की कालिमा छायी दिखती है। इसकी अंतिम परिणति मृत्यु के वरण में ही होती है। फ्रैंज अलेक्जेन्डर भी अपने शोध निष्कर्ष ‘द नीड फॉर पनिशमेण्ट एण्ड डेथ इंस्टिंक्स’ में कहते हैं अपने अन्दर ही अन्दर घुटते रहने वाले व्यक्ति के अन्दर उठता समुद्री ज्वार-सा विप्लवी भूचाल आत्महत्या का कारण है। इसके अलावा भी आत्महत्या अनेकों प्रकार की होती है-क्रोनिक स्युसाइड, शराब सेवन से आत्महत्या, सामाजिक दुर्व्यवहार, मनोविकार जन्य आत्महत्या आदि।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के हाल के अध्ययन के अनुसार इधर इन दिनों आत्महत्या की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हो रही है, जो कि राष्ट्रीय विकास दर से भी ज्यादा है। भारत में प्रतिदिन 230 व्यक्ति खुदकुशी करते हैं। ‘सटरडे टाइम्स’ के मुताबिक देश में हर मिनट में कोई न कोई आत्महत्या का प्रयास करता है। प्रत्येक सातवें मिनट में एक खुदकुशी हो जाती है। प्रति रिपोर्टेड आत्महत्या के साथ तीन आत्महत्याएँ ऐसी होती हैं जिनका कोई हिसाब नहीं होता। ऐसी दर्द भरी दास्तानों को आँकड़ों में तो नहीं बाँधा जा सकता, पर एक सहज अनुमान के बतौर बढ़ते हादसों का कुछ परिचय जरूर प्राप्त किया जा सकता है। अपने देश में 1989 में आत्महत्याओं की संख्या 40,245 थीं। सन् 91 तक आते-आते यह आँकड़ा लगभग दुगुना यानि कि 70,540 हो गया। वर्ष 14 में यह संख्या तकरीबन 90,000 के आस-पास पहुँच गई। इस दौरान आत्महत्या में प्रति लाख जनसंख्या में 6.8 से 9.9 तक तेजी से बढ़ोत्तरी हुई।

सन् 1993 में कर्नाटक में 8055, केरल में 8124, तमिलनाडु में 7815, तथा आन्ध्रप्रदेश में 7850 लोगों ने खुद अपना जीवन समाप्त किया। जबकि इस दौरान उत्तरप्रदेश में 5945, मध्यप्रदेश में 6251 तथा दिल्ली में 803 लोगों ने आत्महत्या की। पिछले चार वर्षों में उत्तरप्रदेश में आत्महत्याओं में तेजी से वृद्धि हुई है। यहाँ 1991 में 2845, 1992 में 3324 तथा 1993 में 5947 लोगों ने स्वयं को समाप्त किया। पश्चिम बंगाल में पूरे देश की 15 प्रतिशत आत्महत्याएं होती हैं।

बम्बई, देश का कलकत्ता के बाद दूसरा ऐसा महानगर है जहाँ प्रतिवर्ष एक हजार से महानगर है जहाँ प्रतिवर्ष एक हजार से अधिक लोग आत्महत्या करते हैं। नवीनतम सर्वेक्षण में केरल को जहाँ विकास के क्षेत्रों में अव्वल ठहराया जाता है वहीं, वहाँ आत्महत्या की दर सबसे ज्यादा है। केरल की आत्महत्या दर लगभग 25 है, जो राष्ट्रीय औसत से ढाई गुना अधिक है। केरल के अलावा त्रिपुरा, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक में भी आत्महत्या की औसत दर कहीं ज्यादा हैं। तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाय तो देश के दक्षिणी राज्यों में उत्तरी राज्यों की अपेक्षा अधिक आत्महत्याएँ होती हैं।

पूरे संसार में आत्महत्याओं का सर्वेक्षण तो और चौंकाने वाला है। विश्व में प्रतिदिन 2000 से ज्यादा लोग आत्महत्या करते हैं। यह संख्या प्रतिवर्ष 8 लाख को भी पार कर जाती है। खुदकुशी की दर अमीर कहलाने वाले देशों में सर्वाधिक है। पृथ्वी के स्वर्ग के रूप में अपना परिचय देने वाले स्विट्जरलैंड में आत्महत्या की दर भारत से दुगुनी हैं। जापान में आत्महत्याएँ अपने देश से 17 फीसदी अधिक हैं। इन दिनों भूतपूर्व साम्यवादी देश भी इस क्षेत्र में पीछे नहीं है। वहाँ सामाजिक, आर्थिक स्थिति में जो तेजी से गिरावट आयी है, उससे आत्महत्याओं में भारी वृद्धि हुई हैं। रूस में यह स्थिति भारत से चार गुना से भी ज्यादा बदतर है।

दुनिया के विभिन्न देशों में आत्महत्या की दर प्रति लाख जनसंख्या में कुछ इस तरह हैं-रूस में 40, हंगरी में 37, फिनलैण्ड में 28, डेनमार्क में 23, स्विट्जरलैंड और फ्राँस में 21, जापान में 17, स्वीडन तथा जर्मनी में 16, श्रीलंका में एक ओर तो शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में प्रगति की बात की जाती है, वहीं दूसरी ओर इस छोटे-से देश में प्रति लाख जनसंख्या में आत्महत्या की दर 43 से 47 के बीच अनुमानित है। पिछले पाँच सालों में वहाँ अनुमानित है। पिछले पाँच सालों में वहाँ जनसंख्या तो 3 फीसदी बढ़ी पर आत्महत्याएँ 15 प्रतिशत को पार कर गयीं। सबसे ज्यादा आत्महत्याओं में वृद्धि कोलम्बों और कैण्डी शहरों में हुई और वह भी खासतौर पर 60 साल से ज्यादा उम्र के वृद्ध नागरिकों में।

आत्महत्या के बारे में हृदय विदारक आँकड़े न्यूयार्क टाइम्स ने जून 1990 में प्रकाशित किए थे। वहाँ 37 सदस्यीय टीम ने किशोरवय के बच्चों का सर्वेक्षण किया। इस टीम की रिपोर्ट के अनुसार इस उम्र के लड़कों में से इस प्रतिशत एक न एक बार आत्महत्या का प्रयास कर चुके हैं। किशोर उम्र की लड़कियों में तो यह प्रतिशत 20 का है। हेनरी ए डेविडसन अपनी पुस्तक बीवेयर ऑफ लोनलीनेस’ में लिखते हैं कि एकाकीपन जीवन के लिए बड़ा ही घातक सिद्ध होता है। समुचित स्नेह व प्रेम के अभाव में अधिकतर लोग बसन्त के मौसम में आत्महत्या का प्रयास करते हैं। यह दर शहरी क्षेत्रों में कुछ ज्यादा होती है।

इस सम्बन्ध में एक चौंकाने वाला तथ्य यह है कि ज्यादातर देशों में महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में आत्महत्या की दर कहीं ज्यादा है। भारत में प्रतिवर्ष 0,000 आत्महत्याओं में पुरुषों की संख्या 53000 तथा महिलाओं की संख्या 7000 रही। 1991 से 1914 के बीच निवर्ष आत्महत्या करने वाली महिलाओं की संख्या क्रमशः 32122, 2668, 34393 तथा 37547 रही। इसी अवधि में आत्महत्या करने वाले पुरुषों की संख्या क्रमशः 46324, 47481, -851 तथा 51873 थी। विश्व के परिप्रेक्ष्य में यह आँकड़ा महिला पुरुष के अनुपात में इस प्रकार हैं-रूस में 13:66, - में 18:55, नार्वे में 8:21, कनाडा 6:21 एवं अमेरिका में 5:20 है। इसका मतलब यह नहीं है कि महिलाओं का उत्पीड़न एवं शोषण कम हुआ है। बल्कि मनोवैज्ञानिकों के अनुसार महिलाओं में पुरुषों की अपेक्षा अधिक सहनशक्ति का होना है। एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार होना है। एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार पुरुष 40 वर्ष की अवस्था में सबसे अधिक आत्महत्या करते हैं।

आत्महत्याओं के विश्लेषण का सवाल सुलझा हुआ है। फिर भी इन आँकड़ों से यथार्थता की थोड़ी बहुत झलक मिल ही जाती है। वर्ष 1994 में अपने देश में गम्भीर रोग के कारण 19761, दाम्पत्य कलह से 4983, पारिवारिक कटुता से 4248, मानसिक रोग के कारण 3031, सम्पत्ति विवाद की वजह से 1987, गरीबी से 1870, दहेज विवाद से 1654 आत्महत्याएँ हुईं। इन घटनाओं का यह सिलसिला प्रियजन विछोह के कारण 1389, बेकारी की वजह से 1297, सामाजिक प्रतिष्ठा में गिरावट के कारण 1240, आर्थिक दिवालियेपन और अचानक हुए नुकसान से 1533 एवं अवैध गर्भधारण के कारण 387 आत्महत्याओं के रूप में चला। आँकड़ों के अनुसार परीक्षा परिणाम से निराश होकर प्रतिवर्ष 1500 से 2000 छात्र आत्महत्या करते हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि एक आत्महत्या करते हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि एक आत्महत्या के पीछे दस आत्महत्या के असफल प्रयास होते हैं। अतएव हर साल परीक्षाओं के आतंक के कारण 15000 से 20,000 बच्चे आत्महत्या की कोशिश करते हैं।

इस प्रकरण में एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह सामने आया है कि भारत में लगभग 55 फीसदी आत्महत्याएँ 30 साल से कम आयु वर्ग में हो रही हैं। जहाँ तक आत्महत्या के तरीकों का सवाल है-1994 की रिपोर्ट के मुताबिक 35 प्रतिशत आत्महत्याएँ जहर द्वारा की जा रही हैं। जार्ज केनन ने अपने शोध निष्कर्ष ‘प्राब्लम ऑफ स्युसाइड’ में भी इसी का समर्थन किया हैं।

आत्महत्याएँ कहीं भी, किसी उम्र में और किसी भी तरफ क्यों न की जाएँ उनके कारणों में असंतोष, निराश एवं कुण्ठा ही रहती है। इसके लिए जहाँ समाज में बढ़ता हुआ हिंसक, उत्तेजक माहौल दोषी है, वहीं व्यक्ति का जीवन लक्ष्य से भटकाव भी कम दोषी नहीं। वह भूल गया है जीवन की सफलता साधन और सम्मान बटोरने में नहीं, आन्तरिक शक्तियों को विकसित करने और ईश्वर सान्निध्य पाने में है। तथ्य पर गहराई से विचार किया जाए तो यही निष्कर्ष सामने आएगा कि शान्ति एवं प्रसन्नता मनः स्थिति पर निर्भर है परिस्थितियों पर नहीं।

इस समस्या का समाधान पाने के लिए जहाँ हमें समाज में अपने साँस्कृतिक मूल्यों का प्रसार-विस्तार करना होगा वहीं व्यक्तिगत जीवन में यह विश्वास जगाना होगा कि हम न तो अकेले हैं और न असहाय। भले हमें सगे-सम्बन्धी, पड़ोसी और समाज निराश कर दे, पर परमात्मा कभी निराश नहीं करेगा और कोई हो न हो पर वह हमारा अवश्य है और उसकी कृपा निश्चित ही हमारे अपने जीवन में सौंदर्य के फूल खिलाएगी। फिर निराशा और पलायन क्यों?

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