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Magazine - Year 1997 - Version 2

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फिजिक्स से मेटाफिजिक्स की ओर

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विज्ञान हमेशा से रहस्यों का खोजी रहा है। हालाँकि अभी तक उसकी खोज-बीन सृष्टि के रहस्यों तक ही सीमित रही हैं। लेकिन अब उसने नवयुग के अनुरूप नया रूप लेते हुए सृष्टा का रहस्य जानने की जिज्ञासा प्रकट की है। विज्ञान और वैज्ञानिकों को अब अपने प्रचलित नास्तिकवादी ढर्रें पर संतोष नहीं है। उन्होंने अनुभव कर लिया है कि सृष्टि के मूल कारण, परमसत्य को जाने बगैर उन्हें कभी पूर्णता नहीं मिल सकती। इस अनुभूति को व्यक्त करते हुए किट्टी फर्गसन का ‘द फायर इन इक्वेंशन’ में कहना है कि आधुनिकतम विज्ञान का दृष्टिकोण विस्तृत हुआ हैं सत्य सीमाओं में बँधा नहीं है, इसे समझकर वैज्ञानिकों ने अनन्त व्यापकता में सत्य की पहचान करनी शुरू की है। इस सम्बन्ध में तार्किक, सुलभ, प्रासंगिक एवं वस्तुनिष्ठ प्रतिपादन भी हुए हैं। नयी खोजों से यह साबित हो चुका है कि ब्रह्माण्ड के मध्य एक सुनिश्चित तारतम्य है। जिसका मूल है परमाणु एवं इसके भीतर समाए दूसरे सूक्ष्म कण। इन सारे भीतर समाए दूसरे सूक्ष्म कण। इन सारे कणों के पीछे एक महान शक्तिशाली बल को क्रियाशील होते देखा जा सकता है। फर्गसन का मत है कि व्यष्टि एवं समष्टि के इस समीकरण का संचालन जिस अदृश्य सूत्र से संचालित है, उसकी खोज में तत्पर होना वैज्ञानिक समुदाय का कर्त्तव्य है।

प्रत्येक घटना का एक कारण होता है। अकारण इस ब्रह्माण्ड में कोई घटना नहीं घटती है। भले ही इस कारण को समझना हमार बुद्धि से बाहर हो। यह भी सम्भव है कि वर्तमान में किया गया प्रयोग लम्बे समय बाद अपना निष्कर्ष दे। हर नियम का तुरन्त परीक्षण कर लिया जाए, यह कैसे सम्भव है? इस सोच ने प्रयोगशाला के कैद विज्ञान को खुली हवा में साँस लेने का मौका दिया है।

अभी थोड़े ही समय पहले विज्ञान ने अपने ही बनाए अनेकों मानदण्डों को खुद तोड़ा है। देश-काल सम्बन्धी मान्यताएँ बदली हैं। इस क्रम में सापेक्षतावाद से क्वाँटम सिद्धान्त तक ऐसे नवीन अनुसंधान उभरकर आए हैं, जो अपने आप में आश्चर्य हैं। आज समूचे वैज्ञानिक समुदाय की सोच इस बिन्दु पर टिकी है कि आखिर वह कौन-सा नियम है, जिसके तहत सृष्टि के सारे क्रियाकलाप संचालित हो रहे हैं। अनन्त आकाश में असंख्य तारे, ग्रह-नक्षत्रों की सुनिश्चित गति को पूर्ण रूप से बता पाने में आज के वैज्ञानिक स्वयं को असमर्थ अनुभव कर रहे हैं। इसीलिए बिगबैंग थ्योरी के जनक एवं विश्वविख्यात वैज्ञानिक स्टीफेन हाकिंग ने तथ्य की विवेचना करते हुए कहा कि ब्रह्माण्ड का विस्तार सम्बन्धी ज्ञान उस परमसत्ता को जाने बगैर कतई सम्भव नहीं। ईश्वर पर आस्था एवं विश्वास अनिवार्य है, कहते हुए फ्रेड हायल का मानना है कि वैज्ञानिकों को पदार्थ की पूरी जानकारी तभी मिल सकती है, जब उसके कारण को खोज लिया जाए। खगोलविज्ञानी फ्रेड हायल कहते हैं कि यह कारण ही वह सृष्टिकर्ता है।

सारी सृष्टि ऊर्जा के विभिन्न आकार प्रकार है। ऊर्जा कभी विनष्ट नहीं होती। हाँ इसका रूपांतरण जरूर हो जाता है। इस सूत्र को खोज निकालने वालो आइन्स्टीन कहते हैं कि जब भी मैंने स्वयं की बुद्धि एवं विचार पद्धति की क्षमताओं को, सीमाओं को देखा, सत्य उसकी पकड़ से अनन्त दूरी पर दिखाई दिया। वैदिक दर्शन की आवाड्मनस् गोचरम् अप्राप्य मनः सह आदि उक्तियों के अनुरूप अपना निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए विख्यात वैज्ञानिक हाकिंग का कहना है। कि ‘अन्तःप्रज्ञा’ से ही मूल सिद्धान्त को जाना जा सकता है। इस सत्य तक पहुँच पाने का तरीका बताते हुए ‘पींकर’ के शब्द हैं कि जब बुद्धि एवं विचार उच्चस्तरीय चेतना के प्रकाश से प्रकाशित हो जाते हैं, तभी उनमें सत्य प्रतिबिम्बित होता है। जर्मन वैज्ञानिक वारनर हाइजेन वर्ग के अनुसार प्रकृति के रहस्य को बाहर नहीं अन्दर खोजा जाना चाहिए। सृजन के रहस्य मानवीय चेतना की गहराइयों में समाए हैं। वैज्ञानिक हाइजन वर्ग की मान्यता है कि विज्ञान की वर्तमान प्रणाली से प्रकृति के मूल कारण को खोजना आकाश कुसुम खोजने जैसा है। इसकी खोज के लिए विज्ञान को नया रूप देना पड़ेगा, जो मनुष्य को स्वयं के अन्दर निहित परमसत्य को खोजने में सहायक बने।

प्रकृति एक भाग में, एक क्षेत्र में सिमटी नहीं हैं, बल्कि इसका दायरा व्यापक है। इस विस्तार की बात करते हुए सुविख्यात भौतिकी के मर्मज्ञ मूरी जेज मेन ने कहा कि वैज्ञानिकों को उच्चतर आयामों को जानने के लिए सजग एवं सतर्क होना चाहिए। ब्रिटिश अन्तरिक्ष वैज्ञानिक जान डी बेरी ने अपने सुप्रसिद्ध शोधग्रन्थ ‘द थ्योरी ऑफ एवरीथिंग’ में उल्लेख किया है कि विज्ञान को प्रकृति के रहस्य आश्चर्य एवं अद्भुत क्रियाओं को जानने तथा उसकी सत्यता क्रियाओं को जानने तथा उसकी सत्यता प्रमाणित करने के लिए अपने नियमों के दायरे को बढ़ाना पड़ेगा। ये सिद्धान्त एवं प्रतिपादन स्पष्ट करते हैं कि विज्ञान और वैज्ञानिक अब अपनी रूढ़ियों को समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील हो चले हैं। वैज्ञानिक दायरे में रूढ़ि शब्द का प्रयोग आश्चर्यजनक किन्तु सत्य जैसा है। जिस तरह से सामाजिक जीवन में सदियों पुरानी परम्पराएँ, मान्यताएँ, आधुनिक परिवेश में औचित्यहीन होने पर भी रूढ़ियां बनकर भार बनी हुई हैं, उसी तरह विज्ञान जगत में भी यह चिर-प्राचीन रूढ़ि रही है कि सत्य और शक्ति सिर्फ पदार्थ में हैं। किन्तु इक्कीसवीं सदी की ओर कदम बढ़ाते हुए समाज और विज्ञान ने अपने को रूढ़ियों के मोहपाश से मुक्त करना शुरू कर दिया है। इसी प्रकार का परिणाम है कि फिजिक्स के पाँव अब मेटाफिजिक्स की ओर बढ़ चले हैं।

विज्ञान का हर नया नियम पदार्थ की एक परत उतार देता है। नियमों एवं खोजों के बढ़ते सिलसिले ने केले के तने की परतों की तरह एक-एक परत को कुछ इस तरह अनावृत किया, कि पदार्थ खो गए। विज्ञानवेत्ता हतप्रभ होकर कहने जगे-”शायद पदार्थ का अस्तित्व ही नहीं, अस्तित्व सिर्फ चेतना का ही है।” उन्होंने इस बात को स्वीकार करना शुरू कर दिया कि प्रकृति की एक व्यवस्था है और उस व्यवस्था का संचालन परमसत्ता द्वारा होता है। इस तथ्य की पुष्टि करते हुए अपने युग के महान वैज्ञानिक ‘पालडेविस’ ने बड़े दावे से कहा कि भगवान जुआ नहीं खेल सकता। उसकी एक सुनियोजित एवं सुसंचालित व्यवस्था है। इसके संचालक को जानने के लिए आइन्स्टीन के अनुसार प्रकृति से परे निकलना होगा। अतः सिद्धान्तों को सीमाओं में बाँध कर सत्य की खोज सम्भव नहीं है।

विज्ञानवेत्ता यह मानते हैं कि प्रकृति अनन्त रहस्यों की एक किताब है, जिसके हर पत्ते में अजीबोगरीब रहस्य छिपे हुए हैं। इसीलिए जे. बी. एस. इन्डेन ने अपनी अभिव्यक्ति इस तरह से की, कि प्रकृति की विचित्रता एवं विलक्षणता कल्पनातीत है। हमारा मन सके आश्चर्यों की जितनी कल्पना करने में सक्षम हैं, यह उससे कहीं अधिक आश्चर्यमय है। इसे ठीक से समझने के नए शायद हमें मन के दायरे से ऊपर उठना पड़ेगा। थामस एडीसन ने उल्लेख किया है कि अभी तक सूक्ष्मतम कणों का वास्तविक स्वरूप एवं क्रियाकलाप अज्ञात तथा अगम्य है। क्वाँटम मैकेनिक्स ने विश्व तरंगों की तूफानी हलचल माना है। अनिश्चितता के सिद्धांतानुसार किसी मण की गतिविधि एक ही समय, एक ही अवस्था में दोहराए जाने पर हर बार भिन्नता लिए हुए होती है। उनका व्यवहार कभी भी एक समान नहीं होता। इन वैज्ञानिकों के अनुसार असीम को समीप से जानना शायद सम्भव नहीं। टी. एस. इलयट ने ठीक ही कहा है कि परमात्म-तत्व का साक्षात्कार पंचेन्द्रियों से करना बालू का महल बनाने जैसा है।

जैसे-जैसे प्रकृति के गर्भ में झाँकते हैं, नया-नया तथ्य सामने प्रकट होने लगता है। पहले मान्यता थी कि अणु ही पदार्थ का सबसे छोटा कण है। लेकिन अब तो परमाणु से क्वार्क तक की जानकारी हो चुकी है। परमाणु के अन्दर प्रोटान व न्यूट्रान क्वार्क से बने हैं। क्वार्न का मूल आधार फरमीआन को माना जा रहा है। इस कण की खोज इटली के भौतिकविद् एनरीकोफर्मी ने की थी। इसीलिए इसका नाम ‘फरमीआन’ रखा गया। आज के जमाने में संचार के लिए उपयोग में लाई जाने वाली आधुनिकतम प्रणाली टेलीफोन, फैक्स एवं ई-मेल के समान ब्रह्माण्ड के सूक्ष्मतम जगत में यही फर्मीआन संदेशों का आदान-प्रदान करता है। एक कण और है जो स्वयं संदेशवाहक भी है एवं संदेशवाहकों के बीच भी संदेश प्रसारित करता है। इस कण को बोसान के नाम से जाना जाता है। अतः नवीनतम अन्वेषण के अनुसार सृष्टि का सूक्ष्मतम कण या तो फर्मीआन है अथवा बोसान।

इन सूक्ष्मकणों के बीच कहें अथवा ब्रह्मांड में कहें-चार प्रकार के बल प्रमुख रूप से क्रियाशील माने जाते हैं। गुरुत्व बल के तहत बोसान शरीर एवं पृथ्वी के सूक्ष्मतम परमाणु के बीच परस्पर आकर्षण उत्पन्न करता है। एक-दूसरे को आकर्षित करता है। इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फोर्स में फोटान तथा स्ट्रांग फोर्स में ग्लूआन संदेशवाहक का कार्य सम्पादित करता है। अन्तिम बल है- वीक फोस।, जो रेडियोएक्टीविटी से सम्बन्ध रखता है।

इन बलों के बारे में सन् 1983 में यूरोपियन सेण्टर फॉर न्यूक्लियर रिसर्च (ष्टश्वक्रहृ) के ‘भौतिकी विज्ञानी कार्लोरुबिया सीमनवान डीमीअर’ और इनकी 130 सदस्यीय अीम ने विशद अध्ययन किया। अपने अध्ययन के निष्कर्ष में उन्होंने ख्+, ख्- तथा भ्ठ्ठ की परिकल्पना करते हुए कहा कि ये कण बिना किसी आवेश की परिकल्पना करते हुए कहा कि ये कण बिना किसी आवेश के उदासीन अवस्था में संदेश का प्रचार-प्रसार करते हैं। इस नवीनतम अन्वेषण को करने वालो वैज्ञानिक कार्लारुबिया तथ्य स्पष्ट करते हैं कि ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण घटक जरूर किसी निश्चित सूत्र से जुड़े हैं।

इस सूत्र का वास्तविक स्वरूप अभी तक विज्ञानवेत्ताओं के लिए भले अज्ञात बना हुआ हो, लेकिन वे इसके अस्तित्व के बारे में सुनिश्चित हैं। इस बात की स्वीकारोक्ति राबर्ट जेस्ट्र्ो ने ‘गॉड एण्ड द एस्ट्रोनामर्स’ में की है। अपनी इस पुस्तक में जेस्ट्रो कहते हैं कि मैं ईश्वर पर विश्वास नहीं करता था, लेकिन जब से अन्तरिक्ष की अदृश्य लीला मेरे नियमों-सिद्धान्तों से परे होकर भी यथार्थ रूप से दिखाई दी, उस बाजीगर सत्ता पर सहज ही विश्वास होने लगा। आज मैं पूर्णतया आश्वस्त हूँ कि कोई नियामक सत्ता विद्यमान है, जिसके कारण अनन्त ब्रह्माण्ड क्रियाशील है।

‘द ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ में स्टीफेन हाकिंग ने विस्तृत एवं विशाल ब्रह्माण्ड की परिकल्पना में अदृश्य सत्ता की भूमिका को स्पष्ट रूप से स्वीकारा है। इस स्वीकारोक्ति के कारण भले ही उन्हें कतिपय रूढ़िवादी वैज्ञानिकों का विरोध झेलना पड़ रहा हो, लेकिन वह कहते हैं कि सत्य का अन्वेषण एवं सत्य का प्रतिपादन वैज्ञानिक का धर्म है और यह एक सच्चाई है कि ब्रह्माण्ड की नियामक सत्ता का अस्तित्व है। इसी तरह रिचर्ड डाकिन्स ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘द ब्लाइन्ड मेकर’ में विकास के क्रम में ईश्वर का अस्तित्व प्रमाणित किया है। उन्होंने ईश्वरीय चमत्कार को भी पूर्णतः विज्ञानसम्मत माना है। इस सम्बन्ध में उनका कहना है कि जीवन और जगत के अनेक तल है। प्रत्येक तल के अपने सार्वभौमिक नियम हैं। लेकिन ऊपर वाले तल का नियम नीचे के तल के नियम को नियन्त्रित कर सकता है-यही चमत्कार है।

वैज्ञानिक रिचर्ड कहते हैं कि आस्था और श्रद्धा से प्रस्तर की मूर्ति जीवन्त हो सकती है। वस्तुतः ठोस रूप में परमाणु की गति आपस में एक दूसरे से टकराकर निष्क्रिय तथा उदासीन बनी रहती है। यदि इन परमाणुओं को एक ही समय में एकनिष्ठ गति जाय तो ये भी जीवित के समान व्यवहार कर सकते हैं। लेकिन ऐसा होगा तभी जबकि हमारी भावशक्ति, विचारशक्ति किसी उच्चस्तरीय चेतना का आहृय करने और अवतरण, करा सकने में समर्थ हो। डाकिन्स की इस मान्यता के अनुसार मीरा के गिरधर गोपाल का जीवन्त होना कोई कपोल-कल्पना नहीं थीं। रिचर्ड डाकिन्स मानते हैं कि इस तरह की अनगिनत अद्भुत व आश्चर्यजनक घटनाओं के झरोखों से कोई उच्चस्तरीय चेतना यदा-कदा अपनी झलक देती है। उनकी मान्यता है कि समूची सृष्टि का संचालन किसी महत संकल्प से हो रहा है। वैज्ञानिक डाकिन्स के इस सिद्धान्त को प्राचीन ऋषियों ने काफी पहले जान लिया था।

आज के विज्ञानविद् प्रायः इस तथ्य से सहमत हैं कि सत्य वर्तमान सिद्धान्तों की सीमाओं में ही प्रमाणित हो, यह जरूरी नहीं है। अमेरिकन वैज्ञानिक एडवर्ड लारेन्ज ने स्वीकारा है कि मेरे अनेकों प्रयोग प्रचलित नियमों से परे जाकर सिद्ध हुए। अपने जीवन में घटे अनगिनत घटना-क्रमों के अन्त में लारेन्ज ने स्वीकारा कि मेरी भौतिकवादी मान्यताएँ टूट-फूटकर ध्वस्त हो गयीं। उन्होंने इस पर सहमति जताई कि सत्य की शोध प्रचलित विज्ञान की सीमा-रेखाओं तक ही सीमित नहीं रह सकती। सच्चे सत्यान्वेषी को इस दायरे से बहुत आगे बढ़ना पड़ेगा। एक शताब्दी पूर्व जेम्स क्लर्क मैक्सवेल ने भी इसी तरह की अवधारणा विज्ञान जगत के सामने रखी थी।

ज्यों-ज्यों विज्ञान अपनी सीमाओं को बढ़ाता जा रहा है, उसे उतने ही नवीन सत्यों से परिचय एवं नयी शक्ति मिलती जा रही है। अभी तक प्रकाश को सबसे तीव्रगामी माना जाता रहा है, लेकिन सूक्ष्मकणों की खोज ने इसे संदेह के घेरे में डाल दिया है। यही नहीं ब्लैक होल के प्रकाश में आ जाने से तो देश-काल की मान्यताएँ ही बदल गयी हैं।

‘द थ्योरी ऑफ एवरीथिंग’ म लेखक जान डिबेरी का तो यहाँ तक कहना है कि संसार में कुछ घटित हो सकता है कि घटनाओं की संचालक सत्ता प्रकृति एवं परमेश्वर है, न कि विज्ञान। वैज्ञानिक तो घटनाओं का विश्लेषण करके बाद में किसी नियम की स्थापना का प्रयास भर करते हैं। लेकिन यह कोई भरोसा नहीं कि भविष्य में घटित होने वाली घटनाएँ उसी नियम के दायरे में घटेंगी। अब तो यह बात पूरी तरह से प्रमाणित हो गयी है कि विज्ञान ने जितना जाना है, उससे कई गुना अभी बाकी है।

जैसे ही विज्ञान के कदम पदार्थ जगत की सीमा पार करते हैं, सुपर नेचुरल जगत का शुभारम्भ होता है। इसी का स्पर्श पाकर वैज्ञानिक समुदाय ने परामनोविज्ञान को विज्ञान की एक शाखा के रूप में स्वीकार कर लिया है। होलोग्राम इसी की उपलब्धि है। विज्ञानवेत्ता वर्मस्टीन के अनुसार परमातत्व रासायनिक तत्वों की पहुँच से बाहर है। भले यह आज वैज्ञानिकों को परिकल्पना जैसा लगे, पर है यथार्थ। यह जितना गूढ़ है, उतना ही सामान्य भी है क्योंकि सृष्टि का प्रत्येक कण उसी की प्रतिकृति है। ‘कैन साइन्टिस्ट बिलीव’ के लेखक सर नेवीलमोट का कहना है कि पदार्थ जगत ईश्वर की रचना का एक नगण्य-सा भाग है। ईश्वर के अस्तित्व का इससे बड़ा संकेत और भला क्या हो सकता है? पदार्थ कोही सर्वस्व समझने की भूल अब और नहीं करनी चाहिए।

जीवन का स्त्रोत किसी अविज्ञात जगत में अवस्थित है। जर्मन मनीषी वुलवर्ट पेनन वर्ग की इस मान्यता कें तहत ब्रह्माण्डीय वेव फंक्श नहीं इलेक्ट्रिक फील्ड, ग्लूआन फील्ड, क्वार्क्स तथा लेण्टान फील्ड में संचारित होता है। विज्ञान जगत में सर्वमान्य ओमेगा प्वाइण्ट बाउण्ड्री के सिद्धान्तानुसार यह क्षेत्र सूक्ष्म से स्थूल की ओर गतिमान है। इसी सूक्ष्म क्षेत्र में चैतन्य चेतना की हलचलें होती हुई देखी जा सकती हैं। पेनन वर्ग कहते हैं कि जीवन का मूल स्त्रोत यह अविज्ञात चेतना ही है जिसे ईश्वर की संज्ञा दी जा सकती है। इस विज्ञात चेतना का स्वरूप अभी वैज्ञानिकों की समझ के बाहर भले हो, पर यदि उन्होंने स्वयं को दुराग्रहों से मुक्त रखा तो अवश्य वे उसका स्पर्श पा सकेंगे।

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