• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • सद्गुरु के स्वर
    • स्वप्न से आत्मबोध
    • अड़सठ तीरथ हैं घट भीतर ...
    • मन की कुसंस्कारों को छुपाना (Kahani)
    • चिर यौवन लाने को आतुर हैं ययाति की संतानें
    • दृश्य जगत की अदृश्य पहेलियाँ (Kahani)
    • जीवन-विद्या का उच्चतम सोपान- ध्यान
    • ज्ञान की रटो मत, आचरण में उतारो
    • कृत्रिम सृष्टि की दिशा में प्रयोगरत विज्ञान क्या सफल हो सकेगा ?
    • वीरमति का आत्मोत्सर्ग
    • आस्था संकट का निवारण इस तरह होगा
    • अक्षय आनन्द अध्यात्म की सर्वोपरि उपलब्धि
    • ब्रह्मविद्या का रहस्य निहित है- ब्रह्मचर्य में
    • भूलोक की कामधेनु है-गायत्री
    • मंत्र-सिद्धि का मर्म
    • स्वर्ग कहीं भूमि पर होना चाहिए (Kahani)
    • सपनों के झरोखे से मृत्यु का दर्शन
    • शाश्वत-सनातन मात्र विवेक ही है
    • सिद्धिदात्री सामर्थ्य है सविता देवता की साधना में
    • बलिदान ने जगायी संवेदना
    • यजन प्रक्रिया को सर्वांगपूर्ण बनाते हैं मंत्र
    • निर्दोष ऊर्जा स्रोत
    • ग्रामोत्थान प्रशस्त करेगा राष्ट्रोत्थान की प्रक्रिया को
    • गायत्री साधना के प्रत्यक्ष चमत्कार (Kahani)
    • निष्कलंक सम्पूर्ण क्राँति का बिगुल बज गया है
    • गायत्री परिवार की स्थापना का मूलभूत आधार - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
    • VigyapanSuchana
    • दीर्घसूत्री मत बनो
    • अपनों से अपनी बात - - महाकाल ही मंगलाचरण थिरकन को तीव्र से तीव्रतर बना रहा है
    • परिवर्तन की वेला आ पहुँची, विभूतिवान् अपने दायित्व सँभालें
    • अपरिमित सम्भावनाओं का आधार मानवी व्यक्तित्व (Kahani)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • सद्गुरु के स्वर
    • स्वप्न से आत्मबोध
    • अड़सठ तीरथ हैं घट भीतर ...
    • मन की कुसंस्कारों को छुपाना (Kahani)
    • चिर यौवन लाने को आतुर हैं ययाति की संतानें
    • दृश्य जगत की अदृश्य पहेलियाँ (Kahani)
    • जीवन-विद्या का उच्चतम सोपान- ध्यान
    • ज्ञान की रटो मत, आचरण में उतारो
    • कृत्रिम सृष्टि की दिशा में प्रयोगरत विज्ञान क्या सफल हो सकेगा ?
    • वीरमति का आत्मोत्सर्ग
    • आस्था संकट का निवारण इस तरह होगा
    • अक्षय आनन्द अध्यात्म की सर्वोपरि उपलब्धि
    • ब्रह्मविद्या का रहस्य निहित है- ब्रह्मचर्य में
    • भूलोक की कामधेनु है-गायत्री
    • मंत्र-सिद्धि का मर्म
    • स्वर्ग कहीं भूमि पर होना चाहिए (Kahani)
    • सपनों के झरोखे से मृत्यु का दर्शन
    • शाश्वत-सनातन मात्र विवेक ही है
    • सिद्धिदात्री सामर्थ्य है सविता देवता की साधना में
    • बलिदान ने जगायी संवेदना
    • यजन प्रक्रिया को सर्वांगपूर्ण बनाते हैं मंत्र
    • निर्दोष ऊर्जा स्रोत
    • ग्रामोत्थान प्रशस्त करेगा राष्ट्रोत्थान की प्रक्रिया को
    • गायत्री साधना के प्रत्यक्ष चमत्कार (Kahani)
    • निष्कलंक सम्पूर्ण क्राँति का बिगुल बज गया है
    • गायत्री परिवार की स्थापना का मूलभूत आधार - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
    • VigyapanSuchana
    • दीर्घसूत्री मत बनो
    • अपनों से अपनी बात - - महाकाल ही मंगलाचरण थिरकन को तीव्र से तीव्रतर बना रहा है
    • परिवर्तन की वेला आ पहुँची, विभूतिवान् अपने दायित्व सँभालें
    • अपरिमित सम्भावनाओं का आधार मानवी व्यक्तित्व (Kahani)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1997 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT


वीरमति का आत्मोत्सर्ग

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 9 11 Last
इतने बड़े संसार में उसका था ही कौन? माता-पिता ही नहीं, भाई नहीं और न कोई दूसरी बहिन ही थी। कहीं प्यार पाने के लिए जब वह चारों ओर नजर दौड़ाती तो उसे लगता कि जैसे वह विशाल महासागर के बीचों-बीच में डूब-उतरा रही है। अब कहीं-कोई भी संबल उसके लिए शेष नहीं बचा है।

उसके पिता देवगिरि राज्य के प्रधान सेनापति थे, जब तक वे जीवित थे, वे अक्सर कहा करते थे, मेरी बिटिया बड़ी होनहार है, मेरे लिए तो यह पुत्र से बढ़कर है। इसका मुख देखकर मुझे लगता ही नहीं कि मुझे पुत्र का अभाव है। और आज वे पिता भी नहीं थे, जिनके वात्सल्य की छाँव में उसे माता-पिता दोनों का ही ममत्व और प्रेम मिलता आया था, अन्यथा उसकी माँ तो जन्म के कुछ ही सालों बाद संसार छोड़ गयी थी, लेकिन पिता ने उसे माँ का अभाव कभी खटकने नहीं दिया। यदा-कदा उसे अपने यशस्वी पिता के कुछ इने-गिने शब्द याद आते तब-तब वह अपने हृदय में न जाने कैसा अनुभव करने लगती। विचित्र और अपरिचित अनुभूतियों से उसका मानस भर जाता और उस समय वह सुनसान घर में अकेले बैठे-बैठे न जाने क्या-क्या सोचने लगती।

मरते समय पिता उसे बोध दे गये थे-बेटी मैं अपने समूचे जीवन में एकमात्र इस अढ़ाई सेर लोहे से ही प्रेम कर पाया हूँ। बाद में एक दिन तू भी जन्मी और तब मुझे लगा कि तू उस जाति के जीवों में है, जिनकी रचना स्नेह-ममत्व दया और करुणा की पवित्र परतों के बीच होती है और इस लोहे से बहुत दूर तेरा निवास है, पर मेरी बिटिया....।

बोलते-बोलते उनका गला रुँध गया, आवाज भरभरा गयी और आँखों में पानी छलक आया। उस समय यद्यपि वह आयु में छोटी थी, फिर भी अपने मरणासन्न पिता की अंतिम काल की उन बातों को समझने का भरसक प्रयास किया था। अभी भी उसे याद है कि उन क्षणों में पिता के सिरहाने और पलंग के आस-पास राज्य के सभी प्रमुख व्यक्ति श्रद्धा और दुःख से परिपूर्ण पुतलियों को स्थिर किये खड़े थे। स्वयं देवगिरि के महाराज हाथ बाँधें रुंधे कंठ से पिता से बार-बार न जाने क्या कह रहे थे। हाँ तो पिता ने अपने भर्राए गले को खंखार कर कहा कि-यह लोहा भले ही कई बार मनुष्य की रक्त से नहाया हो, सैकड़ों के रक्त में डूबा हो, सैकड़ों का प्राण लेने का साधन रहा हो, पर यह बड़ा पवित्र और पूज्य है। इसी के बल पर मैंने अगणित कुल बंधुओं की लाज बचाई है। न जाने कितने अबोध जानों को अनाथ होने से बचाया है। मेरे कोई पुत्र नहीं , जिसकी कमर में इसे चलते-चलते बाँधकर संतोष प्राप्त करूं । तू इसे अपने पिता की धरोहर समझ। मेरे लिए हमेशा से तू सब कुछ रही है। जब तक जीना देश भक्ति” वह सुनती रही-देखती रही, सिसकियाँ भरती हुई उसी प्रकार और इन्हीं शब्दों के साथ एक हिचकी ने उनका माया-ममता में अटका अंतिम तार भी तोड़ दिया। उसके हाथों में पिता की दी हुई वह तलवार रखी रह गयी। वह रोते-रोते समझ नहीं पा रही थी कि क्या सोचकर और किसलिए वे उसे यह सौंप गये है? और फिर एक दिन देवगिरि नरेश की लाडली कन्या गौरी आयी और उसके गले झूलते हुए कहा बैठी-मेरी बहिन तुझे मेरे साथ ही रहना होगा...तू रहेगी न ?

इसके दो दिन बाद ही राजा राम देव का भी बुलावा आ गया और उसने सुना कि वे कह रहे है-तेरा एक पिता अभी जीवित है, बेटी तू न नहीं कर सकेगी यहाँ रहने के लिए गौरी तो प्राण ही छोड़ देगी बिना तेरे पास रहे। इन शब्दों की झंकृति में उसने अनुभव किया कि सचमुच महाराज के स्वर में पिता का ही प्यार बोल रहा है और गौरी से भी बचपन से उसका स्नेह संबंध जुड़ा था, वह भी एक कारण बन गया, उसके राजमहल में आ बसने के लिए। दिन जाते देर नहीं लगती। समय के साथ ही महाराज रामदेव की परम लाडली छोटी सी गुड़िया पीरु भी वीरमति नाम से बढ़ी और युवती बन गयी। उसके अप्रतिम सौंदर्य की आभा से समूचा राजमहल जगमगा उठा।

“इसकी हथेलियां पीली होनी चाहिए।” महारानी ने स्नेह से उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा।

और बस खोजबीन प्रारंभ हो गयी। ढूँढ़-खोज के इस सिलसिले में महाराज रामदेव की नजर एक सुंदर गठीले नवयुवक कृष्णराय पर एक विशेष अभिप्राय से जा टिकी। वार्ता चलाई गयी और संबंध पक्का हो गया। कृष्णराय देवगिरि दरबार में ही राजकर्मचारी थे। वह सुंदर, सुशील और स्वस्थ नवयुवक था। सभी उसकी कार्यकुशलता की मुक्त मन से सराहना करते थे। उसे जब पता चला कि महाराजधिराज की लाडली वीरमति उसकी पत्नी होगी, तो उसका दिल बल्लियों उछलने लगा। कृष्णराय ने कई बार राजमहल में आते-जाते हुए वीरमति को देखा था। वीरमति अत्यधिक सुंदरी होने के साथ-साथ परम विदुषी थी। घुड़सवारी और तलवारबाजी में जनसाधारण उसे मुक्त मन से अपने दिवंगत सेनापति पिता की सच्ची उत्तराधिकारिणी स्वीकार करता था। उसमें एक विचित्र सा आकर्षण था।

कृष्णराय यद्यपि एक साधारण दरबारी था, फिर भी उसकी प्रतिभा की सभी सराहना करते थे। उसमें एक होनहार युवक के प्रायः सभी गुण मौजूद थे। इसी सब कारण से महाराज ने उसे वीरमति के योग्य वर के रूप में चुना था। पर आदमी सोचता कुछ है, होता कुछ और है। मोहक चंद्रमा भी न जाने क्यों कलंकित हो जाता है। संध्या समय एक दिन वीरमति जब तुलसी के निकट दीप जलाने बैठी तो उसकी एक परमप्रिय सहेली ने आकर उसे ऐसा समाचार दिया कि वह सन्न रह गयी। उसका हृदय दीप की ज्योति के साथ ही काँप उठा।

क्या तुम सच कहती हो बहिन? बुझे स्वर में लगभग हकलाते हुए पूछा उसने।

“माता गंगा साक्षी हैं-अधिक क्या कहूँ। मेरी पालकी थोड़ी ही दूर थी कि टीले से उतरते देखा मैंने उन्हें, साथ में एक मुगल जैसा था कोई, जो उनका हाथ पकड़े कान में धीरे-धीरे कुछ फुसफुसा रहा था।

“हूँ....” उसके मुँह से जैसे शब्द ही नहीं निकल पा रहे थे। उस रास्ते कोई नहीं जाता, बहुत दूर है देवगिरि से, पर मेरे श्वसुर इस राज्य से बैर मानते हैं। इसलिए इसकी सीमा से अलग-अलग चलकर देवर मुझे यहाँ छोड़ गये। उसकी यह अभिन्न सखी बताये जा रही थी, कि किस प्रकार उसने उसके भावी पति कृष्णराय को एक मुगल जैसे लगते किसी आदमी से धीरे-धीरे कान में बात करते देवगिरि राज से दूर टीले के नीचे देखा है।

“मुझ पर भारी कलंक लगेगा....तू यह बात किसी से कहना मत बहिन। मैं तुझे विश्वास दिलाती हूँ कि देवगिरि पर आँच आये-इससे पहले ही मैं उन्हें समझा दूँगी-पूछूँगी उनसे कि क्या बात है-शायद तुझे भ्रम ही हुआ हो वे ऐसे कभी नहीं हो सकते....।”

खैर तू जाने और तेरे वे देवता, जो बात थी, जिसे मेरी आँखों ने देखा, मैंने जैसा का तैसा तुझे सुना दिया...। यह कहते हैं कि सहेली वहाँ से निकल गयी। इस बीच तुलसी के बिरवे पर जलाया हुआ दीप काँप कर बुझ गया था। उसे अपने चारों ओर देखकर लगा कि जैसे संध्या का अंधकार उसे निगले बिना नहीं रहेगा। अज्ञात अमंगल की आशंका से उसके हाथ काँप रहे थे। इन्हीं काँपते हाथों से उसने तुलसी की जड़ के निकट घृतदीप जलाया और आरती की। चलकर पलंग पर कटे पेड़ सी जा पड़ी। यह वह समय था जब वह दक्षिण भारत के हिंदू राज्य अलाउद्दीन खिलजी के बर्बर आक्रमणों से आक्रान्त थे। इतिहास के पन्नों पर लिखी हुई इबादत अभी भी साक्षी है कि सन 1302 से 1311 तक खिलजी की सेनाएँ इन राज्यों को रौंदती रहीं। वारंगल के काकात्य, मैसूर के होयसाल और देवगिरि के यादव राज्य अलाउद्दीन की सेनाओं के घोड़ों की टापों की धूल से अनेकों बार ढँक गये, पर देवगिरि राज्य ने उनकी प्रथम चढ़ाई को ही विफल कर दिया कि छिन्न-विच्छिन्न और हासोन्मुख भारत का लोहा अभी ऐसा कुण्ठित नहीं हो गया है, कि चाहे जो उसे मोड़ दे, यद्यपि देश का दुर्भाग्य किसी दूसरे भविष्य का निर्माण कर रहा था।

आमने-सामने की लड़ाई में जब अलाउद्दीन ने अपनी खिचड़ी पकते न देखी तो सोते शत्रु पर प्रहार करने की चालें सोचने लगा और सोचते-सोचते उसकी नजर अचानक होनहार कृष्णराय पर आ अटकी। लड़ाई के मैदान में कई बार उसके हाथों की सफाई और साहसिकता का प्रमाण उसे मिला, पर न जाने कैसे उसे उस मराठा युवक के चेहरे पर महत्त्वाकाँक्षी रेखाओं का आभास मिल गया कि उसने उसी को कूटनीतिक चालों का मोहरा बनाने का निश्चय किया। और एक दिन उसके आदमी द्वारा बहुत कुछ प्रलोभन दिखाये जाने पर सीधा-सादा अनुभवहीन युवक अपने अभी तक के अर्जित किये हुए यश पर कालिमा पोत बैठा। वह बड़ी ही अशुभ घड़ी थी जब उसके कानों में ये शब्द पड़े थे-बेफिक्र रहो। बहादुर सिपाही हम तुम्हें देवगिरि की सूबेदारी तो देंगे ही, पर साथ में दूसरी खिल्अत भी तुम्हें बख्शी जायेगी, उन्हें पाकर तुम निहाल हो जाओगे। कृष्णराय। यह हिंदू राजा तुम्हारी कीमत क्या जाने....?

इस पर भी वह चुप रहा तो कहा गया कि आधा देवगिरि तुम्हारा, और आधे का इंतजाम हम खुद करेंगे। बस थोड़ी सी मदद चाहिए हमें....बिना इसके हम देवगिरि पर फतह नहीं पा सकते....। और तब जैसे उसकी महत्त्वाकाँक्षा ने उसे अंधा बना दिया और भूमि पर अचेतन पिण्ड के पतित होने की सी खोखली आवाज में उसने हामी भर दी। तय हुआ कि आज के ठीक पाँचवें दिन कैसे, क्या तुम्हें करना होगा, यह जानने के लिए यहीं के पड़ोस वाले जंगल में तुम आओ और हम भी आयेंगे...और उसके बाद फिर देवगिरि का राजा तुम स्वयं को ही समझना।

उसकी भावी पत्नी अद्वितीय सुंदरी थी, जिसमें उसे अपने प्राणों का आलोक दिखायी दे जाता था-वह आलोक न देख पाने पर , उसे अपने समीप का अनुभव कर पाने पर वह कैसे जीवित रहेगा, कभी-कभी वह इसकी सोच में खो जाता। दोषी चेतना संशयाकुल हो जाती है। अपनी इसी रौ में वह बहुत कुछ सोचता चला गया। काश! उसके सामने अपने देश की स्पष्ट कल्पना होती? अधिक से अधिक जो सोच सकता था वह यही कि देवगिरि नरेश का वह नमक खाता था और देवगिरि राज्य के प्रति उसे नमक के कर्तव्य के रूप में निभाना चाहिए-अदा करना चाहिए। जरूरत आन पड़े तो इसके लिए त्याग और बलिदान भी करने चाहिए। किंतु उसकी चिंतन परिधि ने उसे विश्वास करा दिया कि सभी स्वार्थी है। उसके हृदय के किसी संस्कारित कोने ने एकाध बार उसे चेताया कि वह मनुष्य से राक्षस न बने। अलाउद्दीन आततायी है। देवगिरि का शत्रु है। धर्म शत्रु है। वीरमति संभवतः इसे पसंद न करे और उससे नफरत करने लगे...!!

किंतु यह भाव जुगनू की भाँति आया-चमका और क्षण भर में उसे लगा कि वह भी प्रकाश है और उसके कल्पित प्रकाशपुँज से भिन्न, यह शायद पवित्र है, स्निग्ध है। अपनी ओर अपने प्राणों को हृदय को आकर्षित करता है। लेकिन देर तक ये भाव न रहे।

वीरमति के संपर्क में आने का अभी उसे ठीक से अवसर नहीं मिला था कि वह उसे समझा पाता। वह तो बस यही सोचता था कि स्त्री को गहने चाहिए, ऊँची सी अट्टालिका चाहिए जिसकी वह रानी बन सके और यही वह करने जा रहा था। जब वह देवगिरि नरेश को धोखा दे सकता है, उनके साथ विश्वासघात कर सकता है, तो खिलजी की ऐसी की तैसी। है ही वह किस खेत की मूली? उसे चकमा देने में कितनी देर लगेगी। कोई अपना तो है नहीं वह, यदि अवसर अनुकूल रहा तो सोते में सिर ही काट लेगा। इन दिवा कल्पनाओं के बीच पाँचवाँ दिन भी आ गया, जिसकी प्रतीक्षा में ये स्वार्थ के धागे बुने जा रहे थे। दिवस के गुजरते ही निरभ्र आकाश में असंख्य तारक जगमगा उठे। किंतु देवगिरि में जो आनंद हिलोरें ले रहा था, वह तारों के उदय काल के साथ ही कहीं विलीन हो गया। खिलजी की फौज मैदान से भाग खड़ी हुई थी और लगता था कि अब कभी अलाउद्दीन इधर की राह नहीं तकेगा।

नगर में अँधेरा घना होता जा रहा था। ऊपर से तारे खिले हुए थे और नगरवासी गंभीरता धारण किये कहीं-कहीं धीमे स्वरों में बातें करते दिख रहे थे। उसी समय देवगिरि की सीमा से कई मील दूर एक सघन वन में काले लबादों से अपने को ढके दो मनुष्य छायाएँ एक दूसरे के कान में बार-बार कुछ कहती हुई दिख रही थी।

“अच्छा तब यही ठीक है तुम सुरंग का दरवाजा खोले रखना और पहरेदार का कत्ल कर देना...। एक ने इस प्रकार कहा कि दूसरे के बजाय कोई तीसरा भी यह शब्द सुन नहीं सकता था। पर परामर्श करने वाले शायद बेफिक्र थे कि इस भयानक जंगल में इस समय कौन बैठा है।

“ मैं अपना वादा पूरा करूँगा, पर हमला ठीक मौके पर ही होना चाहिए और मुझे दिये हुए वचनों में यदि कुछ हेर-फेर किया गया तो याद रहे देवगिरि से निकलना भी दुश्वार हो जायेगा। जाने वाले घुड़सवारों के घोड़े की टापों का स्वर धीरे-धीरे सुनायी पड़ना बंद हो गया, फिर भी दूसरे आदमी का टहलना जारी था। कुछ क्षण और बीते की सहसा पीछे से किसी ने उस टहलने वाले व्यक्ति पर खड्ग प्रहार किया और एक ही हाथ में वह भूमि पर तड़पने लगा। देश को विदेशियों-विधर्मियों के हाथ बेचने वाले अभागे, तेरी करनी का फल आगे क्या होगा, यह तू नहीं जानता। नहीं तो यह सौदा कभी नहीं पटाता।

“कौन...? वीर...मती..मेरी...प्रि..य...”तलवार सीधे उसके कंधे पर पड़ी थी, किंतु दम तोड़ते भी अपने प्राणहन्ता को पहचान गया था। “हाँ, वीरमति-क्या तुझे यह ध्यान कभी नहीं आया, नारी सिर्फ वैभव और विकास की प्रतीक नहीं, वह त्याग और बलिदान की मूर्ति भी है। उसके स्वर में अभी भी कठोरता और आवेश था। वीरमति...तुम...देवी हो, मुझे माफ...कर देना।” इन अटकते हुए शब्दों के साथ उसके प्राण पखेरू हो गये। इसी के साथ आस-पास का अँधेरा और भी गाढ़ा हो गया। उसने अनुभव किया कि यह अँधेरा उसके हृदय में अनगिनत सुइयाँ चुभो रहा है। वह सोचने लगी, कल जब लोगों को पता चलेगा कि उसका होने वाला पति ऐसा था तो क्या कहेंगे वह सब? देश के प्रति कर्तव्य चुक गया...लेकिन पति के बिना...

तब? उसके हृदय ने हाहाकार करते हुए उससे पूछा...तब? चारों दिशायें मानो उससे यही सवाल करने लगी ओ भारतीय नारी ,तब ...? उसके चारों ओर व्याप्त प्रगाढ़ अंधकार ने उससे लिपट कर पूछा...तब?

उसने उठकर एक बार वृक्षों के बीच से झलकते तारों को देखा और फिर उसकी शून्य दृष्टि अपने पिता द्वारा दी गयी रक्त भरी तलवार से जा टकरायी और तब उसे जग-जग में व्याप्त तब का हल मिल गया। लपक कर उसने खड्ग उठाई और दूसरे ही क्षणं एक तरुणी का ताजा रक्त धरती पर नारी की देशभक्ति और सर्वस्व बलिदान की गाथा लिखने लगा।

First 9 11 Last


Other Version of this book



Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • सद्गुरु के स्वर
  • स्वप्न से आत्मबोध
  • अड़सठ तीरथ हैं घट भीतर ...
  • मन की कुसंस्कारों को छुपाना (Kahani)
  • चिर यौवन लाने को आतुर हैं ययाति की संतानें
  • दृश्य जगत की अदृश्य पहेलियाँ (Kahani)
  • जीवन-विद्या का उच्चतम सोपान- ध्यान
  • ज्ञान की रटो मत, आचरण में उतारो
  • कृत्रिम सृष्टि की दिशा में प्रयोगरत विज्ञान क्या सफल हो सकेगा ?
  • वीरमति का आत्मोत्सर्ग
  • आस्था संकट का निवारण इस तरह होगा
  • अक्षय आनन्द अध्यात्म की सर्वोपरि उपलब्धि
  • ब्रह्मविद्या का रहस्य निहित है- ब्रह्मचर्य में
  • भूलोक की कामधेनु है-गायत्री
  • मंत्र-सिद्धि का मर्म
  • स्वर्ग कहीं भूमि पर होना चाहिए (Kahani)
  • सपनों के झरोखे से मृत्यु का दर्शन
  • शाश्वत-सनातन मात्र विवेक ही है
  • सिद्धिदात्री सामर्थ्य है सविता देवता की साधना में
  • बलिदान ने जगायी संवेदना
  • यजन प्रक्रिया को सर्वांगपूर्ण बनाते हैं मंत्र
  • निर्दोष ऊर्जा स्रोत
  • ग्रामोत्थान प्रशस्त करेगा राष्ट्रोत्थान की प्रक्रिया को
  • गायत्री साधना के प्रत्यक्ष चमत्कार (Kahani)
  • निष्कलंक सम्पूर्ण क्राँति का बिगुल बज गया है
  • गायत्री परिवार की स्थापना का मूलभूत आधार - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
  • VigyapanSuchana
  • दीर्घसूत्री मत बनो
  • अपनों से अपनी बात - - महाकाल ही मंगलाचरण थिरकन को तीव्र से तीव्रतर बना रहा है
  • परिवर्तन की वेला आ पहुँची, विभूतिवान् अपने दायित्व सँभालें
  • अपरिमित सम्भावनाओं का आधार मानवी व्यक्तित्व (Kahani)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj