Magazine - Year 1997 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अक्षय आनन्द अध्यात्म की सर्वोपरि उपलब्धि
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
मनुष्य-जीवन का सर्वोपरि लाभ आध्यात्मिक लाभ है। साँसारिक लाभों के नितान्त अभाव की स्थिति में भी आध्यात्मिक लाभ मनुष्य को सर्वसुखी बनाने में सर्वदा समर्थ है, जबकि इसके अभाव में विश्व की समग्र उपलब्धियाँ भी मनुष्य को सुखी एवं सन्तुष्ट नहीं बना सकतीं। बल्कि उलटे वे जीवन के लिए भारभूत ही सिद्ध होती हैं और पतन-पराभव का कारण बनती है। अध्यात्म ही है, जो मनुष्य को तुच्छ से महान, नर से नारायण बनाने में समर्थ है। इसके अतिरिक्त संसार की कोई भी भौतिक उपलब्धियाँ मनुष्य को शूद्रता से विराट की ओर नहीं ले जा सकतीं।
कितनी ही धन-सम्पदा कमा ली जाए, कितनी ही विद्या प्राप्त कर ली जाए, कितनी ही शक्ति-संचय कर ली जाए-तब भी न तो संसार के दुखों से सर्वथा मुक्ति पायी जा सकती है और न ही महानता अर्जित की जा सकती है। धन अभावों एवं आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है। विद्या बौद्धिक विकास कर सकती है और शक्ति से किन्हीं दूसरों को वश में किया जा सकता है, किन्तु इस प्रकार की कोई भी सफलता दुखों से मुक्ति नहीं दिला सकती। धनवानों को दुख होता है। विद्वान शोक मनाते देखे जाते हैं और शक्तिमानों-बलशालियों को पराजित होते देखा गया है।
धन हो और विद्या न हो तो जड़ता से मिलकर धन विनाश का हेतु बन जाता है। विद्या हो, स्वास्थ्य न हो तो विद्या का कोई समुचित उपयोग सम्भव नहीं। दिन-रात स्वास्थ्य की चिन्ता लगी रहेगी, थोड़ा काम किया नहीं कि कभी सिरदर्द है तो कभी पीठ दर्द। कभी पेट गड़बड़ है तो कभी ज्वर घेरे है। इस प्रकार न जाने कितनी बाधाएँ और व्यथाएँ लगी रहती है। केवल विद्या के बल पर उनसे छुटकारा नहीं मिल पाता। इसी प्रकार शक्ति तो हो, पर धन और विद्या न हो तब भी पग-पग पर संकट खड़े रहते हैं। धन के अभाव में शक्ति निष्क्रिय रह जाती है और इसके बल पर यदि सम्पदा संचित भी कर ली जाए तो विद्या के अभाव में उसका कोई समुचित सदुपयोग नहीं किया जा सकता, विद्या रहित शक्ति भयानक होती है। वह मनुष्य को आततायी, अन्यायी और अत्याचारी बना देती है। ऐसी अवस्था में संकटों का पारापार नहीं रहता। धन, विद्या और शक्ति तीनों वस्तुएँ विश्व में एक साथ किसी को कदाचित ही मिलती हैं।
यदि एक बार यह तीनों वस्तुएँ किसी को मिल भी जाएँ तो हानि-लाभ वियोग-विछोह ईर्ष्या-द्वेष आदि के न जाने कितने कारण मनुष्य को दुखी और उद्विग्न करते रहते हैं। ऐसा नहीं हो पाता कि धन, विद्या और शक्ति को पाकर भी मनुष्य सदा सुखी, सन्तुष्ट एवं शाँत बना रहे। अध्यात्म के अतिरिक्त संसार की कोई भी ऐसी उपलब्धि नहीं, जिसके मिल जाने से व्यक्ति दुख-क्लेशों की ओर से सर्वथा निश्चित हो जाए।
सुप्रसिद्ध अमेरिकी उद्योगपति एडिंग्टन ने अपना संपूर्ण जीवन धन-संपत्ति की विशाल मात्रा अर्जित करने, भोग-ऐश्वर्य और इन्द्रिय-सुखों की तृप्ति करने में बिताया। वृद्धावस्था में भी उनके पास धन-सम्पत्ति के अम्बार लगे थे, पर वह शक्तियाँ, जो मनुष्य को आत्म-संतोष प्रदान करती हैं, एडिंगटन के पास से कब की विदा हो चुकी थीं, मृत्यु की घड़ियाँ समीप आई देखकर उनका ध्यान भौतिकता से हटकर दार्शनिक सत्यों और आध्यात्मिक तथ्यों की ओर आया। वह अनुभव करने लगे कि पार्थिव जीवन की हलचलें और भौतिक सुखोपभोग प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य नहीं, लोकोत्तर जीवन- तत्वों का शोध एक अनिवार्य कर्तव्य था- उसे भुला दिया गया और धन-सम्पदा विलास-वैभव जुटाने में ही जीवन- सम्पदा लुटा दी गयी। वे पश्चाताप की अग्नि में जलने लगे। गंभीरतापूर्वक विचार करने के पश्चात् उन्होंने निष्कर्ष निकाला- “ भौतिकता में क्षणिक सुख है और निरन्तर विकसित होने का विनाशकारी गुण। इनके
निष्कर्ष तो इतने खराब होते हैं कि जिनके बारे में कोई कल्पना ही नहीं की जा सकती। विक्षोभ और दुर्वासनाओं की भट्टी में जलता हुआ प्राणी मृत्यु के आने पर जल विहीन मछली और मणि-विहीन सर्प की तरह तड़पता है, पर तब सब परिस्थितियाँ हाथ से निकल चुकी होती हैं, केवल पश्चाताप ही शेष रहता है। “
जीवन के इस महत्वपूर्ण साराँश से वर्तमान और आगत पीढ़ी को अवगत कराने के लिए एडिंगटन ने एक महान साहस किया। उन्होंने एक संस्था बनायी और अपनी सारी सम्पत्ति उसे इसलिए दान कर दी कि यह संस्था मानव जीवन के आध्यात्मिक सत्य और तथ्यों की जानकारी अर्जित करे और उन निष्कर्षों से सर्वसाधारण को परिचित कराये, जिससे आगे मरने वालों को इस तरह पश्चाताप की ज्वाला में झुलसते हुए न विदा होना पड़े। यह संस्था अमेरिका में खोली गयी, जिसकी शाखा न्यूयार्क में है। वहाँ प्रतिवर्ष धर्म और विज्ञान के सम्बन्ध पर उत्कृष्ट कोटि के भाषण कराये जाते हैं।
जीवन में अध्यात्म का समावेश करने की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए मूर्धन्य मनीषी रसेल ब्रेन ने अपनी कृति ‘साइन्स, फिलॉसफी एण्ड रिलीजन’ में कहा है कि इसके अभाव में जीवन का कोई महत्व नहीं है। भौतिक पदार्थों की विपुलता कितनी ही क्यों न हो, वह आध्यात्मिक सुख-शान्ति की एक किरण की भी बराबरी नहीं कर सकती। उनके अनुसार “ विज्ञान हमें पदार्थ की भौतिक जानकारी दे सकता है, किन्तु पदार्थ क्यों बना ? कैसे बना ? इसका कोई उत्तर उसके पास नहीं है। जिन सत्य निर्णयों को विज्ञान नहीं दे सकता, उन्हें केवल दर्शन और धर्म के द्वारा ही खोजा जा सकता है। उसी का नाम अध्यात्म है।”
अज्ञात वस्तु की खोज मजेदार हो सकती है, पर जब तक उस वस्तु के सम्पूर्ण कारण को न जान लिया जाए, उस वस्तु को जीवन का अंग बनाना घातक ही होगा। मान लीजिए एक ऐसा व्यक्ति है, जिसे यह पता नहीं है कि अल्कोहल के गुण क्या हैं और हाइड्रोक्लोरिक एसिड के गुण क्या है ? सल्फर, अमोनिया, क्लोरीन, फास्फेट की कितनी-कितनी मात्रा में मिलकर कौन-सी चीज बनेगी ? पर वह जो भी भरी हुई शीशी मिलती जाती है, उनसे दवाएँ तैयार करता जाता है। तो क्या वे दवाएँ किसी मरीज को लाभ पहुँच सकती हैं ? लाभ पहुँचाना तो दूर वह मरीज की जान ही ले सकती हैं। नियन्त्रण रहित विज्ञान ऐसी ही दुकान है, जहाँ सीमित ज्ञान के आधार पर औषधियाँ बनती हैं और उनसे एक रोग ठीक होता है, पर वे दो नये रोग और पैदा कर देती है।
सुदूर अनन्त अन्तरिक्ष में ग्रह-नक्षत्र अपने-अपने परिक्रमा-पथ में सुव्यवस्थित रीति से चक्कर लगाते हैं। अब यह पता है कि कौन ग्रह पृथ्वी से कितनी दूर है ? किस ग्रह को सूर्य की परिक्रमा करने में कितनी यात्रा करनी पड़ती है। कितने ग्रह-गोलकों की सतह पर अन्तरिक्ष यान भी उतर चुके हैं और स्वसंचालित मशीनों की सहायता से उनकी आन्तरिक रचना के बारे में भी जानकारियाँ जुटा रहे हैं। पर यह गह नक्षत्र क्यों चक्कर काट रहे हैं ? उन्हें संचालित-नियंत्रित कौन कर रहा है ? यह विज्ञान नहीं बता सकता। उसके लिए हमें आध्यात्मिक चेतना की ही शरण लेनी पड़ती है। अध्यात्म में ही वह शक्ति है, जो मनुष्य के आन्तरिक रहस्यों का उद्घाटन कर सकती है। विज्ञान उस सीमा तक पहुँचने में समर्थ नहीं है।
अध्यात्म एक स्वयं-सिद्ध शक्ति है, उसका वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण नहीं किया जा सकता। मानवी मन-मस्तिष्क के गुणों के बारे में भौतिक विज्ञान चुप है। हमें नयी-नयी बातों के जानने की उत्सुकता क्यों होती है ? हम आजीवन कर्तव्यों से क्यों बँधे रहते हैं। निर्दयी कसाई भी अपने बच्चों से प्रेम और ममत्व रखते हैं, हिंसक एवं क्रूर डकैत भी स्वयं कष्ट सहते और दूसरों को त्रास देते, उन्हें मौत के घाट तक उतार देते हैं, पर अपनी पत्नी और बच्चों के भरण-पोषण और शिक्षा का प्रबन्ध करते हैं। चोर, अपहरणकर्ता और उठाईगीरों को भी अपने साथियों और मित्रों के साथ सहयोग करना पड़ता है। अपनत्व, सेवा, सहानुभूति और सच्चाई-यह आत्म के स्वयंसिद्ध गुण हैं। मानवीय जीवन में उनकी विद्यमानता के बारे में कोई सन्देह नहीं है। यह अलग बात है कि किसी में इन गुणों की मात्रा कम है। किसी में कुछ अधिक होती है।
सौंदर्य की अदम्य पिपासा, कलात्मक और नैतिक चेतना को भौतिक नियमों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। इन्हें जिस शक्ति के द्वारा व्यक्त और अनुभव किया जा सकता है, वह अध्यात्म है। हमारा निन्यानवे प्रतिशत जीवन इन्हीं से घिरा हुआ रहता है। एक प्रतिशत आवश्यकताएँ भौतिक हैं, किन्तु सर्वाधिक दुखद पहलू यह है कि इस एक प्रतिशत के लिए ही जीवन के शत-प्रतिशत अंश को न्यौछावर कर दिया जाता है। 99 प्रतिशत भाग अन्ततोगत्वा उपेक्षित ही बना रहता है। इससे बढ़कर मनुष्य का और क्या दुर्भाग्य हो सकता है। अशान्ति, असंतोष उसी के परिणाम हैं।
‘द विल टु बिलीव’ नामक पुस्तक के सुप्रसिद्ध लेखक वैज्ञानिक विलियम जेम्स और हैण्डरसन ने जब महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन के ‘ थ्योरी आफ रिलेटिविटी’ अर्थात्-सापेक्ष सिद्धान्त को पढ़ा और टाइम, स्पेस, मोशन एण्ड काजेशन (समय, ब्रताण्ड, गति और सृष्टि के मूलतत्वों ) के साथ व्यक्तिगत अहंता (सेल्फ) का तुलनात्मक अध्ययन किया तो, उन्हें भी यही कहना पड़ा कि भौतिक जगत संभवतः सम्पूर्ण नहीं है। हमारा सम्पूर्ण भौतिक जीवन आध्यात्मिक वातावरण में पल रहा है। उस परम पालक आध्यात्मिक शक्ति को ही लक्ष्य कह सकते हैं। ऐसी शक्ति को अमान्य नहीं किया जा सकता।
उन्होंने आगे बताया कि वह तत्व जो विश्व के यथार्थ का निर्देश करते हैं भौतिक शास्त्र के द्वारा विश्लेषित नहीं किये जा सकते। उसके लिए एक अलग आध्यात्मिक स्केच-नक्शा तैयार करना पड़ेगा और सचेतन इकाइयों द्वारा ही उनका अध्ययन करना पड़ेगा। यह सचेतन इकाइयाँ हमारे विचार, श्रद्धा, आस्था, अनुभूतियाँ, तर्क और भावनाएँ हैं। उन्हीं के द्वारा अध्यात्म को स्पष्ट किया जा सकता है। उन्हीं के विकास द्वारा मनुष्य जीवन में अभीष्ट सुख-शाँति की प्राप्ति की जा सकती है। भावनाओं की तृप्ति भावनाएँ ही कर सकती हैं। भौतिक पदार्थ या धन-सम्पदा नहीं। इसलिए भाव-विज्ञान अर्थात् अध्यात्म की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
संसार में रहकर भौतिक उपलब्धियाँ प्राप्त करने, धन-सम्पदा अर्जित करने का प्रयत्न करना बुरा नहीं। बुरा है उनके लोभ में उस महान लाभ को त्याग कर देना, जो स्थिर एवं शाश्वत सुख का हेतु है। ऐसा सुख, जिसमें न ते विक्षेप होता है और न परिवर्तन। उपलब्धियों के बीच से गुजरते हुए मानव-जीवन के सारपूर्ण लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न करना ही सच्चा पुरुषार्थ है, मनुष्य को जिसे करना ही चाहिए।
आध्यात्मिक जीवन आत्मिक सुख का निश्चित हेतु है, जिस पर हमारी आन्तरिक तथा बाह्य - दोनों प्रकार की उन्नतियाँ तथा समृद्धियाँ प्राप्त करने के लिए भी जिन परिश्रम, पुरुषार्थ, सहयोग, सहकारिता आदि गुणों की आवश्यकता होती है वे सब आध्यात्मिक जीवन के ही अंश हैं। हमारा आन्तरिक विकास तो अध्यात्म के बिना हो ही नहीं सकता।
अध्यात्मवाद जीवन का सच्चा ज्ञान है। इसको जाने बिना संसार की समस्त भौतिक उपलब्धियाँ, सम्पदाएँ एवं सारे ज्ञान अपूर्ण हैं, लेकिन इसको जान लेने के बाद फिर कुछ भी जानने और पाने को शेष नहीं रह जाता। यह वह तत्त्वज्ञान एवं महाविज्ञान है, जिसकी जानकारी होते ही मानव जीवन अमरता पूर्ण आनन्द से ओत-प्रोत हो जाता है। आध्यात्मिक ज्ञान से पाये हुए आनन्द की तुलना संसार के किसी आनन्द से नहीं किया जा सकती, क्योंकि इस आत्मानन्द के लिए किसी आधार की आवश्यकता नहीं होती। वस्तुजन्य सुख नश्वर होता है, परिवर्तनशील तथा अन्त में दुख देने वाला होता है। वस्तुजन्य मिथ्या आनन्द वस्तु के साथ ही समाप्त हो जाता है, जबकि आध्यात्मिकता से उत्पन्न आत्मिक-सुख जीवन भर साथ तो रहता ही है, अन्त में भी मनुष्य के साथ जाया करता है, एक बार प्राप्त हो जाने पर फिर कभी नष्ट नहीं होता। शरीर की अवधि तक तो रहता ही है, शरीर छूटने पर भी अविनाशी आत्मा के साथ संयुक्त रहा करता है।