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Magazine - Year 1997 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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भूलोक की कामधेनु है-गायत्री

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First 13 15 Last
देवी-भागवत् पुराण में भगवती गायत्री महाशक्ति की महत्ता का विस्तारपूर्वक वर्णन है। उसे समस्त देवताओं का उपास्य और समस्त मन्त्रों का शिरोमणि बताया गया है। अनादि काल से सर्वत्र उसी की महिमा गायी जाती है और उपासना को प्रधानता दी जाती है। शास्त्र-इतिहास में ऐसा ही विवरण मिलता है और देवताओं, अवतारी देवदूतों द्वारा अपनी उपासना का रहस्योद्घाटन करते हुए इसी महाशक्ति को अपना इष्टदेव प्रतिपादित किया जाता रहा है। शक्तियों का केन्द्र वस्तुतः यही महामंत्र है। इसकी महत्ता का प्रतिपादन करते हुए शास्त्र कहते हैं-

न गायत्र्याः परो धर्मा न गायत्र्याः परन्तपः। न गायत्र्याः समो देवो न गायत्र्याः पाते मनुः॥ गातरं त्रायते यस्माद् गायत्री तेन सोच्चते।

अर्थात्-गायत्री से परे कोई नहीं है, गायत्री से परम अन्य कोई भी तपश्चर्या नहीं है। गायत्री के समान अन्य कोई देवता नहीं है। गायत्री का मंत्र सब मंत्रों में श्रेष्ठ है। जो कोई इस गायत्री का गायन अर्थात् जप किया करता है, उसकी यह गायत्री त्राण-रक्षा किया करती है। इसीलिए इसका गायत्री-यह नाम कहा जाता है। इसी की उपासना से मनुष्यों से लेकर त्रिदेवों तथा अन्य देवताओं तक का कल्याण होना सिद्ध होता रहा है। प्रज्ञातत्व की अधिष्ठात्री गायत्री ही है।

आध्यात्मिक साधनाओं द्वारा आत्मिक प्रगति के लिए जिस शक्ति की आवश्यकता पड़ती है, वह प्रज्ञातत्व ही है। प्रज्ञा की अभीष्ट मात्रा यदि अपने पास विद्यमान हो तो फिर आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रगति करने के लिए कोई बाधा नहीं रह जाती है। वह सुविधा और परिस्थितियाँ आसानी से बन जाती हैं, जिनके आधार पर मनुष्य नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम और आत्मा से परमात्मा बन जाता है। इसके लिए कोई विशेष श्रम या मनोयोग लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में उतना ही श्रम और मनोयोग लगाना पर्याप्त रहता है जितना कि भौतिक आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए जरूरी होता है। लोभ और मोह की पूर्ति में जितना पुरुषार्थ करना और जितना जोखिम उठाना पड़ता है, आत्मिक प्रगति के लिए उससे कम में ही काम चल जाता है। महामानवों को उससे अधिक कष्ट नहीं सहने पड़ते जितने कि साधारण लोगों को सामान्य जीवन में नित्यप्रति उठाने पड़ते हैं। फिर कठिनाई क्या है ? ऋषि-मुनियों ने अध्यात्मवेत्ताओं एक ही कठिनाई बताई है और वह है-प्रज्ञा प्रखरता की। यदि प्रज्ञा को प्रखर बनाया जा सके, वह प्राप्त हो सके, तो समझना चाहिए कि जीवन को सच्चे अर्थों में सार्थक बनाने वाली ऋद्धि-सिद्धियों की उपलब्धियों से भर देने वाली संभावनाएँ हस्तगत हो गयी हैं।

वस्तुतः इस प्रज्ञातत्व का ही दूसरा नाम गायत्री है। गायत्री महाशक्ति को तत्वज्ञानियों ने इसीलिए सर्वोपरि दिव्य क्षमता सम्पन्न बताया है और इसीलिए इसका इतना अधिक माहात्म्य बताया है कि इसका आश्रय लेकर कोई भी व्यक्ति सहज ही आत्मिक प्रगति की उच्च कक्षा में पहुँच सकता है। प्रज्ञातत्व को अथवा गायत्री को दूरदर्शी विवेकशीलता एवं आत्मोत्कर्ष के लिए अभीष्ट बल प्रदान करने वाली साहसिकता भी कह सकते हैं। गायत्री उपासना से यह दूरदर्शी विवेकशीलता और आत्मिक प्रगति के लिए अभीष्ट साहसिकता पर्याप्त मात्रा में उत्पन्न होती है। इसलिए मनीषियों ने आत्मिक प्रगति के लिए की जाने वाली समस्त साधना-उपासनाओं में गायत्री को सर्वश्रेष्ठ माना है।

गायत्री महाशक्ति की उपासना का प्रतिफल प्रज्ञा के रूप में-दूरदर्शी विवेकशीलता और आत्मबल के रूप में प्राप्त होता है और उसके बल पर साधक अपने को आत्मिक दृष्टि से सुविकसित एवं सुसम्पन्न बनाता है। परिणामस्वरूप उसके आत्मिक जीवन का स्तर ऊँचा उठता है और वह व्यक्ति सामान्य न रहकर देवात्मा, महात्मा तथा परमात्मा के स्तर तक जा पहुँचता है। इस संदर्भ में मनुस्मृति 2/87 में उल्लेख है- “गायत्री उपासना समस्त सिद्धियों का आधारभूत है। गायत्री उपासक अन्य कोई अनुष्ठान या साधना न करे, तो भी सबसे मित्रवत आचरण करता हुआ वह ब्रह्मं को प्राप्त करता है, क्योंकि इस महामंत्र के जप से उसका चित ब्राह्मीचेतना की तरह शुद्ध व पवित्र हो जाता है।” निश्चय ही जहाँ इस स्तर की आन्तरिक सम्पन्नता होगी, वहाँ कहने की आवश्यकता नहीं कि आत्मिक सम्पन्नता की अनुचरी भौतिक सम्पन्नता भी अनिवार्य रूप से होगी ही। आत्मिक दृष्टि से सुसम्पन्न और सुविकसित व्यक्ति इन भौतिक विभूतियों का उद्धत प्रदर्शन नहीं करते, उन्हें श्रेष्ठ सत्कार्यों में ही लगाते हैं। इसलिए वे साँसारिक दृष्टि से अन्य मनुष्यों की अपेक्षा साधारण स्तर के ही दिखाई देते हैं। कइयों को उनकी यह सादगी देखकर उनके दरिद्र होने का भ्रम भी हो जाता है। दूसरे उन्हें क्या समझते हैं, इसकी परवाह न कर वे आत्मिक पूँजी के धनी अपने आप में ही संतुष्ट रहते हैं और सच्चे अर्थों में सुसम्पन्न बनते हैं।

जिस प्रज्ञा को दूरदर्शी विवेकशीलता, निर्मल प्रखर बुद्धि और आत्मबल के रूप में जाना जाता है, उसे आकर्षित करने का अनुभूत और सर्वोपरि सर्वसुलभ उपाय है- गायत्री महाशक्ति की उपासना। इस तत्व को आकर्षित कर साधक परब्रह्म की विशिष्ट अनुकम्पा, दूरदर्शी विवेकशीलता और सन्मार्ग अपना सकने वाली प्रखरता प्राप्त करता है। यह अनुदान प्राप्त कर वह तो स्वयं धन्य बन ही जाता है, अपने आस-पास के समूचे वातावरण में भी वैसी ही विशेषताएँ उत्पन्न करता ह है। उसके ऊर्जा सम्पन्न व्यक्तित्व से आस-पास का, उसके सम्पर्क क्षेत्र का समूचा वातावरण प्रभावित होता रहता है और सुखद सम्भावनाओं का क्रम चल पड़ता है। इस सम्बन्ध में मानवी महाशक्ति का, उसकी उपलब्धियों का, उसकी उपासना का परिचय देते हुए तत्त्वदर्शियों ने बहुत कुछ कहा है। शास्त्रवचनों में इस तथ्य का उल्लेख स्थान-स्थान पर हुआ है।

गायत्री महाशक्ति का साधक किस प्रकार कायाकल्प करता है ? इस संदर्भ में शास्त्रकारों का कथन है कि यह शक्ति मनुष्य में सत्-असत् का निरूपण करने वाली, नीर-क्षीर विवेक का भाव जगाने वाली बुद्धि का विकास और परिष्कार करती है। इसके प्राप्त होने का प्रथम चमत्कार तो यह होता है कि साधक वासना-तृष्णा की पशु-प्रवृत्तियों से ऊँचा उठकर मनुष्योचित कर्म-धर्म को समझने और तदनुसार उत्कृष्टतावादी नीति अपनाने के लिए अन्तः प्रेरणाएँ प्राप्त करता है तथा साहसपूर्वक आदर्शवादी जीवन जीने की दिशा में चल पड़ता है। ऐसे व्यक्ति स्वभावतः दुष्कर्मों से ही नहीं, दुर्भावनाओं से भी विरत हो जाते हैं और उनके क्रिया-कलापों में से, अंतःक्षेत्र में से अवांछनीयताएँ पूरी तरह चली जाती-निकल जाती हैं। शास्त्रकार ने इस परिवर्तन को धर्म-स्थापना और अधर्म-निवारण के रूप में प्रतिपादित करते हुए प्रार्थना की है-

“धर्मोन्नतियधर्मस्य नाशनं जनहृदछुँचिम्। माँगल्ये जगतो माता गायत्री कुसनात्सदा॥”

अर्थात् धर्म की उन्नति, अधर्म का नाश, भक्तों के हृदय की पवित्रता तथा संसार का कल्याण गायत्री माता करे।

महाभारत- भीष्म पर्व 1/4/16 में भी उल्लेख है-

“यएताँवेदगायत्रीपुण्याँसर्वगुणन्विताम्। तत्वेनभरतश्रेष्ठसलोकेनप्रणश्यति॥

अर्थात्-हे राजन् ! जो इस सर्वगुण सम्पन्न परम पुनीत गायत्री तत्त्वज्ञान को समझकर उपासना करता है, उसका संसार में कभी पतन नहीं होता।

गायत्री महामंत्र में जिस प्रज्ञा को “धियः’ शब्द से सम्बोधित किया गया है और उसे अन्तःचेतना के कण-कण में ओत-प्रोत करने की घोषणा की है, उसी को शास्त्रकारों ने अन्यत्र ऋतम्भरा प्रज्ञा, भूमा आदि नामों से चर्चा की है। यह शब्द सामान्य व्यवहार में काम आने वाली बुद्धि के लिए नहीं आया है। इस सामान्य व्यवहार में काम आने वाली बुद्धि के लिए नहीं आया है। इस सामान्य व्यवहार में काम आने वाली बुद्धि का विकास तो सामान्य उपायों से भी सम्भव है। चतुरता, कुशलता एवं जानकारी बढ़ाने का काम शिक्षा के द्वारा स्कूलों के माध्यम से भी पूरा हो जाता है। प्रज्ञा इससे सर्वथा भिन्न तत्व है। जिस विद्या के द्वारा साधक को आत्मबोध होता है। वह जीवन का महत्व, स्वरूप एवं लक्ष्य का ज्ञान प्राप्त करता है, सत-असत का उचित

अनुचित का, क्षीर-नीर का विवेचन करना है, उस विवेचक अंतःवृत्ति का नाम ही प्रज्ञा है और उसी को गायत्री कहा जाता है।

गायत्री उपासना के द्वारा साधक में प्रज्ञा शक्ति का अभिवर्द्धन होने के साथ वे विशिष्ट क्षमताएँ सिद्धियाँ भी प्राप्त होती है। जिनका वर्णन विद्या के अवगहन तथा योग, तप आदि के के साधन विधान के साथ जुड़ा हुआ है। गायत्री उपासक की आत्मिक पूँजी निरंतर बढ़ती चली जाती है और यदि वह धैर्य तथा साहसपूर्वक आत्मपरिष्कार करता हुआ अपने मार्ग पर, साधनापथ पर बढ़ता चलता है, तो वह एक दिन नर से नारायण के स्तर तक पहुँचकर सिद्ध पुरुषों की-सी स्थिति में जा पहुँचता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में इसी तथ्य को उद्घाटित करते हुए कहा गया है-

“ हे आद्यशक्ति ! आप योगनिद्रा रूप योगरुपा, योगदात्री हैं, जो कि योगियों को योग प्रदान किया करती हैं। आप सिद्धों को सिद्धियाँ देने वाली हैं। आप सिद्धि-सिद्धियों की योगिनी हैं। आप विद्वानों की विद्या और बुद्धिमान सत्पुरुषों की बुद्धि हैं। जो प्रतिभा वाले पुरुष हैं, उनकी आप मेधा, स्मृति और प्रतिभा के स्वरूप वाली हैं। आप ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं द्वारा पूजित हैं। ब्राह्मणों में ब्राह्मणत्व और तपस्वियों में तप आप ही हैं।”

बृहदारण्यक उपनिषद् में गायत्री को ब्रह्मविद्या का, देव विद्या का, परब्रह्म शक्ति का स्वरूप बताया गया है और कहा गया है कि इस महाशक्ति का आश्रय लेकर साधक ब्रह्मतेज का अधिकारी बनता है तथा वह सबकुछ प्राप्त कर लेता है, जो इस संसार में पाने योग्य है। यथा -

तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि धामनामासि। प्रियं देवानामनाधृष्टं देवयजनमसि॥ गाययस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि नहि पद्यसे। नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परोरजसेसावदो मा प्रापत्। - बृहदा0 5/14/7

अर्थात्-हे गायत्री! तुम तेज रूप हो, निर्मल प्रकाश रूप हो, अमृत एवं मोक्ष रूप हो, चित्तवृत्तियों का निरोध करने वाली हो, देवों की प्रिय आराध्य हो, देवपूजन का सर्वोत्तम साधन हो। हे गायत्री! तुम इस विश्व-ब्रह्माण्ड की स्वामिनी होने से, एक पदी वेद विद्या की आधारशिला होने से द्विपदी, समस्त प्राणशक्ति का संचार करने से त्रिपदा और सूर्यमण्डल के अंतर्गत परम तेजस्वी पुरुषों की आत्मा होने से चतुष्पदी हो। रज से परे हो भगवती! श्रद्धालु साधक सदा तुम्हारी उपासना करते हैं।

गायत्री मंजरी में कहा गया है-

भूलेकस्यास्य गायत्री कामधेनुर्मताबुधैः। लोक आश्रायणे नामुँ सर्वमेधाधिगच्छति॥

अर्थात्-देव वर्णित सारी सिद्धियाँ गायत्री उपासना से मिल सकती है।

गरुड़ पुराण में उल्लेख हैं-

“ जिस-जिसका हाथ स्पर्श करता है और जो-जो नेत्र से देखता है, वह समीपूत हो जाता है। गायत्री से परे अन्य कुछ भी नहीं है। यह गायत्री सर्वोपरि शिरोमणि मंत्र है।”

सन्ध्या भाष्य में गायत्री को

“ सर्वात्म प्रतिपादकोऽय गायत्री मन्त्र।”

अर्थात्-गायत्री को सर्वत्र आत्मा को प्रखर करने वाला मंत्र कहा गया है। आध्यात्मिक प्रगति के लिए आत्मबल को प्रखर बनाने के लिए गायत्री महाशक्ति किस प्रकार काम करती है। यह प्रज्ञातत्व के महत्व से समझा जा सकता है। प्रज्ञा शक्ति को संक्षेप में वह आलोक कहा जा सकता है, जो साधक के पथ को निरंतर प्रकाशित और उसके बल का अहर्निश प्रदीप्त रखता है। इस शक्ति को आकर्षित करने में गायत्री महामंत्र के समतुल्य और उपासना नहीं है। इसलिए गायत्री को सर्वोपरि साक्षात् सर्व देवता स्वरूप, सर्व शक्तिमान, सबको प्रकाश देने वाला और परमात्मा के सर्वात्मा-स्वरूप का ज्ञान कराने वाला है। आत्मोत्कर्ष के लिए हमें इसका आश्रय लेना ही चाहिए।

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