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Magazine - Year 1997 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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गायत्री परिवार की स्थापना का मूलभूत आधार - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

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सितम्बर 1973 (गतांक से आगे)

मित्रों, गायत्री मंत्र की, गायत्री माता की - भगवान की मूर्तियाँ हमारे घरों में होनी चाहिए। लेकिन इससे भी ज्यादा शानदार, इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि हर इनसान के, हर व्यक्ति के और हिन्दू के हृदय में इनकी स्थापना की जाए। गायत्री मंत्र केवल हिन्दुओं के लिए ही नहीं है, वरन् वह प्रत्येक धर्मावलम्बी व मजहब के सामने वालों के लिए है। हमें उन्नति करनी है, तो इन प्रतीकों को फिर अपनाना पड़ेगा, जिसको हम गायत्री कहते हैं। जिसकी स्थापना शरीरों की गयी थी। स्थापना मंदिरों में नहीं, पूजा - घरों में ही नहीं, बल्कि प्रत्येक हिन्दू के शरीर के ऊपर इसकी स्थापना हुई। कैसे स्थापना हुई ? शिखा सूत्र के रूप में हुई। शिखा क्या है ? शिखा - एक विवेकशीलता को देवी, ज्ञान की देवी हमारे मस्तिष्क के ऊपर हावी है। मस्तिष्क के ऊपर हावी है और झण्डे के रूप में फहराती है। शिखा क्या है ? शिखा गायत्री है। जिस प्रकार से शंकर भगवान का सिम्बल, शंकर भगवान का चित्र हम गोल-मटोल बना देते हैं। और मंगलमय हो लेते हैं, उसी तरह से गायत्री माता की मूर्ति के रूप में हमारी शिखा के ऊपर रखा गया है। हम शिखा की स्थापना कराएँगे और हम आदमी से कहेंगे कि आपको शिखा जरूर रखनी चाहिए, क्योंकि ये गायत्री माता की प्रतीक है, गायत्री माता की मूर्ति है। हम हर आदमी से कहेंगे कि आपको अपने कंधों पर ऊपर सामाजिक कर्तव्य, नैतिक कर्तव्य की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। वे कर्तव्य क्या हैं ? कर्म क्या हैं ? उसको हम यज्ञोपवीत कहते हैं, जो हमारे कंधे पर रखा हुआ है। कर्म करने की जिम्मेदारी हमारे कंधे पर रखी हुई है। कर्म करने की जिम्मेदारी हमारे हृदय पर टँगी रहनी चाहिए। कर्म करने की जिम्मेदारी हमारे कलेजे से चिपकी रहनी चाहिए। कर्म हमारे आगे भी रहना चाहिए, कर्म हमारी पीठ के ऊपर भी रहना चाहिए। ये क्या है ? ये है यज्ञोपवीत। यज्ञोपवीत हमारे कंधे पर रखा हुआ है, हमारे कलेजे पर रखा हुआ है, हमारे हृदय पर रखा हुआ है हमारी पीठ पर रखा हुआ है। हमने चारों ओर से अपने आपको खींचकर बाँध दिया है, जिससे कि यह सतत ख्याल बना रहे कि सामाजिक कर्तव्य, नैतिक कर्तव्य और पारिवारिक कर्तव्य से हम जुड़े हुए हैं और बंधे हुए है।

जानवर के गले में रस्सा बाँध देते हैं और फिर उसे खूँटे से बाँध देते हैं, ताकि दायरे में रहा करें, कानून में रहा करे। हमारे ऋषियों ने भी हमको एक रस्से से बाँध दिया है, जो हमारे कंधे से बँधा हुआ है, हमारे हृदय से बँधा हुआ है हमारे कलेजे से बँधा हुआ है, हमारी पीठ से बँध हुआ है। चारों ओर से हमें जकड़कर बाँध दिया है और हमारे विवेक को, हमारी अक्ल को बाँध दिया है। यह क्या है ? यह है - यज्ञोपवीत और शिखा। शिखा और यज्ञोपवीत क्या है ? बताइए। ये हैं हमारे गायत्री मंत्र और यज्ञ। ये दोनों के दोनों प्रतीक हैं। यज्ञ से उपवीत किया हुआ, यज्ञ से प्राण प्रतिष्ठा किया हुआ धागा। इसका नाम क्या है ? यज्ञोपवीत, जो हमारे कंधे पर स्थापित है और शिक्षा ? ये गायत्री मंत्र की व्याख्या है, जो हमारे अपने मस्तिष्क रूपी किले के पर छाई रहती है और हमारे झण्डे के रूप में फहराती रहती है।

यह शरीर ही हमारा किला है। यह हमारा लाल किला है। स्वतंत्रता दिवस के समय हमने लाल किले के ऊपर झण्डा फहरा लिया था। कब फहरा लिया था ? आज से छब्बीस - सत्ताईस वर्ष पहले जिस दिन अंग्रेज यहाँ से विदा हुए थे, उस दिन हमने अपने दिल्ली वाले लाल किले के ऊपर तिरंगा झण्डा फहराया था। इसी तरह भारतीय संस्कृति का, मानवी मूल्यों का सद्गुणों का झण्डा हमारे मस्तिष्क के ऊपर फहराता है। यह शरीर हमारा किला है। यह हमारे व्यक्तिगत जीवन का किला है। इसके ऊपर हम झण्डे की स्थापना करते हैं और व्यक्तिगत शिखा की स्थापना करते हैं। अब हम शिखा को प्यार करना और मुहब्बत करना सिखाएंगे। किले को प्यार करना और किले को मुहब्बत करना अब हम सिखाएंगे लोगों को। हम घर-घर जाएँगे इसे सिखाने, क्योंकि हिन्दू धर्म महान है, हिन्दू धर्म विश्व का धर्म है, ये मनुष्यों का धर्म है। हिन्दू धर्म कोई मजहब नहीं है। अभी-अभी हमने एक किताब लिखकर तैयार की है, शायद एक-दो महीने के छपकर तैयार हो जाए। हिन्दू धर्म के जो सारे सिद्धान्त हैं, वे मात्र हिन्दू लोगों के लिए ही नहीं है, बल्कि ये यूनीवर्सल हैं। ये विश्वव्यापी हैं, मानवमात्र के लिए हैं। हर देश के निवासी के लिए हैं। चाहे वह हिन्दू धर्म को मानता हो, चाहे न मानता हो। ये सारे के सारे सिद्धान्त मानवमात्र के सिद्धान्त हैं, विश्वव्यापी सिद्धान्त हैं, सार्वभौम सिद्धान्त हैं। सारे के सारे धर्मों का निचोड़ हमारे हिन्दू धर्म में है।

हिन्दू धर्म का मूल क्या है ? हिन्दू धर्म का मूल वह है - जिसको हम शिक्षा कहते हैं। जिसको हम यज्ञोपवीत कहते हैं अब हम इस झण्डे को नष्ट नहीं होने देंगे और हर हिन्दू को कहेंगे कि आप इसको प्यार करना सीखिये । आप भी अपनी संस्कृति को प्यार करना सीखिये, आप अपनी माँ को प्यार करना सीखिये और आप अपने बाप को प्यार करना सीखिये,। ये हमारा महत्वपूर्ण क्रिया-कलाप है और इस क्रिया - कलाप का हम विस्तार करेंगे और आपके मनों में और जनता के मनों में स्थापित करेंगे। जब मुसलमान भारत आये थे, तब उन्होंने कहा था कि सुनो हम तुम्हारी चोटी काटना चाहते हैं। अब तुम्हारी चोटी को उतार देंगे। लोग बोले ठीक है, ताकत आपके हाथ में है और फौज आपके साथ में है और बन्दूक आपके हाथ में है। हम क्या कर सकते हैं ? हथियार हमारे पास नहीं है। आप जरूर हमारी चोटी काट सकते हैं, लेकिन एक मेहरबानी कीजिए। क्या मेहरबानी करें ? आप इस चोटी को यहाँ से न काट कर गर्दन से काट दीजिए। कारण, चोटी की जड़ यहाँ तक आई है। यदि आप इसे यहाँ से काट डालेंगे तो हमको संतोष बना रहेगा और कोई हमको दुःख का एहसास नहीं होगा और शान्तिपूर्वक दुनिया से चोटी भी चली जाएगी और हम भी चले जाएँगे । अतः आप हमारा सिर काट डालिए। लाखों व्यक्तियों के सिर को मुसलमानों ने कलम करा दिया था।

अपनी शिखा और जनेऊ को हम कितना प्यार करते थे। आपको तो नहीं मालूम, पर हमें मालूम हैं। आपको तो साढ़े चौहत्तर का आशय भी नहीं मालूम कि किसे कहते हैं साढ़े चौहत्तर ? पहले जमाने में पुराने जमाने में लोग लिफाफे पर साढ़े चौहत्तर नम्बर डालते थे। आपको मालूम है क्यों डालते थे ? जो कोई उस लिफाफे को खोल लेगा, उसको साढ़े चौहत्तर मन जनेऊ, जो अगणित हिन्दुओं ने पहन रखे थे और काट डालें गये थे मुसलमानों के द्वारा, उसकी जो हत्या उन्हें पड़ी होगी, पाप पड़ा होगा, उस आदमी को भी पाप पड़ेगा, जो हमारी चिट्ठी को बिना बताए हुए खोल लेगा और चुपचाप पढ़ लेगा और फिर चिपका देगा। बंद कर देगा। उतना ही उसे पाप पड़ेगा। पता नहीं पाप पड़ता था कि नहीं और वह साढ़े चौहत्तर मन जनेऊ थे कि नहीं। मैं इस बहस में नहीं जाऊँगा। लेकिन भावना ये थी कि हम लोगों ने साढ़े चौहत्तर मन जनेऊ और शिक्षाएँ कटवा दी थीं और उसके लिए आप अंदाज लगा लीजिए, साढ़े चौहत्तर मन जनेऊ जिस तराजू पर तौले गए होंगे उसके लिए कितना खून बहाया गया होगा ? कितनी गर्दन कटाई होंगी ? हमने बहुत गर्दन कटाई हैं। हमने अपना बहुत खून बहाया हैं। क्योंकि हम अपनी शिखा को प्यार करते हैं। जनेऊ को हम प्यारे करते हैं। अपनी चोटी से प्यार करते हैं हम। शिवाजी न होते तो चोटी भी न होती सबकी। चोटी की रक्षा करने के लिए राणाप्रताप, शिवाजी और गुरुगोविन्द सिंह ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी थी। और किसका-किसका नाम बताएँगे आपको कि चोटी के लिए कितनों ने अपनी जान न्यौछावर कर डाली, कुर्बानी कर डाली। अब यह चोटी हमारे हाथ से चली गई, नीचे आ गई। अब यह खिसक रही है। कौन काट रहा है इसको मुसलमान काट रहे हैं इसको ? नहीं, ईसाई भी नहीं काट रहे हैं इसको ? तो फिर कौन काटता है ? इसको वो काटता है, जिसको हम इस युग की अनास्था कहते हैं। यही अनास्था चोटी को काटती चली जाती है। आप पता लगा लें कि किन-किन बच्चों के सार पर चोटी है ? आपको एक भी बच्चे के सिर पर चोटी दिखाई नहीं पड़ेगी, यही हाल जनेऊ का है।

अगर हम जनेऊ का पता लगाने के लिए चलें और किसी कालेज, किसी विश्वविद्यालय में जाएँ और बच्चों को नंगा कर के देखें और पूछे कि बच्चे तुम्हारे पास जनेऊ है क्या, जरा हमको दिखाना। उत्तर मिलेगा - जी नहीं। अब जनेऊ खत्म हो गया। हमारे - आपके जैसे दकियानूसी कहलाने वाले लोगों के ऊपर शायद जनेऊ रखा भी हो, लेकिन वहाँ भी दकियानूसी शब्द लगा हुआ है। जनेऊ हमें जँचता नहीं है। उल्टे कहा जाता है कि जो कोई जनेऊ पहनेगा, उसके घर से मौत हो जाएगी। हमारे यहाँ तो सात पीढ़ी से जनेऊ नहीं पहना गया। बेटे को हम जनेऊ नहीं पहना गया। बेटे को हम जनेऊ पहनाएँगे तो हमारी अम्मा नाराज हो जाएगी और यह कहेगी कि हमारे तो बाप - दादाओं ने भी नहीं पहना। इसे कहाँ से ले आया हमारे घर में, कोई और अनिष्ट हो जाएगा। और अशुभ हो जाएगा। जनेऊ को तू उतार दे। हमारे घर में जँचता नहीं है। जनेऊ हम कैसे पहनेंगे ? हमारे तो पिता जी जिन्दा है। क्या हम मार डालें पिता की ? नहीं आप मार न डालें पिता को। तो, तो क्या करेंगे। जब तक हमारे पिता जिन्दा हैं। तब तक हम जनेऊ कैसे पहन सकते हैं? बाप जनेऊ पहनेगा। बाप जब मर जाएगा तो बेटा जनेऊ पहनेगा । अजीब किस्सा है कि अगर बाप के सामने बेटा पहनेगा तो बाप मर जाएगा। अरे बाबा, ये क्या कहता है तुम कि जनेऊ हमारे वंश में और हमारे खानदान में किसी ने नहीं पहना।

दुनिया में कौन-कौन से रिवाज चले हुए हैं कि जनेऊ कौन पहनेगा ? मर्द पहनेगा, औरत नहीं पहनेगी। लड़कियों को हम धन्यवाद देते हैं। क्योंकि शिखा की लाज, शिखा की इज्जत इन लोगों ने रखी ली हैं। मर्द से कहते हैं कि अरे बाबा छह इंच की न सही तीन इंच की चोटी रख ले, पर इनको 3 इंच की रखने में भी परेशानी मालूम पड़ती है। इन छोकरियों में से किसी की एक फुट लम्बी है, तो किसी की डेढ़ फुट लम्बी है। किसी की 2 फुट लम्बी है तो किसी की ढाई फुट लम्बी है। ये भी नहीं है कि कोई चोटी हो, वरन् लड़कियों की मोटी-मोटी चोटियाँ है। जब वे अपने खाविंद को देखती है कि वह एक ऐसा सफाचट है कि उसने चोटी काट ली है, तो वह दो भी रख लेती हैं। एक अपनी चोटी रख लेती है और दूसरी अपने खाविंद के लिए। जनेऊ भी तो हम दो पहनते हैं - एक अपना पहनते हैं । इसी तरह लड़की कहती है कि एक चोटी अपने खाँविद के बदले की रखाएँगी और एक अपने बदले की। यही तो बात है कि जो धर्म बचा हुआ है, वह इन लड़कियों की वजह से बचा हुआ है। ये लड़कियाँ न होती तो इस चोटी का पता लगाना मुश्किल पड़ जाता। किसे कहते हैं चोटी और कैसे धारण की जाती है ? चोटी कहाँ से आती है ? चोटी की कौन रखवाली करता है ? चोटी की हम रक्षा करेंगे और जनेऊ की हम रक्षा करेंगे।

मित्रों ! हमारा यह उद्देश्य होना चाहिए, हमारा यह शिक्षण होना चाहिए, प्रयास होना चाहिए कि जहाँ कहीं भी हम यज्ञ कराने जाएँ वहाँ युवकों से हमें यह पूछें कि आप हिन्दू धर्म को, मजहब को मानने वाले हैं। हाँ ! तो फिर ये बताइये, कि पुलिस या सिपाही अपना सिम्बल पहने रहता है, उसके कमर में एक पेटी बँधी रहती है और उसके ऊपर लगा रहा है एक पील का बिल्ला। पीतल के बिल्ले पर क्या लिखा रहता है ? ‘यूपीपी’ लिखा रहता है। पहले अँगरेजी में लिखा रहता था और जब हिन्दी में लिखा रहता है - उत्तर प्रदेश पुलिस - उ0प्र0प0’ लिखा रहता है। पीतल का बिल्ला न हो किसी के पास तो समझ लीजिए कि वह सिपाही नहीं है और कमर में पेटी बाँधी हुई न हो तो समझ लीजिए वह पुलिस का सिपाही नहीं है। सिपाही की कमर में पेटी बाँधनी चाहिए।

जब कभी किसी का फौज में कोर्ट-मार्शल होता है, तो सबसे पहले यह काम किया जाता है कि उसकी पेटी उतार जी जाती है, उसका बिल्ला उतार लिया जाता है और उसको ‘क्रिमिनल’ मान लिया जाता है तथा उसको लाइन में खड़ा किया जाता है फिर उसका कोर्ट-मार्शल किया जाता है। और यह कहा जाता है कि तुम हमारी इज्जत मत खराब करो। पेटी की इज्जत - राष्ट्र की इज्जत है। तुमने ऐसे खराब काम किए हैं, इसलिए सबसे पहले तुमको समाज दी जाएगी कि तुम्हारी पेटी और तुम्हारा बिल्ला हम जब्त कर लेते हैं। पुलिस में भी यही होता है और फौज में भी यही नहीं किया, हम पुलिस के सिपाही हैं कि नहीं, हम फौज के सिपाही है, कि नहीं, हम हिन्दू धर्म के सिपाही हैं कि नहीं, हम हिन्दू धर्म के दीक्षित हैं कि नहीं, इसकी पहचान आपके शिखा और सूत्र से होती है। अगर आप हिन्दू धर्म में दीक्षित हैं तो लाओ वह निशान, आपके कंधे पर ‘यू0पी0पी0’ लिखा हुआ है कि नहीं और कमर में पेटी बाँधी हुई है कि नहीं और अगर आपकी पेट छीन ली किसी ने तो आपको यह कहना पड़ेगा कि पुलिस में से हमें बर्खास्त कर दिया गया - फौज में से बर्खास्त कर दिया गया और हमारा कोर्ट-मार्शल किया गया। अगर आपका बिल्ला छीन लिया गया, पेटी छीन ली गई, जनेऊ छीन लिया गया और आपकी शिखा उतार ली गई तो फिर इसका मतलब यह होगा कि आपको हिन्दू धर्म में से बर्खास्त कर दिया गया। हिन्दू धर्म से कोई और धर्म होगा आपका।

हमारी यही तो निशानियाँ थीं। अब हम पहले निशानियों को जिन्दा करेंगे। निशानियों को जिन्दा करने के बाद उसकी जो शिक्षायें हैं, जो कोई भी दिशाएँ हैं, उसकी जो भी प्रेरणाएँ हैं, जो भी निष्ठाएँ हैं, उन्हें हम लोगों के हृदय में प्रवेश कराएँगे, इसके लिए पहले हम सिम्बल स्थापित करेंगे। इसके बाद हम यह करेंगे कि जहाँ कहीं भी मित्रों, हमारे यह होंगे, वहाँ पर ध्यान देना पड़ेगा, जिस तरह से छोटे बच्चों को मुण्डन-संस्कार किया जाता था, अब हमको बड़ी उम्र वालों का मुण्डन - संस्कार कराना पड़ेगा। छोटे बच्चों का मुण्डन-संस्कार क्या है ? मुण्डन - संस्कार हरेक के यहाँ पर होता है और हिन्दू यह चाहता है कि हमारे बच्चों का मुण्डन हो और वह भी गंगाजी पर हो, जमुनाजी पर हो। देवी के सामने हो। ये मुण्डन क्या है ? मुण्डन कोई संस्कार नहीं है। यह शिखा स्थापना का संस्कार है। चोटी हम रखा लेते हैं, बाकी बालों को काट देते हैं। बाकी बालों को नहीं काटेंगे तो आप शिखा रखाएँगें कैसे ? इसलिए शिखा को रखाने के लिए हमको बाकी बाल कम कर देने पड़ते थे। इसका नाम क्या था मुण्डन-संस्कार मुण्डन-संस्कार मित्रों कन्या का भी करना पड़ता है और बच्चों का भी कराना पड़ता है। जब तक मुण्डन - संस्कार नहीं होगा, शिखा नहीं रखाएँगें, तब तक हिन्दू कैसे कहलायेंगे ? हिन्दू होने की निशानी ही मुण्डन-संस्कार है। लेकिन आज हमारी शिखाएँ गायब हो गई है, अतः इस संस्कार को हम फिर से शुरू करेंगे। हम यज्ञ के लिए जो स्थान तलाश करेंगे। वहाँ सबसे पहले यह पूछना शुरू करेंगे कि आपके सिर पर शिक्षा है कि नहीं और जो कहेगा कि शिक्षा नहीं, है तो उससे यह प्रार्थना करेंगे आपका मुण्डन-संस्कार होना आवश्यक है। मुण्डन - संस्कार के लिए शायद वह तैयार न हो तो यह कहना पड़ेगा कि आप इतनी कृपा कीजिए कि आपके तीन-तीन इंच के जो बाल हैं, उन्हें एक-एक इंच कम करा दीजिए। एक इंच बाल कम करा देंगे तो जहाँ कहीं भी शिखा आपके स्थान पर बनी रहती है, वहाँ एक इंच बाल बड़े हो जाएँगे । आपको छह महीने या साल भर बाद फिर से यदि अपने बाल कम कराने पड़े तो फिर एक इंच बढ़ा देना। इस तरह आपकी शिखा दो-तीन इंच बड़ी हो जाएगी और इस तरह आपकी शिखा की स्थापना हो जाएगी। आप शुरुआत अभी से कीजिए। जाइए नाई से हजामत बनवाकर आइए और मुण्डन-संस्कार कराकर आइए।

मित्रों, मुण्डन-संस्कार हमारे हिन्दू धर्म का मूल है। लोग गंगाजी जाते हैं, जमुनाजी जाते हैं, हरिद्वार आते हैं, सब जगह मुण्डन होते हैं। आप मध्यप्रदेश जाइए और बिहार जाइये, सब जगह गंगा या नर्मदा किनारे मुण्डन होता हुआ चला जा रहा है। जो लोग दक्षिण भारत में जाते हैं, वे वहाँ देखते हैं कि जो विधवाएँ होती है वे सब अपने सिर के पूरे बाल कटा कर के आती हैं। वहाँ पर बाल काटने का और कटे हुए बालों का ठेका होता है लाखों रुपए का। सारे के सारे कटे हुए बालों को इकट्ठा कर लेते हैं और फिर उनको विलायत भेजते हैं। लाखों रुपये का सौदा होता है इनका। जो सुहागिन हैं उनको नहीं कटाना पड़ता, पर जो सुहागिन नहीं है, या जो विधवा हो जाती है, उनको बाल कटाने पड़ते हैं, मुण्डन कराना पड़ता है। साथियों, मुण्डन के बारे में हमें लोगों को शिक्षा देनी पड़ेगी और यज्ञोपवीत के बारे में यह ये फिजा पैछा करनी पड़ेगी। जनेऊ के बारे में यह बहम हमें निकालना पड़ेगा कि ये पंडित के हिस्से का है और ये बनिये के हिस्से का है या क्षत्रिय के हिस्से का है। जनेऊ पहनने का अधिकार किसी एक वर्ग विशेष के हिस्से का नहीं होता। ये अटूट है, मजबूत है, शानदार है और हर आस्तिक के लिए है।

यज्ञोपवीत धारण करने के कुछ नियम हैं, कुछ मर्यादाएँ हैं, जिन्हें जानना आवश्यक है। यज्ञोपवीत को छह महीने में बदलना चाहिए, क्योंकि पसीने से छह महीने में वह मैली पड़ जाती है। और धागे कमजोर हो जाते हैं। अतः हर छह महीने बाद यज्ञोपवीत के धागे को बदल देने चाहिए। सूर्यग्रहण पर भी बदल देते हैं, चंद्रग्रहण पर बदल देते हैं, कई बार बदलते हैं यदि ऐसा नहीं हो पाता तो कम से कम छह महीने में तो बदल देने चाहिए। छह महीने के लिए हमने इसलिए कहा है कि छह महीने में जनेऊ पुरानी पड़ जाती है। महिलाएँ प्रायः हर महीने अपना जनेऊ बदल लेती हैं और नया धारण कर लेती है। इसी तरह कई लोग महीने में एक बार बदलते हैं। पैसे, दो पैसे, पाँच पैसे का जनेऊ आता है। वैसे तो लोग अन्य मदों में ढेरों पैसा खर्च कर देते हैं, तो महीने भर में एक जनेऊ पर खर्च क्यों नहीं कर सकते हैं ? उससे क्या आफत आ जाएगी ? अतः हमको यज्ञोपवीत की स्थापना करनी पड़ेगी और हम उसे व्यापक आन्दोलन के रूप में चलाएँगे। जहाँ कहीं भी हमारे यज्ञ होगा, जो कोई भी व्यक्ति हमारे यज्ञ में शामिल होने का इच्छुक होगा, उनसे हम ये कहेंगे कि यज्ञोपवीत करा लीजिए और जनेऊ पहनेंगे तो हमारी अम्मा नाराज हो जाएगी। अम्मा नाराज हो जाएगी, तो आप ऐसा कीजिए कि यदि यज्ञ में शामिल होना चाहते हैं तो आपको जनेऊ हम पहना देते हैं, आप पहन लीजिए। इसे आप चौबीस घण्टे पहन लीजिए। चौबीस घण्टे के बाद आप इसे विसर्जित कर देना। यदि आप हवन में शामिल होना चाहते हैं तो जनेऊ जरूरी है। जनेऊ हमारे हिन्दू धर्म का अक्षुण्ण अंग है। इसलिए इसे अपनाना शुरू कीजिए, अभ्यास करना शुरू कीजिए। अब हम हवन को व्यापक बनाने की सोच रहे हैं तो यज्ञोपवीत को भी व्यापक बनाना पड़ेगा। हवन-यज्ञ और यज्ञोपवीत वास्तव में एक ही चीज है।

यज्ञ से ही मनुष्य को मुक्ति हासिल नहीं होती। इसके लिए अपने अंतराल में छिपी दिव्य-ज्योति को जाग्रत करना पड़ता है। यज्ञ की अग्नि तो हवन-कुण्ड में समाप्त हो जाती है, पर अखण्ड-ज्योति तो कई-कई दिन रखी जाती है। अखण्ड-ज्योति समष्टि के अनंत प्रकाश की प्रतीक है। कितने ही मंदिर ऐसे होते हैं जहाँ अखण्ड-ज्योति की रक्षा की जाती थी। अब वे कहाँ रहे जहाँ अखण्ड दीपों की रक्षा की जाती हो। अखण्ड नियम और अखण्ड दीपक की रक्षा एक ही बात है। ये तो किन्हीं-किन्हीं ऋषियों के यहाँ और किन्हीं-किन्हीं महत्वपूर्ण व्यक्तियों के यहाँ पाई जाती है। हमने भी अखण्ड-ज्योति जलाई है, ताकि आप अखण्ड-ज्योति को और गायत्री माता को अपने कंधों पर, अपने हृदय पर रखे, साथ ही साथ और लोगों के कंधों पर, अपने हृदय पर रखें, साथ ही साथ और लोगों के कंधों पर भी उन्हें स्थापित करें। यह काम आपको करना ही पड़ेगा । इसका यह नियम है कि स्वयं प्रकाशित हों और अन्यों को भी प्रकाशित करें, प्रेरित करें। यह एक नियम है, एक कायदा है। ये निष्ठाएँ हमको फिर से अपने हिन्दू धर्म में पैदा करनी चाहिए और विश्व में सारे के सारे लोगों में पैदा करनी चाहिए। इससे रीति और रस्म बदलकर रहेंगी। लेकिन अगर हमने यह मानकर रखा कि केवल यज्ञोपवीत करा लेने, जनेऊ पहन लेने और शिखा रखा लेने भर से हमारी तरक्की हो जाएगी, तो ऐसा नहीं समझना चाहिए।

अभी मैं आपको मूर्ति-पूजा और बुत-परस्ती के बारे में कह रहा था। ठीक इसी तरह अगर आपने शिखा रखी और यज्ञोपवीत पहना, लेकिन शिखा रखने के बाद और यज्ञोपवीत पहनने के बाद में आपने उसका मूल्य समझा नहीं, उत्तरदायित्व समझा नहीं, शिक्षा को समझा नहीं, प्रेरणा को समझा नहीं, हकीकत को समझा नहीं तो आपको उससे उपेक्षा पैदा होती चली जाएगी और हमारे बच्चे जनेऊ पहनने से इनकार करेंगे हमारे बच्चे चोटी रखने से इनकार करेंगे।

आज हमारे हिन्दुओं के बच्चों ने इनसे क्योंकि उन्हें किसी ने भी ये बताया नहीं कि आखिर ये क्या है ? हम लोगों ने इसे यज्ञोपवीत क्यों पहनाई जाती है और ये क्या याद दिलाती है ? जनेऊ पहना तो दिया आपने, जनेऊ पहनाने की दक्षिणा भी दे दी पंडित जी को और हवन भी करा दिया और ब्रह्मभोज भी करा दिया-दो हजार रुपए भी खर्च कर दिए, लेकिन यज्ञोपवीत पहनने के बाद जब बच्चे ने पूछा-पिताजी ये क्या है ? इसे क्यों पहनते हैं ? हमें क्यों जनेऊ पहनाया गया है ? तब आपका जवाब होता है- चुप बे, ज्यादा बोलता है। हमारे बाप-दादा पहनते थे, इसलिए हम भी पहनते हैं। हम ब्राह्मण है। तुझे शर्म नहीं आती-पूछता है क्यों पहनते हैं ? सभी ब्राह्मण जनेऊ पहनते हैं। लेकिन पंडित जी ब्राह्मण तो सब पहनते हैं, पर क्यों पहनते हैं ? आखिर ये क्या चीज हैं ? चुप रह! क्यों पहनते हैं ? पंडित जी-पंडित जी, हर वक्त धर्म के बारे में पूछताछ का जवाब देने में यदि आप समर्थ न हो पाए तो मित्रो, आपकी निष्ठा कमजोर होती चली जाएगी और हमारी साँस्कृतिक परम्पराएँ-संस्कार परम्पराएँ विलुप्त होती चली जाएँगी। अतः संस्कार परम्परा के बारे में आपको बताना पड़ेगा, शिखा के बारे में बताना और समझाना पड़ेगा । अगर आपने इस संबंध में बताना और समझाना पड़ेगा, जनेऊ के बारे में बताना और समझाना पड़ेगा । अगर आपने इस संबंध में बताना और समझाना शुरू कर दिया तो एक भी हिन्दू का बच्चा यह नहीं कह पाएगा कि हमने यज्ञोपवीत तो करा कह पाएगा कि हमने यज्ञोपवीत तो करा लिया, पर हम जनेऊ नहीं पहनेंगे।

आप पूरे यूरोप में जाइये, वहाँ तो हमसे अधिक पढ़े-लिखे लोग हैं। हमारे बच्चों को तो अंग्रेजी आती भी नहीं है, मैट्रिक पास हैं। लेकिन कोई जनेऊ नहीं पहनता और साहब बना फिरता है। जबकि सारे के सारे यूरोप में आपको सब के सब शिक्षित आदमी मिलेंगे। कोई आदमी ग्रेजुएट से कम नहीं मिलेगा। जो आदमी दिन में नहीं पढ़ सकते, वे रात में पढ़ते हैं और ग्रेजुएट हो जाते हैं। लेकिन आपको मालूम होना चाहिए कि कोई भी आदमी, कोई भी ईसाई कहीं भी निकलता है तो अपनी प्रॉपर ड्रेस में निकलता है। जिसमें ‘टाई’ भी शामिल है। टाई क्या है ? टाई ईसाइयों का यज्ञोपवीत है। ‘क्रूस’ जिसमें ईसा-मसीहा को फाँसी लगाई गई थी। टाई उस फाँसी का प्रतीक है। प्रत्येक ईसाई, जिसमें कि बड़े से बड़ा आदमी शामिल है और छोटे से छोटा भी शामिल है या जो भी ईसा-मसीह में विश्वास करता है, यकीन करता है वह गले में फाँसी का फंदा, टाई के रूप में लगाकर सड़कों पर निकलता है और कहता है कि ये हमारी शान है और हमारी इज्जत है और हम पहनकर निकलते हैं। अरब देशों में मुसलमान तिरछी टोपी पहनकर निकलते हैं। हमारे हिन्दुस्तान में भी वे तिरछी टोपी पहनकर निकलते हैं और कुछ लोग बालों वाली टोपी पहनकर निकलते हैं और चूड़ीदार पायजामा तथा अचकन पहनकर निकलते हैं। आप जाइए वहाँ। कहाँ ? जामिया-मिलिया इस्लामिया कालेज में और दूसरे कालेजों में भी मुसलमानों के लड़कों को देखिए ना। अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी में जाइए ना, वहीं आपको आगे वाली मूँछें कटाए हुए और पायजामा एवं चप्पल पहने हुए आपको मुसलमानी लिबास में उसी लहजे में, उसी तर्ज में काम करते हुए मिलेंगे, दिखाई पड़ेंगे । आप जामिया मिलिया कालेज में जाइए, अन्य स्कूल, कालेजों में जाइए आपको प्रत्येक जगह वे सारे के सारे मुसलमानी लिबास में मिलेंगे। क्या वो पढ़े-लिखे नहीं हैं ? क्या हिन्दुओं के लड़के पढ़े-लिखे हैं ? क्या हिन्दुओं के लड़कों के दिमाग सातवें आसमान पर नहीं हैं ? क्या हिन्दुओं के लड़कों को बहस करना आ गया ? मुसलमान के लड़कों को बहस करना नहीं आया ? उनको भी आता है।

आप सिक्खों के कालेजों में जाइये। वहाँ के सारे के सारे स्टूडेण्ट आपको साफा पहने हुए मिलेंगे। अपने सिर पर कलंगी लगाये हुए दीखेंगे और अपने हाथ में कृपाण लिए हुए या बगल में डाले हुए दिखाई देंगे। क्या वो पढ़े-लिखे हुए नहीं हैं ? क्या सारी अक्ल आपके ही हिस्से में आ गई है। क्या वे पढ़े-लिखे नहीं है ? विद्या उनको नहीं आती। नहीं साहब, वह तो शिक्षा ने ऐसा बना दिया हमें। तो शिक्षा ने हमें ही बना दिया, डहनें नहीं बनाया ? शिक्षा उन्होंने भी तो पढ़ी है। एम0ए॰ पास हैं और मुसलमान भी तो एम0ए॰ पास हैं। फिर हमारे यहाँ ये क्या हो रहा है ? मित्रों इसकी जिम्मेदारी हमारी और आपकी है। धर्म के बारे में, यज्ञोपवीत के बारे में बताने और समझाने की कोशिश हमने नहीं की। ये शिक्षा क्या है ? ये यज्ञोपवीत क्या है ? इसका हमने कभी समाधान कर दिया होता, उनको समझा दिया होता तो निश्चित हमारे बच्चे में ये गुण आ गये होते। तब हमारे घर के प्रत्येक के बच्चे के कंधे पर जनेऊ तो रखा होता और सिर पर शिखा स्थापित होती। वे उनमें छिपी प्रेरणाओं का अनुसरण कर रहे होते। अभी भी समय है संभल जाने के लिए कि जब भी हमारे बच्चे हम से बहस करने आयेंगे और प्रश्न करेंगे कि बताइए शिखा क्या हैं ? तो हमको उन्हें एक घण्टा समय देना पड़ेगा और बराबर बताना पड़ेगा कि शिखा का मतलब क्या है? मकसद क्या है? उद्देश्य क्या है ?

एक दिन हमने आपको गायत्री मंत्र के बारे में, ज्ञान की देवी के बारे में बताया था। गायत्री मंत्र की वह सारी की सारी व्याख्या अपने बच्चे को समझानी पड़ेगी, जो कि शिखा के बारे में जानकारी पड़ेगी, जो कि शिखा के बारे में जानकारी प्राप्त करने आया है और चोटी के बारे में जानने आया है कि यह क्या है ? चोटी गायत्री माता की प्रतीक है, यह बात आपको बतानी पड़ेगी। फिर वह पूछेगा कि गायत्री मंत्र क्या होता है ? ये भी मैंने आपको एक दिन बताया था। इसके लिए मैंने आपको तीन घण्टे का समय दिया था, आपको याद होना चाहिए। इस तरह जो आदमी शिखा के बारे में जानना चाहता हो उसे उसकी सारी की सारी फिलॉसफी के बारे में समझना चाहिए कि शिखा क्या होती है। गायत्री क्या है और गायत्री की मूर्ति क्या है ? इस तरह आपका बच्चा गम्भीर हो जाएगा और तब जनेऊ को समझने, शिखा को समझने से इनकार नहीं कर सकेगा। यज्ञोपवीत के बारे में भी यही करना पड़ेगा आपको। जो बच्चा यह पूछने के लिए आपके पास आया है कि गुरुजी, ये क्या चीज है। जिसे आप पहनाते हैं। यह तो मैला-कुचैला हो जाता है। आप धोकर ही बार-बार हमारे गले में बाँध देते हैं। आप इसे क्या बाँध देते हैं, बताइये न। तो आपको यज्ञोपवीत पहनाने के साथ ही उसे यज्ञोपवीत धर्म की शिक्षा देनी पड़ेगी। यज्ञोपवीत की वह शिक्षा जो मैंने एक दिन सबेरे भी आपको समझाई थी और शाम को भी समझाई थी।

यज्ञ फिलॉसफी के बारे में भी लोगों को बताना पड़ेगा कि यज्ञ हिन्दू धर्म का अक्षुण्ण अंग क्यों है ? हमारी संस्कृति का अक्षुण्ण अंग क्यों है ? इसकी प्रेरणाएँ क्या हैं, इसका प्रकाश क्या है ? इसकी शिक्षाएँ क्या है ? इस संबंध में हम प्रत्येक के बारे में किताब में छपवा रहे हैं। इसमें शिखा और सूत्र के बारे में बता भी रहे हैं शिखा और सूत्र के बारे में एक हमारी पुस्तक भी है। पहले एक मोटी किताब भी थी, एक बड़ी किताब तो रही भी थी। पर अब बड़ी किताब तो रही नहीं, अतः एक अन्य छोटी किताब प्रकाशित कर रहे हैं। इस तरह से शिखा और यज्ञोपवीत के बारे में बहुत जानकारी हमको देनी है और हम जरूर देंगे, क्योंकि हमारे हिन्दू धर्म का मूल स्थापना-स्तंभ यज्ञोपवीत है। पर आपने यज्ञोपवीत केवल उसी तरीके से पहनाना शुरू कर दिया जिस तरह से आप मूर्तियों के बारे में कहते चले आ रह है। संध्या तो करते हैं, पर यह नहीं मालूम कि संध्या का उद्देश्य क्या है, संध्या क्यों की जाती है ? लोग साधु - संन्यासी तो बन जाते हैं, पर इसके उद्देश्यों का ज्ञान उन्हें नहीं होता है। साधु और संन्यासी वे होते हैं। जिसने कि संकल्प लिया था कि हम समाज के लिए काम करेंगे, देश के लिए काम करेंगे ,देश के लिए काम करेंगे, संस्कृति के लिए काम करेंगे। पर आज सर्वत्र उलटा ही दिखाई देता है। लोगों को मालूम भी नहीं कि साधु-संत कैसे होते थे ? आज तो जहाँ देखो वहीं लाल-पीले कपड़े पहनने वाले, चिमटा बजाने वाले और बाबाजी कहलाने वाले-संन्यासी कहलाने वालों की भीड़ नजर आती है। इससे तो संन्यास की महत्ता कम हो जाएगी और लोग बाबाजी की पूजा करने से इनकार कर देंगे, सम्मान करने से इनकार कर देंगे, आपने देखा नहीं । आप लोग देखिये, कुंभ के मेले में देखकर आइए। इससे यह मालूम हो जाता है कि विवेकशीलता का समाधान हमारे पास नहीं है।

लोग बार-बार हमारे पास आते हैं और पूछते हैं कि गुरुजी कितनी महँगाई है। इसका प्रभाव कुम्भ जैसे मेलों पर भी पड़ा है। अभी भी आप देखेंगे कि हरिद्वार का, ऋषिकेश का हर की पौड़ी का क्या हाल होता है। लाखों आदमी आते हैं। पिछले साल भी आए थे, तब भी महँगाई थी। इस साल भी आने वाले हैं। आगे और भी ज्यादा आने वाले हैं इसकी क्या वजह है कि इतने कम लोग आते हैं ? कुम्भ में आने वालों का सफाया कैसे हो गया ? जब पहले पचासों हजार आदमी आते थे अब पच्चीस हजार भी नहीं है। कितने स्नान कम हो चुके। वसंत पंचमी का स्नान खत्म हो गया। शिवरात्रि का स्नान खत्म हो गया और कौन-कौन से दो खत्म हो गए। चार तो स्नान खत्म हो गए। पच्चीस हजार आदमी भी नहीं आये। इस व्यवस्था में ढेरों रुपया गवर्नमेंट का खर्च हो गया। अब देखिए क्या होता है। अब एक ही स्नान रह गया है, जो पहली तारीख को पड़ने वाला है। उसमें भी आप देख लेना बहुत थोड़ी-सी भीड़ दस हजार की होगी। बहुत थोड़े - से आदमी आएँगे और वह भी उस दिन आएँगे, जिस दिन तेरह तारीख को कुम्भ का मेला है। उसमें आपको कुछ भीड़-ताड़ दिखाई पड़ेगी। बस उसके बाद सफाया हो जाएगा। ऐसा क्यों हुआ ? किसी जमाने में कुंभ मेले का यह होता था कि इन मेलों में हिन्दुस्तान के सारे के सारे संत और सारे के सारे ऋषि और सारे के सारे ब्राह्मण, एक बड़ा - सा व्यापक सम्मेलन किया करते थे, जिसमें सभा, गोष्ठी और अधिवेशन होते थे। इन अधिवेशन का ध्येय आध्यात्मिक होता था। वे कोई छोटे-मोटे नहीं होते थे, बल्कि बड़े और अच्छे अधिवेशन होते थे, जिसमें प्रत्येक संत और प्रत्येक ऋषि और प्रत्येक ब्राह्मण, प्रत्येक धर्मगुरु और प्रत्येक महन्त इकट्ठा होते थे और विचार-विनिमय करते थे कि इस मानव समाज में आध्यात्मिकता में जो न्यूनता आ गई है, धार्मिकता की निष्ठाएँ जो कमजोर पड़ गई है - उसका समाधान क्या है और हम लोग उसके लिए क्या काम करेंगे ? बड़े-बड़े महत्वपूर्ण फैसले हुआ करते थे। लोग इन अवसरों पर मिलते थे ओर बड़ा भारी काम किया करते थे। ये
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