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Magazine - Year 1997 - Version 2

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निष्कलंक सम्पूर्ण क्राँति का बिगुल बज गया है

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भगवान कृष्ण की चर्चा करते हुए गोपालन एवं उसके साथ जुड़ी ग्रामोद्योग की चर्चा विगत दो लेखों में की जा चुकी है। आज हलधरों (श्री बलराम) एवं गोपालों (श्री कृष्ण व उसके साथी बाल-ग्वाल को या तो भुला दिया गया है या विकृत स्थिति को प्राप्त हो गए हैं कि उन्हें पहचानना मुश्किल हो गया है। हलधर के साथ ऊर्जा का संकट जुड़ा हुआ है।

ऊर्जा का अकाल - हलधर बगैर बैल की ऊर्जा पूर्णतः निष्प्रभावी होती है और आज बैल के महत्व को दिन प्रतिदिन गिराये जाने के प्रयास चल रहे है। यद्यपि कृषि और उद्योग में लगने वाली कुल ऊर्जा का पचास प्रतिशत से अधिक ऊर्जा बैल से ही आज प्राप्त हो रही है। गोपाल हो तो गोवंश पनपे, गोवंश पनपेगा ता बैल की ऊर्जा उपलब्ध होगी, गोबर गौमूत्र से गाँव की भूमि उर्वरा होगी, गाय का दूध सबको उपलब्ध होगा, गोशाला केन्द्रित ग्रामोद्योग सबको रोजगार देंगे और गोचर केन्द्रित कृषि व्यवस्था सबको भरपेट पौष्टिक भोजन देगी।

आधुनिक कृषि की विडम्बना-आधुनिक कृषि का केवल एक ही अभिशाप देखने को नहीं मिल रहा है। रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं से देश की उर्वरा भूमि निस्तेज होती चली गई है। कुछ बड़े बड़े काश्तकार देहात के अर्थतन्त्र पर काबिज हो गये है। गोचर की भूमि आसपास के किसानों की जोत के भाग बन गये है। विकेन्द्रित अर्थतन्त्र के स्थान पर पूरी व्यवस्था का केन्द्रीकरण होता चला गया है, जिससे गरीब पर जीवित भर रहने का भार बढ़ता गया है। देहात के गरीबों को महानगरों की ओर के सिवा कोई और चारा नजर नहीं आया।

महानगरीय उपनगरों की गन्दी बस्तियाँ-देहात के बिखरते हुए अर्थतन्त्र की मार वहाँ के सबसे गरीब, बेसहारा भूमिहीन कृषक मजदूरों पर पड़ी है, जिसके कारण उन्हें आजीविका की तलाश में महानगरों की चमचमाती रोशनी ने आकर्षित किया और वे यहाँ आकर एक के बाद एक गन्दी बस्ती और उपनगरों को बसाते चले गये। कुछ लोग नई नई बनने वाली अट्टालिकाओं के निर्माण में मजदूर बन गये तो कुछ नये नये पनपते अवैध धन्धों में खपते चले गये।

धरती पर स्वर्ग उतारने के सपने तो युगनिर्माण मिशन ने अपने परिजनों को प्रेरित करने के लिए रचे, लेकिन धरती पर नरक कैसा दिखता है, यह इन गन्दी बस्तियों में रहने वाले अभागों ने आरम्भ से ही जाना। यहाँ रहने वाले दुख दर्द, बीमारी बदहाली में जीवन बसर करने वाले सीधे सादे देहाती आज न उस देहात के हैं जहाँ उन्होंने जन्म लिया था और न उस शहर के जहाँ गन्दी बस्तियों में उन्होंने शरण ली है। यह विरोधाभास कब तक चलने वाला है ? यदि प्रेम और निर्माण की धारा इन उपनगरों में नहीं बहाई गई, तो लहू और लोहे की क्राँति अब होना चाहती है।

प्रेम और निर्माण की धारा को इन महानगरों में किस प्रकार पहुँचाया जाए ? उसका सीधा दायित्व आता है महानगरों में निवास कर रहे गायत्री परिवार के परिजनों पर, जिनके घरों में इन झुग्गी-झोपड़ियों के लोग सेवा का काम करते हैं। दूसरा प्रयास महानगरों के समीप के देहाती क्षेत्रों में निवास कर रहे परिजनों द्वारा भी किया जा सकता है। वे अपने रोजमर्रा के कामों के लिए सीपम के महानगर तो आते जाते ही रहते हैं। साप्ताहिक छुट्टी के दिन वे समीपस्थ उपनगर की गन्दी बस्ती में जन्मदिन, पुँसवन, नामकरण, अन्नप्राशन आदि संस्कार तो करा ही सकते हैं। इस प्रकार के व्यापक प्रयासों से कुछ समय बाद इन उपनगरों में से ही युवा परिजन उभरने लगेंगे, जो प्रेम और निर्माण की धारा को प्रगाढ़ करते चलने के लिए सक्रिय हो जाएँगे ।

स्वावलम्बन का प्रशिक्षण

संस्कारों के उपलक्ष्य में आयोजित गायत्री यज्ञों की व्यवस्थित शृंखला चलने से उपनगरों के कई परिवार समूहों को धीरे-धीरे संस्कारित तो किया ही जा सकेगा, उनके प्रयास की प्रक्रिया से इन गन्दी बस्तियों में सफाई का माहौल बनना आरम्भ हो जाएगा और यज्ञीय धूम्र से गन्दगी से शमन भी होना आरम्भ हो जाएगा। इस प्रकार सतत् रूप से प्रयासरत रहने से इन उपनगरों में परिजनों का एक प्रभावी वर्ग उभरने लगेगा, जो हिंसा और घृणा के स्थान पर संस्कार-पद्धति से लोकशिक्षण के दायित्वों को संभालकर पतन-निवारण की दिशा में क्रियाशील हो चलेगा। इन्हीं परिजनों में से प्रत्येक उपनगर से सौ कर्मठ युवा परिजन ढूँढ़ निकालने हैं, जो समीप के किसी न किसी शक्तिपीठ पर स्वावलम्बन का प्रशिक्षण प्राप्त कर अपने मूल देहात की ओर प्रस्थान करने का संकल्प लेंगे। इसके पूर्व उस देहात के क्षेत्र में भी उनके स्वागत की तैयारी की जानी होगी। उनके देहात लौटने पर वे किस प्रकार का व्यवसाय करेंगे, इसकी योजना भी पहले से होगी। उसका विशिष्ट प्रशिक्षण यदि आवश्यक हुआ तो उन्हें समय से दिया जाना होगा। स्वयंसेवी बचत समूह गठन की प्रक्रिया में भी उन्हें सिद्धहस्त बनाना होगा। यह सब आयोजन शान्तिकुञ्ज से प्रशिक्षित उस चयनित शक्तिपीठ को तीन पूर्णकालिक समयदानियों द्वारा सम्पन्न होना है।

आज का स्वतन्त्रता संग्राम - “गाँव स्वावलम्बी बनें” - इन सौ व्यक्तियों को दस - दस के दस समूहों से संगठित करने की कार्यवाही भी देहात वापस लौटने के संकल्प से पहले सम्पन्न करनी होगी, ताकि प्रत्येक समूह अपने समकक्ष दस व्यक्तियों को क्षमतावान् बनाकर उसी देहाती क्षेत्र से संयोजित करें और इस प्रकार 20-20 सदस्यों वाले बचत समूह गठित हो चलें। 20 व्यक्तियों अथवा परिवारों का एक समूह, जिसमें दस उपनगरवासी होंगे और दस देहात के, मिलकर उपयुक्त एवं सुविधाजनक ग्रामोद्योग को चलाना आरम्भ कर, अपने पैरों पर खड़े होने का पुरुषार्थ करने लग जाएँगे । इस प्रकार के संगठन और आयोजन की प्रकारान्तर में गाँव को स्वावलम्बी बना सकेंगे, जिसके लिए शान्तिकुञ्ज में प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई है। “अब गाँव वापस चलें” की योजना का स्पष्ट स्वरूप यही है और इसी के माध्यम से आज का स्वतंत्रता संग्राम लड़ा जाना है, जो हर गाँव के वर्ग के परिवार द्वारा लड़ा जाएगा। शान्तिकुञ्ज में जो छह दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम हाथ में लिया गया है, उसके अंतर्गत प्रयास वह है कि देश की कम से कम 500 सौ शक्तिपीठों को स्वावलम्बन के प्रशिक्षण के लिए तैयार किया जाए। इसी उद्देश्य से शक्तिपीठों को प्रेरणा दी गई है कि वे कम से कम तीन पूर्णकालिक सुयोग्य एवं कर्मठ परिजनों को शान्तिकुञ्ज में छह दिवसीय प्रशिक्षण प्राप्त कराएँ।

महानगरों एवं उनके उपनगरों में निवास करने वाले सभी लोग कितने ही दुर्गुणों को बढ़ाने वाले क्यों न हों, लेकिन भारतीय समाज के एक बड़े दुर्गुण जातिवाद के दुराग्रहों से वे पूर्णरूप में मुक्त हो चुके हैं। उनके इस सद्गुण का लाभ उठाने का समय भी अब आ गया है। जाति-पाँति के भेदभाव वाले भारतीय समाज से इस विष को अब जड़-मूल से निकालना है और उसके लिए उपयुक्त व्यवस्था भी बन रही है। शहरी उपनगरों के जो परिजन देहात लौटकर गाँवों को स्वावलम्बी बनाने का संकल्प लेंगे व शहरों के जाति-पाँति दुराग्रह मुक्त संस्कारों को भी देहात अपने साथ ले जाएँगे । उनके माध्यम से देहात में व्यास इन दुराग्रहों से मोर्चा लेने का भी आयोजन परिजनों, को करना होगा। “अब गाँव वापस चलें” अभियान का यह भी एक मकसद है कि अपने देहात को जाति-पाँति के दुराग्रहों से मुक्त कराया जाए।

गौ सेवा केन्द्रित जीवन - पद्धति ही चलेगी - विगत पचास वर्षों की राज्याश्रित विकास प्रक्रिया अब अपनी अंतिम साँसें गिन रही है। अब समाज को अपनी समस्याओं के समाधान तथा सामुदायिक विकास का एक नया आयाम तलाशना है, जो अधिक विश्वसनीय और कारगर हो। इसी परिप्रेक्ष्य में गौ सेवा - केन्द्रित जीवन-पद्धति जो इस देश की साँस्कृतिक धरोहर है, को पुनर्जीवित करने का अभियान छेड़ा गया है। गौ सेवा केन्द्रित जीवन पद्धति को सर्वसामान्य के लिए सुविधाजनक बनाने के लिए गौशालाओं का एक देशव्यापी जाल खड़ा करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है। तब गौ-संवर्द्धन आम लोगों के लिए सुविधाजनक तो ही हो जाएगा, गौ हत्या से भी गौ वंश को बचाया जा सकेगा। गौ हत्या को रोकने के विषय में घड़ियाली आँसू पिछले पचास वर्षों से बहाये जा रहे हैं । लेकिन गौ संवर्द्धन की व्यवस्था न होने से गौ-हत्या बेरोक - टोक चल रही है। इसी ही गौ सेवा की श्रद्धा पर आधारित विकास प्रक्रिया की संज्ञा दी गई है, जो निश्चय ही अधिक कारगर और विश्वसनीय होगी। यह विकास-प्रक्रिया विकेन्द्रित तो होगी ही, उसके माध्यम से व्यवस्था के और अधिक केन्द्रीकरण को जो आज की अर्थ-व्यवस्था का अभिशाप है, निरुत्साहित भी किया जा सकेगा। व्यवस्था के केन्द्रीकरण का कहर सबसे अधिक समाज के गरीबों को झेलना पड़ता है और उसका जनसामान्य द्वारा मुकाबला गौ सेवा केन्द्रित जीवन-पद्धति से ओत-प्रोत विकास - प्रक्रिया द्वारा किया जा सकता है। संवेदनाशून्य होता जा रहा हमारा समाज पुनः संवेदनशील हो चलेगा।

सिमटती हुई राज्याश्रित विकास प्रक्रिया के खाली स्थान को भरने के लिए एक और होड़ मची हुई है। जो सात समुद्र पार से प्रेरित है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को माध्यम से देश के अर्थतन्त्र का भूमण्डलीकरण अथवा अर्थव्यवस्था के उदारीकरण जैसे सम्बोधन परोक्ष में भारत की अर्थव्यवस्था पर उनके द्वारा कब्जा कर लिये जाने का उनके लिए सुनहरा अवसर प्रस्तुत करते हैं इसी परिप्रेक्ष्य में यह याद करना देश के हित में होगा कि पचास वर्षों पूर्व प्राप्त राजनैतिक आजादी आर्थिक आजादी को खो देने से स्वतः हाथ से जाती रहेगी। आज जब वह भागवत् मुहूर्त आ पहुँचा है, जब देश का आत्मगौरव जाग रहा है तथा निष्कलंक प्रज्ञावतार का अवतरण हो रहा है, गौ सेवा केन्द्रित जीवन-पद्धति के प्रचार-प्रसार के अभियान, जो गौ शालाओं के देशव्यापी जाल के स्थापित होने से ही सफल हो सकता है, को प्रभावी बनाने के लिए थोड़े - से ही प्रयास के महा फल देखने को मिल सकता है। यहीं आज देश की अर्थ-व्यवस्था को स्वतन्त्रता संग्राम का स्वरूप है, जो हर गाँव, हर खेत और हर घर से लड़ा जाना है। यह स्वतंत्रता संग्राम लहू और लोहे से नहीं वरन् प्रेम और निमार्ण की धारा बनाकर लड़ा जाना है। इसी से गौ चर केन्द्रित कृषि - व्यवस्था का प्रादुर्भाव होगा, जो देश को अन्न और जल से भरपूर कर देगा और इसी से विकसित होगी गौशाला केन्द्रित ग्रामोद्योग व्यवस्था, जो हर हाथ को रोजगार देगी। “अब गाँव वापस चलें” बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को केन्द्रीकृत विकास प्रक्रिया का मुकाबला करने के लिए देशवासियों को दिया गया युगनिर्माण मिशन का मन्त्र है जो एक बार फिर देश के सभी गाँवों को स्वायत्तता प्रदान करेगा। यह होगी वास्तव में “निष्कलंक सम्पूर्ण क्रान्ति" जो भारत से आरम्भ होकर फिर पूरे विश्व को अपना शीतल और सुखद स्पर्श प्रदान करेगी। भविष्य में पुनः जगद्गुरु का पद प्राप्त करने वाले भारत देश की आज की पीढ़ी पर यह दायित्व आ पड़ा है कि इस भागवत् मुहूर्त पर वे सोते ही न रह जाएँ। युगनिर्माण करने के पुण्य से वंचित न हो जाएँ। उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्निबोधत।

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