• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • सद्गुरु के स्वर
    • स्वप्न से आत्मबोध
    • अड़सठ तीरथ हैं घट भीतर ...
    • मन की कुसंस्कारों को छुपाना (Kahani)
    • चिर यौवन लाने को आतुर हैं ययाति की संतानें
    • दृश्य जगत की अदृश्य पहेलियाँ (Kahani)
    • जीवन-विद्या का उच्चतम सोपान- ध्यान
    • ज्ञान की रटो मत, आचरण में उतारो
    • कृत्रिम सृष्टि की दिशा में प्रयोगरत विज्ञान क्या सफल हो सकेगा ?
    • वीरमति का आत्मोत्सर्ग
    • आस्था संकट का निवारण इस तरह होगा
    • अक्षय आनन्द अध्यात्म की सर्वोपरि उपलब्धि
    • ब्रह्मविद्या का रहस्य निहित है- ब्रह्मचर्य में
    • भूलोक की कामधेनु है-गायत्री
    • मंत्र-सिद्धि का मर्म
    • स्वर्ग कहीं भूमि पर होना चाहिए (Kahani)
    • सपनों के झरोखे से मृत्यु का दर्शन
    • शाश्वत-सनातन मात्र विवेक ही है
    • सिद्धिदात्री सामर्थ्य है सविता देवता की साधना में
    • बलिदान ने जगायी संवेदना
    • यजन प्रक्रिया को सर्वांगपूर्ण बनाते हैं मंत्र
    • निर्दोष ऊर्जा स्रोत
    • ग्रामोत्थान प्रशस्त करेगा राष्ट्रोत्थान की प्रक्रिया को
    • गायत्री साधना के प्रत्यक्ष चमत्कार (Kahani)
    • निष्कलंक सम्पूर्ण क्राँति का बिगुल बज गया है
    • गायत्री परिवार की स्थापना का मूलभूत आधार - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
    • VigyapanSuchana
    • दीर्घसूत्री मत बनो
    • अपनों से अपनी बात - - महाकाल ही मंगलाचरण थिरकन को तीव्र से तीव्रतर बना रहा है
    • परिवर्तन की वेला आ पहुँची, विभूतिवान् अपने दायित्व सँभालें
    • अपरिमित सम्भावनाओं का आधार मानवी व्यक्तित्व (Kahani)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • सद्गुरु के स्वर
    • स्वप्न से आत्मबोध
    • अड़सठ तीरथ हैं घट भीतर ...
    • मन की कुसंस्कारों को छुपाना (Kahani)
    • चिर यौवन लाने को आतुर हैं ययाति की संतानें
    • दृश्य जगत की अदृश्य पहेलियाँ (Kahani)
    • जीवन-विद्या का उच्चतम सोपान- ध्यान
    • ज्ञान की रटो मत, आचरण में उतारो
    • कृत्रिम सृष्टि की दिशा में प्रयोगरत विज्ञान क्या सफल हो सकेगा ?
    • वीरमति का आत्मोत्सर्ग
    • आस्था संकट का निवारण इस तरह होगा
    • अक्षय आनन्द अध्यात्म की सर्वोपरि उपलब्धि
    • ब्रह्मविद्या का रहस्य निहित है- ब्रह्मचर्य में
    • भूलोक की कामधेनु है-गायत्री
    • मंत्र-सिद्धि का मर्म
    • स्वर्ग कहीं भूमि पर होना चाहिए (Kahani)
    • सपनों के झरोखे से मृत्यु का दर्शन
    • शाश्वत-सनातन मात्र विवेक ही है
    • सिद्धिदात्री सामर्थ्य है सविता देवता की साधना में
    • बलिदान ने जगायी संवेदना
    • यजन प्रक्रिया को सर्वांगपूर्ण बनाते हैं मंत्र
    • निर्दोष ऊर्जा स्रोत
    • ग्रामोत्थान प्रशस्त करेगा राष्ट्रोत्थान की प्रक्रिया को
    • गायत्री साधना के प्रत्यक्ष चमत्कार (Kahani)
    • निष्कलंक सम्पूर्ण क्राँति का बिगुल बज गया है
    • गायत्री परिवार की स्थापना का मूलभूत आधार - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
    • VigyapanSuchana
    • दीर्घसूत्री मत बनो
    • अपनों से अपनी बात - - महाकाल ही मंगलाचरण थिरकन को तीव्र से तीव्रतर बना रहा है
    • परिवर्तन की वेला आ पहुँची, विभूतिवान् अपने दायित्व सँभालें
    • अपरिमित सम्भावनाओं का आधार मानवी व्यक्तित्व (Kahani)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1997 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT


मंत्र-सिद्धि का मर्म

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 14 16 Last
मंत्र विद्या में दो तत्त्वों का समावेश है- (1) शब्दशक्ति का सूक्ष्म चेतना विज्ञान के आधार पर उपयोग, (2) व्यक्ति की आन्तरिक पवित्रता एवं भावोल्लास से उत्पन्न दिव्य क्षमता का समन्वय। इन दोनों के मिलन से एक तीसरी ऐसी अद्भुत शक्ति उत्पन्न होती है, जो कितने ही बड़े भौतिक साधनों से उपलब्ध नहीं हो सकती।

मन्त्रों में अक्षरों के क्रम में तथा उनके उच्चारण की विशेष विधि-व्यवस्था का ही अधिक महत्व है। कण्ठ, तालु, दाँत, होंठ, मूर्धा आदि जिन स्थानों से शब्दोच्चारण होता है, उनका सीधा सम्बन्ध मानव-शरीर के सूक्ष्म स्थानों से है। षट्चक्र, उपात्मक एवं दिव्य वादियों, ग्रन्थियों का सूक्ष्म शरीर संस्थान अपने आप में अद्भुत है। इन दिव्य वादियों, ग्रन्थियों का सूक्ष्म शरीर संस्थान अपने आप में अद्भुत है। इन दिव्य अंगों के साथ हमारे मुख यन्त्र के तार जुड़े हुए हैं। जिस प्रकार टाइपराइटर की चाबियाँ दबते चलने से ऊपर अक्षर टाइप होते चलते हैं, ठीक इसी प्रकार मुख से उच्चारण किये हुए विशेष वैज्ञानिक प्रक्रिया के साथ विनिर्मित मन्त्रगुम्फन का सीधा प्रवाह उपर्युक्त संस्थानों पर पड़ता है और वहाँ तत्काल एक अतिरिक्त शक्ति तरंगों का प्रवाह चल पड़ता है। यह प्रवाह मन्त्रविज्ञानी को स्वयं लाभान्वित करता है। उसकी प्रसुप्त क्षमताओं को जगाता है। भीतर गूँजते हुए वे मन्त्र कम्पन यही काम करते हैं और जब वे बाहर निकलते हैं, तो वातावरण को प्रभावित करते हैं। सूक्ष्म जगत में अभीष्ट परिस्थितियों की सम्भावनाओं का सृजन करते हैं और यदि किसी व्यक्ति विशेष को प्रभावित करना है तो उस पर भी असर डालते हैं। मन्त्र विद्या इन तीनों प्रयोजनों को पूरा करती है।

राडार हमारे शरीर में भी विद्यमान है और वह भी यन्त्रों द्वारा बने हुए राडार की तरह काम करता है। उसे जाग्रत, सशक्त और सक्रिय बनाने के लिए मंत्र विद्या का उपयोग किया जाता है। शब्द विद्या के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए मंत्रों के अक्षरों का चयन होता है। मन्त्र रचना कविता या शिक्षा नहीं है। शिक्षा भी उनमें हो सकती है पर वह गौण है। कविता की दृष्टि से भी मंत्रों का महत्व गौण है। प्रसिद्ध गायत्री मंत्र में 23 ही अक्षर हैं, जबकि छंद शास्त्र के अनुसार उसमें 24 होने चाहिए। इस दृष्टि से उसे साहित्य की कसौटी पर दोषयुक्त भी ठहराया जा सकता है, पर शक्तितत्त्व का जहाँ तक सम्बन्ध है, वह सौ टंच-खरा है। उसकी सामर्थ्य का कोई पारावार नहीं। साधारणतया ध्वनि चारों दिशाओं में फैलती है पर मंत्रों में शब्द इस प्रकार गुँजित होते हैं कि उसकी ध्वनि तरंगें विशेष प्रकार की हो जाती है। गायत्री मंत्र की ध्वनि तरंगें तार के

छल्ले जैसी ऊपर उठती है और यह सूक्ष्म अंतराल के प्रमाणियों के माध्यम से सूर्य तक पहुँचती है और जब यही ध्वनि सूर्य के अंतराल में प्रतिध्वनित होकर लौटती है तो अपने साथ प्रकाश अणुओं की (गर्मी, प्रकाश व विद्युत सहित) फौज जब करने वाले के शरीर में उतारती चली जाती है। साधक उन अणुओं से शरीर ही नहीं, मन और आत्मा की शक्तियों का विकास करता चला जाता है और कई बार वह लाभ प्राप्त करता है, जो साँसारिक प्रयत्नों द्वारा कभी भी संभव न हो सके।

शब्द की शक्ति पर जितना गहरा चिंतन किया जाये, उतना ही उसकी गरिमा और विलक्षणता स्पष्ट होती चली जाती है। बादलों की गरज से ऊँची इमारतें फट जाती हैं। आज की यांत्रिक सभ्यता जितना शोर उत्पन्न कर रही है, उसके दुष्परिणामों से मानव जाति को पूरी न हो सकने वाली क्षति उठानी पड़ेगी। इस तथ्य से समस्त संसार चिंतित है। अतिस्वन और जेट विमान आकाश में जितनी आवाज करते हैं उससे उत्पन्न होने वाली हानिकारक प्रतिक्रिया को सर्वत्र समझा जा रहा है और इन विशालकाय द्रुतगामी वायुयानों को कोलाहल रहित बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है।

शब्द की सामर्थ्य सभी भौतिक शक्तियों से बढ़कर सूक्ष्म और विभेदन क्षमता वाली है। इस बात की निश्चित जानकारी होने के बाद ही मंत्र विद्या का विकास भारतीय तत्त्वदर्शियों ने किया है। यों हम जो कुछ बोलते हैं, उसका प्रभाव व्यक्तिगत और समष्टिगत रूप से सारे ब्रह्माण्ड पर पड़ता है, तालाब के जल में फेंके गये कंपन की लहरें भी दूर तक जाती हैं, उसी प्रकार हमारे मुख से निकला हुआ प्रत्येक शब्द आकाश के सूक्ष्म परमाणुओं में कम्पन उत्पन्न करता है, उस कम्पन से लोगों में अदृश्य प्रेरणाएँ जाग्रत होती हैं, हमारे मस्तिष्क में विचार न जाने कहाँ से आते हैं, हम समझ नहीं पाते, पर मन्त्रविद जानते हैं कि मस्तिष्क में विचारों की उपज कोई आकस्मिक घटना नहीं, वरन् शक्ति के परतों में आदिकाल से एकत्रित सूक्ष्म कम्पन हैं, जो मस्तिष्क के ज्ञानकोषों से टकराकर विचार के रूप में प्रकट हो उठते हैं। तथापि अपने मस्तिष्क में एक तरह के विचारों की लगातार धारा को पकड़ने या प्रवाहित करने की क्षमता है।

एक ही धारा में मनोगति के द्वारा एक-सी विचारधारा निरन्तर प्रवाहित करके सारे ब्रह्माण्ड के विचार-जगत में क्रान्ति उत्पन्न की जा सकती है, उसके लिए यह आवश्यक नहीं कि उन विचारों को वाणी या सम्भाषण के द्वारा व्यक्त ही किया जाए।

‘उच्चारण’ और ‘स्वर’ में यही अन्तर है कि उच्चारण कण्ठ, होंठ, जीभ, तालु, दाँतों की संचालन प्रक्रिया से निकलता है और वह विचारों का आदान-प्रदान कर सकने भर में समर्थ होता है पर स्वर अन्तःकरण से निकलता है। उसमें व्यक्तित्व, दृष्टिकोण और भाव समुच्चय भी ओत-प्रोत रहता है। इसलिये मन्त्र को स्वर कहा गया है। वेद पाठ में उदात्त-अनुदात्त स्वरित की उच्चारण प्रक्रिया का शुद्ध होना ही इसी ओर संकेत करता है। साधना क्षेत्र में स्वर का अर्थ वाक् शक्ति के माध्यम से किये जाने वाले सशक्त जप-अनुष्ठान से ही है।

मन्त्र की जो कुछ महिमा है उसका आधार वाणी को ‘वाक्’ के रूप में परिणत कर देना है। इसके लिए मन, वचन और कर्म में ऐसी उत्कृष्टता का समन्वय करना पड़ता है कि वाणी को दग्ध करने वाला कोई कारण शेष न रहे

जाए। इतना करने के उपरान्त उसके द्वारा जपा हुआ मन्त्र सहज ही सिद्ध होता है और उच्चारण किया हुआ शब्द असंदिग्ध रूप से सफल होता है। यदि वाणी दूषित, कलुषित, दग्ध स्थिति में पड़ी रहे तो उसके द्वारा जप किये हुए मन्त्र भी जल जाएँगे और बहुत संख्या में, बहुत समय तक जप, स्तवन, पाठ आदि करते रहने पर भी अभीष्ट फल न मिलेगा।

परिष्कृत जिह्वा में वह शक्ति रहती है जिसके बल पर किसी भी भाषा का-कोई भी मन्त्र प्रचण्ड और प्रभावशाली हो उठता है। उसके द्वारा उच्चारित शब्द मनुष्यों के अन्तस्तल को असीम अन्तरिक्ष को प्रभावित किये बिना नहीं रहता। ऐसी परिष्कृत वाणी-वाक् को अध्यात्म का प्राण कह सकते हैं। उसे साधक की कामधेनु एवं तपस्वी का ब्रह्मास्त्र कहने में तनिक भी अत्युक्ति नहीं है। इसी की परिमार्जित जिह्वा को ‘सरस्वती’ कहते हैं। साधना क्षेत्र में प्रवेश करने वाले व्यक्ति को उस मन्त्र शक्ति की, दीक्षा की महत्ता समझनी चाहिए। मन्त्र की माता उसे ही मानना चाहिए, सिद्धियों का उद्गम स्थल, भगवान को द्रवित एवं प्रभावित कर सकने का माध्यम उसे ही मानना चाहिए।

मन्त्र सिद्धि में चार तथ्य सम्मिश्रित रूप से कम करते हैं- (1)ध्वनि विज्ञान के आधार पर विनिर्मित शब्द-शृंखला का चयन और उसका विधिवत् उच्चारण, (2) साधक की संगम द्वारा निग्रहित प्राण-शक्ति और मानसिक एकाग्रता का संयुक्त समावेश, (3) उपासना प्रयोग में प्रयुक्त होने वाले पदार्थ उपकरणों की भौतिक किन्तु सूक्ष्म शक्ति, (4) भावना-प्रवाह श्रद्धा, विश्वास एवं उच्चस्तरीय लक्ष्य, दृष्टिकोण। इन चारों का जहाँ जितने अंश में समावेश होगा वहाँ उतने ही अनुपात से मन्त्र शक्ति का प्रतिफल एवं चमत्कार दिखाई पड़ेगा। इन तथ्यों की जहाँ उपेक्षा की जा रही होगी और ऐसे ही अन्धाधुन्ध गाड़ी धकेली ही जा रही होगी, जल्दी-जल्दी वरदान पाने की धक लग रही होगी, वहाँ निराशा एवं असफलता ही हाथ लगेगी।

ईथर तत्त्व के परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म और अति संवेदनशील हैं। वे एक सेकेण्ड में 34 अरब तक कम्पन उत्पन्न कर सकते हैं। जब यह कम्पन चरम सीमा पर पहुँचते हैं, तो उनसे एक अखण्ड प्रकाश की किरणें निकलने लगती हैं। वैज्ञानिक प्रयोग बताते हैं कि इन किरणों में अद्भुत गतिशीलता होती है, वे एक सेकेण्ड में प्रायः एक करोड़ मील चल लेती हैं। वायु के कम्पन नष्ट हो जाते हैं, पर ईथर के कम्पनों का कभी नाश नहीं होता। वे सदा अमर रहते हैं। जैसे-जैसे वे पुराने होते जाते हैं, वैसे-वैसे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की सतह पर जाकर स्थिर हो जाते हैं। जहाँ वे बलिष्ठ होने पर अपने समानधर्मी अन्य कम्पनों को अपनी और खींचते हैं अथवा दुर्बल होने पर दूसरों की ओर खींच जाते हैं। इस प्रकार जीर्ण होने पर भी एक नई चेतना को संघ शक्ति के आधार पर जन्म देते हैं और ऐसे चुम्बकत्व का सृजन करते हैं जो उन शब्दों के साथ जुड़ी हुई चेतनाओं से मनुष्यों को प्रभावित कर सकें। यहाँ भी सहधर्मिता का नियम लागू होता है। जिन मनुष्यों के मस्तिष्क की स्थिति उन प्राचीन किन्तु संगठित शब्द कम्पन शक्ति से मिलती-जुलती होगी। असमानता की स्थिति में काई विचार या शब्द प्रभाव किसी को प्रभावित नहीं कर सकता केवल अपनी उपस्थिति का परिचय दे सकता है।

यों शरीर भी एक छोटा किन्तु पूरा विश्व है। इसमें सभी तीर्थों के बीज-पीठ विद्यमान हैं। इनमें से कोई एक अथवा एक साथ अनेक पीठों को जाग्रत एवं प्रखर बनाया जा सकता है। कोई-कोई व्यक्तित्व मूर्तिमान् शक्तिपीठ होते हैं। यही सिद्ध पुरुष मानवी चेतना में घुसा हुआ विजातीय तत्त्व है, उसे निकालने, हटाने में थोड़ा-सा ही प्रबल प्रयत्न सफल हो सकता है। साधना इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए है। साधना समर में यदि आत्म-तत्त्व बाजी ले गया तो फिर पौराणिक समुद्र मंथन में प्राप्त 14 रत्नों से भी अधिक मूल्य की अगणित दैवी सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं। उन्हें पाकर मनुष्य आप्तकाम हो जाता है फिर और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता। साधनाकाल दैवी-आसुरी संघर्षों की, तुमुल युद्ध की अवधि है। इसमें पूरे कौशल, चातुर्य एवं साहस का प्रयोग करना पड़ता है। यह युद्ध उपेक्षापूर्वक, ज्यों-त्यों करके, ढीले-पोले मन से बेगार भुगतने की तरह नहीं लड़ा जा सकता है। उसमें पूरे। मनोयोग एवं प्रबल पराक्रम की आवश्यकता पड़ती है।

साधना जब साधक का सर्वप्रिय विषय बन जाए-उसमें निरत रहने को स्वयमेव मन चले-उन क्षणों को घटाने की नहीं, बढ़ाने की ललक रहे-उपासना से उठने पर शरीर में स्फूर्ति और मन में सरसता लगे तो समझना चाहिए कि परिपक्वता आ गई और इसका श्रेयस्कर सत्परिणाम अत्यन्त सन्निकट है।

आत्मा का परमात्मसत्ता के साथ घनिष्ठ एकाकार-तादात्म्य-तन्मय होने की स्थिति को साधना की प्रखरता कहते हैं। जब दोनों का सघन मिलन होता है तो आत्म-विभोर स्थिति को समाधि कहा जाता है। आवश्यक नहीं कि उस स्थिति में योगनिद्रा अथवा मूर्छा ही आवे। ज्ञान-साधना में स्थितप्रज्ञ की-कर्म-साधना में अनासक्त कर्तव्य-परायण की, भक्ति साधना में व्यापक स्नेह सौजन्य की स्थिति प्राप्त होती है। इससे मूर्छा तो नहीं आती, पर आत्म-ज्ञान का आलोक एवं सन्तोष, समाधान का अनवरत अनुभव होता है। साधक अपने को भगवान में और भगवान को अपने में एकाकार देखता है। दोनों की इच्छाएँ एवं क्रियाएँ एक ही स्तर की होती हैं।

इन्द्रिय-संयम और मानसिक एकाग्रता की दोनों धाराएँ मिलकर मानवी विद्युत शक्ति का निमार्ण करती हैं। बिजली ठण्डे और गरम दो तारों के द्वारा प्रवाहित होती है। इसी प्रकार शरीर और मन की शक्तियों को वासना और तृष्णा में बिखरने न देने से वह सामर्थ्य जमा होती है, जिसे प्राण-शक्ति अथवा ओजस कहा जाता है। योगशास्त्र में साधना क्षेत्र के छात्रों को यह नियम बरतने का शारीरिक और मानसिक संयम बरतने की प्राथमिक तैयारी करने के लिए कहा गया है। यदि इन दोनों बड़े छेदों में होकर मानवी विद्युत नष्ट होती रहे, तो फिर मंत्र रूपी इंजन को चलाने के लिए तेल, कोयला, ईंधन कहाँ से आयेगा। मात्र शब्दोच्चारण का नाम हो तो मन्त्र साधना नहीं है।

उपार्जन काल में सात्विक आहार-विहार ब्रह्मचर्य, मौन, एकान्त सेवन, परिमार्जित दिनचर्या, मनन-चिंतन द्वारा साधना को सींचा जाता है। उसके उपरान्त उसे सस्ती प्रशंसा लूटने के लिए दिखाये जाने वाले चमत्कारों से बचाया जाता है। सिद्धियों को लोभ-मोह के उथले प्रयोजन पूरे करने में भी खर्च किया जा सकता है अपने को तथा दूसरों को आत्म-कल्याण की दिशा में प्रेरित करने के लिए भी उसका उपयोग हो सकता है। स्वल्प श्रम में अधिक भौतिक सफलताएँ पाना कर्म विज्ञान के विपरीत है। उसके लिए यदि मन्त्र शक्ति का प्रयोग किया जाएगा तो वह देर तक टिक न सकेगी और उसी खिलवाड़ में नष्ट हो जाएगी। हाँ, यदि आत्म-कल्याण के लिए उसका प्रयोग होगा तो उससे उसमें और भी तीव्रता आयेगी जैसे कि चाकू को पत्थर पर रगड़ने से उसकी धार तेज होती है और जंग छूटकर चमक आती है।

मन्त्र सिद्धि के लिए साधक के शरीर को पोषण देने वाली, उसका रक्त और ओजस बनाने वाली वस्तुओं का विशेष महत्व है। आहार से शरीर और विहार से मन परिपुष्ट होती है। पदार्थों में परिसंचालन शक्ति है जिसे स्वसंचालित शक्ति के सहारे गतिशील किया जा सकता है। कोयला, तेल और पानी में भाप बनाने की शक्ति है, पर वह आग एवं प्रयोक्ता की स्वसंचालित शक्ति के सहारे ही प्रकट हो सकती है। पदार्थों की शक्ति को भी साधनाकाल में प्रयोग किया जाता है। अनेक विधि-निषेध एवं वस्तु-प्रयोग इसी दृष्टि से बने हैं। किस मंत्र की सिद्धि के लिए किन पदार्थों से हवन किया जाए। आहार में क्या वस्तुएँ प्रयुक्त की जाएँ। पूजा के उपकरणों में किस स्तर को प्रधानता दी जाए-आदि की विधियाँ परिसंचालन शक्ति को स्वसंचालित शक्ति का साथ देने के लिए उभारने के लिए है। इंजन में भाप बनाने और उसे पहिये घुमाने में लगाने की प्रक्रिया इसी प्रकार सम्पन्न होती है।

हृदय को शिव और जिहृ को शक्ति कहते हैं। हृदय प्राण और जिहृ रयि है। हृदय को अग्नि, जिहृ को सोम कहते हैं। दोनों का समन्वय धन और ऋण विद्युत धाराओं के मिलने से जो शक्ति-प्रवाह उत्पन्न करता है, वही मन्त्र के चमत्कार रूप में देखा जा सकता है।

वाणी से उपासना करना पर्याप्त नहीं, उसे ‘वाक्’ बनाकर ही इस योग्य बनाया जा सकता है कि अध्यात्म पथ पर बढ़ते हुए साधक को कुछ कहने लायक सफलता मिल सके। आयुर्वेद में सोना, चाँदी, ताँबा, राँगा, अभ्रक, पारद आदि की भस्म बनाकर उनके सेवन का विधान है। विषों का भी बड़ा लाभ बताया गया है, पर वह सम्भव तभी होता है, जब उन विषों को विधानपूर्वक शुद्ध किया जाए। वाणी एक मूल पदार्थ है। शोधित होने पर वह अमृत बन जाति ह और विकृत होने पर विष का काम करती है। शोधित वाणी को ही ‘वाक्’ कहा गया है।

मन्त्र की शक्ति का विकास जप से होता है। जितनी अधिक घिसाई-पिसाई की जाती है उतनी ही पदार्थ की शक्ति उभरती है। ठेले को तोड़ते-तोड़ते उसे अणु की स्थिति में ले जाया जाए तो वह अणु ठेले की तुलना में अत्यधिक सामर्थ्यवान होगा। घोंटने और पीसने की प्रक्रिया बहुत समय तक चलते रहने पर ही आयुर्वेदिक दवाएँ गुणकारी होती है। बार-बार घिरने से गर्मी पैदा होती है। बार-बार रगड़ने से चमक उत्पन्न होती है। इस तथ्य को हर कोई जानता है। मन्त्र की शक्ति उसके क्रमबद्ध रूप से बहुत समय तक जप करने से उभरती है। अनुष्ठान एवं पुरश्चरण विज्ञान का यही रहस्य है।

मन्त्र की शक्ति का विकास जप से होता है। जितनी अधिक घिसाई-पिसाई की जाती है उतनी ही पदार्थ की शक्ति उभरती है। ठेले को तोड़ते-तोड़ते उसे अणु की स्थिति में ले जाया जाए तो वह अणु ठेले की तुलना में अत्यधिक सामर्थ्यवान होगा। घोंटने और पीसने की प्रक्रिया बहुत समय तक चलते रहने पर ही आयुर्वेदिक दवाएँ गुणकारी होती है। बार-बार घिसने से गर्मी पैदा होती है। बार-बार रगड़ने से चमक उत्पन्न होती है। इस तथ्य को हर कोई जानता है। मन्त्र की शक्ति उसके क्रमबद्ध रूप से बहुत समय तक जप करने से उभरती है। अनुष्ठान एवं पुरश्चरण विज्ञान का यही रहस्य है।

First 14 16 Last


Other Version of this book



Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • सद्गुरु के स्वर
  • स्वप्न से आत्मबोध
  • अड़सठ तीरथ हैं घट भीतर ...
  • मन की कुसंस्कारों को छुपाना (Kahani)
  • चिर यौवन लाने को आतुर हैं ययाति की संतानें
  • दृश्य जगत की अदृश्य पहेलियाँ (Kahani)
  • जीवन-विद्या का उच्चतम सोपान- ध्यान
  • ज्ञान की रटो मत, आचरण में उतारो
  • कृत्रिम सृष्टि की दिशा में प्रयोगरत विज्ञान क्या सफल हो सकेगा ?
  • वीरमति का आत्मोत्सर्ग
  • आस्था संकट का निवारण इस तरह होगा
  • अक्षय आनन्द अध्यात्म की सर्वोपरि उपलब्धि
  • ब्रह्मविद्या का रहस्य निहित है- ब्रह्मचर्य में
  • भूलोक की कामधेनु है-गायत्री
  • मंत्र-सिद्धि का मर्म
  • स्वर्ग कहीं भूमि पर होना चाहिए (Kahani)
  • सपनों के झरोखे से मृत्यु का दर्शन
  • शाश्वत-सनातन मात्र विवेक ही है
  • सिद्धिदात्री सामर्थ्य है सविता देवता की साधना में
  • बलिदान ने जगायी संवेदना
  • यजन प्रक्रिया को सर्वांगपूर्ण बनाते हैं मंत्र
  • निर्दोष ऊर्जा स्रोत
  • ग्रामोत्थान प्रशस्त करेगा राष्ट्रोत्थान की प्रक्रिया को
  • गायत्री साधना के प्रत्यक्ष चमत्कार (Kahani)
  • निष्कलंक सम्पूर्ण क्राँति का बिगुल बज गया है
  • गायत्री परिवार की स्थापना का मूलभूत आधार - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
  • VigyapanSuchana
  • दीर्घसूत्री मत बनो
  • अपनों से अपनी बात - - महाकाल ही मंगलाचरण थिरकन को तीव्र से तीव्रतर बना रहा है
  • परिवर्तन की वेला आ पहुँची, विभूतिवान् अपने दायित्व सँभालें
  • अपरिमित सम्भावनाओं का आधार मानवी व्यक्तित्व (Kahani)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj