
शक्ति का अनन्त स्त्रोत प्राणाग्नि करे रूप में अपने ही भीतर
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परब्रह्म को जहाँ सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, निर्विकार और निर्लिप्त कहा जाता है, वहीं उसे निष्क्रिय भी माना गया है। निष्क्रिय अर्थात् गुमसुम बैठा रहने वाला - जिसकी न कोई इच्छा है और न कोई आकाँक्षा। ऐसा ब्रह्म विश्व के सृजन और पालन का उत्तरदायित्व भला कैसे पूरा कर सकता था, इसलिए उसे जाग्रत करने की आवश्यकता पड़ी। उस आवश्यकता की पूर्ति उसकी शक्ति ने की। यह शक्ति या शिवत्व ही ब्रह्म को क्रियाशील बनाती हैं सौंदर्य लहरी - 01 में आद्यशंकराचार्य ने लिखा है -
“ शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभावित
न चेदेवं देवो नः खलु कुशलः स्पन्दितुमपि। “
अर्थात् शक्ति के साथ जुड़ जाने से ही शिव का कर्तृत्व है, उनकी सक्रियता है। अन्यथा वे हिल भी नहीं सकते। बिना शक्ति की सहायता के वे शव की तरह निष्क्रिय पड़े रहते हैं। वस्तुतः शक्ति से ही सक्रियता उत्पन्न होती है और उसी आधार पर सफलता मिलती है।
शिव की भाँति - परब्रह्म की भाँति उसका अंश आत्मा भी सर्वशक्तिमान, निर्विकार और निर्लिप्त होने के साथ - साथ निष्क्रिय भी है। सामान्य अवस्था में वह प्रसुप्त ही रहती है, तो साधारण दिखाई देने वाला मनुष्य भी असाधारण और असामान्य क्षमता सम्पन्न दिखाई पड़ने लगता है। आत्मा को प्रसुप्तावस्था से जाग्रत कर व्यक्ति को असाधारण शक्ति सम्पन्न बना देने वाली शक्ति का नाम कुण्डलिनी है। इसका स्थान काय-कलेवर में मेरुदंड के अंतिम भाग में स्थित मूलाधार चक्र माना जाता है। इस संस्थान को आँखों या वैज्ञानिक यंत्र - उपकरणों से नहीं देखा जा सकता। वहाँ तक पहुँचने और उस स्थान को उद्दीप्त कर जाग्रत करने में केवल भारतीय योग विद्या ही समर्थ है। त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद के 64वें श्लोक में उल्लेख है -
“ योगकालेन मरुता साग्निना बोधिता सती।
स्फुरिता हृदयाकाशे नागरूपामहोज्चला॥ “
अर्थात् योग - साधना से प्राण प्रयोग द्वारा प्रज्वलित अग्नि के समान इस कुण्डलिनी महाशक्ति को जाग्रत किया जाता है। वह हृदयाकाश में सर्प की गति से बिजली जैसी चमकती है।
शास्त्रकारों ने कुण्डलिनी को प्रसुप्त सर्पिणी के रूप में साढ़े तीन लपेट लगाये नीचे मुख किये विष उगलते हुए दुर्दशायुक्त स्वरूप का वर्णन किया है, साथ ही उसके जाग्रत होने पर उपलब्ध सत्परिणामों की जानकारी दी है। घेरण्ड संहिता में उल्लेख है -
“ मूलाधारे आत्मशक्तिः’कुण्डली परदेवता।
शपिता भुजगाकारा सार्ध त्रिवलयान्विताः॥ “
अर्थात्! मूलाधार में आत्मा की प्रचण्ड शक्ति रूप परमादेवी कुण्डलिनी साढ़े तीन वलय वाली सर्पिणी के समान कुण्डल मारकर सोयी है।
शिव संहिता के तेइसवें श्लोक में भी उल्लेख है कि उसी स्थान पर परमशक्ति देवी कुण्डलिनी साढ़े तीन आकृति लिए सुषुम्ना मार्ग पर अवस्थित है। योगवासिष्ठ में भी कहा गया है कि सर्पिणी की तरह कुण्डली मारकर बैठी हुई यह कुण्डलिनी प्राणियों की परमशक्ति हैं वह सब शक्तियों को जाग्रत करने वाली हैं जैसे क्रोध में भरी सर्पिणी फुसकारती रहती है। इसी से सारे शरीर में स्पन्दन होता है।
मलमूत्र छिद्रों के मध्य मूलाधार में सोई हुई कुण्डलिनी महाशक्ति इड़ा, पिंगला, और सुषुम्ना नामक तीन सूक्ष्म नाड़ियों में होकर ऊपर को उठती है और षट्चक्रों का बेधन करते हुए मस्तिष्क मध्य में स्थित सहस्रार में जा पहुँचती है ओर वहाँ प्रसुप्त पड़ी ब्राह्मीचेतना को झकझोरती है। कुण्डलिनी यदि जाग्रत नहीं है तो इड़ा और पिंगला अपने सामान्य परिवेश में ही काम करती हैं और मस्तिष्क भी उसी प्रकार सामान्य रीति से ढीले - पोले काम करता रहता है , पर जाग्रत कुण्डलिनी के आवेश को संभालना तो मस्तिष्क के लिए भी कठिन हो जाता है। फिर वह पहले की भाँति बैठा नहीं रह सकता। कुछ न कुछ उछल - कूद तोड़ - फोड़ बनाव - शृंगार उसे करना ही पड़ता है जिस व्यक्ति की कुण्डलिनी जाग जाती है, वह जाग्रत अवस्था की तरह गम्भीर निद्रावस्था में भी उतना ही सचेतन रहता है। उसकी स्वप्न ओर जाग्रत अवस्था में कोई अन्तर नहीं आता। जिस तरह वह जाग्रत अवस्था में किसी से बातचीत करता, सुनता, सोचता, विचारता, प्रेरणा देता, सहायता, सहयोग देता रहता है, उसी प्रकार स्वप्नावस्था में भी उसकी गतिविधियाँ चला करती हैं। उस अवस्था में वह किसी का भला भी कर सकता है और नयी - नयी जानकारियों के लिए अन्य ब्रह्माण्डों अर्थात् ग्रह - नक्षत्रों में सैर के लिए भी जा सकता है। जनसामान्य के लिए आश्चर्य करने वाली बात उसके लिए बिलकुल साधारण और सामान्य होती है। साधना में लीन व्यक्तियों को कभी - कभी रात में ऐसे कुछ स्वप्न भी आते हैं जिसमें उन्हें किसी भविष्य की घटना का पूर्वाभास मिल जाता है या किसी गोपनीय रहस्य का पता चल जाता है। वह कुण्डलिनी की ही शक्ति होती है।
यह पृथ्वी जिस पर हम निवास करते हैं , गोलाकार है। उसके केन्द्र में अत्यन्त प्रचण्ड गर्मी है, जिससे वहाँ की सारी वस्तुएँ और धातुएँ गली हुई तरल स्थिति में होती हैं। मूलाधार की वह गाँठ , जहाँ वर्टिब्रल कॉलम - मेरुदण्ड समाप्त होता है ओर जिसे अनेक नाड़ी गुच्छकों ने बाँध रखा है, का भेदन किया जाए तो वहाँ अत्यन्त तेजस्वी और उष्ण शक्ति मिलती है, यह कुण्डलिनी है।
जब कुण्डलिनी जाग्रत हो जाती है तो इड़ा और पिंगला समान गति से ऊर्ध्वमुखी हो जाती हैं और एक तीसरी धारा सुषुम्ना का आविर्भाव होता है। इसके जागरण से ऊर्ध्वमुखी लोकों की अनुभूति और गमन का सुख मिलता है। यह पार्थिव जगत के स्त्री - मिलन के सुख से भिन्न है। स्त्री - गमन का सुख तो क्षणिक होता है, परन्तु कुण्डलिनी जागरण का ऊर्ध्वमुखी सुख ऐसा आध्यात्मिक सुख है, जिसका रसास्वादन निरन्तर किया जा सकता है। पहला सुख जहाँ बन्धन एवं पतन का कारण बनता है वहाँ दूसरा परमानन्द एवं मोक्ष प्रदान करने वाला होता है। योगशास्त्रों एवं साधना - ग्रंथों में इसे ब्रह्म - मैथुन कहा गया है। कुण्डलिनी साधना की जब प्राप्ति होती है तो इस स्तर का आनन्द साधक को सहज ही मिलने लगता है। योगिनी तंत्र में कहा गया है -
सहस्त्रारोपरिबिन्दौ कुण्डल्या मेलनं शिवं
मैथुनं शयनं दिव्यं यातीनां परिकीर्तितम्॥
अर्थात् हे पार्वती, सहस्रार कमल में जो कुल और कुण्डलिनी , महासर्प और महासर्पिणी का मिलन है, उसी को यातियों - योगियों ने परम मैथुन कहा है।
तंत्रसार में उल्लेख है -
इड़ा पिंगलयोः प्राणान् सुषुम्नायां प्रवर्तयेत् ।
सुषुम्नाशक्ति सुदृष्टा जीवोऽयं तु पर5 शिवः।
तयोस्तु संगमे देवैः सुरतं नाम कीर्तितम्॥
अर्थात् इड़ा, पिंगला से प्राण जब सुषुम्ना में प्रवेश करता है और सुषुम्ना शक्ति तथा ब्रह्मरंध्र स्थित शिव का मिलन समागम होता है तो उसे मैथुन कहते हैं। शंकराचार्य कृत सौंदर्यलहरी में भी कुण्डलिनी शक्ति का रूपवती युवती के रूप में चित्रित किया गया है और उसके ब्रह्ममिलन को काम - कल्लोल, मैथुन सम्भोग की आलंकारिक भाषा में वर्णन किया गया है। कामधेनु तंत्र, भैरवतंत्र, त्रिपुरापनिषद् आदि ग्रंथों में भी सुषुम्ना नाड़ी को रूपवती परमसुन्दरी युवती के रूप में चित्रित किया गया और उस महाशक्ति की साधना से उत्पन्न अनुभूतियों, विभूतियों का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया गया है। पर इन भौतिक सिद्धियों एवं आत्मिक ऋद्धियों को प्राप्त करने के लिए कुण्डलिनी शक्ति जगाने का अर्थ है - अपने सूक्ष्म शरीर स्थित षट्चक्रों, पंचकोशों एवं उपत्यिकाओं को सक्रिय करना। गुण, कर्म, स्वभाव एवं चिंतन, चरित्र, व्यवहार की पवित्रता के बिना, इन्हें उच्चस्तरीय बनाये बिना यह कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता। इसलिए कुण्डलिनी जागरण की विद्या को बहुत गुप्त रखा गया है। कुण्डलिनी के दो उत्पत्ति स्थान माने गये हैं। एक सूर्य के केन्द्र में निवास करने वाली पुरुषरूपी और दूसरी स्त्री रूप में पृथ्वी केन्द्र में। पृथ्वी केन्द्र में कुण्डलिनी को प्राणधारियों की जीवन-सत्ता का केन्द्र कह सकते हैं। वास्तव में यह सूर्य कुण्डलिनी का ही बीज है। कहा जाता है किस संसार में जो कुछ भी प्रकट - अप्रकट है वह बीज रूप से मानवी काया में विद्यमान है॥ सूर्य भी कुण्डलिनी के रूप में शरीर में बैठा हुआ है और शरीर मूलाधार ग्रंथि का विकास होता है तो उसमें सूर्य का प्राण प्रतिष्ठित हो जाता है और साधना द्वारा उसकी जाग्रत अवस्था सूर्य जैसी हो जाती है। अर्थात् उसमें मनुष्य की शक्ति सूर्य जैसी प्रचण्ड शक्ति वाली, सर्वव्यापी एवं सर्वसमर्थ हो जाती है। फिर उस शक्ति का नियंत्रण करना कठिन हो जाता है। कमजोर मन और शरीर वाले उस शक्ति को धारण नहीं कर सकते।
गायत्री का देवता ‘ सविता ‘ है। ओर कुण्डलिनी की प्रतिनिधि शक्ति भी सूर्य सविता ही है। इसलिए गायत्री उपासना का सीधा प्रभाव मेरुदण्ड से होकर मलमूत्र छिद्रों के मध्य स्थित मूलाधार चक्र तक विशेष रूप से होता है। अनन्त अन्तरिक्ष से उतरने वाला सविता का प्राण - प्रवाह मस्तिष्क मध्य स्थित ब्रह्मरंध्र से होकर पहले यहीं पहुँचता है और चक्रों एवं उपत्यिकाओं के माध्यम से सारे शरीर में संचित होता रहता है। जितना अधिक साधना द्वारा विकास होता है उतना ही अधिक प्राणशक्ति का अभिवर्द्धन और उसी अनुपात से कुण्डलिनी का जागरण होता है। यह प्रकाश धीरे - धीरे नेत्र , वाणी, मुख और ललाट आदि सम्पूर्ण शरीर में ओजस्-तेजस् के रूप में चमकने लगता है। त्वचा में यही कोमलता और बुद्धि में सात्विकता एवं पवित्रता की अभिवृद्धि करता है यह क्रिया धीरे - धीरे होती है, इसलिए हानि की भी आशंका नहीं रहती। उपासक अपने आत्म-कल्याण भर के संकेत प्राप्त करता हुआ जो वास्तविक लक्ष्य है, वह जीवन - मुक्ति भी प्राप्त कर लेता है। अणिमादिक अष्ट सिद्धियों, अतीन्द्रिय क्षमताओं के प्रलोभन उसे अपने गन्तव्य मार्ग से विचलित नहीं कर पाते।
सवितालोक से आने वाले प्राण-कण यद्यपि अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं, किन्तु इतने प्रकाशमय होते हैं कि बिना दिव्य दृष्टि के भी उन्हें देखा जा सकता है। आसमान की ओर देखने पर वायु में छोटे - छोटे प्रकाश के कण अतिशीघ्रता से चारों ओर उछलते हुए दीख पड़ते हैं। ये प्राण - कण ही हैं। यह कण सात प्रकार के ईथर कणों से विनिर्मित होता है। यह प्राणकण सफेद होता है, पर ईथर के सातों अणु सात रंग होते हैं। नाभि चक्र-जिसे सोलर प्लेक्सस’ या एबडॉमिनल ब्रेन भी कहते हैं, उसमें प्रवेश करने पर यह सप्तवर्णी प्रकाश अलग - अलग रंगों वाली प्रकाश किरणों में विभक्त होकर अपने क्रिया - क्षेत्र में बँट जाता है। नीला और लाल रंग मिली हुई हलकी बैंगनी और नीली किरणें कंठ में चली जाती है। इनमें से हलकी नीली किरणें कंठ चक्र - विशुद्धि चक्र में प्रतिष्ठित हो जाती हैं। यह दोनों गले को शुद्ध रखती हैं और वाणी को मधुर बनाती हैं। कासनी और गहरी नीली मस्तिष्क में चली जाती हैं। उससे विचार, भक्ति और वैराग्य के गुणों का आविर्भाव होता है। गहरा नीला प्रकाश मगज के निचले और मध्यभाग तथा नीला रंग सहस्रार चक्र का पोषण करता है।
पीली किरणें हृदय - क्षेत्र में प्रवेश करती हैं। उससे रक्तकणों की शक्ति और स्निग्धता बढ़ती है। शरीर सुन्दर बनता है। यही किरणें बाद में मस्तिष्क को चली जाती है, जिससे विचार और भावनाओं का समन्वय होता है।
हरी किरणें पेट की अंतड़ियों में कार्य करती हैं। इससे पाचन - क्रिया सशक्त बनती है। गुलाबी किरणें ज्ञान - तन्तुओं के साथ सारे शरीर में फैलती हैं। आरोग्य की दृष्टि से इन किरणों का बहुत बड़ा महत्व है। इनकी बहुतायत वाला व्यक्ति किसी को भी हाथ रखकर अपने स्पर्श से स्वस्थ कर सकता है। बरगद, पीपल, देवदारु और यूक्लिप्टस के वृक्षों में इन किरणों की बहुतायत होती है, जिससे उनकी छाया भी बहुत आरोग्यवर्द्धक होती है। नारंगी, लाल किरणें जननेन्द्रियों तक पहुँचकर गुदा वाले रोग ठीक कर देती हैं। और शरीर की गर्मी में संतुलन रखती हैं। हलकी बैंगनी किरणें भी यहाँ आकर इस क्रिया में हाथ बँटाती हैं। यदि कामवासना पर नियंत्रण रखा जा कसे तो इन किरणों को ही मस्तिष्क में भेजकर भूत, भविष्य एवं वर्तमान का ज्ञान प्राप्त किया और दूर - श्रवण , दूरदर्शन जैसी अतीन्द्रिय क्षमताएँ जाग्रत की जा सकती है।
इस प्रकार कुण्डलिनी जागरण से व्यक्तित्व में आमूलचूल परिवर्तन आ जाता है। विकसित व्यक्तित्व ही नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम की विकास प्रक्रिया को पूर्ण बनाता है। शरीरस्थ कुण्डलिनी को इस प्रकार सूर्य कुण्डलिनी से जोड़कर हर कोई सहजता से जीवनोत्कर्ष का लाभ उठा सकता है।