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Magazine - Year 1997 - Version 2

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रहे भाव संकीर्ण अगर तो वह पूजन किस काम का?

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सोते-सोते वह अचकचा कर उठ बैठे। अभी तक उसके दिमाग में स्वप्न का दृश्य छाया था। स्वप्न भी तो अद्भुत था, जिसके प्रभाव से उन्हें अभी तक रोमांच हो रहा था। उन्हें ऐसा लगा-जैसे सोते हुए उनकी आत्मा भगवान के दिव्य धाम का दृश्य। सब कुछ स्वयंप्रकाशित सर्वेश्वर का ज्योतिर्मय तेज ही, हर कहीं प्रदीप्त हो रहा था। अपने पार्षदों, देवों और ऋषियों से घिरे भगवान मंद-मंद मुस्करा रहे थे। उन्हें ऐसा लगा मानो वेद-उपनिषद् शास्त्र सब कुछ एक साथ उनके सामने साकार हो गये हैं। हृदय में भक्ति का ज्वार उमड़ा, भावनाएँ आँसू बनकर छलक उठी। वह भगवान के चरणों में झुक गये।

वात्सल्य भरी मुस्कान के साथ उन्हें उठाते हुए भगवान कहने लगे-देवाशीष मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। इतने दिनों तुमने धरती पर रहकर त्याग और तप का जीवन जिया, जनजीवन में पवित्रता और भगवद्भक्ति का संचार किया। अब तुम्हारा कर्तव्य पूरा हुआ। शीघ्र ही तुमको हमारे दिव्यधाम में वापस आना है। परंतु तुम्हारे द्वारा प्रारंभ किया गया कार्य अनवरत जारी रहे। इसलिए अब तुम अपने स्थान पर किसी ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करो जो सच्चा मनुष्य हो।

असम के हरे-भरे पहाड़ी इलाके में वह प्रधान पुजारी थे। मंदिर के आस-पास का क्षेत्र बेहद रमणीय और सुरम्य था। उनके तपोनिष्ठ जीवन एवं भक्तिपरायणता ने इसके कण-कण में पवित्रता की सुगंध भर दी थी। हजारों श्रद्धालु रोज मंदिर में आते थे। मंदिर की ओर से पास के ग्राम में पाठशाला एवं चिकित्सालय का संचालन होता है। मंदिर के पास ही उन्होंने यात्रियों की सुविधा के लिए धर्मशाला बनवायी थी। जहाँ यात्रियों के लिए निःशुल्क भोजन की व्यवस्था थी। आस-पास के गाँवों के सभी भोले-भाले ग्रामवासी पुजारी को धर्मपिता का सम्मान देते थे। सभी के हृदयों में उनके प्रति प्यार और सम्मान की निश्छल भावनाएँ थी। परंतु परंपरावादी धर्म के ठेकेदार उनसे प्रसन्न न थे। क्योंकि पुजारी जी ने जो सभी के मन में विवेक का दिया जलाया था। उसके प्रकाश में इनके रूढ़िवाद का अंधेरा किसी भी तरह नहीं टिक पा रहा था।

आज जब उन्होंने घोषणा की कि जो व्यक्ति कल सबेरे पहले-पहल आकर मंदिर में पूजा संबंधी जाँच में ठीक सिद्ध होगा, उसे ही प्रधान पुजारी बनाया जायेगा। उसकी नियुक्ति के साथ ही वे अवकाश ले लेंगे। इस घोषणा के साथ ही अनेकों नजरें मंदिर की आमदनी पर आ टिकी। बहुत से ब्राह्मण सबेरे मंदिर पहुँचने के लिए चल पड़े। मंदिर पहाड़ी पर था। पहुँचने का एक ही रास्ता था। उस पर भी काँटे और कंकड़ पत्थर थे। सभी ब्राह्मण पहुँच गये। पुजारी जी ने सभी को आदरपूर्वक बैठाया और सबको भगवान का प्रसाद दिया। सबसे अलग-अलग प्रश्न और मंत्र पूछे गये। जब दोपहर हो गयी तो एक नौजवान ब्राह्मण वहाँ आया। उसके कपड़े फटे थे। वह पसीने से भीग गया था और बहुत गरीब जान पड़ता था। पुजारी जी ने उससे सवाल किया-तुम बहुत देर से आये।

वह नवयुवक बोला-मैं जानता हूँ। मैं केवल भगवान का दर्शन करके लौट जाऊँगा। पुजारी जी उसकी दशा देखकर दयालु हो रहे थे। बोले-तुम जल्दी क्यों नहीं आये?

उसने उत्तर दिया-घर में बहुत जल्दी चला था, मंदिर के मार्ग में बहुत काँटे थे और पत्थर भी। बेचारे यात्रियों को उससे बहुत कष्ट होता होगा। यही सोचकर रास्ते से काँटे बीनने लगा और पत्थर हटाने में जुट गया। इसी सब में काम में काफी देर हो गयी।

पुजारी जी ने उसे सिर से पाँव तक देखते हुए पूछा-अच्छा तुम्हें पूजा करना आता है। वह कहने लगा-भगवान को स्नान कराके चंदन फूल देना, धूप दीप जला देना तथा भोग सामने रखकर पर्दा गिरा देना और शंख बजाना तो जानता हूँ। पुजारी जी ने अगला सवाल किया और मंत्र?

वह उदास होकर बोला-भगवान से नहाने-खाने को कहने के लिए मंत्र भी होता है, यह मैं नहीं जानता। वहाँ बैठे हुए सब पंडित यह सुनकर हंसने लगे कि यह मूर्ख भी पुजारी बनने आया है। सभी के चेहरों पर उसके प्रति उपेक्षा, अवहेलना व अवमानना के भाव सघन हो उठे। जब कि पुजारी जी के चेहरे पर एक संतोष छलक उठा। उन्होंने एक क्षण सोचा और कहा-अब मंत्र सीख लेना, मैं सिखा दूँगा। मुझे भगवान ने स्वप्न ने कहा है कि मुझे मनुष्य चाहिए।

क्या हम लोग मनुष्य नहीं हैं? दूसरे पण्डितों ने पूछा। वे लोग पुजारी जी पर नाराज होने लगे। रौब भरे स्वर में उनमें से अनेक बोल पड़े -इतने पढ़े-लिखे विद्वानों के रहते आप एक ऐसे व्यक्ति को अपना स्थान दे रहे हैं, जो मंत्र भी न जानता हो, यह पंडितों का अपमान है।

पुजारी जी ने पण्डितों की ओर बड़ी करुणा भरी नजरों से देखा और कहा-अपने स्वार्थ की बात तो पशु भी जानते हैं। बहुत से पशुओं में चतुराई भी होती है। लेकिन सचमुच मनुष्य वहीं है जो दूसरों को सुख पहुँचाने के लिए जुटा रहता है। यहीं नहीं औरों को सुख पहुँचाने के लिए अपने स्वार्थ और सुख को छोड़ देता है। पुजारी जी की बात सुनकर पण्डितों का सिर लज्जा से झुक गया। उन्हें अपने स्वार्थ पर शर्म हो आयी। मनुष्य होना जीवन की सबसे पहली और अनिवार्य जरूरत है-यह उन्हें आज और अभी समझ में आया। वे धीरे-धीरे उठे और मंदिर के भगवान, पुजारी जी एवं नव नियुक्त पुजारी को नमस्कार करके उस पहाड़ी से नीचे उतरने लगे।

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