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Magazine - Year 1997 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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वह करुणा-सागर प्रार्थना की पुकार सुनता है

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प्रार्थना अन्तःकरण की विकल पुकार है। शुद्ध और सच्चे हृदय से की गयी प्रार्थना परमात्मा की अनन्त सामर्थ्य से एकान्त कर देती है। तभी तो असम्भव कहे और समझे जाने वाले घटनाक्रम सम्भव हो जाते हैं। क्योंकि यह प्रकृति के नियमों को चीरती हुई सीधी अपने इष्ट एवं लक्ष्य तक जा पहुँचती है। इंसान और ईश्वर के बीच की यह कड़ी-स्वयं में एक चमत्कार है। इसे देखा कम परन्तु अनुभव अधिक किया जा सकता है। प्रार्थना रूपी तरंग के माध्यम से हर पल, हर क्षण अपने आराध्य के सामीप्य की अनुभूति हृदय में होती रहती है। न केवल इसका परिणाम आश्चर्यजनक एवं अद्भुत होता है, बल्कि इससे शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शान्ति एवं आत्मिक उन्नति का पथ प्रशस्त होता है। वैज्ञानिक भी इस सत्य स्वीकारने लगें है। रोजमर्रा के जीवन में घटने वाली अनेक घटनाएँ भी इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं।

कैलीफोर्निया में मिकी नाम की महिला को गुर्दे की खराबी थी। चिकित्सकों ने उसे सचेत किया कि उसका जीवन बचना तभी सम्भव है, जब वह किसी और की किडनी ट्रांसप्लांट करवाये। अनेक कोशिशों के बावजूद किडनी के न मिल पाने के कारण सभी चिन्तित एवं परेशान थे। अन्त में उसके भाई ने उसे ईश्वर से प्रार्थना करने की सलाह दी। प्रभु की कृपा पर भरोसा रखकर वह उन्हें पुकारने लगी। इसी दौरान एक अभूतपूर्व घटना घटी। एक वयोवृद्ध व्यक्ति मरणासन्न स्थिति में किन्तु स्वास्थ्य गुर्दों के साथ चिकित्सक के पास आया और बोला कि जीवन के इस अंतिम अध्याय में मैं अपनी किडनी दान करना चाहता हूँ। संयोग से दोनों की टीश्यू टाइपिंग भी हो गयी। सभी को हैरानी हो रही थी और स्वयं पर प्रभु-कृपा का अनुभव कर मिकी की आँखों में खुशी के आँसू छलक आये। प्रार्थना से उसे नया जीवन मिला।

सच्चे दिल से निष्ठा एवं श्रद्धा सहित की गयी प्रार्थना को ईश्वर अवश्य सुनता है। यही नहीं परिस्थितियों एवं समस्याओं के अनुरूप ईश्वरीय शक्ति के आश्चर्यजनक प्रभाव भी नजर आते हैं। विख्यात मनोचिकित्सक अपने अनुसंधान-प्रयोगों में प्रार्थना की प्रक्रिया को वैज्ञानिक मानने लगें हैं। उनके अनुसार इसके द्वारा मनुष्य अपनी भावशक्ति के द्वारा अनन्त ब्रह्माण्डीय प्राणऊर्जा के स्रोतों से जुड़ जाता है और यह विश्वव्यापी प्राणशक्ति उसमें प्रवाहित होने लगती है। जिससे उसके अन्दर धैर्य, मनोबल, साहस की असाधारण अभिवृद्धि हो जाती है। इसी के बलबूते असम्भव-सम्भव बन जाता है। केनेथ एल. वुडवर्ड ने अभी हाल ही में पिछले दिनों न्यूजवीक के 31 मार्च 1997 के अंक में अमेरिका में ईश्वर पर आस्था-विश्वास बनाए रखकर प्रार्थना करने वालों की एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। इसके अनुसार अधिकतर अमेरिकन प्रतिदिन प्रार्थना करते हैं।

इस सर्वेक्षण में उल्लेख किया गया है कि 54 प्रतिशत युवा नित्य प्रार्थना करते हैं। 20 फीसदी लोगों का कहना है कि वे दिन में एक से अधिक बार प्रार्थना करते हैं। 87 प्रतिशत व्यक्ति ऐसे हैं जो प्रार्थना के चमत्कारिक परिणाम पर विश्वास रखते हैं। इनका कहना है कि उनके जीवन में ऐसी कई घटनाएँ घट चुकी हैं, जिन्हें अद्भुत व आश्चर्यजनक कहा जा सकता है। वे इसे प्रार्थना की उपलब्धि मानते हैं। 24 प्रतिशत लोग दिन में एक बार तथा 82 प्रतिशत लोग परिणाम की चिन्ता किये बगैर प्रार्थना करते हैं। 84 प्रतिशत व्यक्ति अपने बच्चों व परिवारजनों के स्वास्थ्य-संवर्द्धन के लिए नित्य भगवत् भजन करते हैं। 75 फीसदी लोग अपनी वैयक्तिक दुर्बलता से मुक्ति पाने हेतु ईश्वर-आराधना करते हैं। 73 प्रतिशत लोगों की मान्यता है कि भगवान का ध्यान नौकरी व व्यवसाय जुटाने में सफल होता है।

गैरी हैबरसन प्रार्थना पर विश्वास रखने वाले परम आस्तिक व्यक्ति हैं। वह लिबर्टी युनिवर्सिटी के दर्शन विभाग के अध्यक्ष भी हैं। सन् 1980 में उन्होंने एक प्रयोग किया। इस क्रम में उन्होंने 100 व्यक्तियों की एक सूची तैयार की, जिनमें से दस से तो उनका कोई व्यक्तिगत परिचय भी नहीं था। वह प्रतिदिन कई घण्टे उन व्यक्तियों के स्वास्थ्य, परिवार एवं व्यवसाय आदि के लिए परमात्मा से प्रार्थना करते रहें। इस प्रयोग में उन्हें उल्लेखनीय सफलता मिली। जो अस्वस्थ थे, वे स्वस्थ हुए, अनेक को व्यवसाय मिला एवं कई परिवारों में सुख-शान्ति आयी। प्रार्थना के बल पर उन्होंने अपनी 87 वर्षीया रुग्ण माता को मृत्युशय्या से जीवित कर दिया था। सन् 1995 में उनकी 23 वर्षीया पत्नी डेवी को कैंसर होने का पता चला। डेवी इस असाध्य रोग से बच तो नहीं पायी, परन्तु स्वयं प्रार्थना करते हुए अन्त समय में शान्तिपूर्वक स्वर्ग सिधार गयी। मृत्यु से कुछ पूर्व डेवी ने हैबरसन से कहा कि तुम्हारी प्रार्थना के प्रभाव से मेरे मन में गहरी शान्ति है-शरीर भी पीड़ामुक्त है। मेरे मरने के बाद भी विश्वास रखना कि प्रार्थना ही मनुष्य जीवन का सार है। इस घटना ने हैबरसन को दुःख और विषाद के बदले उच्चस्तरीय प्रेम से सराबोर कर दिया।

विख्यात विज्ञान-पत्रिका अमेरिकन साइंटिस्ट के नवम्बर-दिसम्बर 96 के अंक में प्रार्थना के प्रभावों का बड़ विस्तार से वर्णन किया है। इसके अनुसार प्रार्थना न सिर्फ रोगों को दूर करती है-कम करती है, बल्कि मानसिक प्रसन्नता भी प्रदान करती है। इसमें वर्णित प्रयोग के दौरान 33 सप्ताह के बच्चों के समूह को तीन अस्पतालों में भर्ती किया गया। इन बच्चों के स्वास्थ्य हेतु 50 सदस्यीय तीन टीमों ने प्रार्थना की। प्रथम समूह ने सिर्फ प्रार्थना की, दूरी टीम ने नजरअंदाज कर दिया, जबकि तीसरे वर्ग ने सच्चे अन्तःकरण से इन नवजात शिशुओं के लिए ईश्वर से प्रार्थना की। प्रार्थना-स्थल से अस्पताल की दूरी काफी अधिक थी। परीक्षण के पश्चात् इस रिपोर्ट का अध्ययन किया गया। इसके प्रायोगिक निष्कर्ष से सभी डाक्टरों ने किसी अदृश्य सत्ता के होने का खुला अनुमोदन किया। बहुत पहले सन् 1872 में इंग्लैण्ड के एक अस्पताल में हेनरी थामसन ने इसी तरह का एक प्रयोग किया था। उसने चार साल तक इस अस्पताल में लगातार प्रार्थना की। उसके इस प्रयास-पुरुषार्थ ने अन्य लोगों को भी उत्साहित किया एवं प्रार्थना के नियत समय पर हजारों की संख्या में लोग जुट जाते थे। इस अवधि में अस्पताल में मरने वाले रोगियों की संख्या एकाएक घट गयी। 85 फीसदी रोगी स्वास्थ्य-लाभ करते पाये गये।

वर्तमान अमेरिका की खुली उपभोक्ता संस्कृति ने वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक तथा नैतिक मानदण्डों को ताक में रख दिया है। फलस्वरूप समाज में ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा, हत्या आदि वारदातों में बेशुमार वृद्धि हुई है। अन्ततः चारों ओर से निराश-हताश व धक्का खाए हुए व्यक्ति शान्ति की तलाश में चर्च में प्रार्थना हेतु जाते पाए जाते हैं। रोमन कैथोलिक चर्च के डोर्थी रीस के अनुसार ज्यादातर व्यक्ति चर्च में अपनी ज्वलन्त समस्या के लिए ईश्वर से समाधान प्राप्त करने के लिए आते हैं। चर्च के विवरण के अनुसार हृदय रोग, यकृत पीड़ित, आमाशय कैंसर, नशाखोरी, बाँझपन तथा नौकरी की समस्या से परेशान व्यक्ति ही अधिक होते हैं। रीस का कहना है कि ऐसे लोगों की तादाद अधिक होती है, जो चारों ओर की परेशानियों से घबराए, जिन्दगी से हारे व असहाय होते हैं।

एक सर्वेक्षण के अनुसार अमेरिका के पेण्टीकोस्टल क्षेत्र के निवासियों में भगवान के प्रति अपार निष्ठा पायी जाती है। तुलसा ओखला के ओरल राबर्ट युनिवर्सिटी में विद्यार्थियों ने प्रार्थना की एक नई तकनीक निकाली। ये अपने सन्देश को पवित्र गिरिजाघरों तक पहुँचाने हेतु फोन-फैक्स तथा इंटरनेट की सहायता लेते हैं। इससे सुदूर क्षेत्रों के उन लोगों को लाभ मिलता है जो अपने पवित्र तीर्थ तक नहीं जा पाते हैं। फाउण्ड्री मेमोरियल युनाइटेड मेथोडिस्ट चर्च, वाशिंगटन में प्रति गुरुवार प्रार्थना हेतु लम्बी लाइन लगती है। अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भी इसके सदस्य हैं। उनका प्रार्थना पर अटूट विश्वास है। फाउण्ड्री मेमोरियल के फिलिप वागमेन की भगवत् भजन एवं ध्यान पर गम्भीर आस्था है। “मिरैकिल एण्ड मॉडर्न इमेजिनेशन” नामक पुस्तक के विख्यात लेखक तथा नार्थ कैरोलिना स्टेट युनिवर्सिटी के प्रोफेसर राबर्ट ब्रुशमुलीन के अनुसार प्रार्थना जीवन का महत्वपूर्ण अंग होना चाहिए। परमात्मा को सर्वशक्तिमान एवं सर्वज्ञ मानते हुए राबर्ट मुलीन का कहना है कि परमसत्ता ईश्वर को प्रार्थना के बल पर आकृष्ट किया जा सकता है। एक अदना-सा इंसान प्रेमपूर्ण भक्ति-भावना से सृष्टिकर्ता को दर्शन के लिए बाध्य कर देता है। यही सबसे बड़ चमत्कार है।

आज समूचा विश्व प्रार्थना की अनिवार्यता को स्वीकार कर रहा है। अनेक देशों में इस प्रकार की संस्थाएँ तथा स्कूल खोले जा रहे हैं, ताकि लोग ईश्वरीय श्रद्धा से सरलतापूर्वक जुड़ सकें। भारत तो अपनी सभ्यता के प्रारम्भ से ही प्रार्थना का देश रहा है। आध्यात्मिक संस्कृति के प्रणेता इस देश के मनुष्य के विकास के साथ ही सर्वहित एवं लोकहित के लिए प्रार्थनाएँ होती रहीं हैं। सर्वप्रसिद्ध गायत्री मंत्र में भी इसी की गूँज है। विश्वकल्याण के लिए की गयी इस अनोखी छन्द रचना के कारण ही इसके रचनाकार विश्वरथ से विश्वामित्र बन गये। विश्व में हर कहीं प्रत्येक श्रद्धालु को यह सत्य स्वीकार है कि परमात्मा प्रदर्शन प्रिय नहीं है। वह निस्वार्थ एवं अहंकार शून्य व्यक्ति को तलाशता है। एमौरी युनिवर्सिटी के कैण्डलर स्कूल ऑफ थियोलाॅजी की प्रोफेसर राबर्ट बोण्डी कहती हैं कि ईश्वर की उपासना सच्चे एवं पवित्र हृदय से करनी चाहिए। सच्चे आत्मिक सम्बन्ध से ही भगवत्कृपा का स्पर्श होता है। ऐसी पुकार कभी अनसुनी नहीं होती। बोण्डी की मान्यता है कि वैयक्तिक, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन को ऊँचा उठाने हेतु ईश्वर-प्रार्थना को अनिवार्य कर देना चाहिए।

“इनसाइक्लोपीडिया रिलीजन एण्ड एथिक्स” के अनुसार विश्व समुदाय में दो प्रकार की प्रार्थनाएँ प्रचलित हैं। पहले में प्रकृति की शक्तियों को प्रसन्न करने के लिए गीत गाये जाते हैं। दूसरी प्रकार की प्रार्थना में ईश्वर को पिता अथवा माँ माना जाता है। वही सारी सृष्टि का संचालक है। जे. मुनि का कहना है कि ईसाई देशों में प्रभु यीशु के इन उपदेशों का गहरा प्रभाव पड़ है, वे परमात्मा को पिता मानते हुए कहते हैं-” हे मनुष्यों ! तुम केवल अपने पिता को पुकारो, वह अवश्य जवाब देगा। केवल उसके पवित्र द्वार को खटखटाओ, वह निश्चय ही गले लगाएगा। तुम उसे खोजो और पाओगे।” जीवन के इस संक्रान्तिकाल में लाखों- करोड़ों लोग इन उपदेशों को हृदयंगम करके लाभान्वित हो रहें हैं।

प्रार्थना कैसी हो ? किस प्रकार ईश्वर पर आस्था की जाए ? इनका जवाब एक सर्वेक्षण में खोजा गया, जिसमें 80 प्रतिशत लोगों ने एकमत से स्वीकारा है कि ईश्वर स्वयं प्रमाणित हैं, उनके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। हाँ जरूरत इस बात की है कि आस्था और विश्वास कितना गहरा है ? अविश्वासी के लिए तो किसी भी प्रकार का प्रमाण अपर्याप्त है। एक प्रसिद्ध अमेरिकी वैज्ञानिक एक ऐसा ही व्यक्ति था, जो प्रार्थना आदि पर कभी विश्वास नहीं करता था। उसकी प्रसिद्ध कृति “द डेमन हंटेड वर्ल्डः साइन्स एज ए कैण्डल इन द डार्क” में इस बारे में विस्तृत वर्णन किया गया है। अभी हाल ही में उसकी मृत्यु हुई है। वैज्ञानिक सेगन का तीन बार मेरो ट्रांसप्लाण्टेशन हुआ। 1995 में जब उसे मेलोडीस्थलेशिया नामक बीमारी हुई तो उसके एक मित्र मोटार्न ने उसके स्वास्थ्य लाभ के लिए ईश्वर से प्रार्थना की। उस समय उसे जीवन में पहली बार आभास हुआ कि शरीर का संचालन कहीं और से भी होता है। शरीर तो केवल यंत्र है, एकमात्र आत्मा ही सत्य है। अपने अन्तिम समय में उसने कहा कि अब मैं मरकर प्रार्थना का विश्लेषण करूँगा । प्रार्थना का प्रभाव चमत्कारी होता है। इस बात को भले ही लायल के भूगर्भ शास्त्र एवं डार्विन के विकासवाद से न समझाया जा सके, पर यह भी एक विज्ञान है। पर हाँ यह उच्चस्तरीय विज्ञान है। प्राचीन भारतीय ऋषियों ने इसका गहन अनुसन्धान-अन्वेषण किया है। आज का विज्ञान शायद इतना उन्नत नहीं हुआ है कि इसकी सही व्याख्या प्रस्तुत कर सके। हार्वर्ड स्कूल के प्रोफेसर गार्डन काफमेन ने कहा है- मात्र बुद्धि से ईश्वर की खोज असम्भव है। इसके साथ कोमल एवं पवित्र भावनाओं का होना अनिवार्य है। काफमेन विश्व को इकोलाॅजी सिस्टम मानते हुए परमात्मा को इसका अधिष्ठाता मानते हैं। प्रार्थना की महत्ता प्रतिपादित करते हुए इनका कथन है कि जो आत्म-निरीक्षण करा सके एवं विकास के पथ पर अग्रसर कर सके, वही सच्ची प्रार्थना है। काफमेन का मत है कि प्रार्थना से अन्दर की कमियों एवं बुराइयों का निराकरण करने हेतु चिन्तन का अवसर मिलता है। ऐसी ही प्रार्थना श्रेष्ठ, सर्वश्रेष्ठ है।

न्यूयार्क जनरल थियोलॉजिकल सेमिनार के प्रोफेसर जॉन पोकिंग हार्ने के मतानुसार बीसवीं सदी के विज्ञान ने विश्व-यांत्रिकों की मौत को देखा है। वे कहते हैं कि विज्ञान कण को खोजते-खोजते ऊर्जा तरंग को स्पर्श कर गया है, जहाँ अनन्त ऊर्जा की हलचल दिखाई देती है। द्रव्य इसी ऊर्जा का रूपान्तरण मात्र है। अनिश्चितता का सिद्धान्त तो इसे और भी स्पष्ट करता है। अतः किसी ऐसी नियामक सत्ता की खोज की जा रही है, जो सृष्टि के संचालक हों। पोकिंग हार्ने ने स्वीकार किया है कि विज्ञान ईश्वर मान्यता के नजदीक आता जा रहा है। ये विश्व को भगवान का खिलौना नहीं, वरन् एक सुव्यवस्थित तंत्र मानते हैं। इसका नियंता परमात्मा अनन्त भावमय है और मनुष्य तो इसका उत्तराधिकारी है। फिर क्यों न इसकी प्रार्थना सुनी जाएगी। आस्ट्रेलिया के एडीलेड युनिवर्सिटी के सृष्टि के नियमों में किंचित् मात्र परिवर्तन भी सर्वनाश खड़ा कर सकता है। डेविस सृष्टि-व्यवस्था के इस सुसंचालन को ही सबसे बड़ चमत्कार मानते हैं। इनकी मान्यता के अनुरूप भगवान का हर कार्य आश्चर्यजनक एवं रहस्यपूर्ण है। सामान्य-जन इसे ही प्रार्थना के रूप में उद्घाटित होते हुए देखते हैं।

प्रार्थना एवं ईश्वर सम्बन्धी सारी मान्यता श्रद्धा व निष्ठा की नींव पर टिकी है। बोस्टन कालेज के थियोलॉजी विभाग के अध्यक्ष चार्ल्स हेकलिंग ने प्रार्थना से हीलिंग को अवश्यम्भावी बताया है। उनका कहना है कि प्रार्थना में अद्भुत रोग-निवारक क्षमता है। इसे एक सुविदित तथ्य के रूप में जाना जाना चाहिए। डाक्टर भी अंतिम साँसें गिनने वाले रोगी को प्रार्थना का सुझाव देते हैं। इस पर अनेक प्रयोग व परीक्षण हुए हैं। “आर्थाइटिस ट्रीटमेन्ट सेन्टर” क्लीयर वाटर (वर्जीनिया) के साठ रोगियों पर प्रार्थना द्वारा स्वास्थ्य लाभ हेतु परीक्षण किया गया। प्रयोगोपरान्त रोगियों की दर्दनाक पीड़ा व कष्ट में कमी देखी गयी । यह प्रयोग वाशिंगटन जार्ज टाउन युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन के सुविख्यात प्रोफेसर डा. जेल मैथ्यू के निरीक्षण में किया गया। डा. मैथ्यू ईश्वर पर अनन्त श्रद्धा रखते हैं तथा इस बल से अनेक रोगियों को स्वास्थ्य लाभ पहुँचा चुके हैं। वे इसे वैज्ञानिक प्रयोग मानते हैं।

डा. मैथ्यू ने अपने प्रयोग के दौरान हीलिंग प्रेयर में भाग लेने वाले रोगियों के दो समूह बनाए। दोनों टीमों को आरोग्य लाभ हेतु 6 महीनों तक प्रार्थना करायी गयी। फिर इन्हें एक-तीन-छह और बारह मास में अमेरिकन कालेज ऑफ रयुमेटालॉजी के डाक्टरों द्वारा परीक्षण कराया गया। प्रार्थना के चार सत्र के बाद मात्र आठ तक रह गया, जो कि आरम्भ प्रायः रोगियों का टेण्डर ज्वाइन्ट 49 था। 6 माह के बाद अनेक रोगी पूर्णतया स्वस्थ हो चुके थे। इसका निष्कर्ष यह निकला कि रोगी के स्वस्थ होने का अनुपात उसकी श्रद्धा-निष्ठा व ग्रहणशीलता पर आधारित होता है। अतएव विज्ञान प्रार्थना को प्रमाणित करता है।

भगवान हर प्रार्थना का प्रत्युत्तर देता है। पर श्रद्धा के अनुपात में ही इसके प्रभाव ग्रहण किये जा सकते हैं। एल्महर्स्ट कालेज इलीनायस के रोनाल्ड गोट्ज के मतानुसार ईश्वर अपनी सृष्टि के हर घटक के साथ तादात्म्य बनाए रखता है। जब एक बेजान और निर्जीव घटक भगवान से जुड़ रह सकता है, तो इंसान के अन्तर का तार क्यों नहीं इससे सम्बन्धित हो सकता है। रैबी हैरोल्ड कुशनर का कहना है कि व्यक्ति को हर परिस्थिति में ईश्वरीय नियमों पर विश्वास करना चाहिए। कभी-कभी अच्छे व्यक्तियों के जीवन में भी मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है। कुशनर का कहना है कि ऐसे समय में धैर्य और शान्तिपूर्वक ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। प्रगाढ़ निष्ठा व अनन्त श्रद्धा से की गयी प्रार्थना आत्मा और परमात्मा के बीच की अहंकार की अभेद्य दीवार को तोड़ देती है और प्रभु की कृपा के प्रवाह से सभी मुश्किलें आसान हो जाती हैं।

सचमुच भगवान करुणा का सागर है। मानवी अन्तर से उठा करुण स्वर भगवान को भाव से ओत-प्रोत कर देता है। जैक माइल्स ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ “गाड ए बायोग्राफी” में परमात्मा को करुणा और संवेदना की सजल मूर्ति के रूप में उल्लेख किया है। प्रार्थना ही इसकी प्राप्ति का एकमात्र विकल्प है। सभी धर्मों में प्रार्थना का लक्ष्य एवं उद्देश्य एक ही है। इसकी पद्धतियों में भले ही थोड़ी-बहुत भिन्नता हो। ए. वर्नर के अनुसार अफ्रीका में न्यांगा और न्योगनी जाति के लोग वर्ष-समारोह का आयोजन करते हैं। जाति का प्रमुख, वरुण देवता की विशेष पूजा-अभ्यर्थना करता है। सभी लोग मिलकर उत्साहपूर्वक पानी बरसाने की प्रार्थना करते हैं।

ठन लोगों में प्रत्येक गाँव में एक प्रार्थना पेड़ होता है, जिसके नीचे बैठकर प्रार्थना की जाती है। ग्रीकवासी खड़ा होकर दोनों हाथ जोड़ते हुए अनन्त आकाश की ओर ताकते हुए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। महिलाएँ घुटने टेक कर प्रार्थना करती है। बोनियन जाति के लोग हाथ नीचे रखकर धरती माता की प्रार्थना करते हैं। ये अपने जीवन में सुख-समुन्नति तथा समृद्धि लाने के लिए धरती माता की उपासना करते हैं। यहाँ पर तेज आवाज के साथ भगवान को पुकारे जाने की परम्परा है। हर धर्म-सम्प्रदाय के लोग अपने-अपने ढंग से उस परमात्मा की प्रार्थना करते हैं। हिन्दू मन्दिर में, मुसलमान मस्जिद में, सिख गुरुद्वारे में तथा ईसाई गिरिजाघरों में प्रार्थना करते हैं। पर सभी का एक ही मत है कि सच्चे अंतःकरण से की गयी प्रार्थना ही सफल होती है। महात्मा ईसा ने अपने शिष्यों को नित्य भोजन के समान नित्य प्रार्थना का उपदेश दिया था।

भारतीय वेद-उपनिषद् सभी भगवान को निष्काम भाव से पुकारने का उपदेश देते हैं। प्रार्थना में अपरिमित शक्ति होती है। प्रार्थना वह आग है जो शुष्क हृदय को संवेदना और भावनाओं की ऊष्मा से भर देती हैं। प्रार्थना वह जल है जो अन्तःकरण को शान्त व शीतल कर देता है तथा प्रार्थना वह प्राणवायु है, जो प्रस्तर में नवचेतना और स्पन्दन डाल देती है। अरविन्द आश्रम की माँ कहा करती थीं कि प्रार्थना के द्वारा अन्तर में आनन्द की त्रिवेणी फूट पड़ती है और अन्तःकरण प्रेम से आप्लावित हो जाता है। उनके अनुसार प्रार्थना एक ऐसा आनन्द है-जिसका रसास्वादन किसी अन्य कामना की तृप्ति से नहीं हो सकता, एक ऐसी प्रेम-पिपासा है, जिसे कोई मानवीय सम्बन्ध तृप्त नहीं कर सकता। एक ऐसी शान्ति है, जो कहीं भी-यहाँ तक की मृत्यु में भी नहीं मिल सकती। एक ऐसी ज्योति है जो किसी विज्ञान के अन्दर नहीं पायी जाती। एक ऐसा ज्ञान है, जिसे कोई दर्शनशास्त्र, कोई विज्ञान नहीं दे सकता।

अधुनातन भारत के युगद्रष्टा ऋषि स्वामी विवेकानन्द का कथन है कि प्रार्थना से सोई हुई शक्ति आसानी से जाग उठती है और सच्चे दिल से की जाए तो सभी इच्छाएँ पूरी हो सकती हैं। परन्तु सच तो यही है कि स्वार्थपूर्ण एवं कामना-वासना से लिप्त प्रार्थना की अपेक्षा क्षण भर के लिए की गयी निष्काम भाव से प्रभु की प्रार्थना श्रेयस्कर है। स्वामी जी के अनुसार हृदय से की गयी प्रार्थना होठों से की गयी प्रार्थना की अपेक्षा ऊँची होती है और उससे त्राण भी अधिक होता है। महात्मा गाँधी के अनुसार, प्रार्थना प्रातःकाल का आरम्भ तथा सन्ध्या का अन्त है। कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहते हैं-जीवन निकुँज में तुम्हारी रागिनी बजती रहे-सदा बजती रहे। हृदय कमल में तुम्हारा आसन विराजित हो-सदा विराजित हो।”

विश्वविख्यात कवि टेनिसन ने प्रार्थना को कुछ इस तरह रेखांकित किया है-मोर थिंक्स आर रॉट बाय प्रेयर देन दिस वर्ल्ड ड्रीम्स ऑफ”

निःसन्देह प्रार्थना समस्त कामनाओं की पूर्ति करती है। यही नहीं इससे शरीर, मन एवं हृदय परिष्कृत होता है। आत्म-चेतना परमात्म-चेतना से एकाकार एकात्म होती है। विश्वमानव के कल्याण के लिए धार्मिक भेदभाव से ऊपर उठकर यदि सार्वभौमिक प्रार्थना के स्वरों की खोज करनी हो, तो फिर से विश्वामित्र के स्वरों में ही गाना होगा-ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् आज मानव-जाति को सबसे अधिक आवश्यकता है तो सद्बुद्धि की-प्रार्थना करने की। उसे सद्बुद्धि प्राप्त हुई, तो यह विश्व स्वयमेव आनन्द से परिपूर्ण हो जाएगा।

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