
सबसे बड़ी पूँजी प्रामाणिकता
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भामाशाह मेवाड़ के महाराणा प्रताप के दीवान थे। वे जितने दानवीर थे, उतने ही कुशल योद्धा। उनके सद्गुणों की सुगन्ध सारे राजपूताने में संव्याप्त थी। हर काई उनके नजदीक आ जाना चाहता था। उनके साथ रहने के लिए आकुल- आतुर था। परन्तु भामाशाह का हार्दिक स्नेह ‘बिरमाजी’ के प्रति था। यों कहने को बिरमाजी उनके सामान्य अंगरक्षक थे, परन्तु दीवानजी जितना अपनत्व उनसे रखते थे, उतना शायद उनके कुटुम्बी, परिजनों को भी नसीब नहीं था। इसी कारण अन्य सेवक, अंगरक्षक, मित्र कुटुम्बी सभी मन ही मन ईर्ष्या करते थे। उन सबको आश्चर्य होता था कि बिरमाजी में ऐसा कौन सा गुण है, जो किसी में नहीं और फिर, बिरमाजी तो सुन्दर भी नहीं थे, बदसूरत थे। एकदम काले - कलूटे बैंगन जैसे चेहरे पर दाग, चपटी नाक, टेड़ा - मेड़ा सिर। आखिर क्यों अन्नदाता ने इन्हें अपने मुँह लगा रखा है ?
सभी परेशान थे। आखिर एक दिन उनसे न रहा गया तो सब सलाह - मशविरा कर दीवान जी के पास पहुँचे। इनमें से कुछ वृद्ध भी थे तो कुछ प्रौढ़ और नये भी थे। एक वृद्ध सेवक ने साहस कर कहा-
“ अन्नदाता! आज्ञा हो तो हम सब आपसे कुछ निवेदन करना चाहते हैं।
भामाशाह बोले- “ हाँ - हाँ निडर होकर कहो। “
“ बात यह हे कि बिरमाजी में ऐसी क्या विशेष योग्यता है जिसके कारण अन्नदाता ने उसे अपने निकट रहने का सुअवसर दे रखा है। इसका कारण हमारी समझ में नहीं आया इसलिए हम आपकी सेवा में आए हैं। कृपाकर हमारी जिज्ञासा शाँत करें।
यह सुनकर भामाशाह पहले तो मुस्कराए, फिर बोले - “ वह प्रामाणिक है। लेकिन यह प्रामाणिक होता क्या है, प्रामाणिकता कैसे पायी जाती है ? यह बात पास खड़े लोगों में से किसी की समझ में नहीं आयी। दीवान जी उनके चेहरे के भावों को समझ गये और मन्द स्वर में बोले - “ समय आने पर मैं तुम लोगों की जिज्ञासा शाँत करूँगा अभी तो मुझे महाराणा की सेवा में पहुँचना है। “
सभी अपने - अपने काम में लग गए। बिरमाजी अपना काम करते रहे। अपने स्वामी की सेवा में वे इतना मगन रहते कि न उन्हें भूख लगती, न प्यास, न उन्हें आराम की आवश्यकता महसूस होती, न काम करते - करते उकताहट होती । हर समय उन्हें बस अपने स्वामी के संकेत की प्रतीक्षा रहती, ताकि उनकी सेवा कर अपने सेवक -धर्म का निर्वाह कर सकें। भामाशाह का संकेत पाकर वह दौड़ - दौड़े आते और पलक झपकते ही काम पूर्ण कर लौट जाते। इसी तरह समय गुजर रहा था।
एक बार एक युद्ध की समाप्ति के बाद , मेवाड़ के दीवान भामाशाह अपनी साँड़िनी पर सवार होकर लौट रहे थे। साँड़िनी पर कई बोरे स्वर्ण - मुद्राओं से ठसाठस लदे हुए थे। उनके पीछे - पीछे बिरमाजी, सेवक, अंगरक्षक और सैनिक भी पैदल चले आ रहे थे। सभी सतर्क थे कि कहीं झाड़ी से दुश्मन न निकल आए और आक्रमण न कर दे।
शाम होने को आयी थी। मंजिल कुछ ही दूर थी। अचानक भामाशाह ने अपनी साँड़िनी रोकर पीछे मुड़कर अपने सेवकों और सैनिकों को सम्बोधन किया-
“ साथियों ! न जाने कैसे स्वर्ण - मुद्राओं से भरे एक बोरे में छेद हो गया है। न जाने कितनी देर से इस बोरे में से स्वर्ण - मुद्राएँ पीछे गिरती आ रही हैं। लगभग तीन चौथाई स्वर्ण - मुद्राएँ गिर चुकी हैं। तुम लोग चाहो तो वे स्वर्ण-मुद्राएँ एकत्र कर सकते हो। जिसे जितनी मुद्राएँ मिलेंगी वही उसका मालिक होगा। मुद्राएँ किसी से भी वापस नहीं ली जाएँगी।
यह कहकर भामाशाह ने अपनी साँड़िनी को हाँक दिया। सभी सैनिक ओर सेवक स्वर्ण -मुद्राएँ एकत्र करने में लग गए। न जाने कब से मुद्रा गिर रही थीं - यही सोचते - सोचते सभी मुद्राएँ ढूँढ़ते - ढूँढ़ते पीछे की ओर बढ़ते रहे।
कुछ देर बाद भामाशाह ने पीछे पलटकर देखा तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि बिरमाजी को छोड़कर और कोई भी सेवक या सैनिक नहीं है। दूर - दूर तक उन्हें कोई नजर नहीं आया । हाँ बिरमाजी अवश्य पसीने से लथपथ हाथ में नंगी तलवार लिए दौड़ते - हाँफते चले आ रहे हैं। यह देखकर भामाशाह मुसकराये।
भामाशाह ने बिरमाजी से पूछा,
“ सभी तो मुद्राएँ एकत्र करने चले गए, तुम क्यों पीछे आ रहे हो ? क्या तुम्हें मुद्राएँ नहीं चाहिए ?
बिरमाजी हाथ जोड़ते हुए कहने लगे, अन्नदाता! मैं तो एक मामूली सेवक हूँ और मेरा कम हर पल आपके साथ रहना है। यह खतरनाक इलाका है, दुश्मन का भरोसा नहीं। क्या पता कब घात लगाए बैठा दुश्मन आक्रमण कर दे ? या क्या पता आपको कब प्यास लग जाए ? तब ऐसे में कौन आपके लिए जल लेकर आएगा ? और आपके होते हुए मुझे स्वर्ण - मुद्राओं की क्या आवश्यकता ? मेरे लिए तो आपका आशीर्वाद ही बहुत है। “
अगले दिन ही सभी भामाशाह के महल में एकत्र हुए। सभी प्रसन्न थे। सबको ही पर्याप्त स्वर्ण - मुद्राएँ मिली थीं। तभी भामाशाह आए और बोले - “ एक बार तुम लोगों ने मुझसे पूछा था कि बिरमाजी में ऐसा क्या है, जिसके कारण मैं बिरमाजी को अपने निकट रखता हूँ। इसका उत्तर तुम्हें मिल गया होगा !
भामाशाह की बात सुनकर सभी चकित रह गए। उनकी समझ में कुछ नहीं आया तब भामाशाह नु पुनः कहा - “ कल जब हम सब युद्ध से लौट रहे थे, तब मैंने जान-बूझकर एक बोरे में छेद कर दिया था। फिर मैंने तुम सबकी परीक्षा लेने के लिए कहा था कि जो जितनी मुद्राएँ एकत्र कर सकता है कर ले। ... तुम सबके सब मुद्राएँ एकत्र करने में रह गए। तुम सब मेरे सेवक, अंगरक्षक ओर सैनिक हो। मुद्राओं के लोभ में तुम अपना कर्तव्य भूल गए। तुम यह भी भूल गए कि दुश्मन कभी भी कही से भी आक्रमण कर सकता है। लेकिन बिरमाजी अपना कर्तव्य नहीं भूले। मेरे पीछे - पीछे दौड़ते रहे।
अब आया आप लोगों की समझ में कि प्रामाणिकता क्या है ? प्रामाणिकता है लोभ और भय के सामने सर्वथा अविचलित होकर कर्तव्य पर दृढ़ रहना। बिरमाजी कर्तव्यनिष्ठ हैं, इसलिए प्रामाणिक हैं। अब तो आप लोग समझ गए होंगे कि मैं बिरमाजी को अपने निकट क्यों रखता हूँ ? यह सच है मैं बिरमाजी को बहुत प्यार करता हूँ। “ भामाशाह की बातें सुनकर सभी भौचक्के रहे गए काटो तो खून नहीं। सभी मन ही मन शरमिन्दा हुए। मन आत्मग्लानि से भर गया। तब एक वृद्ध सेवक ने हाथ जोड़कर कहा-
“ अन्नदाता ! हम सब न सिर्फ आपके अपराधी हैं, बल्कि बिरमाजी के भी अपराधी हैं। हम उनके ईर्ष्या करते थे, लेकिन आज हमारी आँखें खुल गयीं। अब हम लोग भी स्वयं को प्रामाणिक बनाने की प्राणपण से चेष्टा करेंगे। वृद्ध के इस कथन के साथ ही समूचे वातावरण में प्रामाणिकता की सुवास बिखरे लगी।