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Magazine - Year 1997 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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ज्योतिपर्व पर ‘श्री’ तत्व के माहात्म्य को समझें

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सौंदर्य एवं समृद्धि की प्रतीक ‘श्री’ अर्थात् लक्ष्मी पूजन अपने राष्ट्र की सर्वाधिक प्राचीन साँस्कृतिक परम्परा है। ज्योतिपर्व दीपावली तो इसी के लिए प्रसिद्ध है। वैदिक काल से लेकर वर्तमान काल तक लक्ष्मी का स्वरूप अत्यन्त व्यापक रहा है। ऋग्वेद की ऋचाओं में ‘श्री’ का वर्णन समृद्धि एवं सौंदर्य के रूपों में अनेकों बार हुआ है। धृतश्री, दर्शनश्री, श्री तथा श्रीनाम जैसे स्वरूपों में कहीं सौंदर्य तो कहीं समृद्धि की अभिव्यंजना हुई है। ऋग्वेदीय ऋषि जीवन में सौंदर्य एवं समृद्धि दोनों की महत्ता प्रतिपादित करते हैं। इसलिए प्रकृति के रूप या शक्तियाँ जहाँ भी मानवीकृत हुईं हैं, वहाँ सुन्दरता, प्रचुरता, ऐश्वर्य व समृद्धि की आभा बिखेरती हैं। प्रकृति की सभी देवशक्तियों में इसकी झलक नजर आती है। सूर्य स्वर्णिम आभा से अभिमण्डित है, तो उषा हिरण्यमयी है, समृद्धि प्रदात्री है। सन्ध्या की लालिमा सर्वत्र मनोहारी छटा छितराती है। अग्नि भी अपनी ओजस्विता और तेजस्विता से सबको प्रदीप्त करता है। प्रकारान्तर से सभी में ‘श्री’ का माहात्म्य जुड़ है।

शतपथ ब्राह्मण में ‘श्री’ की उत्पत्ति प्रजापति के अन्तस् से मानी गयी है। ऋग्वेद में ‘श्री’ और लक्ष्मी को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। तैत्तिरीय उपनिषद् में ‘श्री’ को अन्न, जल, गोरस एवं वस्त्र जैसी चीजें प्रदान करने वाली आद्यशक्ति के रूप में प्रतिष्ठा मिली है। यजुर्वेद में ‘श्री’ और लक्ष्मी को विष्णु की दो पत्नियाँ कहा गया है-श्रीश्चते लक्ष्मीश्चते सपत्नयो।” श्रीसूक्त में श्रीश्च लक्ष्मीश्च कहा गया है। प्रकारान्तर से सर्वव्यापी भगवान की आद्यशक्ति को ही श्री अथवा लक्ष्मी की संज्ञा दी गयी है। यजुर्वेद में श्री को उत्तम माना गया है। इसके पूर्व तीन मन्त्रों में मेधा की चर्चा है। मेधा द्वारा विकारों का छेदन होने के पश्चात् ही साधक का जीवन श्री सम्पन्न होता है। ब्रह्म और छत्र दोनों ही ‘श्री’ के अवलम्बन से विकसित हुए हैं। ब्रह्म के द्वारा ज्ञान क्षत्र के द्वारा कर्म प्रतिपादित होते हैं। मानसिक एवं शारीरिक दोनों ही कर्म स्वास्थ्य एवं सुन्दर होने के उपरान्त ही ‘श्री’ की उपलब्धि होती है। डा. अभयदेव ने अपने ग्रन्थ “वेद सविता” में उल्लेख किया है कि ‘श्री’ आत्मा की सूक्ष्मशक्ति है, तो ‘लक्ष्मी’ चरितार्थ बल।

अथर्ववेद का ऋषि पृथ्वी सूक्त में ‘श्री’ की प्रार्थना करते हुए कहता है “श्रिया माँ धेहि” अर्थात् मुझे ‘श्री’ की संप्राप्ति हो। आरण्यकों में ‘श्री’ को सोम की प्रतिक्रिया अर्थात् आनन्दातिरेक कहा गया है। ब्राह्मण ग्रन्थों में इसकी विवेचना शोभा, सुन्दरता के रूप में हुई है। वाजसनेयी आरण्यक में ‘श्री’ एवं लक्ष्मी की उत्पत्ति तो अलग-अलग की गयी है, परन्तु बाद में दोनों के मिलकर एकात्म होने का कथानक है। पुराणों में ‘श्री’ का आविर्भाव समुद्रमन्थन से बताया गया है। सामगान में ‘श्री’ के पर्याय दीप्ति, ज्योति, कीर्ति जैसे शब्दों को प्रस्तुत किया गया है।

“प्रजापति वै प्रजाः सृजमानोऽतत्यात् तस्मात् श्रान्तात तापोच्छरी रुद्रकामत् सा। दीप्यमाना भ्राजभाता लोलायनयतिष्ठत्॥

अर्थात् प्रजापति के तप के पश्चात् ही श्री का आविर्भाव होता है। बिना परिश्रम के लक्ष्मी सिद्ध नहीं होती। व्यक्ति तभी श्रीमान का पद प्राप्त कर सकता है, बेवजह शारीरिक व मानसिक सौंदर्य को नैतिक एवं आत्मिक गुणों की वृद्धि से विकसित करता है। शास्त्रकारों के अनुसार जीवन में दोनों ही गुणों को उपलब्ध करना आवश्यक है। समृद्धि सम्पन्न होने पर ही राष्ट्र, राष्ट्र के समान प्रतीत होता है। इसी वजह से “श्री र्वै राष्ट्रम्” कहा गया है। इसके सम्बन्ध में स्थापना सोम से भी की गयी है, जिसका अर्थ है- आनन्द। श्री अर्थात् सौंदर्य एवं समृद्धि के संगम में ही मनुष्य को अपने चिर-अभिलाषित आनन्द की प्राप्ति होती है।

ऋग्वेद में ‘श्री’ का विचार एवं परिकल्पना विस्तार से हुई है। इसे लगभग पचास नामों से विभूषित किया गया है। साथ ही कई वर्गों में विभाजित किया गया है। इसके सौंदर्य बोधक नाम हैं- हिरण्यवर्णा, प्रभास, सोमिता, पद्मेस्थिता, पद्मवर्णा, पद्मनेभि, आदित्यवर्णा, पद्ममालिनी, पुष्करिणी तथा सुवर्णा। इसके वैभवबोधक नाम हैं- सुवर्णास्नक, रजतस्नक, अश्वमयी, हिरण्यप्रकाश, कीर्ति, ऋद्धि, गंधद्वारा, पशुनांरूपम्, यशसो, चन्द्र। मानवीय गुणबोधक नाम है - आर्द्रो, तृप्ता, तर्पयस्वी, उदारा, पुष्टि माता-व्येतीमाता वैश्विक रूप निदर्शक नामों में- ऋषि ने श्री को ‘का’ ( प्रजापति ‘क’ है तो उसकी शक्ति हुई ‘का’) मा (प्रलयकाल में सम्पूर्ण जगत इसी आद्या में परिमित हो जाता है।) ता, ईश्वरी, सुर्यो, साय, वाच, आकृति, मनस, काय, देवजुष्टा, लक्ष्मी। इसकी अन्य अभिव्यक्तियाँ हेममालिनी, खपिंगला, यवकारिणी, निष्पपुष्टा, करोषिणी, दुराधर्ष, ज्वलन्ति, अनुपगामिनी नामों से हुई है।

श्री सूक्त में ‘श्री’ का आवाहन जातवेदस् के साथ हुआ है। जातवेदो म आवह जातवेदस् के कई निर्वाचन द्रव्यपरक भी हैं, जैसे जातवित आदि। जातवेदस् इसलिए स्वाभाविक रूप से श्री से जुड़ हुए हैं। अग्नि की तेजस्विता में भी साम्य है। आदित्यवर्णा श्री को तेजस्विनी सिद्ध करता है। श्री सूक्त में वर्णित सभी नाम लक्ष्मी तंत्र नामक ग्रन्थ में दिये गये हैं। लक्ष्मी अर्थात् सभी शुभ लक्षणों से सुशोभित। लक्ष्मी को स्वर्ण से जोड़ गया है। लक्ष्मी तंत्र में सुवर्ण का अर्थ शोभनवर्णों की सृष्टि करने वाली के रूप में हुआ है। श्री की सौंदर्य संज्ञाओं में पद्मपुष्कर का बार-बार उल्लेख हुआ है। पद्म या कमल शोभा या सौंदर्य का प्रतिमान रहा है। इसी वजह से पुराणों में लक्ष्मी या श्री कमला, कमलासन, कमलाकर आदि हैं।

विष्णु पुराण में स्पष्ट हुआ है- देवता, मनुष्य तथा पशु-पक्षी आदि योनियों में जो कुछ पुरुषवाची है, वह सब भगवान श्री हरि हैं और जो कुछ स्त्रीवाची है वह सब श्री लक्ष्मी हैं। लक्ष्मी की अभिव्यक्ति दो रूपों में देखी जाती है-श्री रूप, लक्ष्मी रूप,। दोनों के स्वरूपों में भिन्नता है। दोनों ही रूपों में ये भगवान विष्णु की पत्नियाँ हैं। श्री देवी को कहीं-कहीं भूदेवी भी कहते हैं। इसी तरह लक्ष्मी के दो स्वरूप हैं- सच्चिदानन्दमयी लक्ष्मी श्री नारायण के वक्षस्थल में वास करती हैं। दूसरा रूप है-भौतिक या प्रकृति सम्पत्ति की अधिष्ठात्री देवी का। यही श्रीदेवी या भूदेवी हैं। सब सम्पत्तियों की अधिष्ठात्री श्रीदेवी शुद्ध सत्वमयी हैं। इनके पास लोभ, मोह, काम, क्रोध और अहंकार आदि दोषों का प्रवेश नहीं है। ये स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी, राजाओं के पास राजलक्ष्मी, मनुष्य के गृह में गृहलक्ष्मी व्यापारियों के पास वाणिज्य लक्ष्मी तथा युद्ध विजेताओं के पास विजय लक्ष्मी के रूप में रहती हैं।

शास्त्रकारों ने लक्ष्मी के आठ स्वरूपों का वर्णन किया है। ये सभी स्वरूप आद्यालक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी, सौभाग्यलक्ष्मी, अमृतलक्ष्मी, कामलक्ष्मी, सत्यलक्ष्मी, भोगलक्ष्मी, व योगलक्ष्मी के नाम से प्रसिद्ध हैं। पतिप्राणा चिन्मयीलक्ष्मी, समस्त पवित्रताओं की शिरोमणि हैं। भृगुपुत्री के रूप में अवतार लेने के कारण इन्हें भार्गवी कहते हैं। समुद्रमन्थन के समय में ये ही क्षीरसागर से प्रगट हुई थीं, इसीलिए इनका नाम क्षीरोदतनया हुआ। ये पद्मिनी विद्या की अधिष्ठात्री देवी हैं। तंत्रोक्त नील सरस्वती की पीठशक्तियों में इनका भी उल्लेख हुआ है।

वैदिक वांग्मय में ऋग्वेद के ऋषि ने भौतिक समृद्धि के साथ कीर्ति-यश की कामना की है। अतः इसे भी श्री कहा जाता है। मानवीय गुणों से गुँथा हुआ है श्री का चरित्र। भक्तों को द्रवित करने से वे चन्द्रा हैं। आर्द्रा हैं क्योंकि आर्द्र अंतःकरण से भक्तों की आर्तपुकार सुनकर उनके कष्ट दूर करती हैं। भोग बिना स्वयं तृप्त हैं, इसलिए वे तृप्ता है, उन्हें माता के सदृश्य देखा जाता है। अपने वैश्विक रूप में आद्यशक्ति सृजन कर्म से जुड़ी हैं, सत्य स्वरूपा हैं। देवजुष्टा देवों द्वारा सेवित हैं। अतएव शंकर श्रीकण्ठ हैं तथा विष्णु हैं श्रीपति। अन्य नामों में ज्वलन्ती तथा दुराधर्ष महत्वपूर्ण हैं। ज्वलन्ती का तात्पर्य है- प्रज्ज्वलित होना। यह दुःख-दरिद्र को जलाकर सुख का उज्ज्वल प्रकाश बाँटती है। दुराधर्ष का अर्थ है जिसे सरलता से पाया न जा सके, जिसे पाने के लिए उद्यम करना पड़ता हो। लक्ष्मी को पाने के लिए साहस तथा तप चाहिए, तभी लौकिक साहित्य में “साहसे श्रीपति वसति” जैसी उक्तियाँ मिलती हैं। प्राचीन समय से ही लक्ष्मी का स्वरूप अत्यन्त व्यापक रहा है। श्री के आह्वान का फल सभी के सुख-सम्पन्नता को पाना है। श्री सूक्त के जप से क्रोध, मात्सर्य, अशुभमति, सब तिरोहित होने की बात कही जाती है। “न क्रोधो, न च मात्सर्य, न लोभो शुभा मतिभीति कृतापुण्यानां भक्तनां श्रीसूक्तं जपेत्।”

श्री हीन होना दरिद्र होना है। वैदिक ऋषि सभी को सुखी और समृद्ध देखना चाहते थे। सम्भवतः इसीलिए यह चिरपुरातन वैदिक ‘श्री’ शब्द वर्तमान समय तक प्रचलित है और भविष्य में बने रहने की सम्भावना है। श्री के इस नन्हें से मंत्र में मानव-व्यक्तित्व को समुन्नत, सुविकसित तथा कान्तिवान् बनाने का सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान अन्तर्निहित है। प्रत्येक पुरुष व महिला के नाम के साथ श्रीमान-श्रीमती व कुमारिकाओं के लिए सुश्री शब्द का प्रयोग हमारी प्राचीन परम्पराओं की ओर संकेत करता है। यह मंगलसूचक शब्द है। मनुष्य के नाम के पहले श्री को जोड़ने का भाव हमारी शुभकामनाओं तथा सद्भावनाओं को अभिव्यक्त करता है। ऋषि का उद्घोष है कि सब श्रीमान या श्रीयुक्त बनें तथा सर्वतोमुखी प्रगति की दिशा में निरन्तर बढ़ते रहें।

मानव-जीवन में सत्यम्-शिवम् एवं सुंदरम् की आराधना व उपासना होती है। ‘श्री’ में इन तीनों भावों का अपूर्व समायोजन मिलता है। “श्रिंसर्वेयाम्” से निष्पन्न यह शब्द आश्रय-स्वभाव को समेटे हुए है। यह सुख-शान्ति और आनन्द का स्रोत बहा देता है। व्यक्तित्व के नैतिक भाव, मांगलिक भाव एवं सौंदर्य को उजागर करने का नाम ही श्री की उपासना है। यह मात्र समृद्धि का सूचक ही नहीं वरन् इसमें बाह्य एवं आन्तरिक सौंदर्य का भाव भी अभिव्यंजित होता है। बाह्य सौंदर्य शारीरिक स्वस्थता का परिचायक है, तो आन्तरिक सौंदर्य ओजस्-तेजस् और वर्चस् से परिपूर्ण रहता है। श्री सम्पन्न व्यक्तित्व के चारों ओर एक विशिष्ट प्रभामण्डल दृष्टिगोचर होता है। ऐसे व्यक्ति सदा भौतिक सम्पन्नता व आन्तरिक शान्ति से ओत-प्रोत रहते हैं। मानव-जीवन के अस्तित्व की सार्थकता श्री के प्रति आस्था-विश्वास-उद्यम एवं प्रयत्नशील रहने में है। श्री का स्वरूप साहस और कर्मठता से झलकता है। श्री के बाह्य रूप में जहाँ ललित कलाएँ, काव्य, चित्रकला आदि समाहित है, तो आन्तरिक सौंदर्य में यही चरित्रनिष्ठा, श्रद्धा बनकर उभरती है। इन दोनों के सन्तुलित समन्वय से ही मानव-व्यक्तित्व का विकास उत्तुंग शिखर तक पहुँचने में समर्थ होता है।

लक्ष्मी पुराण में श्री के निवास का उल्लेख हुआ है। लक्ष्मी कहती हैं- जो मनुष्य मितभाषी, कार्यकुशल, क्रोधहीन, शान्त, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय और उदार है उनके यहाँ मेरा निवास है। सवारी, कन्या, आभूषण, यज्ञ, जल से पूर्ण मेघ, फूले हुए कमल, शरद ऋतु के नक्षत्र, हाथी, गायों के रहने के स्थान, राजा, सिंहासन, सज्जन पुरुष, विद्वान, ब्राह्मण, क्षत्रिय, सेवापरायण किसान के यहाँ लक्ष्मी विराजती हैं।

अकर्मण्य, नास्तिक, कृतघ्न, आचारभ्रष्ट, नृशंस, चोर, उद्धत, कपटी, बुद्धिवीर्यहीन पुरुष इसके दुश्मन माने जाते हैं। आज श्यामा श्री अर्थात् काले धन की उपासना की जा रही है। सारी दुनिया इसी श्यामा श्री के पीछे भागती नजर आ रही है। इसे प्राप्त करने के लिए मानव, मानवीयता की हर सीमा का अतिक्रमण कर चुका है। लोग तिकड़मबाज़ी, चोरबाजारी, शोषण व असत्य के सर्वव्यापी रूपों में ऐश्वर्य की कामना करते हैं। इसकी स्थापना मिथ्या भाषण, वासना, दीनता, विश्वासघात, कृतघ्नता, सुरापान, लोभ व अश्लीलता के साम्राज्य में की गयी है। परन्तु यह क्षणिक चमक पैदा करके तिरोहित हो जाती है।

दस महाविद्याओं में पहली तीन अर्थात् काली, तारा, षोडशी ही सर्वप्रधान क्रियाएँ मानी जाती हैं। इन तीनों से ही नौ विद्याएँ और एक पूरक विद्या मिलाकर दस महाविद्याएँ होती हैं। मूल एक से तीन होती है। सर्वमूलभूत एक विद्या ही श्री विद्या है। श्रीविद्या ही ललिता, राजराजेश्वरी, महात्रिपुरसुन्दरी, बाला, पंचदशी और षोडशी इत्यादि नामों से विख्यात है।

श्रीविद्या शब्द से श्रीत्रिपुरसुन्दरी का मन्त्र तथा उसकी अधिष्ठात्री शक्ति दोनों का बोध होता है। सामान्यतया श्री शब्द से लक्ष्मी तत्व का अर्थ स्पष्ट होता है। परन्तु हरितायन संहिता ब्रह्मपुराणोत्तर खण्ड आदि पुराणों में वर्णित कथाओं के अनुरूप ही श्री शब्द महात्रिपुरसुन्दरी को स्पष्ट करता है। श्री महालक्ष्मी ने महात्रिपुरसुन्दरी की चिरकाल तक आराधना कर अनेकानेक वरदान प्राप्त किये । उनमें से श्री भी एक है। इसके उपरान्त ही श्री शब्द को महालक्ष्मी से

जोड़ जाने लगा। यह अर्थ गौड़ है। महात्रिपुरसुन्दरी की प्रतिपादिका विद्यामन्त्र ही श्रीविद्या है। इस मन्त्र का अधिष्ठाता देवता भी श्रीविद्या है। प्रचलित मान्यतानुसार श्री शब्द श्रेष्ठता का बोधक है। सर्वकारणभूता त्रिपुरेश्वरी सर्वज्ञान सम्पन्न ब्रह्मस्वरूपिणी होने के कारण केवल श्री शब्द से व्यवहृत होती हैं। “सा हि श्रीरमृतासताम्” इत्यादि श्रुति इसी पर ब्रह्म-स्वरूपिणी विद्या की स्तुति करती है।

श्री विद्या के उपासकों को लौकिक तथा पारलौकिक दोनों फलों का लाभ मिलता है। हरितायन संहिता त्रिपुरारहस्य माहात्म्य खण्ड के चतुर्थ अध्याय में महामुनि संवर्तन परशुराम को उपदेश देते हुए कहते हैं कि श्रीविद्या ही आत्मशक्ति है। स्वतंत्र तंत्र में उल्लिखित है कि स्वात्मा ही विश्वात्मा ललिता देवी है। उनका विमर्श ही उनका रक्तवर्ण है और इस प्रकार की भावना ही उनकी उपासना है। श्रीविद्या राजराजेश्वरी पंचदेवासन पर विराजमान् हैं। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर और सदाशिव ये पंच महादेव हैं। श्रीविद्या का ही नामान्तर त्रिपुरा है। वही आत्मशक्तिरूपिणी श्रीविद्या जब लीला से शरीर धारण करती हैं जब वेद शास्त्र उनका निरूपण करने लगते हैं। अखिल प्रमाणों की प्रदात्री वही शक्ति चित्तशक्ति के नाम से व्यवहृत होती है। उनके लीला-विग्रहों का महात्म्य भी अनन्त है। श्री शंकर भगवत्पादाचार्य ने अपने सौंदर्य लहरी स्त्रोत में इसे इस प्रकार निरूपित किया है- त्वदन्यः पाणिभ्यामभयवरदो दैवतगणस्त्वमेका नैवासि प्रकटितवराभीत्यभिनया। भयात्त्रातुं दातुं फलमपि च वाच्छांसमधिकं शरण्ये लोकानां तव ही चरणावेव निपुणौ॥

प्राचीन शास्त्रों में श्रीविद्या के बारह उपासकों का नाम आता है- मनु, चन्द्र, कुबेर, लोपामुद्रा, कामदेव, अगस्त्य, अग्नि, सूर्य, इन्द्र, स्कन्ध (कार्तिकेय) शिव और क्रोधभट्टारक (दुर्वासा)।

ऋग्वेद के नासदीय सुक्त में वर्णित है कि संसार के आविर्भाव से पूर्व गहन अंधकार था एवं इसी अंधकार के गर्भ से जगत के संवर्तन के समय प्रथम ऊषा का उद्भव हुआ। ऊषा का यह उद्भव ही श्री कहलाया। छान्दस् भाषा में इसका अर्थ है शोभा, अर्थात् जो सुन्दर, रूपमय एवं आह्लादकारी है। पौराणिक मतानुसार श्री का यही रहस्य ज्ञान श्रीविद्या है। यह विद्या यंत्र एवं मंत्र के रूप सूत्रबद्ध हैं। यंत्रों को देवता का शरीर और मंत्रों को देवता की आत्मा कहते हैं। इसी सृष्टिबीज रूपी मूल विद्या को पुराणकाल में लक्ष्मी के रूप में प्रतिपादित किया गया है। लक्ष्मी या श्री जल सम्भवा हैं। सृष्टि का आरम्भ जल से हुआ, जिससे जीव व वनस्पति जगत का प्रादुर्भाव हुआ। कमल और लक्ष्मी को इसी का प्रतिनिधि माना गया है।

इस सृजन की कथा को श्रीयंत्र के ज्यामितीय प्रतीक रेखाचित्रों के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। किसी भी रचना का विस्तार बिंदु से प्रारम्भ होता है। बिन्दु ही बीजशक्ति है। इससे आकार और स्वरूप का निर्धारण होता है। पंचमहाभूतों में से बिन्दु आकाश तत्व का संकेत करता है। बिन्दु का सर्वप्रथम विस्तार त्रिभुज के रूप में हुआ। यही सत-रज-तम के रूप में त्रिगुणात्मक सत्ता को प्रदर्शित करता है। तंत्रशास्त्र में इस त्रिकोण के तीन बिन्दु महासरस्वती, महालक्ष्मी, व महाकाली को अभिव्यक्त करते हैं। इस तंत्र के सबसे अन्दर वृत के केन्द्रस्थ बिन्दु के चारों ओर नौ त्रिकोण हैं। इनमें से पाँच त्रिकोण ऊर्ध्वमुखी त्रिकोण देवी के द्योतक हैं तथा शिवयुवती कहे जाते हैं। अधोमुखी त्रिकोण को शिव और श्रीकण्ठ के नाम से जाना जाता है। पाँच शक्ति त्रिकोण ब्रह्माण्ड के विषय में पंचमहाभूतों, पंच-तन्मात्रा पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंच कामेन्द्रियाँ व पंचप्राणों के द्योतक हैं। चारों शिव त्रिकोण चित्त, बुद्धि, अहंकार तथा मन के रूप में स्थित हैं।

सुविख्यात श्री यंत्र त्रिपुरसुन्दरी का यंत्र है। इसे यंत्रराज अथवा सर्वश्रेष्ठ यंत्र भी कहते हैं। इससे ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति व विकास का संकेत मिलता है। आदि गुरु शंकराचार्य ने सृष्टिक्रम के रूप में इस यंत्र का उल्लेख किया है। उन्होंने तिरूपति बालाजी में श्रीयंत्र की स्थापना की थी। अपनी आनन्द लहरी में इसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है-

चतुर्भिः श्रीकण्ठैःशिवयुतिभिः पंचभिरपि प्रभिन्नाभिः शम्भोर्नवभिरपि मूलप्रकृतिभिः। त्रयश्चत्वारिंशद्वसुदलकलाश्रत्रिवलय त्रिरेखाभिः सार्थं नव शरण (भवन) कोणाः परिणताः॥

रुद्रयामल तंत्र में श्रीयंत्र के नौ चक्रों को इस क्रम से क्रमबद्ध किया गया है, बिन्दु, त्रिकोण, आठ त्रिकोण का समूह, दस त्रिकोणों का समूह-1, दस त्रिकोणों का समूह-2, चौदह त्रिकोणों का समूह, अष्टदल कमल, सोलहदल कमल और भूपुर। इन नौ चक्रों का नाम यथाक्रम है- (1) सर्वानन्दमय (2) सर्वसिद्धिप्रद (3) सर्वरक्षाकर (4) सर्वरोगहर (5) सर्वार्थसाधक (6) सर्वसौभाग्यदायक (7) सर्वसंक्षोभण (8) सर्वशायरिपूरक (9) त्रैलोक्य मोहन।

श्री यंत्र का सरल अर्थ है गृह। गृह ही सब वस्तुओं का नियंत्रण व नियमन करता है। आदि गुरु शंकराचार्य ने भी श्रीयंत्र का उदाहरण देते हुए नव शरण कोणाः परिणताः द्वारा यंत्र के अर्थ में गृहवाचक शरण पद का ही प्रयोग किया है। सम्भवतः इसी वजह से उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत में स्थित श्रीनगर नामक स्थान के की भी सार्थकता सिद्ध होती है। इन नगरों में श्रीविद्या के उपासक अधिक संख्या में थे। श्री का तत्त्वज्ञान रखने वालों का तो यह मत है कि यह सकल विश्व ही श्रीविद्या का गृह है। श्रयते या सा श्रीः अर्थात् श्रेयस् ही श्री है। परमात्मा से उसकी शक्ति श्री भी सर्वथा अभिन्न है। तभी तो आगम ग्रन्थ में कहा गया है- न शिवेन बिना देवी न देव्या च बिना शिवः। नानयोरन्तरं किंचिद्धचन्द्रिकयोरिव॥

श्री के कारण ही ब्रह्म को अनन्त शक्ति अथवा सृष्टि, स्थिति और पालन करने वाला कहते हैं। श्रीयंत्र ब्रह्माण्ड, पिण्ड दोनों का ही रहस्यबोध कराता है। यह विषय अपने आप में अतीव गहन एवं अनन्त विस्तार समेटे है। संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है बस इस श्रीयंत्र में निराकार ईश्वर की साकार लीला रेखांकित की गयी है। इसमें सृष्टि तथा जीवन का विकासक्रम एवं शैव-शक्त तत्वों का सुन्दर स्पष्टीकरण मिलता है। त्रिपुरतापिनी उपनिषद्, त्रिपुरापनिषद्, ललितासहस्रनाम, तंत्रराज, कामकला विकास में इसका विस्तृत विवरण हुआ है।

‘श्री’ शक्तिस्वरूपा है। प्रकारान्तर से यही श्रीविद्या एवं श्रीयंत्र का आधार है। इसकी आराधना, उपासना से लौकिक और पारलौकिक सुख, ऐश्वर्य व आनन्द प्राप्त होता है। यों तो इसकी नित्य अर्चना शुभ फलदायी है। पर ज्योतिपर्व दीपावली तो जैसे इसका महोत्सव है। यह इसके तत्त्वज्ञान को समझने एवं रहस्यमय उपलब्धियों को पाने का पर्व है। इस अवसर पर श्रद्धा, निष्ठा एवं विश्वासपूर्वक की गयी श्री उपासना जीवन में सुख, समृद्धि एवं सौंदर्य की निरन्तर अभिवृद्धि करने वाली हो।

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