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Magazine - Year 1998 - Version 2

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सेवा का मर्म रूप

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हममें सेवा करने की चाहत तो है, परंतु हमारे हृदय में इससे कहीं अधिक ललक अपने नाम और ख्याति की है। सेवा-धर्म-प्रेम का मार्ग है। प्रेम में व्यापार नहीं होता, पर हम एक व्यवसायी की भाँति प्रेम के वशीभूत हो सेवा कहाँ करते हैं? हम तो एक प्रकार से अहसान करते हैं। जितना करते हैं, उससे अधिक उसका अहंकार करते हैं। सेवा-साधना तो अपने को समाज का अंग मानकर उसके लिए अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करना भर है। यह कोई अतिरिक्त अनुदान नहीं, जो हम समाज को देते हैं। हमारी भावना तो यह रहती है, मानो हम किसी को ऋण दे रहे हों। हम सेवा के लिए समय-साधनों आदि का विनियोग करते हैं। उन्हें इस दिशा में लगाने की क्षमता का विकास भी करते हैं, किन्तु अपनी निश्छल भावना का उपयुक्त विकास करना चूक जाते हैं।

हम सेवाकार्य में त्याग करते हैं, पर त्याग के अभिमान को नहीं छोड़ते। अभिमान के कारण भेद एवं विश्रृंखलताएँ उत्पन्न होती हैं केवल तप, त्याग और बलिदान के द्वारा ही उन्हें हटाया जा सकता है।

क्या हमारे हृदय में सात्विक भावना मौजूद है? समाज, सभाएँ, आश्रम सभी कुछ मौजूद हैं। ये सब अपना-अपना काम कर रहे हैं। समाजसेवा का कार्य जो भी, जैसा भी और भी जितना भी होता है, वह अच्छा ही है। परन्तु दुःखी प्राणियों और पीड़ित वर्ग की गुप्त सेवा करने वाले लोग कहाँ हैं? हमारे हृदय में निर्धनों और निर्बलों के प्रति प्रेम एवं आदर का अभाव है। यह ठीक है कि बहुधा सेवा अपने से कम साधन वालों की ही की जाती है। पर इसका यह अर्थ तो नहीं कि उन्हें हीन तथा तिरस्कृत माना जाए। यह भाव रहते सेवा तो कभी हो ही नहीं सकती। जब हम यह मानें कि इनका भी कुछ हक है जो इन्हें मिलना चाहिए, तभी सेवा की सार्थकता है अन्यथा भ्रान्त दृष्टिकोण से तो अहंकार ही बढ़ेगा।

कुछ व्यक्ति आध्यात्मिक जीवनयापन करते देखे तो जाते हैं, पर गरीबों-असहायों को शीतल छाया बिलकुल भी नहीं देते। इस सजला, सुफला, शस्यस्यामला भारतभूमि पर लाखों नर-नारी अन्न-वस्त्र दवा-दारु सेवा-सहायता के बिना आए दिन तड़प-तड़प कर अपने प्राण गँवा रहे हैं और हम अपने नाम, प्रतिष्ठा और अधिकार के मद में उस ओर देखते तक नहीं। परहित के लिए हड्डियाँ तक दे डालने वाले दधिचि जैसे ऋषियों की भूमि में गुप्तदान और गुप्त-सेवा आदि की पवित्र, सात्विक भावनाओं के प्रति आदर क्या एकदम उठ गया? लगता है-त्याग निस्पृहता एवं संवेदना अब इस जगत में नहीं रही। परन्तु परमात्मप्रेम की ज्योति आज भी बुझी नहीं है। वह परम ज्योति जितने अन्तःकरणों को छू सके, उनमें प्रकाशित हो सके, प्रज्ज्वलित हो सके, उतना ही शुभ होगा। इस शुभ में ही सेवा का मर्म निहित है

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